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महिलायें, जैन संस्कृतिकी सेवामें
पद्मश्री सुमति वाई शाहा, शोलापुर मानव जातिमें स्त्रोका स्थान . मानव समाजकी रचनाओंमें स्त्री व पुरुष-दोनोंका स्थान समान है । स्त्री और पुरुष-दोनोंके अस्तित्व से ही समाजकी कल्पना पूरी हो सकती है। इन दोनोंमेंसे किसी भी एक घटकको अधिक महत्त्व दिया जा सकता है पर एक घटकको महत्त्व देने वाला समाज, समाजके मूलभूत अर्थोंमें पूरा नहीं हो जाता । स्त्री और पुरुष विश्वरथके दो मूलभूत आधार स्तम्भ है। इसीलिए समाजमें स्त्रीका स्थान पुरुषोंके बराबर अभिन्न, सहज एवं स्वाभाविक मानना ही उचित है । स्त्री समाज रचना और समाजिक प्रगतिके लिए सहकार्य करने वाली है। जैनधर्म और नारी
____ जैनधर्ममें पुराने मूल्योंको बदलकर उसके स्थान पर नये परिष्कृत मूल्योंकी स्थापनाकी गई है। जैन धर्मकी दृष्टिसे नर और नारी दोनोंका समान स्थान है । न कोई ऊँचा है न कोई नौचा। श्रावक व्रत धारण करनेका जितना अधिकार श्रावकका बताया है, उतना ही अधिकार श्राविकाका बताया है। पति-पत्नी, दोनों को ही, भगवान महावीरके संघमें, महाव्रतोंकी साधनाका अधिकार दिया गया है। जैनशास्त्रोंमें नारी जातिको गृहस्थ जीवनमें धम्मसहाया (धर्मसहायिका), धर्मसहचारिणी, रत्नकुक्षधारिणी, देव-गुरुजन (देवगुरुजनकाशा) इत्यादि शब्दोंसे प्रशंसित किया गया है ।
भारतकी नारी एक दिन अपने विकासक्रममें इतने ऊँचाई पर पहुँच चुकी थी कि वह सामान्य मानुषी नहीं, देवीके रूपमें प्रतिष्ठित हो गई थी। उसकी पूजासे कर्मक्षेत्रमें ही स्वर्गके देवता रमण करके प्रसन्न होते थे । इस युगमें उसे पुरुषका आधा हिस्सा मानते हैं, पर उसके बिना पुरुषका पुरुषत्व अधूरा रहता है, ऐसा माना जाता है।
मैं अपने इस लेख में आपको इतिहासमें और आधुनिक कालमें जैन महिलाओं द्वारा किये गये असामान्य कार्योंका, वीरांगनाओंके शोर्यका तथा श्राविकाओंके निर्माण किये हये आदर्शका अल्प परिचय देने वाली हूँ। भगवान् ऋषभनाथका स्थान
__ भारतीय संस्कृतिके प्रारम्भसे ही जैनधर्मकी उज्ज्वल परम्पराओंका निर्माण हुआ है। भगवान् आदिनाथने अपने पुत्रोंके साथ ही कन्याओंको भी शिक्षण देकर सुसंस्कृत बनाया। भगवान आदिनाथके द्वारा जैन महिलाओंको सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्रमें दिये हये इस समान स्थानको देखकर नारीके विषयमें जैन समाज प्रारम्भसे ही उदार था, ऐसा लगता है। नारीको अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक विकासकी सन्धि पहिलेसे ही प्राप्त हो गई थी। इसी कारण जैन संस्कृतिके प्रारम्भसे ही उच्च विद्या विभूषित और शीलवान् जैन नारियोंकी परम्परा प्रारम्भसे ही शुरू हो गई है। भगवान् ऋषभदेवने अपनी ब्राह्मी और
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सुन्दरी दोनोंको उच्च शिक्षाकी प्रेरणा दी थी। इससे स्पष्ट है कि उस समय नारीको पुरुषके समान शिक्षा लेनेकी सुविधा थी। ब्राह्मी और सुन्दरी-इन दोनों कन्याओंने अंकविद्या और अक्षरविद्यामें प्रावीण्य प्राप्त किया था। अपने पिताके धीर, गम्भीर और विद्वत्तापूर्ण व्यक्तित्त्वका प्रतिबिम्ब उनके मन पर पड़ा था। अपने बन्धु भरतकी अनुमतिसे इन दोनोंने भगवान् ऋषभदेवसे ही आर्यिका व्रतकी दीक्षा ले ली और ज्ञानसाधना की। उनके द्वारा प्रस्थापित किये चतुर्विध संघके आर्यिकासंघकी गणिनी (प्रमुख) आर्यिका ब्राह्मी ही थी। राजव्यवहारकी उन्हें पूर्ण जानकारी थी।
कुछ जैन स्त्रियोंने विवाहपूर्व और विवाहके बाद युद्धभूमि पर शौर्य दिखाया। पंजिरीके समिध राजाकी राजकन्या अर्धागिनीने खारवेल राजाके विरुद्ध किये गये आक्रमणमें उसको सहयोग दिया। इतना ही नहीं, उसने इस युद्धके लिये महिलाओंकी स्वतन्त्रसेना खड़ीकी थी। युद्ध में राजा खारवेलके विजय पाने पर इसने उनका अर्धाङ्गिनी पद स्वीकार किया । वह धर्मनिष्ट और दानवीर थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख शिलालेखमें मिलता है। गंग घराने के सरदार नामकी लड़की और राजा विरवर लोकविद्याधरकी पत्नी सामिभबबे युद्धकी सभी कलाओंमें पारंगत थी । सामिमबबेके मर्मस्थल पर वाण लगनेसे इसे मूच्र्छा आ गई और भगवान् जिनेन्द्रका नाम स्मरण करते-करते उसने इहलोककी यात्रा समाप्त की । विजय नगरके राज्यकी सरदार चम्पा की कन्या राणी भैरव देवीने विजयनगरका साम्राज्य नष्ट होनेके बाद अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया और उसे मातृ-सत्ताक पद्धतिसे कई बरसों तक चलाया। नाजलकोंड देशके अधिकारी नागार्जुनकी मृत्युके बाद कदम्बराज अकालवर्षने उनकी देवी वीरांगना अक्कमवके कन्धे पर राज्यकी जिम्मेदारी रक्खी। आलेखोंमें इसे युद्ध-शक्ति-मुक्ता और जिनेन्द्र-शासनभक्ता कहा गया है। अपने अन्तकाल तक उसने राज्य की जिम्मेदारी सम्भाली।
गंग राजवंशकी अनेक नारियोंने राज्यकी जिम्मेदारी सम्भाल कर अनेक जिन मन्दिर व तालाब बनाये । उनके देखभालकी व्यवस्था की । धर्मकार्योंमें बड़े दान दिये । इन महिलाओंमें चम्पला राणीका नाम सर्व प्रथम लिया जाता है। जैनधर्मकी सर्वाङ्गीण उन्नति और प्रसादके लिये उसने जिन भवनोंका निर्माण किया । श्रवणवेलगोलके शिलालेख क्रमांक ४९६ से पता चलता है कि जीक्कमवे शुभचन्द्र देवकी शिष्या थी
और योग्यता और कुशलतासे राज्य करनेके साथ ही धर्म प्रचारके लिये भी उसने अनेक जैन प्रतिमाओंकी स्थापना की थी। जैनधर्ममें कन्याओंका स्थान
____ आदिपुराण, पर्व १८ श्लोक ७६ के अनुसार इस कालमें पुरुषोंके साथ ही कन्याओंके विविध संस्कार किये जाते थे। राज्य परिवारकी लड़कियोंकी स्थिति तो कई गुनी अच्छी थी। कन्या पिताकी सम्पत्तिमेंसे दान भी कर सकती थी। सुलोचनाने अपनी कौमार्यावस्थामें रत्नमयी जिनप्रतिमाकी निर्मिति की थी और उनकी प्रतिष्ठा करनेके लिए पूजाभिषेक विधिका भी आयोजन किया था। कन्यायें पढ़ते समय अनेक विषयोंका ज्ञान प्राप्त करती थीं और वे अपने पिताके साथ उपयक्त विषयों पर चर्चा भी करती थीं। वज्जदंत चक्रवर्ती अपनी लड़कीके साथ अनेक विषयों पर चर्चा करता था। विवाह और विवाहोत्तर जीवन
विवाह स्त्रीके जीवनमें महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती थी। उस वक्त आजन्म अविवाहित रहकर समाजसेवा और आत्म-कल्याण करनेकी भी अनज्ञा थी। विवाहको धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकताके लिये स्वीकार किया हुआ बन्धन माना जाता था।
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मथुराके राजा उग्रसेनकी कन्या राजुलमतीका विवाह यदुवंशीय श्रीकृष्ण के बन्धु नेमिनाथके साथ निश्चित किया गया था । अपने विवाह के समय होने वाली पशुहत्याको देखकर अन्तर्मुख बनकर नेमिनाथने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया । राजुलपतिने मनसे उनके साथ विवाह बद्ध होनेसे दूसरेसे विवाह करना निषिद्ध माना और आर्थिकाकी दीक्षा लेकर अपने पति के मार्ग पर चलनेका निश्चय किया । उसने जैन समाज के सामने यह आदर्श रक्खा है ।
वैवाहिक जीवनका महत्व
विवाह पूर्व अवस्था में स्त्री व पुरुष भिन्न कुटुम्बके प्रतिनिधि होते हैं । विवाहके बाद ही उनके जीवनका पूरी तरह से आरम्भ होता है । आदर्श गृहिणी बनकर सुखद गृहस्थ जीवन निर्माण करना स्त्रीके जीवनका उच्च ध्येय है | आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, देश, समाज और कालकी भूषण मानी जाती है । विवाहक बाद स्त्री-पुरुष परस्पर सहकारी होते हैं । गृहस्थाश्रमको स्वीकार कर अपने कुल, धर्म, स्थितिको सोचकर मर्यादित जीवन व्यतीत करना, यही आदर्श पतिका कर्तव्य है । अंशात स्त्री अपने असन्तोषके साथ ही स्वगृहकी शान्ति नष्ट करती है । स्त्रीको शांति, स्नेह, शक्ति, धैर्य, क्षमा, सौन्दर्य और माधुर्यका प्रतीक माना गया है । गृहस्थाश्रममें उसे गृहलक्ष्मी कहकर घरकी सब जिम्मेदारी उस पर सौंप देते हैं । अतिथिका स्वागत करना, धर्मकार्य का पालन करना, सुश्रुषा करना और शिशुपालन – ये तो उसके जीवनके आदर्श माने गये हैं । अनेक जैन महिलाओंने इन आदर्शोंके पालनमें अपने उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ।
उज्जैनी नगरके पहुपाल राजाकी सुशिक्षित कन्या मैना सुन्दरीका विवाह निर्जन वनमें रहने वाले कुष्ठरोगी चंपासुरके नरेश श्रीपाल कोटीभट्ट के साथ किया गया। लेकिन मैनासुन्दरीने इस घटनाके लिये अपनी कर्मगतिको कारण समझकर अपने पति की सेवासुश्रुषा की। अनेक कष्ट शांतिसे सहन किये । पंचाणुव्रत ग्रहण किये । अष्टाकि पर्व के उपोषण करके सिद्ध चक्रकी यथाशक्ति पूजा की। उसके बाद श्रीपालके शरीर पर गंधोदक लगाते ही वह कुष्ठ मुक्त हो गया । अपने सामर्थ्य से उसने अपने राज्यको फिरसे प्राप्त किया । सुखोपभोग किया और वृद्धकालमें राज्यकी जिम्मेदारी अपने लड़केको सौंपकर मुनि दीक्षा ली। मैनासुन्दरीने भी आर्यिका व्रत ग्रहण किया । उसने अपने असामान्य उदाहरणसे जैन महिलाओंके सामने जीवनभर छायाकी तरह पतिके साथ रहना, उसके सुख-दुखमें सहभागी होना, धर्म कार्य में उसका सहकार्य करना, वैभव कालमें उसका आनन्द दुगुना करनेका यत्न करना, पतिकी सखी बनकर उसके जीवनमें चैतन्य निर्माण करना - ये आदर्श रक्खे हैं ।
पतिनिष्ठा, पवित्रता और सहनशीलता — ये गृहस्थाश्रमीके आदर्श कर्तव्य माने गये हैं । महेन्द्रपुरी - की राजकन्या और पवनकुमारकी पत्नी अजन्ताने विवाहके बाद बारह साल विरह सहन किया । उसके बाद पतिका मिलन उसके जीवनमें आनन्द निर्माण करने वाला था । किन्तु उसपर चारित्रका संशय करके उसको घरसे निकाल दिया गया। बिना सहारे अनेक कष्टोंके साथ सहन-शीलतासे और नीतिधर्मका पालन करके उसने अपना जीवन बिताया जिससे उसे अपना खोया हुआ आनन्द फिरसे प्राप्त हो गया । सीताका आदर्श तो महान आदर्श है । रावण जैसे प्रतापी वैभवसम्पन्न पुरुषके अधीन रहकर भी उसने अपना मन एक क्षण भी विचलित नहीं होने दिया । उसके कारण वह अग्निदिव्य बन सकी । पतिके त्यागने पर भी नमें जीवन बिताते समय उसने रागद्वेषके स्थान पर मधुर हास्य, घबराहटके स्थान पर प्रसन्नता और खेदके स्थान पर उल्लास प्रकट किया, वही उसका आदर्श है । मृगुकच्छ नगर के श्रेणी जिनदत्त नामक धर्मशील श्रावककी सालीको विवाहके बाद घरसे बाहर निकाल दिया गया । तथापि इस अवस्थामें भी उसने
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जैनधर्म पर अपनी निष्ठा कम नहीं की । उसीसे आगे चलकर उसका पातिव्रत्य सिद्ध हो गया और उसे कुटुम्बमें, समाज में आदरणीय स्थान मिला ।
मातृत्वका महत्व
स्त्री के सभी गुणोंमें मातृत्वको बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है । इसी गुणसे उसे समाज में आदर्श गुरु माना गया है। आचार्य मानतुंगके अनुसार संसारकी सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रोंको जन्म देती हैं लेकिन भगवानके समान अद्वितीय पुत्रको जन्म देने वाली माता तो अद्वितीय ही है। सूर्य की किरणोंकी अलग-अलग दिशायें होती हैं लेकिन सूर्यका जन्म एक ही दिशामें - पूर्व में ही होता है ।
आचार्यका यह श्लोक मातृत्वके श्रेष्ठत्वका विश्लेषण करने वाला है । माँ अपने पुत्रको जन्म देने के बाद उसका पालन-पोषण और संरक्षण भी करती है । हृदयमें पैदा होने वाले वात्सल्यकी भावनासे माता कठिन प्रसव वेदना भी सुसह्य मानती है । इसी कारण मानव जीवनमें, समाजमें और संसार रचनामें नारीको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । संसारके अनेक प्रसिद्ध नेताओंका व्यक्तित्व बनानेका कार्य उनकी माताओंने किया है । नेपोलियन, हिटलर, छत्रपति शिवाजी और महात्मा गान्धीके असमान्य जीवनके लिये उनकी माताओंका योगदान ही कारण है । संसारके सर्वस्व त्याग, समस्त प्रेम, सर्व श्रेष्ठ सेवा और सर्वोत्तम उदारता 'माँ' नामक अक्षरमें भरी है । मातृत्व के इस एकमेवाद्वितीय विशेषत्वसे ही समाजने नारीको प्रथम वन्दनीय माना है ।
धर्मनिष्ठ नारी
कर्तव्यनिष्ठा के साथ ही धर्मनिष्ठामें भी जैन नारियाँ प्रसिद्ध हैं । जैन नारीने जैनधर्मतत्वके अनुसार सिर्फ आत्मोद्धार ही नहीं किया, अपितु अपने पतिको भी जैन धर्मका उपासक बनाया है और अपने लड़के लड़कियोंको सुसंस्कारित ओर आदर्श बनानेका यत्न किया है । लिच्छिविवंशीय राजा चेटककी सुपुत्री चेलनाने अपने पति मगधदेशके नरेश श्रेणिकको जैनधर्मका उपासक बनाया उसके अभयकुमार और वारिषेण नामक दोनों पुत्रोंने सांसारिक सुख और वैभवका त्यागकर आत्मसाधनाके लिये अनेक व्रतोंका पालन किया। कर्नाटकके चालुक्य नरेशको उसकी पत्नी जाकलदेवीने जैनधर्मानुयायी बनाया और उसके प्रसारके लिये प्रेरणा दी ।
अनेक शिलालेखों में जैन नारीके द्वारा जिनमन्दिर बनानेकी जानकारी मिलती है । इन मन्दिरोंके पूजोत्सव आदिका प्रबन्ध भी उनके द्वारा किया जाता था । कलिंगाधिपति राजा खारवेलकी रानीने कुमारी पर्वत पर जैन गुफा बनाई । सीरेकी राजाकी पत्नीने अपने पतिका रोग हटानेके लिये और शरीर स्वस्थ होनेके लिये अपनी नथका मोती बेचकर जिनमन्दिर और तालाबकी रचना की। आज भी यह मन्दिर 'मुतनकेरे' नामसे प्रसिद्ध है । आहवमल्ल राजाके सेनापति मल्लमकी कन्या अन्तिमब्बे जैनधर्म पर श्रद्वा रखने वाली और दानशूर थी । उसे ग्रन्थोंमें दानचिन्तामणि कहकर उल्लिखित किया गया है। उसने चांदी और सोनेकी हजारों जिनमूर्तियां बनवाईं ! लाखों रुपयोंका दान दिया । जबलपुरमें पिसनहारीकी मढ़िया नामक जैन मन्दिर है । एक जैन नारीने आटा पीसकर जो रकम कमाई, उससे यह मन्दिर बना है। कितना असामान्य, अनोखा आदर्श है यह । मथुराके शिलालेखसे पता चलता है कि जैन नारियोंने ही जैनमन्दिर और कलात्मक शिल्प बनाने में नेतृत्व किया था ।
अनेक जैन नारियोंने आर्यिकाका व्रत लिया, कठोर तपचर्या की, मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका यत्न किया । जम्बुस्वामी के दीक्षा लेने के बाद उनकी पत्नीने भी दीक्षा ली। वैशालीके चेटक राजाकी
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कन्या चन्द्रासनीने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार कर भगवान् महावीरसे दीक्षा ली और आर्थिका नका अनुष्ठान किया । वह महावीरके ३६ हजार आर्यिकाओंके संघ में गणिका बनी । पम्बबबे नामकी कर्नाटककी नारीने तीस साल तपश्चरण किया । विष्णुवर्धन राजाकी रानी शांतल देवीने ११२३ में श्रवणबेलगोलमें भगवान जिनेन्द्रकी विशालकाय प्रतिमा स्थापित की तथा कुछ काल तक अनशन और ऊनोदर व्रतका पालन किया ।
साहित्य क्षेत्र कार्य
अनेक जैन नारियोंने लेखिका और कवियित्रीके रूपमें साहित्यके क्षेत्रमें योगदान दिया है । १५६६ में रणमतिने यशोधरकाक नामका काव्य लिखा । आर्य रत्नमतीकी समकितरास एक हिन्दी - गुजराती मिश्र काव्यकी रचना है। कर्नाटक में साहित्यके क्षेत्रमें उज्ज्वल नाम कमाने वाली कन्ती प्रसिद्ध है । उसे राजदरबारमें ही सम्मान और उच्च पद मिला था । महाकवि रत्नने अपनी अमरकृति अजितनाथपुराणकी रचना दान-चिंतामणि अंतेते मब्बेके सहकार्यसे ही ९८३ में की । श्वेताम्बर पथकी सूरिचरित्र लिखने वाली गुणसमृद्धि महत्तराके चारुदत्तचरित्र लिखने वाली पद्मश्री, कनकावती आख्यान लिखने वाली हेमश्री नामके महिलायें प्रसिद्ध हैं । काव्यक्षेत्र में प्रतिभा सम्पन्न साहित्य निर्माणका महत्वपूर्ण कार्य अनेक जैन महिलाओंने किया है । उदाहरण के लिये अनुलक्ष्मी, अवन्ती सुन्दरी, माधवी आदि प्राकृत साहित्यकी पूरक कवियित्रियाँ हैं । उनकी रचनायें जीवन दान, प्रेम, संगीत, आनन्द और व्यथा, आशा और निराशा, उत्साह आदि गुणोंसे भरी हुई है । इसके अलावा नृत्य, गायन, चित्रकला, शिल्पकला आदि क्षेत्रों में भी जैन महिलाओं ने असामान्य प्रगति की है । प्राचीन ऐतिहासिक कालमें जैन नारीने जीवनके सभी क्षेत्रों में अपना सहयोग दिया है । समाज भी उसकी ओर सम्मान की दृष्टिसे देखा था । समाजने नारीको उसकी प्रगति के लिये सब सुविधायें दी थीं। पुरुष और नारीमें सामाजिक सुविधायें मिलनेकी दृष्टिसे अन्तर नहीं था ।
नारीकी गुलामीका प्रारम्भ
मध्ययुगके विदेशी शासकोंके आक्रमणके साथ समाजने स्त्रियों पर अनेक बन्धन लगाये । घरकी दीवारोंके बाहरकी हवा लगनेमें धर्म भ्रष्ट होनेका डर उसके मनमें निर्माण किया । इसी कारण शिक्षा, धर्म, संस्कार, तत्त्वज्ञान आदिमें नारी बहुत पीछे! गई । व्यवसायके क्षेत्रमें नारीका प्रवेश रोका गया । आधुनिक काल में भारतीय नारी का स्थान
जब भारतीय संविधानकी रचनाकी गयी, तब उसमें स्त्रियोंको सामाजिक, आर्थिक और राजतीतिक क्षेत्रोंमें पुरुषोंकी बराबरीका स्थान देनेकी घोषणा की गई। इससे लगने लगा कि स्त्रीजाति स्वतन्त्र हो गयी है, उसकी दुरवस्था समाप्त हो चुकी है। उसे शासन और नौकरियों में पुरुषोंके समान मान मिलने लगा है । पर असीम दारिद्रय, अज्ञान, रुढ़ियों व परम्पराओंने इस मान्यताको निष्प्रभ कर दिया है। यहाँ तक कि आज भी सुशिक्षित व्यक्ति अपनी विधवा हुई पुत्रवधूका धर्म और परम्पराके नाम पर मुण्डन करा कर उसका चेहरा विद्रूप कर डालनेकी हिम्मत कर जाता है । काम देनेके बहाने आदिवासी युवतियोंको फुसला कर बेंच डालने वाले मनुष्य रूपी भेड़िये आज भी इस समाजमें मिल जाते हैं । गाँवोंमें नौकरी करनेके लिये आयी हुई महिलाओं पर इन समाजकंटकों द्वारा आज भी अत्याचार किया जा रहा है । क्या यही वह समानता है जिसका संविधान में गुण गाया हजारों वर्षोंसे चली आ रही इस और पुरानी मान्यताओंके अज्ञानी पुरुषोंकी
गया 1 पुरुषप्रधान समाज रचनाकी जड़ें बड़ी गहरी । धार्मिक रुढ़ियों 'स्त्री स्वातन्त्र्यके योग्य होती नहीं' की विचारधारा आसानीसे
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नष्ट नहीं हो सकती है। भारतमें २६ करोड़ स्त्रियों से केवल १८७ प्रतिशत स्त्रियाँ पढ़ी लिखी है पर वे भी रुढ़ियोंकी दास बनी हुई हैं। भारतमें आज भी लड़कीके पैदा होने पर कोई खुशी नहीं मनाई जाती। बेटी पैदा होते ही उसे देनेके लिये जिन्हें दहेजकी चिन्ता होने लगती हो, उन्हें उसके जन्म की खुशी भी कैसे होगी ? लड़कीका पालन-पोषण तो करना ही पड़ता है । पर उसके साथ लड़के की तुलनामें हीन वर्ताव किया जाता है। लड़कीको तो मेहनती, सेवाभावी और दयालु बनानेकी चेष्टा की जाती है । लड़कीके लिये विवाह माँ-बापके घरकी अन्तिम सीढ़ी होती है । विवाह होते ही माँ-बापका नाम हटाकर उसे पतिके सामने समर्पण कर देना पड़ता है । फिर पतिका वंश चलाते हुये उसकी सेवा करना, यही उसका कर्तव्य रह जाता है और यह होती है उसकी विकासको अन्तिम सीढ़ी, फिर चाहे वह शिक्षित हो, अशिक्षित हो, गरीब हो या अमीर हो । विवाह आपसी सम्बन्धोंमें मिलने वाले सूखके लिये किया जाता है, पर यह सुख स्त्रियोंको बड़ा महंगा पड़ता है । कर्त्तव्यका पहाड़ सामने होता है । उन्हें यह पहाड़ पार करना ही पड़ता है। इतना करने पर भी स्त्री पुरुषकी गुलाम मानी गयी है और उसे पुरुषकी श्रेष्ठताको स्वीकार करना ही चाहिये, ऐसा माना जाता है । वास्तवमें, विवाह होनेके बाद पति तो बाहर नौकरी पर जाता है और पत्नी घर सम्भालती है। रसोई आदिकी व्यवस्था करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि विवाह दोनोंकी भागीदारीका बन्धन है और अकेले पति या दोनोंकी कमाई पर दोनोंका एक दूसरे पर हक होना चाहिये। पर मध्यम वर्गीय या उच्च मध्य वर्गीय परिवारोंमें भी पुरुषकी कमाई पर स्त्रीका कोई हक नहीं माना जाता। गरीबोंकी तो बात ही दूर है। विवाहके उपरान्त बच्चोंके पालन-पोषणके लिये माँ कितना भी कष्ट उठाती हो, उसे कोई नाम नहीं मिलता। पैदा होनेके दिनसे मरनेके क्षण तक स्त्री निरपेक्षा सेवापरायण रहती है।
भारतमें २६ करोड़ स्त्रियोंमेंसे करीब सात लाख स्त्रियाँ ही स्नातक हैं और तीस लाख मेट्रिक पास हैं। इनमें भी शिक्षित कही जाने योग्य स्त्रियोंकी संख्या तो केवल दस लाख ही होगी। स्नातकोंमें केवल बीस प्रतिशत स्त्रियोंके पास नौकरियां हैं। तीस लाख मैट्रिक पास स्त्रियों मेंसे केवल पाँच प्रतिशत स्त्रियोंको नौकरी है। मध्यवर्गीय स्त्रीको आर्थिक परिस्थितिके कारण नौकरी करना आवश्यक हो गया है। लेकिन पुरुषोंके समान स्त्रियोंको नौकरीकी सुविधा नहीं मिलती है। विवाहित स्त्रियोंको नौकरी प्रायः नहीं मिलती है। उन्हें उच्च स्तरके पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता । नौकरीमें सुरक्षाका प्रबन्ध नहीं, वि षकर ग्रामीण भागमें उन्हें कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है।
नौकरी करने वाले पुरुषोंको जो आदरभाव घरमें मिलता है, वह स्त्रियोंको नहीं मिलता। नौकरी करनेके बाद घरमें आने पर उसे वे सभी काम करने पड़ते हैं, जो सामान्य स्त्रियाँ करती हैं । बल्कि उससे ज्यादा कामकी अपेक्षा की जाती है। नहीं तो, उसका सुशिक्षित होना निन्दास्पद करार दिया जाता है। कुछ पुरुष तो स्त्रीको केवल उपभोगकी वस्तुमात्र समझते हैं। फिल्मोंमें, नाटकोंमें, होटलोंमें कलाके नाम पर स्त्रियोंको जिस रूपमें पेश किया जाता है, उसे देखकर लगता है कि स्त्री पुरुषोंके लिये दिल बहलानेका खिलौना मात्र है। हजारों वर्षकी यह परम्परा स्त्री एकाएक नहीं तोड़ सकती। यदि कुछ स्त्रियाँ हिम्मत भी करें, तो रूढ़िवादी स्त्रियाँ उन्हें उच्छृङ्खल, बदचलन कहकर उनका तिरस्कार करती हैं। इस प्रकार गुलामीकी यह परम्परा कहीं टूट नहीं जाये, इसलिये शालीनता, आज्ञाकारिता, विनयशीलता, त्याग, परिश्रमशीलता, सहनशीलता, चरित्रसम्पन्नता, सतीत्व जैसे सब गुण अपनेमें लाना स्त्रीका परम कर्तव्य माना गया है । इन गुणोंसे सम्पन्न होकर वह पुरुषके लिए प्रशंसनीय बने, उसकी सेवामें अपना सर्वस्व लूटा दे, यही शिक्षा परम्परागत रूपसे उसे मिली है।
आज सभी क्षेत्रोंमें पुरुषोंके बराबर काम करने पर भी वह स्त्रीको हीन दृष्टिसे देखता है। मैं यह
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नहीं कहना चाहती कि स्त्रियाँ पुरुष विरोधी आन्दोलन करें या मोर्चे निकालें। मैं केवल यह चाहती हूँ कि स्त्रियाँ अपने क्रान्तिकारी विचारों और कार्योंके द्वारा पुरुषोंके मनमें स्त्रीके प्रति जो हीन भावना है, उसे दूर करें। उसके बाद ही वे स्त्रीके व्यक्तित्वके विकास पर विचार करनेके लिए तैयार हो सकते हैं। पुरुषके इस वर्चस्वसे छुटकारा पानेके लिये स्त्रियोंको पुरुषके मनमें स्त्रीजातिके प्रति समानता और मित्रताकी भावना पैदा करनेका यत्न करना होगा। परम्परागत रूढ़ियाँ और अन्धविश्वास, स्वयंके प्रति हीन भावना तथा गुलामी वृत्तिको छोड़कर उसे अपने विकासके लिये स्वयं सन्नद्ध होना होगा। परन्तु इसके लिये इस पुरुष
का भी कर्तव्य हो जाता है कि वह स्त्रियोंके विकासमार्गमें जो कठिनाइयाँ हैं, उन्हें दूर करनेका यत्न करे। इस बीसवीं शताब्दीमें पुरुषोंके समान स्त्रियोंको भी प्रत्येक क्षेत्रमें समान अधिकार मिलना आवश्यक है। आधुनिक कालमें जैन नारीका कार्य
आधुनिक वैज्ञानिक युगमें जैन महिलाओंने अनेक क्षेत्रोंमें महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं । सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय या धार्मिक क्षेत्रमें जैन महिलाओंके मौलिक कार्योके दर्शन होते हैं । यद्यपि जैन महिलाओंमें उच्च शिक्षित महिलाओंकी संख्या कम हो सकती है, तथापि जो सुशिक्षित महिलायें हैं, उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग जैन समाजके विकासके लिये किया है। इतना ही नहीं, आज अनेक महिलाओंने पत्रकारिता, पुस्तक प्रकाशन, शोध और अध्ययनमें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । इसके लिये अनेक जैन विदुषियोंके उदाहरण दिये जा सकते हैं।
बीसवीं सदीकी जैन महिलाओंमें श्रीमती रमा जैनका कार्य जैन समाज कभी विस्मृत नहीं कर सकता। साहित्यके क्षेत्रमें आपने हिन्दीकी जो सेवा की है, उसके लिये साहित्य जगत आपका सदैव ऋणी रहेगा। माधुरी, पराग, सारिका, दिनमान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओंने गम्भीर व विचारपूर्ण साहित्यके कारण हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओंकी पत्रिकाओंमें अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। यह केवल आपके अपूर्व साहस व मार्गदर्शनका ही फल है। ज्ञानोदय और भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशनके माध्यमसे हिन्दीके वरिष्ठतम लेखकों और चितकोंसे लेकर नये प्रतिभाशाली लेखक तक उनके साहित्यिकि परिवारके अंग बन चुके हैं। इतिहासकार, पुरातत्त्वविद्, कलामर्मज्ञ, धर्मव्याख्याता और नाट्य कर्मी-सभीने भारतीय ज्ञानपीठके माध्यमसे साहित्य जगत्को अपने ज्ञानसे लाभान्वित किया है । हिन्दीके साथ सभी भारतीय भाषाओंके वरिष्ठ लेखक आज एक साहित्यिक मंच पर एकत्रित हुए हैं। यह सब श्रीमती रमा जैनकी निष्ठा और योजनाका ही परिणाम है । ज्ञानपीठ पुरस्कार उच्च साहित्यकारोंके प्रति उनकी कृतज्ञताकी भावनाका द्योतक है । वे सांस्कृतिक और सामाजिक संघटन, साहित्य, चित्रकला, रंगमंचकी नवीनतम गतिविधियोंसे न केवल सम्पर्क बनाये रखती थीं बल्कि प्रत्येक दिशामें हिन्दीकी प्रतिभाको खुला आकाश मिले, इसके लिए चुपचाप बिना किसी आत्मविज्ञापनके प्रयत्नशील रहती थीं। इस प्रकार अत्याधनिक हिन्दी साहित्यके विकासमें और प्राचीन अर्वाचीन ग्रन्थ प्रकाशनमें श्रीमती रमारानीका नाम स्वर्ण अक्षरोंमें अंकित करने योग्य है।
मगनवाई कंकुबाई और ललिता बाईने जैन नारी शिक्षणकी आधारशिला रखी, ऐसी कहा जाये, तो अनुचित नहीं होगा। नारी समाजका विकास शिक्षणकी प्रवृत्ति बढ़ानेसे ही होगा, ऐसा उनका विश्वास था । बम्बईमें श्राविकाश्रमकी स्थापना, पददलित विधवाओंके लिये वसतिगृह व शिक्षाकी सुविधा जैसे कार्य आपने किये । आजकी अनेक जैन शैक्षणिक संस्थायें, अस्पताल आदि कंकूबाईके दातृत्व व नेतृत्वके कारण विकसित हुये हैं। श्रीमती कुसुमबेन शहा भारतीय जैन सहामण्डलकी एक कार्यशील पदाधिकारी हैं । पूनामें कुसुमाग्राम तथा बम्बईमें श्रद्धानन्द महिलाश्रम उनके नेतृत्वसे ही प्रगति पथ पर हैं । आपके
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मार्गदर्शन में अन्य अनेक जैन संस्थायें भी वृद्धिंगत हैं । सेठ बालचन्द हीराचन्दकी धर्मपत्नी श्रीमती कस्तुर - बाईका तो जैन और भारतीय समाज पर बड़ा ऐहसान है। उनके द्वारा निर्मित कस्तूर बाई ट्रस्टके द्वारा आज अनेक संस्थायें कार्यरत हैं । नाना भाई ठाकरसीके नामसे स्थापित विद्यापीठ स्त्रीशिक्षणके कार्य में अग्रसर है । कर्वे महिला विद्यापीठकी कुलगुरु डा० माधुरी शहाका स्त्री शिक्षणमें योगदान है । क्षु० राजुल - मती (शोलापुर) और चन्दावाई आरा जैन समाज में मशहूर समाजसेविकाएँ मानी जाती हैं । क्षु० राजुल - मतीने विधवा स्त्रियोंकी दीनतापूर्ण स्थिति और शिक्षाका अभाव देखकर सम्पूर्ण जीवन उनकी सेवामें अर्पण कर दिया । शोलापुरसे सुचारु रूपसे कार्यरत श्राविकास आज भी उनके महान कार्यका स्मारक है । आरा में जैन बालाविश्राम ( चन्दाबाईके द्वारा स्थापित ) आज स्त्रीशिक्षाका प्रमुख केन्द्र बना हुआ है। चंदाबाई एक कुशल लेखिका, पत्रकार, कवियित्री, समाजसुधारक एवं संस्थासंचलिकाके रूपमें प्रसिद्ध विदुषी महिला हैं । जैन महिलादर्श पत्रिकाका सम्पादन तथा अखिल भारतीय महिलापरिषद्का नेतृत्व और संस्थापकत्व आपका ही है । लातचन्द हीराचन्दकी स्नुषा सौ० सरयुबाई विनोदकुमार देशीने जैन कलाका गंभीर अभ्यास करके पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की है। आज वे अमेरिकामें भारत कलाकी प्राध्यापिका हैं । डा० शांता भागवतके समान अनेक महिलाएँ भी पी-एच०डी० से विभूषित हो रही हैं और विभिन्न क्षेत्रों में अपना यश अर्जित कर रही हैं ।
जैन महिलाओं में शिक्षाके प्रसारके साथ-साथ नूतन साहित्य निर्माण में भी अनेक विदुषी महिलाओंने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। साध्वी चन्दना दर्शनाचार्यने अनेक ग्रन्थोंका लेखन और सम्पादन किया । उत्तराध्ययनसूत्र पर लिखे ग्रन्थसे उनकी विद्वत्ता और दर्शनशास्त्र के प्रभुत्व का पता चलता है । अमरचन्दजी महाराजकी प्रेरणासे राजगृहमें चल रहे वीरायतनके संचालनका कार्य भी आपने संभाला है । अहमदनगरकी साध्वी विदुषी उज्ज्वल कुमारी अपने अनेक ग्रन्थों में एक विदुषी लेखिकाके नामसे प्रसिद्ध हैं । fafवध भाषाओं का ज्ञान और अष्टसहस्री ग्रन्थकी भाषाकार आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी प्रसिद्ध लेखिकाओं में से हैं । विदुषी सुपार्श्वमती माताजी भी लेखिकाके रूपमें प्रसिद्ध हैं । कविता, नाटिका, नाटक, उपन्यास इतिहास आदि अनेक साहित्यिक विषयों पर अधिकारसे लिखने वाली अनेक जैन महिलाएँ निरन्तर आगे बढ़ रही हैं । उदाहरणके लिये, सौ० सुरेखा शहाके उपन्यास मासिकोंमें नियमित रूपसे प्रकाशित होते हैं । श्रीमती विद्युलतावाई शहा मुख्याध्यापिका और लेखिकाके रूपमें प्रसिद्ध हैं । श्रीमती कुमुदिनीबाई दोशी जैन बोधककी सम्पादिका होने के साथ सामाजिक कार्योंमें आगे रहती हैं। आर्यिका विशुद्धमतीजीने त्रिलोकसार — जैसी सुलभ रचना उपलब्ध की है । श्रीमती रूपवती किरणकी अगणित कहानियों एवं एकांकियोंसे कौन परिचित न होगा ? डा० सूरजमुखीजी अपनी अल्पवयमें ही एक महिला महाविद्यालयकी प्राचार्य बनकर स्त्रीशिक्षा के क्षेत्रको नई दिशा दे रही हैं । डा० विमला चौधरी भी इसी कोटिकी एक अन्य सुश्रुत महिला हैं ।
राजनीतिक क्षेत्रों में कई महिलाएँ अग्रसर रही हैं । उदाहरण के लिये, अलंमे आक्आने राजकीय चुनाव में भाग लेकर आमदार पद विभूषित किया है । साथमें, वे श्राविकाश्रम ( बम्बई) की संचालिका भी हैं । श्रीमती लेखवती जैन हरियाना विधान सभाकी अध्यक्षके नाते प्रसिद्ध हैं। पूना की आमदार सी० लीलावती मर्चेंट, गुजरात राज्यकी शिक्षामन्त्री श्रीमती इन्दुमती सेठ, दिल्ली प्रदेश सभाकी अध्यक्षा श्रीमती ओमप्रकाश जैन आदि जैन महिलाएँ राजनैतिक क्षेत्रमें महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं । इन विदुषियोंके अतिरिक्त सौ० बांसतीबाई शहा, डा० विजयाबाई पांगल (कोल्हापुर), चंचलाबाई शहा (बम्बई), मंजुलाबाई कारंजा-ये जैन महिलाएँ भी विभिन्न सामाजिक कार्य करने में अग्रसर रहती हैं ।
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सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रमें अनेक जैन महिलाओंने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सरसेठ हुकुमचन्दकी धर्मपत्नी कंचनबाईकी आर्थिक मददसे अनेक जैन संस्थाएँ चल रही हैं । दक्षिण भारत में श्रीमती रत्नवर्मा हेगड़ेके धार्मिक कार्य उल्लेखनीय हैं । धर्मस्थलमें ४१ फुटकी भगवान महावीरकी संगमरमरकी मूर्ति आपने ही स्थापित की है ।
औद्योगिक क्षेत्रमें भी जैन महिलाएँ पीछे नहीं हैं । आज अनेक कारखानोंके व्यवस्थापनके पदों पर वे कार्य करती हैं । उदाहरणके लिये, श्रीमती सरयु दफ्तरी एक फैक्टरीका नियन्त्रण करती हैं । बम्बई और अनेक बड़े शहरोंमें जैन महिलाओंके द्वारा स्थापित छोटे-छोटे कार्यरत उद्योग हैं ।
इसी प्रकार जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें जैन महिलाएँ कार्य कर रही हैं । अनेक महिलाओंमेंसे मैं परिचित हूँ परन्तु स्थानाभावसे यहाँ सबका उल्लेख संभव नहीं है । संक्षेपमें, जैन महिलाओंने सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक-सभी क्षेत्रोंमें महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं ।
आजकी महिलाएँ प्रत्येक क्षेत्रमें आगे बढ़ने का प्रयत्न कर रही हैं । वे प्रगतिशील विचारोंकी हैं। मैं मान्य करती हूँ फिर भी, महिलाओंके प्रति मेरे मनमें कुछ सुझाव हैं ।
यह
बीसवीं शताब्दीकी प्रगतिशीलताकी पहली और प्रमुख माँग है - पुरुषके समान सभी क्षेत्रों में समान Sarfararat माँग । यह माँग कोई ठुकरायेगा नहीं। लेकिन अधिकारकी माँगके साथ हमें अपने कर्तव्यको भी नहीं भूलना चाहिये । अधिकार और कर्तव्य — ये दोनों एक ही सिक्केके दो पहलू हैं । विकासकी गन्ध सबको समान मिले, इसे कोई भी अमान्य नहीं कर सकता । परन्तु साथमें सब कर्तव्यपालनमें तत्पर हो, इसे भी मानना आवश्यक है ।
सामाजिक कार्य व नेतृत्व करनेके साथ-साथ महिलाओंको आदर्श गृहिणीका कार्य भी करना है । आधुनिक शिक्षाग्रहण करने के साथ-साथ महिलाओंको धार्मिक विचार सम्पन्न बताना भी अत्यावश्यक है क्योंकि ऐसी महिलाएँ भी अपने बच्चोंको संस्कार सम्पन्न नागरिक बना सकती हैं । हमें पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञानका अनुकरण करना चाहिये । परन्तु सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रमें हमें उनका अनुकरण नहीं करना है । क्योंकि भारतीय समाज के अपने कुछ सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्य हैं । इन मूल्योंको ग्रहण करने - के लिये पाश्चात्य जगत भारतकी ओर देखता है। ऐसी दशामें पाश्चात्य रहन-सहन व सामाजिक रचना कर हमें अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये । भारतमें कुटुम्ब संस्थाकी उज्ज्वल परम्परा है । पाश्चात्य अनुकरणके द्वारा इस कुटुम्ब संस्थाका हम नाश न करें, तो अच्छा है । सम्पूर्ण भारतीय संस्कृतिका रक्षण इसी कुटुम्ब संस्थाने किया है, इसे हमें नहीं भूलना चाहिये । अमेरिका जैसे भौतिक दृष्टिसे उन्नत देशों में कुटुम्ब संस्थाके पुनर्गठनकी माँगकी जा रही है । क्योंकि इन देशोंमें स्वतन्त्रताके नाम पर माता, पिता, बच्चेसब अलग-अलग रूपमें बिखर रहे हैं । पारस्परिक सम्बन्ध केवल आर्थिक बनकर रह गये हैं। पर एक दूसरेमें ईश्वर में आस्था न होनेके कारण पाश्चात्य लोगोंका जीवन और निराशापूर्ण बनता जा रहा है । इस समस्याको दूर करनेके लिये अमेरिका जैसे देश भारतकी ओर देख रहे हैं। यह हमें उनका अन्धानुकरण करते समय सोचना चाहिये ।
भारतीय बालक-बालिकायें संस्कार पूर्ण आदर्श नागरिक बनें इसकी जिम्मेदारी महिलाओं पर है क्योंकि माता ही बच्चोंके लिये पहला गुरु होती हैं । गृहिणियों में भगवान् महावीरका सन्देश हमेशा ध्यान में रखना चाहिए । आध्यात्मिक ज्ञानसे ही मानसिक विकास सही दिशामें होता है । ऐसी ज्ञान सम्पन्न माता ही अपने बच्चेको उच्चसंस्कार सम्पन्न नागरिक बना सकती है । परदेश जाते समय महात्मा गांधीको उनकी
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________________ माताने श्रीमत रायचन्दके मार्ग दर्शनके अनुसार मासाहार न करनेका, मद्यपान न करनेका, परस्त्रीको माताके समान माननेका उपदेश किया था। उसीके कारण वे आगे चलकर राष्ट्रपिता बने / हजारों वस्तुओंसे घरका या बाह्य शरीरका सौन्दर्य बढ़ानेके पहले मनका सौन्दर्य बढ़ाना आवश्यक है। घरको नरक बनाना आसान काम है, परन्तु उसे स्वर्ग बनाना कठिन काम है। जिस घरका प्रत्येक व्यक्ति संस्कार सम्पन्न है, वह घर भले ही गरीबका हो, अलौकिक सुखसे सम्पन्न है, ऐसा मैं समझती हूँ। कुटुम्बमें जो वयोवृद्ध व्यक्ति हो, उनका परिवारके सभी सदस्योंका समूचित सम्मान व आदर करना चाहिए क्योंकि वृद्ध व्यक्ति ही भारतीय कुटुम्ब संस्थाका आधार स्तम्भ है। आरोग्य सभी सुखोंका कारण है। अतः महिलाओंको आसन, योग अथवा स्त्रियोचित कोई व्यायाम करके अपना शरीर सुदढ़ बनाना चाहिये / क्योंकि सुदढ़ माता ही सुदढ़ बालकको जन्म दे सकती है। स्वस्थ व्यक्तिके हो स्वस्थ विचार हो सकते हैं। जहाँ तक हो सके, रसोईका काम माताओंको स्वयं करना चाहिये, क्योंकि उसके हाथसे बने हुए पदार्थों में शुद्धताके साथ-साथ स्नेहरस भी मिला रहता है। सभी महिलाओंको जैन व्रतोंका पालन करना चाहिये। धार्मिक ग्रन्थोंका अध्ययन नियमित रूपसे करना चाहिये। तभी वे अपने बच्चोंको धार्मिक संस्कार और धार्मिक पाठ दे सकती हैं। धार्मिक शिक्षा आजके जगतमें स्कल और महाविद्यालय में मिलना असम्भव है। यदि उन्होंने इस बातका ध्यान रखा, तो पाश्चात्य देशोंमें नवयुवक और नवयुवितियोंमें जो आज नैराश्यकी भावना दिखाई देती है, वह भारतमें नहीं दिखाई देती। कर्त्तव्यपालनके बाद अधिकार उसे प्राप्त करनेका पूराका पूरा अधिकार है। . आजका समाज पुनः करवट बदल रहा है / नारी-जागरणका शंख बज उठा है। वह अपने कर्तव्यका पालन तो करेगी, परन्तु साथमें वह अपने अतीतके खोये हुये गौरव और अधिकारको पानेके लिये प्रयत्नशील है। वह विकासकी सब दिशाओंमें, सब क्षेत्रोंमें तेजीसे अग्रसर हो रही है। अभी तक वह कदम-कदम पर तिरस्कार और अपमानकी ठोकरें खाती आ रही थी, पर अब समय बदल रहा है। वह अब घरकी चहार दिवारीमें बन्द बन्दिनी नारी नहीं रही / अतः महावीरके भक्त श्रमणों व श्रावकोंसे भी मेरी अपेक्षा है कि वे उसे देने ही पड़ेंगे तभी वह समाजको नये स्वर्ण विहानमें ला सकेगी। -- 303 -