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भगवान महावीर की
दृष्टि में नारी
ईसा के लगभग पाँच सदी पूर्व समाज की प्रचलित सभी दूषित मान्यताओं को अहिंसा के माध्यम से बदल देने वाले महावीर वर्द्धमान थे। उनके संघ में एक ओर हरिकेशी और मैतार्य जैसे शुद्र थे तो दूसरी ओर महाराजा अजातशत्रु व वैशालीपति राजा चेटक जैसे सम्राट भी थे। विनम्र परन्तु सशक्त शब्दों में महावीर ने घोषणा की कि समस्त विराट् विश्व में सचराचर समस्त प्राणी वर्ग में एक शाश्वत स्वभाव है-जीवन की आकांक्षा। इसलिये "मा हणो' । न कष्ट ही पहुंचाओ, न किसी अत्याचारी को प्रोत्साहन ही दो । अहिंसा के इस विराट स्वरूप का प्रतिपादन करने का ही यह परिणाम है कि आज भ० महावीर, अहिंसा, जैन धर्म, तीनों शब्द एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। क्रान्तिकारी कदम
युग-पुरुष भ० महावीर जिन्होंने मनुष्य का भाग्य ईश्वर के हाथों में न देकर मनुष्य मात्र को भाग्य-निर्माता बनने का स्वप्न दिया, जिन्होंने शास्त्रों, कर्मकाण्डों और जन समुदाय की मान्यताएँ ही बदल दी, उन महावीर की दृष्टि में मानव जगत् के अर्धभाग नारी का क्या स्थान है ?
यदि उस समय के सामाजिक परिवेश में देखा जाये तो यह दृष्टिगोचर होता है कि जिन परिस्थितियों में महावीर का आविर्भाव हुआ, वह समय नारी के महापतन का समय था। 'अस्वतन्त्रता स्त्री पुरुष-प्रधाना" तथा "स्त्रियां वेश्यास्तथा शूद्राः येपि स्युः पापयोनयः" जैसे वचनों की समाज में मान्यता थी। ऐसे समय महावीर द्वारा नारी का खोया सम्मान दिलाना एक क्रांतिकारी कदम था । जहाँ स्त्री वर्ग में इस परिवर्तन का स्वागत हुआ होगा, वहाँ सम्भवतः पुरुष वर्ग विशेषकर तथाकथित उच्च वर्ग को ये परिवर्तन सहन न हुए होंगे। नारी को खोया सम्मान मिला
बचपन से निर्वाण प्राप्ति तक का भ० महावीर का जीवन-चरित्र एक खुली पुस्तक के समान है । उनके जीवन की घटनाओं और विचारोतेजक वचनों का अध्ययन किया जाय तो उसके पीछे छिपी एकमात्र भावना, नारी को उसका खोया सम्मान दिलाने का सतत् प्रयत्न, का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है ।
विमला मेहता (चिन्तनशील लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ती)
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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
जैनों की दिगम्बर परम्परा के अनुसार वे ब्रह्मचारी व अविवाहित रहे। श्वेताम्बर परम्परा की शाखा के अनुसार वे भोगों के प्रति आसक्त नहीं हुए। ऐतिहासिक तथ्यों व जैन आगमों के अनुसार समरवीर नामक महासामन्त की सुपुत्री व तत्कालीन समय की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी यशोदा के साथ उनका विवाह हुआ और प्रियदर्शना नामक एक कन्या उत्पन्न हुई।
तो भ० महावीर ने नारी को पत्नी के रूप में जाना। बहन सुदर्शना के रूप में बहन का स्नेह पाया और माता त्रिशला का अपार वात्सल्य का सुख देखा। अट्ठाइस वर्ष की उम्र में भ्राता से दीक्षा की अनुमति माँगी, अनुमति न मिलने पर वहन, पत्नी व अबोध पुत्री की मूक भावनाओं का आदर कर वे गृहस्थी में ही रहे। दो वर्ष तक यों योगी की भाँति निर्लिप्त जीवन जीते देख पत्नी को अनुमति देनी पड़ी। महावीर व बुद्ध
महावीर व बुद्ध में यहाँ असमानता है। महावीर अपने वैराग्य को पत्नी, माँ, बहन व पुत्री पर थोप कर चुपचाप गृह-त्याग नहीं कर गये । गौतम बुद्ध तो अपनी पत्नी यशोधरा व पुत्र राहुल को आधी रात के समय सोया हुआ छोड़कर चले गये थे। सम्भवतः वे पत्नी व पुत्र के आँसुओं का सामना करने में असमर्थ रहे हों। पर बुद्ध ने मन में यह नहीं विचार किया कि प्रातः नींद खुलते ही पत्नी व पुत्र की क्या दशा होगी? इसके विपरीत महावीर दो वर्ष तक सबके बीच रहे। परिवार की अनुमति से मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को वे दीक्षित हो गये। दीक्षा लेने के उपरान्त महावीर ने नारी जाति को मात जाति के नाम से सम्बोधित किया। उस समय की प्रचलित लोकभाषा अर्धमागधी प्राकृत में उन्होंने कहा कि पुरुष के समान नारी को धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त होने चाहिये। उन्होंने बताया कि नारी अपने असीम मातृ-प्रेम से पुरुष को प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर समाज का सर्वाधिक हित साधन कर सकती है। विकास की पूर्ण स्वरन्त्रता
उन्होंने समझाया कि पुरुष व नारी की आत्मा एक है। अतः पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी विकास के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी ही चाहिये । पुरुष व नारी की आत्मा में भिन्नता का कोई प्रमाण नहीं मिलता। अतः नारी को पुरुष से हेय समझना अज्ञान, अधर्म व अतार्किक है।
गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी स्वेच्छा से ब्रह्मचर्य पालन करने वाले पति-पत्नी के लिए महावीर ने उत्कृष्ट विधान रखा। महावीर ने कहा कि ऐसे दम्पत्ति को पृथक् शैय्या पर ही नहीं अपितु पृथक शयन-कक्ष में शयन करना चाहिये। किन्तु जब पत्नो पति के सन्मुख जावे तब पति को मधुर एवं आदरपूर्ण शब्दों में स्वागत करते हुए उसे बैठने को भद्रासन प्रदान करना चाहिये । क्योंकि जैनागमों में पत्नी को "धम्मसहाया" अर्थात् धर्म की सहायिका माना गया है।
__वासना, विकार और कर्मजाल को काट कर मोक्ष-प्राप्ति के दोनों ही समान भाव से अधिकारी हैं। इसी प्रकार समवसरण, उपदेश, सभा, धार्मिक पर्यों में नारियाँ निस्संकोच भाग लेंगी। मध्य सभा के खुले रूप में प्रश्न पूछकर अपने संशयों का समाधान कर सकती हैं। ऐसे अवसरों पर उन्हें अपमानित ८ तिरस्कृत नहीं किया जायेगा। दासी प्रथा का विरोध उन्होंने दासी-प्रथा, स्त्रियों का व्यापार और क्रय-विक्रय रोका। महावीर ने अपने बाल्यकाल
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भगवान महावीर की दृष्टि में नारी : विमला मेहता
में कई प्रकार की दासियों जैसे धाय, क्रीतदासी, कुलदासी, ज्ञातिदासी आदि की सेवा प्राप्त की थी व उनके जीवन से भी परिचित थे। इस प्रथा का प्रचलन न केवल सुविधा की खातिर था, बल्कि दासियाँ रखना वैभव व प्रतिष्ठा की निशानी समझा जाता था। जब मेघकुमार की सेवा-सुश्रूषा के लिए नाना देशों से दासियों का क्रय-विक्रय हुआ तो महावीर ने खुलकर विरोध किया और धर्म-सभाओं में इसके विरुद्ध आवाज बुलन्द की।
बौद्ध आगमों के अनुसार आम्रपाली वैशाली गणराज्य की प्रधान नगरवधू थी। राजगृह के नैगम नरेश ने भी सालवती नाम की सुन्दरी कन्या को गणिका रखा। इसका जनता पर कुप्रभाव पड़ा और सामान्य जनता की प्रवृत्ति इसी ओर झुक गई। फलस्वरूप गणिकाएँ एक ओर तो पनपने लगीं, दूसरी ओर नारी वर्ग निन्दनीय होता गया। भिक्षुणी का आदर
जब महावीर ने भिक्षुणी संघ की स्थापना की तो उसमें राजघराने की महिलाओं के साथ दासियों व गणिकाओं-वेश्याओं को भी पूरे सम्मान के साथ दीक्षा देने का विधान रखा। दूसरे शब्दों में महातीर के जीवन-काल में जो स्त्री गणिका, वेश्या, दासी के रूप में पुरुष वर्ग द्वारा हेय दृष्टि से देखी जाती थी, भिक्षणी संघ में दीक्षित हो जाने के पश्चात् वह स्त्री समाज की दृष्टि में वन्दनीय हो जाती थी..." । नारी के प्रति पुरुष का यह विचार परिवर्तन युग-पुरुष महावीर की देन है।
भगवान बुद्ध ने भी भिक्षुणी संघ की स्थापना की थी, परन्तु स्वयमेय नहीं आनन्द के आग्रह से और गौतमी पर अनुग्रह करके । पर भगवान महावीर ने समय की माँग समझ कर परम्परागत मान्यताओं को बदलने के ठोस उद्देश्य से संघ की स्थापना की। जैन शासन-सत्ता की बागडोर भिक्ष-भिक्ष णी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध रूप में विकेन्द्रित कर तथा पूर्ववर्ती परम्परा को व्यवस्थित कर महावीर ने दुहरा कार्य किया।
___ इस संघ में कुल चौदह हजार भिक्षु, तथा छत्तीस हजार भिक्षुणियाँ थीं। एक लाख उनसठ हजार श्रावक और तीन लाख अठारह हजार श्राविकाएँ थीं । भिक्षु संघ का नेतृत्व इन्द्रभूति के हाथों में था तो भिक्ष णी संघ का नेतृत्व राजकुमारी चन्दनबाला के हाथ में था।
पुरुष की अपेक्षा नारी सदस्यों की संख्या अधिक होना इस बात का सूचक है कि महावीर ने नारी जागृति की दिशा में सतत् प्रयास ही नहीं किया, उसमें उन्हें सफलता भी मिली थी। चन्दनबाला, काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, महाकृष्णा आदि क्षत्राणियाँ थीं तो देवानन्दा आदि ब्राह्मण कन्याएँ भी संघ में प्रविष्ट हुईं।
"भगवती-सूत्र" के अनुसार जयन्ती नामक राजकुमारी ने महावीर के पास जाकर गम्भीर तात्त्विक एवं धार्मिक चर्चा की थी। स्त्री जाति के लिए भगवान् महावीर के प्रवचनों में कितना महान् आकर्षण था, यह निर्णय भिक्षुणी व श्राविकाओं की संख्या से किया जा सकता है । नारी जामरण : विविध आयाम
गृहस्थाश्रम में भी पत्नी का सम्मान होने लगा तथा शीलवती पत्नी के हित का ध्यान रखकर कार्य करने वाले पुरुष को महावीर ने सत्पुरुष बताया। सप्पुरिसो...""पुत्तदारस्स अत्थाए हिताय सुखाय होति......."विधवाओं की स्थिति में सुधार हुआ । फलस्वरूप विधवा होने पर बालों का काटना आवश्यक
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________________ नहीं रहा। विधवाएँ रंगीन वस्त्र भी पहनने लगीं जो पहले वर्जित थे। महावीर की समकालीन थावच्चा सार्थवाही नामक स्त्री ने मृत पति का सारा धन ले लिया था जो उस समय के प्रचलित नियमों के विरुद्ध था। "तत्थणं बारवईए थावच्चा नाम गाहावइणी परिवसई अड्ढा जाव"....। महावीर के समय में सती प्रथा बहुत कम हो गई थी। जो छुटपुट घटनाएँ होती थीं वे जीव हिंसा के विरोधी महावीर के प्रयत्नों से समाप्त हो गईं। यह सत्य है कि सदियों पश्चात् वे फिर आरम्भ हो गयीं। बुद्ध के अनुसार स्त्री सम्यक् सम्बुद्ध नहीं हो सकती थी, किन्तु महावीर के अनुसार मातृजाति तीर्थकर भी बन सकती थी। मल्ली ने स्त्री होते हुए भी तीर्थंकर की पदवी प्राप्त की थी। महावीर की नारी के प्रति उदार दृष्टि के कारण परिव्राजिका को पूर्ण सम्मान मिलने लगा। राज्य एवं समाज का सबसे पूज्य व्यक्ति भी अपना काम छोड़कर उन्हें नमन करता व सम्मान प्रदर्शित करता था। "नायधम्मकहा" आगम में कहा है : ___ तए णं से जियसत्तु चोक्खं परिव्वाइयं एज्जमाणं पासइ सीहासणाओ अब्भुढेई......"सक्कारेई आसणेणं उवनिमन्तेई / इसी प्रकार बौद्ध-युग की अपेक्षा महावीर युग में भिक्ष णी संघ अधिक सुरक्षित था। महावीर ने भिक्ष णी संध की रक्षा की ओर समाज की ध्यान आकर्षित किया। ___ यह सामयिक व अत्यन्त महत्वपूर्ण होगा कि महावीर स्वामी के उन प्रवचनों का विशेष रूप से स्मरण किया जाये जो पच्चीस सदी पहले नारी को पुरुष के समकक्ष खड़ा करने के प्रयास में उनके मुख से उच्चरित हुए थे। 00 सज्जन वाणी: 1. जो व्यक्ति धार्मिकता, और नैतिकता तथा मर्यादाओं का परित्याग कर देता है, वह मनुष्य कहलाने का अधिकार खो देता है / 2. धर्म से ही व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन, सामाजिक जीवन में समा नता, सेवा और श्रद्धा का सुयोग मिलता है जिससे व्यावहारिक जीवन 3. स्वभाव की नमृता से जो प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, वह सत्ता और धन 4. जिन्होंने मन, वचन काया से अहिंसा ब्रत का आचरण किया है उनके आस-पास का वातावरण अत्यन्त पवित्र बन जाता है / और पशू भी अपना वैर भाव भूल जाते हैं। -पू० प्र० सज्जनश्री जी म० 听听