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भगवान् महावीरकी क्षमा और अहिंसाका एक विश्लेषण
शान्ति और सुख ऐसे जीवन-मूल्य हैं, जिनकी चाह मानवमात्रको रहती है । अशान्ति और दुःख किसीको भी इष्ट नहीं, ऐसा सभीका अनुभव है। अस्पतालके उस रोगीसे पूछिए, जो किसी पोड़ासे कराह रहा है और डाक्टरसे शीघ्र स्वस्थ होनेके लिए कातर होकर याचना करता है । वह रोगी यही उत्तर देगा कि हम पीड़ाकी उपशान्ति और चैन चाहते हैं । उस गरीब और दीन-हीन आदमीसे प्रश्न करिए, जो अभावोंसे पीड़ित है । वह भी यही जवाब देगा कि हमें ये अभाव न सतायें और हम सुखसे जिएँ । उस अमीर और साधनसम्पन्न व्यक्तिको भी टटोलिए, जो बाह्य साधनोंसे भरपूर होते हुए भी रात-दिन चिन्तित है । वह भी शान्ति और सुखकी इच्छा व्यक्त करेगा । युद्धभूमिमें लड़ रहे उस योद्धासे भी सवाल करिए, जो देशकी रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करनेके लिए उद्यत है। उसका भी उत्तर यही मिलेगा कि वह अन्तरंग में शान्ति और सुखका इच्छुक हैं । इस तरह विभिन्न स्थितियों में फँसे व्यक्तिको आन्तरिक चाह शान्ति और सुख प्राप्ति मिलेगी। वह मनुष्य में, चाहे वह किसी भी देश, किसी भी जाति और किसी भी वर्गका हो, पायी जायेगी । इष्टका संवेदन होनेपर उसे शान्ति और सुख मिलता है तथा अनिष्टका संवेदन उसके अशान्ति और दुःखका परिचायक होता है ।
इस सर्वेक्षण से हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि मनुष्य के जीवनका मूल्य शान्ति और सुख है । यह बात उस समय और अधिक अनुभवमें आ जाती है जब हम किसी युद्धसे विरत होते हैं या किसी भारी परेशानीसे मुक्त होते हैं । दर्शन और सिद्धान्त ऐसे अनुभवों के आधारसे ही निर्मित होते हैं और शाश्वत बन जाते हैं ।
जब मनमें क्रोधकी उद्भूति होती है तो उसके भयंकर परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं । क्रुद्ध जर्मनीने जब जापानयुद्ध में उसके दो नगरोंको बमोंसे ध्वंस कर दिया तो विश्वने उसकी भर्त्सना की । फलतः सब ओरसे शान्तिकी चाह की गयी । क्रोधके विषैले कीटाणु केवल आस-पास के वातावरण और क्षेत्रको ही ध्वस्त नहीं करते, स्वयं क्रुद्धका भी नाश कर देते हैं । हिटलर और मुसोलिनीके क्रोधने उन्हें विश्व के चित्रपटसे सदा के लिए अस्त कर दिया । दूर न जायें, पाकिस्तानने जो क्रोधोन्मादका प्रदर्शन किया उससे उसके पूर्वी हिस्सेको उसने हमेशा के लिए अलग कर दिया । व्यक्तिका क्रोध कभी-कभी भारीसे भारी हानि पहुँचा देता है । इसके उदाहरण देने की जरूरत नहीं है । वह सर्वविदित है ।
क्षमा एक ऐसा अस्त्रबल है जो क्रोधके बारको निरर्थक ही नहीं करता, क्रोधीको नमित भी करा रक्षा होती है, जिनपर वह की जाती है । और धीरे-धीरे हरेक हृदयमें वह बैठ जाती
देता है | क्षमासे क्षमावान्की रक्षा होती ही है, उससे उनकी भी क्षमा वह सुगन्ध है जो आस-पास के वातावरणको महका देती है है | क्षमा भीतरसे उपजती है, अतः उसमें भयका लेशमात्र भी अंश नहीं रहता । वह वीरोंका बल है, कायरोका नहीं । कायर तो क्षण-क्षणमें भीत और विजित होता रहता है । पर क्षमावान् निर्भय और विजयी होता है । वह ऐसी विजय प्राप्त करता है जो शत्रुको भी उसका बना देती है । क्षमावान्को क्रोध आता ही नहीं, उससे वह कोसों दूर रहता है ।
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वास्तव में क्षमा- क्षमता - सहनशीलता मनुष्यका एक ऐसा गुण हैं जो दो नहीं, तीन नहीं हजारों, लाखों और करोड़ों मनुष्यों को जोड़ता हैं, उन्हें एक-दूसरे के निकट लाता है । संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसी विश्व - संस्था इसीके बलपर खड़ी हो सकी है और जब तक उसमें यह गुण रहेगा तब तक वह बना रहेगा ।
तीर्थंकर महावीर में यह गुण असीम था । फलतः उनके निकट जाति और प्रकृति विरोधी प्राणी - सर्पनेवला, सिंह गाय जैसे भी आपसके वैर भावको भूलकर आश्रय लेते थे, मनुष्योंका तो कहना ही क्या । उनकी दृष्टि में मनुष्यमात्र एक थे। हाँ, गुणोंके विकासकी अपेक्षा उनका दर्जा ऊँचा होता जाता था और अपना स्थान ग्रहण करता जाता था। जिनकी दृष्टि पूत हो जाती थी वे सम्यकदृष्टि, जिनका दृष्टिके साथ ज्ञान पवित्र (असद्भावमुक्त ) हो जाता था वे सम्यग्ज्ञानी और जिनका दृष्टि और ज्ञानके साथ आचरण भी पावन हो जाता था वे सम्यक्चारित्री कहे जाते थे और वैसा ही उन्हें मान-सम्मान मिलता था ।
क्षमा यथार्थ में अहिंसाकी ही एक प्रकाशपूर्ण किरण है, जिससे अन्तरतम सु-आलोकित हो जाता है । अहिंसक प्रथमतः आत्मा और मनको बलिष्ठ बनानेके लिए इस क्षमाको भीतरसे विकसित करता, गाढ़ा बनाता और उन्नत करता है । क्षमाके उन्नत होनेपर उसकी रक्षाके लिए हृदयमें कोमलता, सरलता और निवृत्तिकी वारी ( रक्षकावलि) रोपता है । अहिंसाको ही सर्वांगपूर्ण बनानेके लिए सत्य, अचौर्य, शील, और अपरिग्रहकी निर्मल एवं उदात्त वृत्तियोंका भी वह अहर्निश आचरण करता है ।
सामान्यतया अहिंसा उसे कहा जाता है जो किसी प्राणीको न मारा जाय । परन्तु यह अहिंसाकी बहुत स्थूल परिभाषा है। तीर्थंकर महावीरने अहिंसा उसे बतलाया, जिसमें किसी प्राणीको मारनेका न मनमें विचार आये, न वाणी से कुछ कहा जाय और न हाथ आदिकी क्रियाएँ की जायें। तात्पर्य यह कि हिंसा के विचार, हिंसा के वचन और हिंसाके प्रयत्न न करना अहिंसा है । यही कारण कि एक व्यक्ति हिंसाका विचार न रखता हुआ ऐसे वचन बोल देता है या उसकी क्रिया हो जाती है जिससे किसी जीवकी हिसा सम्भव हैं तो उसे हिंसक नहीं माना गया है । प्रमत्तयोग - कषायसे होनेवाला प्राणव्यपरोपण ही हिंसा है । हिंसा और अहिंसा वस्तुतः व्यक्ति के भावोंपर निर्भर हैं । व्यक्ति के भाव हिंसाके हैं तो वह हिंसक है और यदि उसके भाव हिंसा नहीं हैं तो वह अहिंसक है । इस विषय में हमें वह मछुआ और कृषक ध्यातव्य है जो जलाशय में जाल फैलाये बैठा है और प्रतिक्षण मछली ग्रहणका भाव रखता है, पर मछली पकड़ में नहीं आती तथा जो खेत जोतकर अन्न उपजाता है और किसी जीवके घातका भाव नहीं रखता, पर अनेक जीव खेत जोतनेसे मरते हैं । वास्तवमें मछुआके क्षण-क्षणके परिणाम हिंसाके होनेसे वह हिंसक कहा जाता है और कृषकके भाव हिंसा के न होकर अन्न उपजानेके होनेसे वह अहिंसक माना जाता है। महावीरने हिंसाअहिंसाको भावप्रधान बतलाकर उनकी सामान्य परिभाषासे कुछ ऊँचे उठकर उक्त सूक्ष्म परिभाषाएँ प्रस्तुत कीं । ये परिभाषायें ऐसी हैं जो हमें पाप और वंचनासे बचाती हैं तथा तथ्यको स्पर्श करती हैं ।
अहिंसक खेती कर सकता है, व्यापार-धंधे कर सकता है और जीवन-रक्षा तथा देश-रक्षा के लिए शस्त्र भी उठा सकता है, क्योंकि उसका भाव आत्मरक्षाका है, आक्रमणका नहीं । यदि वह आक्रमण होनेपर उसे सह लेता है तो उसकी वह अहिंसा नहीं है, कायरता है । कायरतासे वह आक्रमण सहता है और कायरतामें भय आ ही जाता है तथा भय हिंसाका ही एक भेद है । वह परधात न करते हुए भी स्वघात करता । अतः महावीरने अहिंसाकी बारीकीको न केवल स्वयं समझा और आचरित किया, अपितु उसे उस रूप में हो आचरण करने का दूसरोंको भी उन्होंने उपदेश दिया ।
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________________ यदि आजका मनुष्य मनुष्यसे प्रेम करना चाहता है और मानवताको रक्षा करना चाहता है तो उसे महावीरकी इन सूक्ष्म क्षमा और अहिंसाको अपनाना ही पड़ेगा। यह सम्भव नहीं कि बाहरसे हम मनुष्यप्रेमकी दुहाई दें और भीतरसे कटार चलाते रहें। मनुष्य-प्रेमके लिए अन्तस् और बाहर दोनोंमें एक होना चाहिए / कदाचित् हम बाहर प्रेमका प्रदर्शन न करें, तो न करें, किन्तु अन्तस्में तो वह अवश्य हो, तभी विश्वमानवता जी सकती है और उसके जीनेपर अन्य शक्तियोंपर भी करुणाके भाव विकसित हो सकते हैं। क्षमा और अहिंसा ऐसे उच्च सद्भाव पूर्ण आचरण हैं, जिनके होते ही समाजमें, देशमें, विश्वमें और जन-जनमें प्रेम और करुणाके अंकुर उगकर फूल-फल सकते तथा सबको सुखी बना सकते हैं /