Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
णमोकार ग्रन्थ
समीक्षक मुंशी सुमेरचन्द जैन
जैनधर्म के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के २५०० परिनिर्वाण महोत्सव की परिकल्पना में आस्था का दीप प्रज्ज्वलित करने की भावना से आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज ने दीपमालिका (वीर निर्वाण सम्वत् २४६९ ) के अवसर पर इस ग्रन्थ का
-मुक्ति-द्वार की ओर इंगित करने वाली कृति
प्रकाशन कराया था ।
आचार्य श्री को प्रायः धर्म प्रवचन से पूर्व अथवा जिन दर्शन के पश्चात् मन्दिरों के शास्त्र भण्डार के अवलोकन का जन्मजात संस्कार रहा है। श्री दिगम्बर जैन मन्दिर जी वैदवाड़ा, दिल्ली के शास्त्र भण्डार का निरीक्षण करते हुए उन्हें ढूंढारी और खड़ीबोली दोनों में मिश्रित यह दुर्लभ प्रति प्राप्त हुई थी। इसी ग्रन्थ की एक अन्य प्रति उन्हें श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर श्री कूंचा सेठ में प्राप्त हुई। आचार्य श्री ने दोनों प्रतियों को आधार मानकर इस ग्रन्थ का सम्पादन किया था ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक दिल्ली निवासी श्री लक्ष्मीचन्द्र वैनाड़ा (खंडेलवाल गोत्रिय ) हैं । ग्रन्थ के प्रशस्ति लेख से ज्ञात होता है कि इसके प्रणयन के समय भारतवर्ष में सम्राट् जार्च पंचम का शासन था और महानगरी दिल्ली में जैन समाज की विशिष्ट स्थिति थी । भगवान् महावीर स्वामी के २५०० परिनिर्वाण महोत्सव वर्ष से एक वर्ष पूर्व ही इस विशालकाय ग्रन्थ को सम्पादित करने के पीछे एक निश्चित पृष्ठभूमि रही थी और वह यह कि इसके द्वारा वे जैन समाज में चेतना एवं आत्मविश्वास का मंत्र फूंकना चाहते थे । २५०० वें परिनिर्वाण महोत्सव के महान् शिल्पी युगद्रष्टा ऋषि श्री देशभूषण जी के मन में यह भावना थी कि णमोकार मन्त्र के माध्यम से समाज की सुप्त शक्ति को जगाया जा सकता है। वैसे भी णमोकार मन्त्र के स्मरण एवं उच्चारण से जैन समाज में अद्भुत शक्ति एवं स्फूर्ति का सदा से संचार होता आया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में दो अधिकार हैं- प्रथम में णमोकार मन्त्र और उससे सम्बद्ध पंच परमेष्ठियों का वृहद् स्वरूप निरूपण है और दूसरे में मुक्ति के द्वार रत्नत्रय का विशद विवेचन हुआ है। आचार्य श्री की वास्तविक इच्छा यह रही होगी कि २५०० वें परिनिर्वाण महोत्सव में श्रावक समुदाय एवं जनसाधारण को मंगलकारी 'णमोकार मंत्र' का परिज्ञान हो जाए और साथ ही मुमुक्षु आत्मकल्याण के निमित्त रत्नजय को जीवन एवं आचरण का अंग बना ले।
प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन में आचार्य श्री ने मूल ग्रन्थ के अनुवाद के साथ-साथ प्रायः सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर सारगर्भित व्याख्याएं एवं टिप्पणियां देकर ग्रन्थ को जनसाधारण के लिए उपयोगी एवं ग्राह्य बना दिया है।
आचार्य श्री के अनुसार मानव जीवन के उत्थान में णमोकार मन्त्र एक वरदान सिद्ध हो सकता है । मन्त्र का पाठइस प्रकार है
૪
अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो और लोक में सर्वसाधुओं को नमस्कार हो । इस महामन्त्र में पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।
इस अनादि, अनिधन, अपराजित मन्त्र में ३५ अक्षर हैं और वह पंच परमेष्ठियों के स्वरूप को लिए हुए हैं। इस मन्त्र में किसी भी कामना की अभिव्यक्ति नहीं है। फिर भी इसके स्मरण एवं उच्चारण से सभी सिद्धियां स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं। जैन धर्मानुयायियों की दृष्टि में यह एक अलौकिक मन्त्र है । इस महामन्त्र की महत्ता का गान शताब्दियों से इस प्रकार गाया जाता है
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥
एसो पंच णमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्र्व्वेसि पढम हवइ मंगलं ।।
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रत्थ
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________ यह नमस्कार मन्त्र संसार में सारभूत है। तीनों लोकों में इसकी तुलना के योग्य कोई दूसरा मन्त्र नहीं है। यह समस्त पापों का शत्रु है। संसार का उच्छेद करने वाला है। विषम विष को दूर करने वाला है। कर्मों को जड़ मूल से नष्ट करने वाला है / अतएव सिद्धि का देने वाला है, मुक्ति सुख का जनक है और केवलज्ञान का समुत्पादक है। अतएव इस मन्त्र का बार-बार जाप करना चाहिए क्योंकि यह कर्म परम्परा का विनाशक है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम अधिकार के 67 पृष्ठों में पंचपरमेष्ठियों का पावन स्मरण, अरहन्त भगवान् में न उत्पन्न होने वाले अष्टादश दोष, अरहन्त भगवान् के 46 गुण, विशिष्ट गुणों के कारण जिन भगवान् के 1008 नामों का पवित्र स्मरण एवं भक्तिपूर्वक वन्दन किया गया है। प्रथम अधिकार के शेष 68 से 85 तक के पृष्ठों में आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय परमेष्ठी एवं साधु परमेष्ठी के स्वरूप का वर्णन करते हुए साधु धर्म की आचरण संहिता के महत्त्वपूर्ण अंगों यथा षडावश्यक, पाँच महाव्रत, पंच समिति, छियालीस दोप, बत्तीस अन्तराय, चौदह मलदोष एवं पंचेन्द्रिय निरोध का विशद रूप से वर्णन, उपाध्याय परमेष्ठी एवं साधु परमेष्ठी के प्रसंग में जैनधर्म शास्त्रों के पावन अंगों एवं समर्थ साधुओं में दृष्टि होने वाली ऋद्धियों का विस्तारपूर्वक विवेचन भी किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के 'रत्नत्रय' नामक द्वितीय अधिकार में जैन आचार, दर्शन, तत्त्व चिन्तन एवं सृष्टि संबंधी विषयों-सम्यग्दर्शन, जीवतत्त्व, संसारत्व, सिद्धत्व, सात तत्त्व, षोडश भावना, दशधर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परिषह, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, श्रावक की तिरेपन क्रिया और लोक के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। द्वितीय अधिकार में तिरेसठ शलाका महापुरुषों (24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 6 नारायण, बलभद्र, 6 प्रतिनारायण), 6 नारद, चौबीस कामदेव और समर्थ आचार्य अकलंक देव, कुन्दकुन्द इत्यादि का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया है। महापुरुषों के जीवन की प्रमुख घटनाओं का कथा रूप में उल्लेख भी किया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ के प्रेरक एवं रोचक प्रसंगों को मार्मिक चित्रों के रूप में यथावत् प्रस्तुत करके इसे जन-जन के लिए उपयोगी बनाने का आचार्य श्री ने सफल प्रयास किया है। इस ग्रन्थ के सम्पादन में रस-निमग्न होकर आचार्य श्री ने अपना प्राप्य अर्थात् मुक्तिद्वार का रास्ता पा लिया था। किन्तु समर्थ आचार्यों को युगधर्म का निर्वाह भी करना पड़ता है। इसी कारण आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन के समय 'दो शब्द' में अपने मनोभाव को प्रकट करते हुए कहा था, "णमोकार ग्रन्थ पाठकों को देते हुए परम आनन्द का अनुभव हो रहा है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रन्थ के पठनपाठन और मनन-चिन्तन से सभी पाठकों को लाभ होगा और वे जैनधर्म के सिद्धान्तों को भली प्रकार समझ सकेंगे। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में हमारी भावना यही रही है।" आशा है, जैन समाज आचार्य श्री द्वारा संपादित इस महान् कृति के भावों को जीवन में उतारकर अपने मनुष्य जन्म को सफल बनायेंगे। सृजन-संकल्प