Book Title: Mangal Mantra Namokar
Author(s): 
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल मंत्र णमोकार Devnagari Script णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं एसो पंच णमुक्कारो, सव्व पाव पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं English Script NAMO ARIHANTANAM NAMO SIDDHANAM NAMO AYARIYANAM NAMO UVAJJHAYANAM NAMO LOE SAVVASAHUNAM ESO PANCH NAMUKKARO, SAVVA PAVA PANASANO MANGALANAM CH SAWVESIM, PADHAMAM HAVAI MANGALAM English Translation Homages to Arihantas (Saviours) Homages to Siddhas (Liberated souls, From the Cycle of Birth-death and rebirth) Homages to Acharyas (Chief of the Cults) Homages to Upadhyayas (Preceptors) Homages to all monks Homages being paid to these five 'Parmesthis' (Great Personalities), Destroy all the sins. Among all Mangalas (Holy Hymns), It is fundamental and most holy hymn. Those, who recite it regularly, achieve every sort of welfare शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० डॉ० नेमिचन्द शास्त्री झाड़ा। मन में अटूट विश्वास था कि विष अवश्य उतर जायेगा। आश्चर्यजनक चमत्कार यह हुआ कि इस महामन्त्र के प्रभाव से बिच्छू का विष बिल्कुल उतर गया। व्यथा-पीड़ित व्यक्ति हँसने लगा और बोला-"आपने इतनी देरी झाड़ने में क्यों की। क्या मुझसे किसी जन्म का वैर था? मान्त्रिक को मन्त्र को छिपाना नहीं चाहिए।" अन्य उपस्थित व्यक्ति भी प्रशंसा के स्वर में विलम्ब करने के कारण उलाहना देने लगे। मेरी प्रशंसा की गन्ध सारे गाँव में फैल गयी। भगवती भागीरथी से प्रक्षालित वाराणसी का प्रभाव भी लोग स्मरण करने लगे तथा तरह-तरह की मनगढन्त कथाएँ कहकर कई महानुभाव अपने ज्ञान की गरिमा प्रकट करने लगे। मेरे दर्शन के लिये लोगों की भीड़ लग गयी तथा अनेक तरह के प्रश्न मुझसे पूछने लगे। मैं भी णमोकार मन्त्र का आशातीत फल देखकर आश्चर्यचकित था। यों तो जीवन-देहली पर कदम रखते ही णमोकार मन्त्र कण्ठस्थ कर लिया था, पर यह पहला दिन था, जिस दिन इस महामन्त्र का चमत्कार प्रत्यक्ष गोचर हुआ। अत: इस सत्य से कोई भी आस्तिक व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता है कि णमोकार मन्त्र मंगलमंत्र णमोकार : एक चिन्तन में अपूर्व प्रभाव है। इसी कारण कवि दौलत ने कहा है : "प्रात:काल मन्त्र जपो णमोकार भाई। यों तो इस महामन्त्र का प्रचार सर्वत्र है, समाज का बच्चा-बच्चा अक्षर पैंतीस शुद्ध हृदय में धराई ।। इसे कण्ठस्थ किये हुए है, किन्तु इसके प्रति दृढ़ विश्वास और नर भव तेरो सुफल होत पातक टर जाई । अटूट श्रद्धा कम ही व्यक्तियों की है। यदि सच्ची श्रद्धा के साथ विघन जासों दूर हो संकट में सहाई ।।१।। इसका प्रयोग किया जाये तो सभी प्रकार के कठिन कार्य भी सुसाध्य कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि जाई। हो सकते हैं। एक बार की मैं अपनी निजी घटना का भी उल्लेख ऋद्धि सिद्धि पारस तेरो प्रकटाई।।२।। कर देना आवश्यक समझता हूँ। घटना मेरे विद्यार्थी जीवन की है। मन्त्र जन्त्र तन्त्र सब जाही से बनाई। मैं उन दिनों वाराणसी में अध्ययन करता था। एक बार ग्रीष्मावकाश सम्पति भण्डार भरे अक्षय निधि आई।।३।। में मुझे अपनी मौसी के गाँव जाना पड़ा। वहाँ एक व्यक्ति को तीन लोक मांहिं, सार वेदन में गाई। बिच्छू ने डंस लिया। बिच्छू विषैला था, अत: उस व्यक्ति को जग में प्रसिद्ध धन्य मंगलीक भाई ।।४।।" भयंकर वेदना हुई। कई मान्त्रिकों ने उस व्यक्ति के बिच्छू के विष मन्त्र शब्द 'मन्' धातु (दिवादि ज्ञाने) से ष्ट्रन (त्र) प्रत्यय को मन्त्र द्वारा उतारा, पर्याप्त झाड़-फूंक की गयी, पर वह विष उतरा लगाकर बनाया जाता है, इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है; नहीं। मेरे पास भी उस व्यक्ति को लाया गया और लोगों ने 'मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा कहा-"आप काशी में रहते हैं, अवश्य मन्त्र जानते होंगे, कृपया आत्मा का आदेश - निजानुभव जाना जाये, वह मन्त्र है। दूसरी इस बिच्छू के विष को उतार दीजिए।" मैने अपनी लाचारी अनेक तरह से तनादिगणीय मन् धातु से (तनादि अवबोधे) ष्ट्रन प्रत्यय प्रकार से प्रकट की पर मेरे ज्योतिषी होने के कारण लोगों को मेरी । लगाकर मन्त्र शब्द बनता है, इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार- 'मन्यते अन्य विषयक अज्ञानता पर विश्वास नहीं हुआ और सभी लोग। विचार्यते आत्मादेशो येन स मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश बिच्छू का विष उतार देने के लिए सिर हो गये। मेरे मौसाजी ने भी पर विचार किया जाये, वह मन्त्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक अधिकार के स्वर में आदेश दिया। अब लाचार हो णमोकार मन्त्र मन धातु से 'ष्ट्रन' प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द बनता है। इसका का स्मरण कर मुझे ओझागिरी करनी पड़ी। नीम की एक टहनी व्युत्पत्ति-अर्थ है- 'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मान: वा मँगवायी गयी और इक्कीस बार णमोकार मन्त्र पढ़कर बिच्छू को यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में विद्वत खण्ड/२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासन देवों का पुनरुक्त स्वरों को निकाल देने के पश्चात् रेखांकित स्वरों को ग्रहण सत्कार किया जाये, वह मन्त्र है। इन तीनों व्युत्पत्तियों के द्वारा मन्त्र किया तोशब्द का अर्थ अवगत किया जा सकता है। णमोकार मन्त्र-यह अ आ इ ई उ ऊ (र) ऋऋ (ल) ल ल ए ऐ ओ औ अं अः। नमस्कार मन्त्र है, इसमें समस्त पाप, मल और दुष्कर्मों को भस्म व्यंजनकरने की शक्ति है। बात यह है कि णमोकार मन्त्र में उच्चरित ण + म् + र् + ह् + त् + ण् + ण् + म् + स् + द् + ध् + ध्वनियों से आत्मा में धन और ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत् ण् + ण् + म् + य् + ण् + ण् + म् + व् + ज् + शु + य् + ण शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे कर्मकलंक भस्म हो जाता है। यही कारण है कि तीर्थकर भगवान भी विरक्त होते समय सर्वप्रथम इसी ___ + ण् + म् + ल् + स् + व् + व् + स् + ह + ण । महामन्त्र का उच्चारण करते हैं तथा वैराग्यभाव की वृद्धि के लिए घ आये हुए लोकान्तिक देव भी इसी महामन्त्र का उच्चारण करते हैं। यह अनादि मन्त्र है, प्रत्येक तीर्थंकर के कल्पकाल में इसका पुनरुक्त व्यंजनों के निकाल देने के पश्चात्अस्तित्व रहता है। कालदोष से लुप्त हो जाने पर अन्य लोगों को ण + म् + र् + ह् + ध् + स् + य् + र + ल् + व् + ज् + तीर्थकर की दिव्यध्वनि-द्वारा यह अवगत हो जाता है। घ + है। इस अनुचिन्तन में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि ध्वनिसिद्धान्त के आधार पर वर्गाक्षर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता णमोकार मन्त्र ही समस्त द्वादशांग जिनवाणी का सार है, इसमें है। अत: घ् = कवर्ग, झ् = चवर्ग, ण् = टवर्ग, ध् = तवर्ग, समस्त श्रुतज्ञान की अक्षर संख्या निहित है। जैन दर्शन के तत्त्व, म् = पवर्ग, य र ल व, स् = श ष स ह । पदार्थ, द्रव्य, गुण, पर्याय, नय, निक्षेप, आस्रव, बन्ध आदि इस मन्त्र अत: इस महामन्त्र की समस्त मातृका ध्वनियाँ निम्न प्रकार हुईं। में विद्यमान हैं। समस्त मन्त्रशास्त्र की उत्पत्ति इसी महामन्त्र से हुई अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः क ख है। समस्त मन्त्रों की मूलभूत मातृकाएँ इस महामन्त्र में निम्नप्रकार ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ठ् ड् ढ् ण् त् थ् द् ध् न् प् फ् ब् भ् वर्तमान हैं। मन्त्र पाठ : म् य र ल व श् ष् स् ह् "णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । उपर्युक्त ध्वनियाँ ही मातृका कहलाती हैं। जयसेन प्रतिष्ठापाठ णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सब्ब-साहूणं ।।". में बतलाया गया है : विश्लेषण : “अकारादिक्षकारान्ता वर्णाः प्रोक्तास्तु मातृकाः । सष्टिन्यास-स्थितिन्यास-संहतिन्यासतस्त्रिधा ।।३७६।।" ण + अ + म् + ओ + अ + र् + इ + ह् + अं + त् + आ + ण् + अ + ण् + अ + म् + ओ + स् + इ + द् + ध् + - अकार से लेकर क्षकार (क् + ष् + अ) पर्यन्त मातृकावर्ण आ + ण् + अं+ ण् + अ + म् + ओ + आ + इ + र् + कहलाते हैं। इनका तीन प्रकार का क्रम है - सृष्टिक्रम, स्थितिक्रम और संहारक्रम। इ + य् + आ + ण् + अं+ ण् + अ + म् + ओ + उ + व् णमोकार मन्त्र में मातृका ध्वनियों का तीनों प्रकार का क्रम + अ + ज् + झ् + आ + य् + आ + ण् + अं + ण् + अ सन्निविष्ट है। इसी कारण यह मन्त्र आत्मकल्याण के साथ लौकिक + म् + ओ + ल् + ओ + ल् + ओ + ए + स् + अ + व् अभ्युदयों को देनेवाला है। अष्टकर्मों के विनाश करने की भूमिका + व् + अ + स् + आ + ह् + ऊ + ण् + अं । इसी मन्त्र के द्वारा उत्पत्र की जा सकती है। संहारक्रम कर्मविनाश इस विश्लेषण में से स्वरों को पृथक् किया तो- . को प्रकट करता है तथा सृष्टिक्रम और स्थितिक्रम आत्मानुभूति के अं + ओ + अ + इ + अं + आ + अं + अ + ओ + इ + साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति में भी सहायक है। इस मन्त्र की अ + अं + अ + एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि इसमें मातृका-ध्वनियों का ओ + आ + इ + इ + अ + अं+ अ + ओ + 3 + अ + आ तीनों प्रकार का क्रम सनिहित है, इसलिए इस मन्त्र से मारण, मोहन और उच्चाटन तीनों प्रकार के मन्त्रों की उत्पत्ति हुई है। बीजाक्षरों की ऐई ओ निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है : + आ + अं+ अ + ओ+ ओ + ए + अ + अ + आ + ऊ "हलो बीजानि चोक्तानि स्वराः शक्तय ईरिताः" ।।३७७।। अ: + अं। शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/३ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ककार से लेकर हकार पर्यन्त व्यंजन बीजसंज्ञक हैं और अकारादि स्वर शक्तिरूप हैं। मन्त्रबीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है। सारस्वतबीज, मायाबीज, शुभनेश्वरीबीज, पृथिवीबीज, अग्नि बीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उक्त हल और अचों के संयोग से हुई है। यों तो बीजाक्षरों का अर्थ बीजकोश एवं बीज व्याकरण द्वारा ही ज्ञात किया जाता है, परन्तु यहाँ पर सामान्य जानकारी के लिए ध्वनियों की शक्ति पर प्रकाश डालना आवश्यक है। अ = अव्यय, व्यापक, आत्मा के एकत्व का सूचक, शुद्धबुद्ध ज्ञानरूप, शक्तिद्योतक, प्रणव बीज का जनक। आ - अव्यय, शक्ति और बुद्धि का परिचायक, सारस्वतबीज का जनक, मायाबीज के साथ कीर्ति, धन और आशा का पूरक। इ = गत्यर्थक, लक्ष्मी-प्राप्ति का साधक, कोमल कार्यसाधक, कठोर कर्मों का बाधक, वह्निबीज का जनक। ई = अमृतबीज का मूल, कार्यसाधक, अल्पशक्तिद्योतक, ज्ञानवर्द्धक, स्तम्भक, मोहक, जृम्भक। उ = उच्चाटन बीजों का मूल, अद्भुत शक्तिशाली, श्वासनलिका द्वारा जोर का धक्का देने पर मारक। ऊ = उच्चाटक और मोहक बीजों का मूल, विशेष शक्ति का परिचायक, कार्यध्वंस के लिए शक्तिदायक। ऋ = ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक, शुभ कार्यसम्बन्धी बीजों का धा बाजा का मूल, कार्यसिद्धि का सूचक। ल = सत्य का संचारक, वाणी का ध्वंसक, लक्ष्मीबीज की उत्पत्ति का कारण, आत्मसिद्धि में कारण। ए = निश्चल, पूर्ण, गतिसूचक, अरिष्ट निवारण बीजों का जनक, पोषक और संवर्द्धक। ऐ = उदात्त, उच्चस्वर का प्रयोग करने पर वशीकरण बीजों का जनक, पोषक और संवर्द्धक। जलबीज की उत्पत्ति का कारण, सिद्धप्रद कार्यों का उत्पादकबीज, शासन देवताओं का आह्वान करने में सहायक, क्लिष्ट और कठोर कार्यों के लिए प्रयुक्त बीजों का मूल, ऋण विद्युत् का उत्पादक। ओ = अनुदात्त, निम्न स्वर की अवस्था में मायाबीज का उत्पादक, लक्ष्मी और श्री का पोषक, उदात्त, उच्च स्वर की अवस्था में कठोर कार्यों का उत्पादक बीज, कार्यसाधक, निर्जरा का हेतु, रमणीय पदार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त होनेवाले बीजों में अग्रणी, अनुस्वारान्त बीजों का सहयोगी। औ = मारण और उच्चाटन सम्बन्धी बीजों में प्रधान, शीघ्र कार्यसाधक, निरपेक्षी, अनेक बीजों का मूल। अं = स्वतन्त्र शक्तिरहित, कर्माभाव के लिए प्रयुक्त ध्यानमन्त्रों में प्रमुख, शून्य या अभाव का सूचक, आकाश बीजों का जनक, अनेक मृदुल शक्तियों का उद्घाटक, लक्ष्मी बीजों का मूल। अः = शान्तिबीजों में प्रधान, निरपेक्षावस्था में कार्य असाधक, सहयोगी का अपेक्षक। क = शक्तिबीज, प्रभावशाली, सुखोत्पादक, सन्तानप्राप्ति की कामना का पूरक, कामबीज का जनक। ख = आकाशबीज, अभावकार्यों की सिद्धि के लिए कल्पवृक्ष, उच्चाटन बीजों का जनक। ग = पृथक् करनेवाले कार्यों का साधक, प्रणव और माया बीज के साथ कार्य सहायक। घ =स्तम्भक बीज, स्तम्भन कार्यों का साधक, विघ्नविघातक, मारण और मोहक बीजों का जनक। ङ = शत्रु का विध्वंसक, स्वर मातृका बीजों के सहयोगानुसार फलोत्पादक, विध्वंसक बीज जनक। च = अंगहीन, खण्डशक्ति द्योतक, स्वरमातृकाबीजों के अनुसार फलोत्पादक, उच्चाटन बीज का जनक। छ = छाया सूचक, माया बीज का सहयोगी, बन्धनकारक, आपबीज का जनक, शक्ति का विध्वंसक, पर मृदु कार्यों का साधक। ___ ज = नूतन कार्यों का साधक, शक्ति का वर्द्धक, आधि-व्याधि क का शामक, आकर्षक बीजों का जनक। झ = रेफयुक्त होने पर कार्यसाधक, आधि-व्याधि विनाशक, शक्ति का संचारक, श्रीबीजों का जनक। ञ = स्तम्भक और मोहक बीजों का जनक, कार्यसाधक, साधन का अवरोधक, माया बीज का जनक। ट = वह्निबीज, आग्नेय कार्यों का प्रसारक और निस्तारक, अग्नितत्व युक्त, विध्वंसक कार्यों का साधक। ठ = अशुभ सूचक बीजों का जनक, क्लिष्ट और कठोर कार्यो का साधक, मृदुल कार्यों का विनाशक, रोदन-कर्ता, अशान्ति का जनक, सापेक्ष होने पर द्विगुणित शक्ति का विकासक, वह्निबीज। ड = शासन देवताओं की शक्ति का प्रस्फोटक, निकृष्ट कार्यों की सिद्धि के लिए अमोघ, संयोग से पंचतत्वरूप बीजों का जनक, निकृष्ट आचार-विचार द्वारा साफल्योत्पादक, अचेतन क्रिया साधन। ढ - निश्चल, मायाबीज का जनक, मारण बीजों में प्रधान, शान्ति का विरोधी, शक्तिवर्धक। ण = शान्ति सूचक, आकाश बीजों में प्रधान, ध्वंसक बीजों का जनक, शक्ति का स्फोटक। विद्वत खण्ड/४ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त = आकर्षकबीज, शक्ति का आविष्कारक, कार्यसाधक, ष = आह्वानबीजों का जनक, सिद्धिदायक, अग्निस्तम्भक, सारस्वतबीज के साथ सर्वसिद्धिदायक। जलस्तम्भक, सापेक्षध्वनि ग्राहक, सहयोग या संयोग द्वारा विलक्षण थ = मंगलसाधक, लक्ष्मीबीज का सहयोगी, स्वरमातृकाओं के कार्यसाधक, आत्मोन्नति से शून्य, रुद्रबीजों का जनक, भयंकर और साथ मिलने पर मोहक। वीभत्स कार्यों के लिए प्रयुक्त होने पर कार्यसाधक। दकर्मनाश के लिए प्रधान बीज, आत्मशक्ति का प्रस्फोटक, स= सर्व समीहित साधक, सभी प्रकार के बीजों में प्रयोग योग्य, वशीकरण बीजों का जनक। शान्ति के लिए परम आवश्यक, पौष्टिक कार्यों के लिए परम उपयोगी, ध = श्रीं और क्लीं बीजों का सहायक, सहयोगी के समान ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय आदि कर्मों का विनाशक, क्लींबीज का फलदाता, माया बीजों का जनक। सहयोगी, कामबीज का उत्पादक, आत्मसूचक और दर्शक। न = आत्मसिद्धि का सूचक, जलतत्त्व का स्रष्टा, मृदुतर कार्यों ह = शान्ति, पौष्टिक और मांगलिक कार्यों का उत्पादक, का साधक, हितैषी, आत्मनियन्ता। साधना के लिए परमोपयोगी, स्वतन्त्र और सहयोगापेक्षी, लक्ष्मी की प - परमात्मा का दर्शक, जलतत्व के प्राधान्य से युक्त, उत्पत्ति में साधक, सन्तान प्राप्ति के लिए अनुस्वार युक्त होने पर समस्त कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राह्य। जाप्य में सहायक, आकाशतत्त्व युक्त, कर्मनाशक, सभी प्रकार के फ = वायु और जलतत्व युक्त, महत्वपूर्ण कार्यों की सिद्धि के बीजों का जनक। लिए ग्राहा, स्वर और रेफ युक्त होने पर विध्वंसक, विघ्नविघातक, उपर्युक्त ध्वनियों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि मातृका मन्त्र 'फट' की ध्वनि से युक्त होने पर उच्चाटक, कठोरकार्यसाधक। ध्वनियों के स्वर और व्यंजनों के संयोग से ही समस्त बीजाक्षरों की ब = अनुस्वार युक्त होने पर समस्त प्रकार के विघ्नों का उत्पत्ति हुई है तथा इन मातृका ध्वनियों की शक्ति ही मन्त्रों में आती विघातक और निरोधक, सिद्धि का सूचक। है। णमोकार मन्त्र से मातृका ध्वनियाँ नि:सृत है। अत: समस्त भ = साधक, विशेषत: मारण और उच्चाटन के लिए उपयोगी, मन्त्रशास्त्र इसी महामन्त्र से प्रादुर्भूत हैं। इस विषय पर अनुचिन्तन में सात्त्विक कार्यों का निरोधक, परिणत कार्यों का तत्काल साधक, विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। अत: यह युग विचार और तर्क साधना में नाना प्रकार से विघ्नोत्पादक, कल्याण से दूर, कटु मधु का है; मात्र भावना से किसी भी बात की सिद्धि नहीं मानी जा वर्गों से मिश्रित होने पर अनेक प्रकार के कार्यों का साधक, लक्ष्मी सकती है। भावना का प्रादुर्भाव भी तर्क और विचार द्वारा श्रद्धा बीजों का विरोधी। उत्पन्न होने पर होता है। अत: णमोकार महामन्त्र पर श्रद्धा उत्पन्न म = सिद्धिदायक, लौकिक और पारलौकिक सिद्धियों का करने के लिए विचार आवश्यक है। प्रदाता, सन्तान की प्राप्ति में सहायक। __य = शान्ति का साधक, सात्त्विक साधना की सिद्धि का कारण, महत्वपूर्ण कार्यों की सिद्धि के लिए उपयोगी, मित्रप्राप्ति या किसी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए अत्यन्त उपयोगी, ध्यान का साधक। र = अग्निबीज, कार्यसाधक, समस्त प्रधान बीजों का जनक, शक्ति का प्रस्फोटक और वर्द्धक। ल = लक्ष्मीप्राप्ति में सहायक। श्रीबीज का निकटतम सहयोगी और सगोत्री, कल्याणसूचक। व = सिद्धिदायक, आकर्षक, ह, र् और अनुस्वार के संयोग से चमत्कारों का उत्पादक, सारस्वतबीज, भूत-पिशाच-शाकिनीडाकिनी आदि की बाधा का विनाशक, रोगहर्ता, लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए अनुस्वार मातृका का सहयोगापेक्षी, मंगलसाधक, विपत्तियों का रोधक और स्तम्भक। श = निरर्थक, सामान्यबीजों का जनक या हेतु, उपेक्षाधर्मयुक्त, शान्ति का पोषक। शिक्षा--एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/५