Book Title: Maharashtra ke Jain Shilalekh Author(s): Vidyadhar Johrapurkar Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211659/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र के जैन शिलालेख डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर, भोपाल पुरातन जैन मुनि-परम्परा का बीसवीं शताब्दी में पुनरुद्धार एक आश्चर्यकारी घटना थी। इसका जैन समाज के चारित्रिक उत्थान पर बड़ा प्रभाव पड़ा। इस महत्कार्य के प्रेरणा स्रोत परमपूज्य आचार्य श्री शान्तिसागरजी के पुण्यदर्शन का सौभाग्य मुझे १९५४ में म्हसवड ग्राम में प्राप्त हुआ था। उनकी स्मृति में ज्ञान प्रसार का कार्य प्रारम्भ कर फलटन की जिनवाणी जिर्णोद्धार संस्था वास्तविक प्रशंसा की अधिकारी सिद्ध हुई है । इसके रौप्य महोत्सव का वृत्त परम प्रसन्नता का विषय है। इस अवसर पर स्वर्गस्थ आचार्य श्री के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में महाराष्ट्र के कुछ जैन शिलालेखों का विवरण यहां दे रहा हूँ। महाराष्ट्र के निश्चित इतिहास का प्रारम्भ ईसवी सन के प्रारम्भ के पूर्व पहली शताब्दी में सातवाहन राजवंश के साथ होता है । जैन कथाग्रन्थों में पादलिप्त, कालक आदि आचार्यों का सातवाहन राजाओं से सम्पर्क रहा था ऐसी कथाएं मिलती हैं । इन में सत्य का अंश कितना है यह अभी अभी तक अनिश्चित था । तीन वर्ष पूर्व पूना के निकट पाला ग्राम के समीपस्थ बन में एक गुहा में प्राप्त शिलालेख से अब यह प्रमाणित हो गया है कि सातवाहन युग में महाराष्ट्र में जैन श्रमणों का अस्तित्व था । इस लेख में पंच नमस्कार मंत्र की पहली पंक्ति अंकित है तथा गुहा और जलकुंड के निर्माण के प्रेरक आचार्य इन्द्ररक्षित का नाम भी है। महाराष्ट्र के जैन लेखों में यह सबसे पुरातन है। सातवाहनों के बाद के वाकाटक और उनके बाद के चालुक्य राजवंश के समय के जैन लेख महाराष्ट्र में अभी उपलब्ध नहीं हुए हैं। कर्णाटक में चालुक्यों के समय के कई लेख अवश्य मिलते हैं। तदनन्तर इस प्रदेश में राष्ट्रकूट राजवंश का अधिकार रहा । इस वंश के कई जैन लेख कर्णाटक, गुजरात, आन्ध्र तथा महाराष्ट्र इन चारों प्रान्तों में मिले हैं। महाराष्ट्र में प्राप्त लेखों में नासिक के पास वजीरखेड में प्राप्त दो ताम्रपत्रलेख महत्त्वपूर्ण हैं । सन ९१५ में राष्ट्रकूट सम्राट इन्द्रराज ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर जैन आचार्य वर्धमान को अमोघ वसति और उरिअम्म वसति नामक जिन मन्दिरों की देखभाल के लिए कुछ गांव दान दिये थे ऐसा इन ताम्रशासनों में वर्णन है। इनमें से अमोघ वसति नाम से यह भी अनुमान होता है कि इन्द्रराज के प्रपितामह सम्राट अमोघवर्ष की प्रेरणा से वह जिन मन्दिर बनवाया गया होगा । इसी समय के आसपास अर्थात नौवीं-दसवीं शताब्दी के कुछ संक्षिप्त शिलालेख एलोरा के जैन गुहाओं में मिले हैं । इनमें नागनन्दि और दीपनन्दि इन आचार्यों के तथा उनके कुछ शिष्यों के नाम हैं। यहां का एक लेख राष्ट्रकूट-राज्यकाल के बाद का अर्थात तेरहवीं शताब्दी का है, इसमें गुहामन्दिर के निर्माता ३१५ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ के रूप में चक्रेश्वर नामक सज्जन की प्रशंसा मिलती है । राष्ट्रकूट राज्यकाल के अन्तिम समय में कर्णाटक में श्रवण बेलगुल की विन्ध्यगिरि पहाड़ी पर भगवान् गोम्मटेश्वर की महामूर्ति की स्थापना हुई जिसका संक्षिप्त उल्लेख 'श्रीचामुण्ड राजे करवियले ' इस मराठी वाक्य में वहां अंकित है। यह मराठी के प्राचीनतम शिलालेखों में से एक है। राष्ट्रकूटों के बाद कल्याण के चालुक्यों का महाराष्ट्र पर अधिकार रहा । इस वंश के सम्राट भुवनैकमल्ल के समय का सन १०७१ का एक लेख नान्देड के पास तडखेल ग्राम में मिला है जिसके अनुसार सेनापति कालिमय्य तथा नागवर्मा ने निगलंक जिनालय नामक मन्दिर को भूमि, उद्यान आदि अर्पण किये थे। इसी वंश के सम्राट त्रिभुवनमल्ल के समय का सन १०७८ का एक लेख सोलापुर के समीप अक्कलकोट में मिला है, इसमें भी एक जैन मठ के लिए भूमि आदि के दान का वर्णन है। चालुक्यों के प्रतिस्पर्धी मालवा के परमार वंश के राजा भोज के सामन्त यशोवर्मन् द्वारा कल्कलेश्वर के जिनमन्दिर को कुछ दान दिया गया था जिसका वर्णन बम्बई के समीप कल्याण में प्राप्त एक ताम्रशासन में मिलता है। चालुक्यों के सामन्त शिलाहार वंश के राजा गण्डरादित्य द्वारा उसके सामन्त नोलम्ब को सन १११५ में दो प्रामों का अधिकार सौंपा गया था ऐसा कोल्हापुर के एक लेख से मालूम होता है । इसमें नोलम्ब को सम्यक्त्व-रत्नाकर तथा पद्मावती देवी लब्धवरप्रसाद ये विशेषण दिये हैं जिस से ज्ञात होता है कि वह जैन था। कोल्हापुर में ही प्राप्त एक अन्य लेख सन ११३५ का है। इसमें राजा गण्डरादित्य के सामन्त निम्बदेव द्वारा एक जिनमन्दिर के निर्माण का तथा वीरबलंज लोगों के संघ द्वारा आचार्य श्रुतकीर्ति को कुछ दान दिये जाने का वर्णन है । कोल्हापुर के सुप्रसिद्ध महालक्ष्मी मन्दिर में प्राप्त एक लेख में भी सामन्त निम्बदेव के जिनमन्दिर निर्माण का तथा आचार्य माघनन्दि का वर्णन मिलता है। यादव वंश के राजा सेउणचन्द्र का एक लेख सन ११४२ का है। यह नासिक के पास अंजनेरी के गुहामन्दिर में प्राप्त हुआ है। चन्द्रप्रभ मन्दिर के लिए दिये गये कुछ दानों का इसमें वर्णन है । धुलिया के समीप मुलतानपुर में सन ११५४ के आसपास का एक लेख मिला है। इसमें पुन्नाट गुरुकुल के आचार्य विजयकीर्ति का नाम अंकित हैं। अकोला के समीप पातूर से प्राप्त दो लेख सन ११८८ के हैं। ये इस समय नागपुर संग्रहालय में हैं। इनमें धर्मसेन, माणिकसेन आदि आचार्यों के नाम मिलते हैं। अकोला जिले में ही शिरपुर के जिनमन्दिर के द्वारपर एक लख है जिस की तिथि कुछ अस्पष्ट है । बारहवींतेरहवीं सदी के इस लेख में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ मन्दिर का उल्लेख प्राप्त होता है। तेरहवीं शताब्दी के अन्त में महाराष्ट्र में मुस्लिम शासन स्थापित हुआ। इसके बाद के अधिकांश लेख मूर्तियों के पादपीठों पर तथा आचार्यों की समाधियों पर पाये जाते हैं। इनकी संख्या काफी अधिक है। महाराष्ट्र में जिनमन्दिरों की संख्या दो सौ से अधिक है तथा प्रत्येक मन्दिर में कुछ न कुछ मूर्तिलेख Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराष्ट्र के जैन शिलालेख 317 अवश्य उपलब्ध होते हैं। नागपुर, कारंजा आदि स्थानों के ऐसे लेख प्रकाशित हुए हैं किन्तु अधिकांश स्थानों के लेख अभी अप्रकाशित हैं / इन लेखों से मध्ययुग में इस प्रदेश में विद्यमान आचार्यों और श्रावकों के विषय में बहुमूल्य सूचनाएं मिलती हैं / इनका इतिहास की दृष्टि से अध्ययन करने का प्रारम्भिक प्रयत्न हम ने भट्टारक सम्प्रदाय नामक ग्रन्थ में किया था। इस कार्य को आगे बढाना तथा महाराष्ट्र के समस्त मूर्तिलेखों का संकलन करना उपयोगी सिद्ध होगा। इस लेख में वर्णित शिलालेख माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई (अब वाराणसी) द्वारा प्रकाशित जैन शिलालेख संग्रह में देखे जा सकते हैं। इसके चार भाग प्रकाशित हो चुके हैं तथा पांचवे भाग का मुद्रण चल रहा है।