Book Title: Namokar Mantra ka Mahatmya evam Prabhav
Author(s): Ravindra Jain
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार मन्त्र का माहात्म्य एवं प्रभाव | (डॉ. श्री रवीन्द्रकुमार जैन) पृष्ठाधार : पमोकार मंत्र का अंग सा बन गया और इसके आधार पर महामन्त्र अनादि-अनन्त णमोकार महामन्त्र के माहास्य का अर्थ है। को नवकार मन्त्र अर्थात् नौ पदोंवाला मन्त्र भी कहा जाता है। उसकी महती आत्मा (आत्मशक्ति) अर्थात् अंतरंग और मूलभूत इसी महत्वाङ्कन की परम्परा में मंगलपाठ का और भी विस्तार शक्ति | इसी को हम उस मन्त्र का गौरव, यश और महत्ता कहकर हुआ है | चार मंगल, चार लोकोत्तर और चार शरण का मंगलपाठ भी समझते हैं। यह मूलतः आत्म-शक्ति का, आत्म-शक्ति के लिए होता ही है । ये चार हैं - अरिहन्त, सिद्ध, साधु और केवली-प्रणीत और आत्म-शक्ति के द्वारा अपरिमेय काल से कालजयी होकर, धर्म । इसमें आचार्य और उपाध्याय को धर्म प्रवर्तक प्रचारक वर्ग समस्त सृष्टि में जिजीविषा से लेकर मुमुक्षा तक की सन्देश के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया गया है अतः खुलासा उल्लेख नहीं तरंगिणी का महामन्त्र है । इस मन्त्र की महिमा का जहाँ तक प्रश्न है । कभी कभी अल्पज्ञता और अदूरदर्शिता के कारण ऐसा भी है वह तो हमारे समस्त आगमों में बहुत विस्तार के साथ वर्णित कतिपय लोगों को भ्रम होता है कि आचार्य और उपाध्याय को है । यह मन्त्र हमारी आत्मा की स्वतन्त्रता अर्थात् उसकी सहजता संसारी समझकर छोड़ दिया गया है । वास्तव में ये दो परमेष्ठी को प्राप्त कराकर उसे परमात्मा बनाने का सब से बड़ा, सरलतम धर्म की जड़ जैसी महत्ता रखते हैं। इन्हें कैसे छोड़ा जा सकता है? और सुन्दरतम साधन है। यही इसकी सब से बड़ी महत्ता है। इस पाठ द्रष्टव्य हैके पश्चात् हमारी समस्त सांसारिक उलझनें तो इस मन्त्र के द्वारा चार - मंगल : चत्तारि मंगलं. अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, अनायास ही सुलझती चली जाती हैं। पारिवारिक कलह, शारीरिक साहू मंगलं, केवली पण्णत्ता धम्मो मंगलं ।। मानसिककरुणता, निर्धनता, अपमान, अनादर, सन्तानहीनता आदि चार-लोकोत्तम : चत्तारि लोगोत्तमा, अरिहंता लोगोत्तमा, बातें भी इस महामन्त्र के द्वारा अपना समाधान पाती हैं | आशय यह है कि यह मन्त्र मानव को धीरे धीरे संसार में रहकर संसार सिद्धा लोगोत्तमा को कैसे जीतना है यह सिखाता है और फिर मानव में ही ऐसी साहू लोगोत्तमा, केवली पण्णत्तो धम्मो लोगोत्तमा।। आन्तरिक शक्ति उत्पन्न करता है कि मानव स्वतः निर्लिप्त और चार - शरण : चत्तारि शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं निर्विकार होने लगता है। उसे स्वात्मा में ही परम तप्ति का पवज्जामि सिद्धा शरणं पवज्जामि अनुभव होने लगता है । अतः इस महामन्त्र के भी शारीरिक और साहू शरणं पवज्जामि, केवली पण्णत्तं धम्मं शरणं आत्मिक धरातलों को पूरी तरह समझकर ही हम इसकी सम्पूर्ण पवज्जामि ॥ महत्ता को समझ सकते हैं । अर्थात् - चार चार का यह त्रिक जीवन का सर्वस्व है। आगमों में वर्णित मन्त्र-माहात्म्य : चार मंगल हैं - ये हैं - अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, णमोकार महामन्त्र द्वादशाङ्ग. जिनवाणी का सार है। वास्तव साधु परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म | में जिनवाणी का मूल स्रोत यह मन्त्र है ऐसा समझना न्यायसंगत चार लोकोत्तम हैं - अरिहंत परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, साधु है। यह मन्त्र बीज है और समस्त जैनागम वृक्ष-रूप हैं | कारण पहले होता है और कार्य से छोटा होता है । यह मन्त्र उपादान परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । कारण है। चार - शरण इस संसार से पार होना है तो ये चार ही सबलतम शरण (रक्षा के आधार हैं - प्रायः समस्त जैन शास्त्रों के प्रारम्भ में मंगलाचरण के रूप में प्रत्यक्षतः णमोकार महामन्त्र को उद्धृत कर आचार्यों ने उसकी अरिहंत, परमेष्ठी, साधु-परमेष्ठी और केवली प्रणीत धर्म । लोकोत्तर महत्ता को स्वीकार किया है. अथवा देव. शास्त्र और गरु के नमन द्वारा परोक्ष रूप से उक्त तथ्य को अपनाया है । यहाँ पर एसो पञ्चणमोकारो - गाथा की व्याख्या आचार्य सिद्धचन्द्र कुछ प्रसिद्ध उद्धारणों को प्रस्तुत करना पर्याप्त होगा। गणि ने इस प्रकार की है - एषः पञ्चनमस्कारः प्रत्यक्षविधीयमानः इस महामन्त्र की महिमा और उपकारकता पर यह प्रसिद्ध पञ्चानामर्हदादीनां नमस्कारः प्रणामः । पद्य द्रष्टव्य है स च कीदृशः सर्वपाप प्रणाशनः । सर्वाणि च तानि पापानि च एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो । सर्वपापानि इति कर्मधारयः । सर्व • मंगलाणं च सव्वेसि, पढ़म हवइ मंगलं ॥ पापानां प्रकर्षेण नाशनो विध्वंसकः अर्थात् यह पंच नमस्कार-मन्त्र समस्त पापों का नाशक है, सर्वपाप प्रणाशनः, इति तत्पुरुषः । समस्त मंगलों में पहला मंगल है, इस नमस्कार मन्त्र के पाठ से सर्वेषां द्रव्यभाव भेदभिन्नानां मंगलानां समस्त मंगल होंगे । वास्तव में मूल महामन्त्र तो पंचपरमेष्ठियों के प्रथममिदमेव मङ्गलम् । नमन से सम्बन्धित पाँच पद ही हैं। यह पद्य तो उस महामन्त्र का मंगलपाठ या महिमा-गान है । धीरे-धीरे भक्तों में यह पद्य भी श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८०) एक वस्तु को देखते, भिन्न भिन्न सब लोग । जयन्तसेन परिगति वश, योग भोग या रोग ।। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः सर्वेषां मङ्गलानां - मङ्गलकारकवस्तूनां हमारा सदा मंगल करें । अष्ट कर्मों के नाशक, अशरीरी, परम दधिदूर्वाऽक्षतचन्दननारिकेल पूर्णकलश स्वस्तिकदर्पण भद्रासनवर्धमान - निर्विकार सिद्ध परमेष्ठी हमारा सदा मंगल करें । जिन शासन की मत्स्ययुगल श्रीवत्स नन्द्यावर्तादीनां मध्ये प्रथमं मुख्य मंगलं मङ्गल सर्वतोमुखी उन्नति जिनके द्वारा होती है और जो स्वयं शास्त्रीय कारको भवति । यतोऽस्मिन् पठिते जप्ते स्मृते च सर्वाण्यपि मर्यादा के अनुसार चरित्र पालन करते हैं। ऐसे आचार्य परमेष्ठी मङ्गलानि भवन्तीत्यर्थः । तथा समस्त शास्त्रों के ज्ञाता और श्रेष्ठतम प्राध्यापक परम गुरु कि अर्थात् - यह पंच नमस्कार मन्त्र सभी प्रकार के पापों को उपाध्याय परमेष्ठी हम सब का सदा मंगल करें | समस्त मुनि संघ नष्ट करता है । अधमतम व्यक्ति भी इस मन्त्र के स्मरण मात्र से के ये सर्वोच्च अध्यापक होते हैं। रलत्रय (सम्यक् दर्शन - ज्ञानपवित्र हो जाता है । यह मन्त्र दधि, दुर्वा, अक्षत, चन्दन, नारियल, चारित्र्य) की निरन्तर आराधना में लीन परम अपरिग्रही साधु पूर्णकलश, स्वस्तिक, दर्पण, भद्रासन, वर्धमान, मस्त्ययुगल, श्रीवत्स, परमेष्ठी हम सब का मंगल करें। नन्द्यावर्त आदि मंगल वस्तुओं में सर्वोत्तम है । इसके स्मरण और किसी भी व्यक्ति या वस्तु की महानता उसमें निहित गुणों के जप से अनेक सिद्धियां प्राप्त होती हैं। कारण ही मानी जाती है । फिर ये गुण जब स्व से भी अधिक पर स्पष्ट है कि इस परम मंगलमय महामन्त्र में अद्भुत लोकोत्तर कल्याणकारी अधिक होते हैं तभी उनकी प्रतिष्ठा होती है । इस शक्ति है । यह विद्युत तरंग की भांति भक्तों के शारीरिक, एवं कसौटी पर पंच परमेष्ठी बिल्कुल खरे उतरते हैं । जन्म, मरण, आध्यात्मिक संकटों को तुरन्त नष्ट करता है और अपार विश्वास रोग, बुढ़ापा, भय, पराभव, दारिद्र्य एवं निर्बलता आदि इस और आत्मबल का अविरल संचार करता है । वास्तव में इस महामन्त्र के स्मरण एवं जाप से क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । महामन्त्र के स्मरण, उच्चारण या जप से भक्त की अपनी णमोकार मन्त्र के माहास्य वर्णन को समझ लेने पर फिर और अपराजेय चैतन्य शक्ति जग जाती है। यह कंडलिनी (तेजस अधिक समझने की आवश्यकता नहीं रह जाती है - शरीर) के माध्यम से हमारी आत्मा के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान अपवित्रः पवित्रो वा, सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । और अनन्त वीर्य को शाणित एवं सक्रिय करता है । अर्थात् आत्म- ध्यायेत पंच नमस्कार, सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥ साक्षात्कार इससे होता है। अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थां गतोऽपि वा । पंच परमेष्ठियों की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उनसे यःस्मरेत् परमात्मानं स बाह्याम्यन्तरः शुचिः ।। २ ।। जन-कल्याण की प्रार्थना इस प्रसिद्ध शार्दूल विक्रीडित छन्द में की अपराजित मन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । गयी है"अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ।। ३ ।। आचार्याजिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ॥ विघ्नौधाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः | विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ।। ४ ।। श्री सिद्धान्त सुपाठका मुनिवरा रत्लत्रयाराधकाः मंत्र संसार सारं त्रिजगदनुपमं सर्वपापारि मन्त्रं, पंचैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम्" जिनशासन में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, संसारोच्छेद मन्त्रं विषम विषहरं कर्म निर्मूल मन्त्रम् । इन पाँचों की परमेष्ठी संज्ञा है । ये परम पद में स्थित हैं अतः मन्त्र सिद्धि प्रदानं शिव सुख जननं केवलं ज्ञान मन्त्रम् । परमेष्ठी कहे जाते हैं | चार घातिया कर्मों का क्षय कर चकनेवाले मन्त्रं श्रीजैन मन्त्र जप जप जपितं जन्म निर्वाण मन्त्रम् ॥ ५ ॥ इन्द्रादि द्वारा पूज्य, केवल ज्ञानी, शरीरधारी होकर भी जो विदेहावस्था आकृष्टिं सुर - सम्पदां विदधते मुक्तिश्रियो वश्यतां, में रहते हैं, तीर्थङ्कर पद जिनके उदय में हैं, ऐसे अरिहन्त परमेष्ठी उच्चाटं विपदां चतुर्गतिभुवां विद्वेषमात्मैनसाम् । स्तम्भं दुर्गमनंप्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम्, आठ विभिन्न विधाओं की पुस्तकों का प्रकाशन | लगभग पायात् पंचनमक्रियाक्षरमयी साराधना देवता ।। ६ ।। दो सौ शोध व साहित्यिक कृतियों अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मम् वाचकं परमेष्ठिनः का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सिद्ध चक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।। ७ ।। प्रकाशन । अभी तक बारह अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । पुस्तकों की रचना । पच्चीस तस्मात् कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।। ८॥ शोधार्थियों का पी.एच.डी. हेतु ★★★ मार्गदर्शन । बत्तीस वर्ष तक वंदों पांचों परम गुरु सुर गुरु वन्दन अध्यापन कार्य। जास। सम्प्रति - मद्रास विघ्न हरन मंगल करन, पूरन परम विश्वविद्यालय की हिन्दी संकाय डॉ. रवींद्र कुमार जैन में य.जी.सी.की ओर से प्रिन्सीपल प्रकाश ॥ ९ ॥ एम.ए., पी.एच.डी., इन्वेस्टीगेटर। उक्त पद्यों का मथितार्थ यह है - शास्त्री, साहित्य रल, संपर्क : १३, शक्तिनगर, पंच नमस्कार महामन्त्र का काव्यतीर्थ, डी.लिट् स्मरण अथवा पाठ करनेवाला श्रद्धाल पल्लवरम, मद्रास-४३. भक्त पवित्र हो, अपवित्र हो, सोता श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (८१) जीना सबको प्रिय लगा, जीवन करो प्रदान । जयन्तसेन कुशल सदा, ऐसा राष्ट्र विधान ।। Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो, जागता हो, उचित आसन में हो, न हो फिरभी वह शरीर और बलवती एवं चैतन्य युक्त बनाने की प्रेरणा पाते हैं। मत्र हमारा मन के (बाहरी-भीतरी) सभी पापों से मुक्त हो जाता है / उसका आदर्श है - हमारी भीतरी शक्तियों को जगाने और क्रियाशील शरीर और मन अद्भुत पवित्रता से भर जाता है। मानव का यह बनाने वाला / शरीर लाख प्रयल करने पर भी सदा अनेक रूपों में अपवित्र रहता राम हम अपने नित्यप्रति के संसार में जब किसी बीमारी, ही है, प्रयत्न यह होना चाहिए कि हमारी ओर से पवित्रता के प्रति राजनीतिक संकट, शीलसंकट, पारिवारिक संकट एवं ऐसे ही अन्य सावधान रहा जाए। इस शरीर से भी हजार गुना मन चंचल होता संकटों से घिर जाते हैं और घोर अकेलेपन का. असहायता का है और पाप प्रवृत्ति में लीन रहकर अपवित्र रहता है। केवल अनुभव करते हैं, तब हम क्या करते हैं ? रोते हैं, चीखते हैं और णमोकार मन्त्र की पवित्रतम शरण ही इस जीव को शरीर और मन / कभी-कभी घुटकर आत्महत्या भी कर लेते हैं / या फिर राक्षस भी की पवित्रता प्रदान करती है। यह मन्त्र किसी भी अन्य मन्त्र या बन जाते हैं। पर ऐसी स्थिति में एक और विकल्प है अपने रक्षकों शक्ति से पराजित नहीं हो सकता, बल्कि सभी मन्त्र इसके आधीन और मित्रों की तलाश | अपनी भीतरी ऊर्जा की तलाश / हम हैं / यह मन्त्र समस्त विघ्नों का विनाशक है / समस्त मंगलों में मित्रों को याद करते हैं, पुलिस की सहायता लेते हैं - आदि आदि / प्रथम मंगल के रूप में सर्व-स्वीकृत है / महत्ता और कालक्रम से इसी अकेलेपन के सन्दर्भ में - सहायता और आत्म-जागरण की इसकी प्रथमता सनिश्चित है / इस मन्त्र के प्रभाव से विघ्नों का तलाश में हम अपने परम पवित्र ऋषियों, मनियों एवं तीर्थंकरों के दल, शाकिनी, डाकिनी, भूत, सर्प, विष आदि का भय क्षण भर में महान कार्यों और आदर्शों से प्रेरणा लेते हैं / मन्त्र तो अन्ततः प्रलय को प्राप्त हो जाता है। अनादि अनन्त हैं | तीर्थंकरों ने भी इनसे ही अपना तीर्थ पाया है। जा यह मन्त्र समस्त संसार का सार है | त्रैलोक्य में अनुपम है जब हमें किसी मंगल की, किसी लोकोत्तम की शरण लेनी है, तो और समस्त पापों का नाशक है / विषम विष को हरनेवाला और स्वाभाविक है कि हम महानतम को ही अपना रक्षक और आराध्य कर्मों का निर्मलक है। यह मन्त्र कोई जादू टोना या चमत्कार नहीं बनायेंगे और हमारा ध्यान - हमारी दृष्टि महामन्त्र णमोकार पर ही है, परन्तु इसका प्रभाव निश्चित रूप से चमत्कारी होता है / प्रभाव जाएगी। की तीव्रता और अनुपमता से भक्त आश्चर्य-चकित होकर रह स्वयं की संकीर्णता और सांसारिक स्वार्थान्धता को त्यागकर जाता है / यह मन्त्र समस्त सिद्धियों का प्रदाता, मुक्ति सुख का हमें अपने ही विराट में उतरना होगा-तभी महामन्त्र से हमारा दाता है, यह मन्त्र साक्षात् केवल ज्ञान है | विधिपूर्वक और भाव भीतरी नाता जुड़ेगा। महामन्त्र तक पहुँचने के लिए हमें मन्त्र सहित इसका जाप या स्मरण करने से भी सभी प्रकार की लौकिक- (शुद्ध-चित्त) तो बनाना ही होगा। अन्ततः इस महामन्त्र के माहाल्य अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं / इससे समस्त देव सम्पदा एवं प्रभाव के विषय में अत्यन्त प्रसिद्ध आर्षवाणी प्रस्तुत है - वशीभूत हो जाती है | मुक्तिवधू वश में हो जाती है / चतुर्गति के "हरइ दुहं, कुणइ सुहे, जणइ जस सोसए भव समुदं / सभी कष्टों को भस्म करनेवाला यह मन्त्र है / मोह का स्तम्भक और विषयासक्ति को समाप्त करने वाला है | आत्मविश्वास को इह लोए पर लोए, सुहाण मूलं णमुक्कारो।" प्रबलता देनेवाला तथा सभी स्थितियों में जीव मात्र का परम मित्र अर्थात् यह नवकार मन्त्र दुःखों का हरण करनेवाला. सखों का है। "अह" यह अक्षर युगल साक्षात् ब्रह्म है / और परमेष्ठी का प्रदाता, यश दाता और भवसागर का शोषण करने वाला है। इस वाचक है | सिद्धियों की माला का सद्बीज है / मैं इसको मन, लोक और परलोक में सुख का मूल यही नवकार है। वचन और काय की समग्रता से प्रणाम करता हूँ। हे जिनेश्वर रूप "भोयण समये समणे, वि बोहणे - पवेसणे - भये - बसणे / महामन्त्र मुझे आपके अतिरिक्त कोई अन्य उबारनेवाला नहीं है। पंच नमुक्कारं खलु, समरिज्जा सव्वकालंपि।" आप ही मेरे परम रक्षक हैं / इसलिए पूर्ण करुणाभाव से हे देव ! या अर्थात् भोजन के समय, सोते समय, जागते समय, निवास मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए / स्थान में प्रवेश के समय, भय प्राप्ति के समय कष्ट के समय इस मथितार्थ : महामन्त्र का स्मरण करने से मन वांछित फल प्राप्त होता है। / सम्पूर्ण निबन्ध का सार यह है कि महामन्त्र णमोकार पर महामन्त्र णमोकार मानव ही नहीं अपितु प्राणी मात्र के भक्तों का अटूट विश्वास है - तर्कातीत शंकातीत विश्वास है / इहलोक और परलोक का सब से बड़ा रक्षक एवं निर्देष्टा है / इस उनके मन्त्र संबंधी अनुभव तार्किकों और नास्तिकों को मिथ्या लोक में विवेक पूर्ण जीवन जीते हुए मानव अपना अन्तिम लक्ष्य - अथवा आकस्मिक लग सकते हैं। आत्मा की विशुद्ध अवस्था इस मन्त्र से प्राप्त कर सकता है- यही मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि हम मनो-विज्ञान इस मन्त्र का चरम लक्ष्य भी है। और अध्यात्म को तो मानते ही हैं / कम से कम मानसिकता और "जिण सासणस्स सारो, चदुरस भावनात्मकता को तो मानते ही हैं | साहित्य के श्रृंगार, करुण, पुण्याण जे समुद्धारो। वीर, रौद्र, आदि नव रसों को भी अपने जीवन में घटित होते जस्स मणे नव कारो, संसारो तस्स देखते ही हैं / यह सब मूलतः और अन्ततः हमारे मनोजगत् के किं कुणइ / " अर्जित एवं सर्जित भावों का ही संसार है। अर्थात् नवकार जिन शासन का मन्त्रों को और विशेषकर इस महामन्त्र को यदि हम पारलौकिक सार है चौदह पूर्व का उद्धार है / शक्ति से न भी जोडे तो भी इतना तो हमें मानना ही होगा कि हमे यह मन्त्र जिसके मन में स्थिर है चित्त की स्थिरता, दृढ़ता और अपराजेयता के लिए स्वयं में ही संसार उसका क्या कर सकता है? गहरे उतरना होगा और दूसरों के गुणों और अनुभवों से कुछ। अर्थात् कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सीखना होगा | बस महामन्त्र से हम स्वयं की शक्तियों को अधिक श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (82) देख अवर की संपदा, द्वेष न ईर्ष्या भाव। जयन्तसेन महान वह, रहे न उस का घाव ||