Book Title: Main Kaun Hu
Author(s): Nityanandvijay
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/211759/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / मैं कौन हूँ? ] (मुनिराज श्री नित्यानंद विजयजी महाराज) वादों तथा विवादों से घिरा मानव अपने जीवन की कई सफलता नहीं है। शरीर का बनना गुत्थियां हल करने के लिए प्रयत्नशील है। उसका स्वयं के बारे या मिटना सिर्फ पुद्गल का परिवर्तन में भी प्रमपूर्ण चिन्तन है। वह आसमान में बादल के छोटे से है। जो उसका अपना नहीं है, उसके टुकड़े को देख कर पूरे आसमान का विशिष्ट ज्ञान हो जाने का प्रति आसक्ति जाग्रत हो जाने के कारण भ्रम पाले हुए है। अनन्त आकाश गंगा की असीम क्षमताओं को यह भ्रमपूर्ण स्थिति है। अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने की प्रामक स्थिति में वह जी रहा है। प्रश्न यह उठता है कि यह वह स्वयं के साथ धोखा कर रहा है। स्वयं के प्रति ही विश्वासघात जानते बूझते हुए भी कि मानव अपनी की कृत्रिम स्थिति उसने उत्पन्न कर रखी है। वह कुए के मेंढक धरोहर के रूप में जिसे मान रहा है, की तरह उछलता है तथा पूरे महासागर की सीमाएं नापने का दावा श्री नित्यानंदविजयजी म. वह उसकी अपनी वास्तविक धरोहर करता है। इस कारण उसे स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि उसकी नहीं है, वह एक दिन धोखा देने वाली है, मानव क्यों उसके प्रति स्वयंकी दिशा क्या है? उसकी आत्मिक स्थिति क्या है? बावला है? स्पष्ट है कि अनादिकाल से चली आ रही हमारी व्यक्ति का अपने आपके प्रति प्रमित रहना ही सर्वाधिक विस्फोटक आत्मा जिन कुसंस्कारों में रुचि बनाए रखने की आदी बन गई है, स्थिति है। व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि वह क्यों जी रहा है? क्या वे कुसंस्कार ही उसे अच्छे लगने लगे हैं। इन्द्रियां क्षणिक सुखों जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त करना, उसके लिए कोई बाध्यता है? क्या ऐसा करना उसके लिए किसी विजातीय शक्ति के कारण के प्रति मोहित है। ऐसे क्षणिक सुख जिनकी परम्परा दु:खों से अनिवार्यता है? क्या वह अपने आपको इस दुष्चक्र से उबार नहीं पूर्ण है तथा जिनका परिणाम दुःख है। विष्ठा का कीड़ा विष्ठा की सकता? क्या मानव जानता है कि उसकी अपनी शक्ति इन सभी गंदगी में ही आनंद मनाता रहता है। यही स्थिति हमारी है, कुसंस्कारों प्रमजालों को तोड़कर आत्माको उच्च स्थिति तक पहुंचा पाने में सक्षम की हमारी पूर्व प्रवृत्तियां कुसंस्कारों से हमें अलग नहीं होने देती। है? उत्तर सकारात्मक प्राप्त होंगे। वह भेड़ोंकी रेवड़ में भरती हो जब हमारे पूर्व में बंधे कर्मों का उदय होता है और उससे हमें फल जाने के कारण अपने शक्तिमान सिंह स्वरूप को विस्मृत कर गया मिलता है, तब हम अपने पुरुषार्थ का सम्बल देकर उस फल का है। उसे आभास ही नहीं होता कि भेड़ों के साथ रहना, उसकी मूल स्वाद लेते हुए प्रसन्न होते हैं। हमारी यह प्रसन्नता ही हमारे अपने स्थिति नहीं है। अपने आपको भूला होने के कारण वह अपने अस्तित्व स्वयं के प्रति किया गया धोखा है। इसी प्रम के कारण हम सही को संकटों में फंसाए हुए है। दिशा को प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं। सुख तथा दु:ख की भेद रेखा जीवन के जिन मूल्यों के प्रति मानव को आत्मार्पित होना का स्पष्ट अन्तर कर पाने में हम विवेकहीन बनते जा रहे हैं। इन्द्रियां चाहिए, वे मूल्य स्पष्ट नहीं हैं। आज का मानव न जाने क्यों हमारी मित्र नहीं हैं, अपना आत्म पुरुषार्थ कर हम उन्हें अपना मित्र भौतिकता की अंधी आंधी में भटकता जा रहा है। उसका आकर्षण बना सकते हैं लेकिन बनाने की इच्छा तक का हममें अभाव है। आत्मिक सुख नहीं, भौतिक आशंसाएं बन गया है। इन्द्रियों के इन्द्रियों को मनमाना व्यवहार करते रहने देने के कारण इन्द्रियजन्य सुखों के लिए नित नए आविष्कारों में जुटा हुआ है। भौतिक सुखों की विस्फोटक परिणति समझ पाने में हम विफल हैं। फिर समृद्धि को उसने जीवन का रहस्य मान लिया है। भौतिकता में अनादिकाल से बुरी प्रवृत्तियों में सुख की अनुभूति करने की हमारी उसे क्षणिक सुख की अनुभूति होती है। वह नहीं समझ रहा कि आदत ही हमारे विकास के मार्ग में आड़े आ रही है। जो नाशवान है, उसमें रुचि बनाना व्यर्थ है। शरीर उसका अपना मानव घिरा हुआ है। वह कुप्रवृत्तिों में नजरबंद सा है। नहीं है, इन्द्रियां उसकी सहायक मित्र नहीं हैं। जिस दिन शरीर वह स्वस्थ श्वास लेने तक में अपने आपको अक्षम पा रहा है। मिटनेवाला है, वही उसकी यात्रा का अन्तिम पड़ाव नहीं है। वह भौतिक साधनों की बहुलता उसकी दृष्टि को आध्यात्मिक तो नए भव का प्रारंभ है। एक भव का अन्त दूसरे भवके श्रीगणेश (शेष पृष्ठ 4 पर) का संकेत है। एक भव की समाप्ति के बाद उसे दूसरे भवकी ओर बढ़ना ही है। भवों-भवों का परिभ्रमण उसकी यात्रा की श्रीमद जयंतसेनसूरि अभिनंदन मंथ/वाचना 18 राग द्वेष हो चित्त में, अन्तर भरा अज्ञान / जयन्तसेन दूषित मन, पाता कब सदज्ञान-brary.org