Book Title: Mevad me Virval Pravrutti
Author(s): Nathulal Chandaliya
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --------------0--0--0-0--0--0-0-0-or-o-o-g 000000000000 000000000000 0-0-0-0-0--0------------ जैन धर्म मूलतः जातिवाद-विरोधी रहा है। आचार की श्रेष्ठता के गज से ही उसने मानव की श्रेष्ठता नापी है। मेवाड़ में हिंसा-प्रधान व्यवसाय करने वाली खटीक जाति को अहिंसा-व्यवसायी बनाकर उसने अपने ऐतिहासिक-विरुद को साकार बना दिया है। यहां पढ़िए वीरवाल प्रवृत्ति के संदर्भ में अहिंसक समाज रचना की प्रवृत्तियों का १ दिग्दर्शन। ممممم 0 श्री नाथूलाल चण्डालिया, कपासन [प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता] -o------------------------------------ अहिंसक समाज रचना का एक प्रयोग मेवाड़ में वीरवाल प्रवृत्ति जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान है। अहिंसा को यदि हटा दिया जाए तो जैन धर्म का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा, हिंसा मानव का निजी स्वभाव नहीं होते हुए भी वैकारिक वातावरण तथा कई तरह के लालचों के सन्दर्भ में मानव हिंसक बन जाता है। भारत में कई जातियां तो केवल ऐसी बन चुकी हैं कि जिनका दैनिक व्यवसाय ही हिंसा है । अस्वाभाविक हिंसा भी निरन्तरता तथा लगाव के कारण स्वभाव सी बन बैठी है, जिन जातियों का व्यवसाय नितान्त हिंसा से ओत-प्रोत है उनमें खटीक जाति का नाम प्रमुख है। खटीकों में हिंसा व्यावसायिक रूप धारण कर बैठी है। जैनधर्म दया और अहिंसा का सन्देश देता है। जिनका खटीक जाति के मौलिक संस्कारों से कोई मेल नहीं किन्तु यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि उपचार सर्वदा उपरि ही हो सकता है । चाहे वह कितना ही घुलमिल क्यों न जाए, हिंसा मानव स्वभाव में उप चरित है । आरोपित है, यह स्वभाव नहीं चाहे वह फिर कितनी ही क्यों नहीं फैल जाए । एक मनस्वी संत ने इस तथ्य को पहचाना । उनका नाम श्री समीर मुनिजी है। उन्होंने खटीक समाज में अहिंसा का विगुल बजाने का निश्चय किया। अथक श्रम तथा कार्यकर्ताओं एवं कान्फ्रेन्स के सतयोग से प्रवृत्ति का बीजारोपण हुआ। खटीकों में अहिंसा का प्रचार मेवाड़ के गांवों से प्रारम्म हुआ, श्रम और सहयोग के बल पर निरन्तर बढ़ता चला गया । उभरते हुए सूर्य की तरह एक नयी जाति का अभ्युदय हुआ उसका नामकरण भगवान महावीर जिनका नाम अहिंसा का प्रतीक बन चुका है, उन्हीं के नाम पर “वीरवाल' किया गया । आज मेवाड़ में हजारों की तादाद में वीरवाल बन्धु हैं जिन हाथों में छुरियां रहा करती थीं उन हाथों में आज पूजणिया हैं, माला हैं । वीरवाल समाज के अपने नये रीति-रिवाज हैं, जो अहिंसा पूर्ण है । हजारों खटीकों के बीच वीरवाल समाज का यह उदयमान सूर्य बादलों की रुकावटों से कब रुका है। - ओसवाल जैन और वीरवाल समाज ने अपने प्रगतिशील कदम आगे बढ़ाने को एक संस्था का गठन किया जिसका नाम अखिल राजस्थान स्थानकवासी अहिंसा प्रचारक जैन संघ है। इसका प्रधान कार्यालय चितौड़गढ़ है। इसके निर्देशन में आज वीरवाल प्रवृत्ति गतिमान है, संस्था ने वीरवाल बच्चों को सुसंस्कारित बनाने को एक छात्रावास की भी स्थापना की, छात्रावास अहिंसा नगर में चल रहा है। वीरवाल समाज को समस्त प्रवृत्तियों को गतिमान करने को चितौड़गढ़ से चार मील दूर निम्बाहैड राजमार्ग 6000 OOK 09098 FODireiospersonaliseDily Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहसक समाज रचना का एक प्रयोग : मेवाड़ में वीरवाल प्रवृत्ति | २२१ पर सैंतीस बीघा भूमि पर अहिंसा नगर बनाया गया। भवन निर्माण पर दो लाख रुपये खर्च किये गये । छात्रावास वहीं प्रवृत्तमान है। 'अहिंसा नगर' जैन समाज और वीरवाल समाज की एक विलक्षण उपलब्धि है इसे मूर्त रूप देने में जिन सहयोगियों का मुख्य हाथ रहा उनमें कुशालपुरा के सेठ हेमराजजी सिंघवी प्रमुख हैं। श्री हेमराजजी ने एक लाख की राशि संघ को देने दिलाने का वचन दिया । तैतीस हजार मद्रास से दिलाये, शेष रुपया अपनी तरफ से मिला कर एक लाख पूरा कर दिया । अहिंसा नगर का शिलान्यास तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्रीयुत मोहनलाल जी सुखाड़िया द्वारा हुआ। यह घटना ३ अप्रेल, सन् १९६६ की है । वीरवाल जाति अपने नाम के अनुरूप ही बहादुर है । इसने खटीकों के साथ अपने सारे सम्बन्ध तोड़ दिये । पाठक सोचें कि यह कार्यं कितना दुष्कर है । कहीं-कहीं तो पिता पुत्र से अलग है, पुत्र वीरवाल और पिता खटीक है तो दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं, अहिंसा के लिए इतना बड़ा कदम उठाने वाले वीर नहीं तो और क्या है । वीरवाल अपने स्वीकृत सिद्धान्तों के प्रति सच्चे और अडिग हैं । १ मई, सन् १९५८ का वह स्वर्ण दिन वीरवालों के लिए ऐतिहासिक दिन है क्योंकि उस दिन इस जाति की स्थापना हुई है । विश्व में मई दिवस मजदूरों की मुक्ति के रूप में मनाया जाता है तो वीरवालों के लिए १ मई अपने नवजागरण का सन्देश लेकर आता है । वीरवाल समाज को संगठित और सुशिक्षित करने हेतु प्रायः पर्यूषण में आठ दिनों का शिक्षण शिविर आयोजित किया जाता है जिसमें प्रायः अधिक से अधिक वीरवाल भाग लेते हैं और त्याग, तप, व्रत पौषध, सामायिक प्रतिक्रमण उन्हीं का शिक्षण ग्रहण करते हैं । संस्था वीरवाल समाज के अभ्युदय के लिए छात्रवृत्ति, शिक्षण तथा व्यवसाय का भी यथा शक्ति व्यवस्था करती है। वीरवाल समाज के क्षेत्र में आज कई कार्यकर्ता सक्रिय हैं उनमें इन्दौर वाले कमला माताजी का नाम सर्वोपरि है। श्री कमला माताजी ने अपना पूरा जीवन ही वीरवाल सेवा में अर्पित कर रक्खा है । पूरे समाज में माताजी के नाम से प्रख्यात माताजी बड़ी विदुषी और कर्मठ कार्य कर्त्री है । आज उन्हीं से दिशा निर्देशन प्राप्त हो रहा है। वीरवाल समाज एक नवांकुर है, इसे समाज के स्नेह की आवश्यकता है। संत मुनिराज तथा समाज के धनी एवं कार्यकर्ताओं का समुचित सहयोग मिले तो यह समाज भारत में अहिंसा का निराला प्रतीक बन सकता है । Besan has अगर कभी मूर्ख का संग हो जाये तो पहली बात उसके साथ बातचीत मत करो! बातचीत करनी पड़े तो उसकी बात का उत्तरमात्र दो, बहसबाजी या खण्डन मण्डन मत करो। क्योंकि मूर्ख की बात का समर्थन किया नहीं जा सकता और विरोध करने से वे रूठ जायेंगे, संभवतः विरोधी व शत्रु भी बन जाये । इसलिये नीतिकारों ने कहा है- मूर्ख के साथ 'मौन' ही सर्वोत्तम व्यवहार है । 'अम्बागुरु-सुवचन 000000000000 * ooooooooo000 4000DDDDDD Bhi/ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मदनलाल पीतल्या, गंगापुर M-0-0-0--0-0--0--0-0--0--0--0--0-0--0--0--0-0-0--2 मेवाड़ के प्रसुप्त धार्मिक तेज को पुनः प्रदीप्त 1 1 कर उसमें नव चेतना फूंकने का कार्य एक ऐतिहासिक कार्य है। बिखरी हुई युवा शक्ति एवं सामाजिक चेतना को संगठित एवं कार्यशील करने वाली एक 1 जीवंत सँस्था का परिचय यहाँ दिया गया है। मेवाड़ का कल्पवृक्ष धर्मज्योति परिषद 000000000000 000000000000 ET PMING सामाजिक संरचना मानवीय सभ्यता की सबसे बड़ी उपलब्धि है। व्यक्ति समस्याओं से ग्रस्त है और जब अनेकों व्यक्ति ही समाज के अंगभूत होते हैं तो समस्याएँ सामाजिक रूप धारण कर लेती हैं। सामाजिक समस्याओं का निराकरण सामाजिक स्तर पर करना होता है। समय पर सामाजिक समस्याओं का समाधान नहीं होता है तो पीड़ाएँ घनीभूत हो जाया करती हैं। कुछ बिरल विभूतियां उन घनीभूत पीड़ाओं को समझ पाते हैं। उद्गम और विकास जब पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज साहब का भूपालगंज (भीलवाड़ा) में चातुर्मास था उस अवसर पर क्रान्तदृष्टा प्रवर्तक श्री के शिष्यरत्न मुनि श्री कुमुदजी ने समाज के कतिपय प्रगतिशील विचारकों के समक्ष समाज की अन्तीड़ा की ओर कान्तिकारी संकेत दिया / बस धर्मज्योति परिषद् के उद्गम का यही मूल था। एक छोटा-सा संविधान बना, एक रूपरेखा खड़ी हुई और एक संस्था का बीज वपन हो गया। आर्थिक पृष्ठ भूमिका का जहाँ तक प्रश्न है वह बिलकुल नहीं थी, जो उग भी नहीं गई, ऐसी संस्था में कोई पैसा लगाना नहीं चाहता था। प्रारम्भिक सद्योग के रुप में श्री मूलचन्द जी कोठारी रायपुर वाले का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने संस्था को पांच सौ रुपया प्रारम्भ में कर्ज स्वरूप निःशुल्क दिया जो दो-तीन वर्षों बाद मेंट ही नहीं कर दिये अपितु पाँच सौ रुपये और मिलाकर एक हजार के दान की घोषणा कर दी। कार्य प्रारम्भ होते ही चारों तरफ से आर्थिक एवं भावात्मक सहयोग की बहार आ गई। प्रवृत्तियाँ-संस्था की मौलिक प्रवृत्तियाँ चार हैं। (1) जैन शालाओं का संचालन (3) अभाव-प्रस्तों को सहयोग (2) पत्रिका का प्रकाशन (4) सत्साहित्य का प्रकाशन / पहुंना, हमीरगढ़ और उसके आगे बहने वाली विशाल बनास नदी को देखकर कुंभलगढ़ के पहाड़ों में बनास के उद्गम को कोई देखे तो उसे विश्वास नहीं हो सकता कि यह छोटा-सा स्रोत इतना विशाल रूप भी धारण कर सकता है। यही बात धर्म ज्योति परिषद के लिये है। आज जो धर्म ज्योति परिषद का रूप है। इसके उद्गम के समय इसका कोई अनुमान नहीं कर सकता था। अधिकतर तो ऐसी आशंकाएँ ही व्यक्त किये करते कि ऐसी संस्थाएँ क्या टिकेंगी? विपरीत दिशाओं से आने वाली ऐसी ध्वनि के विरुद्ध कार्यकर्ताओं ने भी सुदृढ़ निश्चय कर रक्खा था कि प्रेरणा महासती श्री प्रेमवती जी का उपदेशात्मक योगदान, साथियों और कार्यकर्ताओं की लगन मेवाड़ के धर्मप्रेमी सज्जनों का सहयोग सभी ने मिलकर संस्था को स्थिर भी नहीं अपितु उसे विस्तृत भी कर दिया। 'धर्म ज्योति परिषद' आज बीस से अधिक जनशालाओं का संचालन कर रही है। कई अभावग्रस्त भाईबहनों को मासिक सहयोग कर रही है। संस्थाने अपने लक्ष्य के अनुरूप कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं। इस दिशा में अभी निकट भविष्य में बहुत अच्छा साहित्य प्रकाशित करने की योजना है। धर्म ज्योति मासिक पत्रिका जो प्रारम्भ में केवल 70 व्यक्तियों को मिल पाती आज एक हजार से अधिक निकलती है। निष्पक्ष शुद्ध सात्विक धार्मिक विचार देना पत्रिका का ध्येय है, जिसमें यह नितान्त सफल रही है / समय-समय पर इसके विशेषांक भी प्रकट होते रहे हैं। मेवाड़ में जो भी सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं उनके मूल में पत्रिका का शानदार योगदान है। धर्म ज्योति परिषद मेवाड़ में एक कल्पतरू के रूप में विकसित होने वाली संस्था है / मेवाड़ के जन जन का प्यार इसे उपलब्ध है, आशा है कुछ ही वर्षों में यह संस्था और अधिक विराट विस्तार के आयाम स्थापित करेगी। .... ... 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