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महान साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जयाचाय
D साध्वी श्री भिकांजी (नोहर) युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या
तेरापंथ धर्म-संघ के चतुर्थ नायक श्री जीतमल जी स्वामी थे। आपकी प्रतिभा अद्वितीय थी, मेधा बड़ी प्रखर थी। जिस कार्य में भी हाथ बढ़ाया, उसमें सफलता ही मिली। भला पुरुषार्थी का कौन सहयोगी न बनता? आपने धर्मसंघ की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी। फलस्वरूप तेरापंथ धर्म-संघ में एक नया मोड़ आया। हालाँक पूर्व तीनों आचार्यों ने भी बहुत कुछ काम किया, किन्तु घोर संघर्ष के कारण जनता अंकन नहीं कर पायी। पर आपके समय में संघर्ष ने कुछ विराम लिया, अस्तु आप धर्म-संघ की नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए अथक परिश्रम से साहित्य निर्माण की ओर प्रवृत्त हुए क्योंकि साहित्य जीवन निर्माण के लिए सर्वोत्कृष्ट पाथेय एवं आधेय भी माना जाता है। हर संस्कृति का आधार साहित्य होता है। बिना साहित्य के बौद्धिक वर्ग कुछ पा नहीं सकता, इसलिए संघ को पल्लवित एवं विकसित करने के लिए आपने अपनी लेखनी चलानी शुरू की जबकि साहित्य हमारे प्रथम प्रणेता श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने भी बहुत लिखा, लगभग ३८ हजार पद्य । स्वामी जी की लेखनी ने जयाचार्य को प्रभावित किया । परिणामस्वरूप आपने साढ़े तीन लाख पद्य रचे । उनका विवरण संक्षेप में प्रस्तुत करना ही इस लेख का विषय है।
आपने नौ वर्ष की अवस्था में संयम स्वीकार किया। दो वर्ष बाद आपने लिखना आरम्भ कर दिया। ग्यारह वर्ष की आयु में ही आपकी काव्य शक्ति प्रस्फुटित होने लगी जो क्रमशः द्वितीया के चाँद तरह बढ़ती ही गई। आपकी स्मरण शक्ति एवं मेधा बड़ी विचित्र थी। इस अवस्था में जहाँ बालक अपने आप को भी नहीं संभाल पाता वहाँ आप साहित्यकार बन गये । “सन्त गुण माला" नामक आपका पहला ग्रन्थ देखकर आपकी असाधारण प्रतिभा का परिचय पाया जा सकता है।
आपकी साहित्यिक प्रतिभा को उजागर करने वाली साध्वीप्रमुखा श्री दीपांजी थी। वह घटना इस प्रकार है कि एकदा आप एक काष्ठ पात्री के रंग-रोगन देकर तैयार कर आपने आराध्य देव ऋषि रायचन्द जी को दिखा रहे थे, इतने में साध्वी श्री दीपांजी भी आ पहुंची। उन्होंने देखकर कहा कि ऐसा कार्य तो हम जैसी अनपढ़ साध्वियां भी कर सकती हैं। किन्तु मुनि प्रवर ! आप तो सूत्र-सिद्धान्तों का अन्वेषण कर कोई उपयोगी रत्न निकालते जिससे आपका और धर्मसंघ का विकास होता। इस छोटे से वाक्य ने आपके मानस को झकझोर डाला। फलस्वरूप आपने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर पञ्च-टीका लिखनी शुरू की । आगम जैसे दुरूह पथ पर बढ़े, जिसकी भाषा प्राकृत थी। सतत प्रयत्न करके अठारह वर्ष की अवस्था में सर्वप्रथम “पन्नवणा" सूत्र की जोड़ (पद्य-टीका) करके केवल तेरापंथ को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण जैन समाज को उपकृत किया। उसके पश्चात् उनका हौसला बढ़ता गया। एक के बाद एक आगमों का अनुसन्धान कर तत्त्व-जिज्ञासुओं के समक्ष नवनीत देते रहे। आपकी काव्य शक्ति विलक्षण थी । सुना जाता है कि जिस टाइम रचना करते उस टाइम अपने पास पांच सात साधु-साध्वियों को लिखने के लिए बैठा लेते। आप पद्य बोलते जाते, साधु-साध्वियाँ अनवरत रूप से क्रमशः लिखते जाते। कोलाहलमय वातावरण में भी लेखक की लेखनी विविध धाराओं में निर्बाध गति से चलती रही। आपने जहाँ भगवती जैसे आगम जटिल विषय का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया, वहाँ अनेक स्तुति काव्य, औपदेशिक काव्य, तात्विक-गद्य पद्य रूप में, इतिहास, जीवन
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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चरित्र, व्याकरण, संस्मरण आदि विविध धाराओं में अदम्य उत्साह के साथ साहित्य लिखते गये । आपने बहुत सारा साहित्य तत्कालीन समृद्ध भाषा मारवाड़ी में विशेष लिखा है क्योंकि जन-भाषा में लिखा हआ साहित्य ही जनोपयोगी हो सकता है।
आपके साहित्य में सहज सरसता, सुगमता गम्भीरता और धर्म तथा संस्कृति के रहस्य मर्म खोलने का स्वाभाविक चातुर्य छुपा हुआ है। आपका अपना स्वतन्त्र चिन्तन एवं मननपूर्वक लिखा हुआ साहित्य विशेष प्रभावकारी सिद्ध हुआ है । वस्तुत: कुशल साहित्यकार वही होता है जिसका लिखा हुआ साहित्य सुनने या पढ़ने मात्र से नयी चेतना की स्फुरणाएँ पैदा कर दे। भगवान महावीर ने कहा है-"जे सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंति महिं सयं"-जिस वाणी को सुनकर सोचकर इन्सान तप, संयम और अहिंसा को अंगीकार करें यानी सुपथ पर अग्रसर हों जिससे जीवन की धारा को नया मोड़ मिले । अस्तु, आपके साहित्य की झलक इस प्रकार है-आगम साहित्य पद्यानुवाद-१. भगवती री जोड़, २. पन्नवणा री जोड़, ३. निशीथ री जोड़, ४. ज्ञाता री जोड़, ५. उत्तराध्ययन री जोड़, ६. अनुयोग द्वार री जोड़, ७. प्रथम आचारांग री जोड़, ८. संजया एवं नियंठा री जोड़।
भगवती सूत्र ३२ आगमों में सबसे बृहद् ग्रन्थ है जिसको आद्योपान्त पढ़ना कठिन समझा जाता है। वहाँ कवि की लेखनी ने जटिलतम विषयों को पद्यमय बनाकर सचमुच ही एक आश्चर्यकारी कार्य किया है। बिना एकाग्रता इतने बड़े विशालकाय ग्रन्थ का अनुवाद ही नहीं बल्कि जगह-जगह अपनी ओर से विशेष टिप्पणी देने में अनुपम परिश्रम किया है । विविध राग-रागनियों में ५०१ ढालें और कुछ अन्तर ढालें लिखी हैं और दोहों के रूप में भी हैं। इसमें कुल ४६६३ दोहे. २२२४५ गाथाएँ, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छन्द, १८८४ प्राकृत एवं संस्कृत पद्य तथा पर्याय आदि ७४४६ तथा परिमाण ११६० ।
१३२६ पद्य परिमाण ४०४ यन्त्रचित्र आदि हैं। इन सबका कुल योग ५२६३२ हैं। इस कृति का अनुष्टप पद्य परिमाण ग्रन्थाग्र ६०९०६ है । इस प्रकार आगमों पर मारवाड़ी में पद्यमय टीका लिखने वाले शायद आप प्रथम आचार्य हुए हैं। इतने बड़े ग्रन्थ की लिपिकी हमारे धर्मसंघ की प्रमुखा साध्वी श्री गुलाबांजी एवं बड़े कालूजी स्वामी तथा मुनि श्री कुंदनमलजी हुए हैं जिन्होंने ५१६ पत्रों में प्रतिलिपि की है। इस प्रकार आपने राजस्थानी भाषा में ही आगमों की जोड़ की।
स्तुतिमय काव्य-चौबीस छोटी और बड़ी जिनमें २४ तीर्थकरों की विशेष स्तुति की है। "सन्त गणमाला" में श्रीमद् भारमलजी स्वामी के शासन काल में तत्कालीन मुनिवरों का विशेष वर्णन अंकित किया है। "सन्त गण वर्णन" में तेरापंथ धर्मसंघ के तेजस्वी मुमुक्षुओं की स्तवना की गई है। "सती गुण वर्णन" में विशिष्ट एवं तपस्विनी साध्वियों का चित्र अंकित किया है। "जिन शासन महिमा" में जैन धर्म की प्रभावना करने वाले विशेष साधु-साध्वियों का, पण्डित मरण प्राप्त करने वालों का एवं विघ्नहरण का इतिहास वर्णित है, जो कि बहुत रुचिकर एवं सरस है।
इतिहास-"हेम चोढालियो" इसमें चार ढालें है। समग्र गाथा ४६ हैं। "हेम नवरसो" में ढालें हैं। यह अपने शिक्षा एवं विद्यागुरु के विषय पर लिखी गई है। आपने अपने विद्या गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हए लिखा है
हूँ तो बिंदु समान थो, तुम कियो सिंधु समान ।
तुम गुण कबहु न बीसरु, निशदिन धरूं तुज ध्यान ।। ढा० ७, गा० २१ "शासन विलास" यह एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है। यह तेरापंथ प्रारम्भ दिवस वि० सं० १८१७ से लेकर वि० स० १८७८ तक तेरापंथ में दीक्षित साधु-साध्वियों का वर्णन प्रस्तुत करता है। इसकी चार ढालें हैं-सम्पूर्ण पद्य ५४७ हैं। 'लघुरास" में तत्कालीन प्रमुख ६ टालोकरों, यानी संघ से बहिष्कृत व्यक्तियों के विषय में अनूठा प्रकाश डाला गया है। वही वर्णन आज के युग में भी बहिर्भूत टालोकरों में पाया जाता है। इसमें १ दोहा, बाकी की ढालें समग्र ग्रन्थ व १३३६ गाथाएँ हैं । इस प्रकार इतिहास लिखने में आपकी लेखनी ने अद्भुत कौशल दिखलाया है।
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महान् साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जयाचार्य
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जीवन चरित्र-"भिक्ष जस रसायन” में आद्यप्रवर्तक महामना श्री भिक्षु स्वामी का राजस्थानी भाषा में प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत किया है। यह स्वामी जी का साक्षात्कार कराने वाला महान् ग्रन्थ है। यह चार भागों में विभक्त है—प्रथम में स्वामी जी की जीवनी, दूसरे भाग में दान-दया जैसे सैद्धान्तिक प्रश्नों का शास्त्र-सम्मत विश्लेषण, तृतीय भाग में स्वामीजी के जीवन-काल में दीक्षाओं का विवरण और चतुर्थ में स्वामीजी की अन्तिम आराधना, संघ को शिक्षा, चरम कल्याण, आकस्मिक आभास और समग्र चातुर्मासों का विवरण प्रस्तुत किया है। चारों की ढालें ६३ हैं । समग्र पद्यों की संख्या २१६६ है । कृति बहुत ही रोचक एवं सुन्दर है। “खेतसी चरित्र" इसमें धर्मसंघ के विनयी एवं सरस स्वभावी, उपनाम सतयुगी से बतलाये जाते थे, उनका वर्णन हैं । आपने तपस्या बहुत उग्र की। इसकी १३ ढालें, ६७ दोहे, समग्र पद्यों की संख्या २३७ है । "ऋषिराय सुयश" तेरापंथ धर्मसंघ के तृतीयाचार्य श्रीमद् रायचंदजी स्वामी की जीवन-झांकी प्रस्तुत करता है। इसमें १४ ढालें, ५० दोहे, समग्र पद्य २५७ हैं । “सतीदास चरित्र" "स्वरूप नवरसो" व "स्वरूप चौढालियो" में आपके ज्येष्ठ भ्राता का वर्णन बड़ा रोचक एवं प्रेरणदायी है । इसकी ६ ढालें, ६२ दोहे, १५ सोरठे, समग्र पद्य २६६ हैं । "हरख ऋषि रो चौढालियो," "शिवजी स्वामी रो चौढालियो,” आदि मुनिवरों का शिक्षाप्रद जीवन तथा त्यागमय जीवन का लेखा-जोखा है और "सरद.र सुयश" ग्रन्थ में महासती सरदारां जी का वर्णन है। यह ग्रन्थ नेरापंथ धर्मसंघ में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । आपका जीवन अनेक विशेषताओं को लिए हुए था-जैसे कुशल व्यवस्थापिका, मधुरभाषिणी, सफल लिपिकी, सत्प्रेरणादात्री, परमविदुषी व निर्भीक हृदया आदिआदि । जयाचार्य युगीन साध्वियों की व्यवस्थाओं को समुचित ढंग से व्यवस्थित रखने में आप प्रमुख थीं। दीक्षा के पूर्व सांसारिक झंझट झमेलों से उपरत होने के लिए आपको अनेकों संघर्षों से गुजरना पड़ा, पर आप कसौटी में स्वर्ण की भाँति खरी उतरी, यह सब वर्णन “सरदार सुयश" में बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित है।
आख्यान-महिपाल चरित्र, धनजी का बखाण, पार्श्वनाथ चरित्र, मंगल कलश, मोहजीत, सीतेन्द्र, शीलमंजरी, ब्रह्मदत्त चरित्र, रतनचूड़, खंधक संन्यासी, यशोभद्र, भरत-बाहुबली आदि अनेक उपन्यास आपने बहुत रोचक ढंग से लिखे । पाठकगण एक बार अवश्य वाचन करें।
तात्विक-इसमें "भ्रम-विध्वंसन" ग्रन्थ तेरापंथ और स्थानकवासी सम्प्रदाय के विचार भेद को स्पष्ट करने के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करता है। यह ३४ अधिकारों में विभक्त है । भगवान् महावीर की वाणी के आधार पर प्रस्तु' है । प्राचीन युग चर्चा का युग था। उसमें यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी रहा है साथ-साथ जन-प्रिय भी । देखियेजयपुरयाचार्य के दर्शनार्थ एक कच्छ प्रान्त का प्रमुख श्रावक मूलचंद कोलम्बी आया। जब उसने "भ्रम-विध्वंसन" को सुना तो इस ग्रन्थ से इतना प्रभावित हुआ कि उसकी प्रति को प्रच्छन्न रूप से चुराकर कच्छ ले गया और अतिशीघ्रता से बम्बई में मुद्रित करवा कर जनता के हाथों में पहुँचा दी। किन्तु वह अशुद्ध प्रति (रफ कापी) थी, पूर्णरूपेण संशोधित नहीं थी । अस्तु वह ग्रन्थ उपयोगी न होकर अनुपयोगी सिद्ध हो गया, अर्थ का अनर्थ हो गया। जब वह पुस्तक सन्तों के हाथ में आई तो सब देखते रह गये, उसको पढ़ा तो जगह-जगह इतनी अशुद्धियाँ भरी पड़ी थी कि पुस्तक कोई काम की नहीं रही। जब श्रावकों का ध्यान इस ओर गया तब मूल प्रति (शुद्ध) से संशोधित कर १८६० में गंगाशहर के सुप्रतिष्ठित श्रावक ईशरचंदजी चोपड़ा ने इसको पुनः प्रकाशित करवाकर जनोपयोगी बनाया। इस ग्रन्थ के मुख्य विषय इस प्रकार है-मिथ्यात्वी की क्रिया दान, अनुकंपा निरवद्य क्रिया, अल्प पाप बहुत निर्जरा आदिआदि । समग्र ग्रन्थाग्र १००७५ के लगभग है।
"सन्देह विषौषधि" नामक ग्रन्थ का रचनाकाल तब का है जब जनता में धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ घर कर गई थीं, उन भ्रान्त धारणाओं को दूर करने हेतु इस ग्रन्थ का निर्माण हुआ। इसके प्रमुख विषय निम्नोक्त हैं
__छठा गुणठाणानी ओलखणा, संयोग, व्यवहार, कल्प, श्रावक अविरति, ईर्यापथिकी क्रिया, निरवद्य आमना, भावी तीर्थंकर आदि-आदि । यह गद्यात्मक ग्रन्थ है । ग्रन्थाग्र लगभग १७०० है। 'जिनाज्ञा मुख मंडन' इसमें आगमोक्त
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
विधि साधुओं के लिए दर्शायी गई जो कि चर्मचक्षुओं से अकल्पनीय सी प्रतीत होती है किन्तु सर्वज्ञ द्वारा कथित होने की वजह से सन्देह का कोई स्थान नहीं रहता अतः इस दृष्टि से इसमें यथार्थ का उल्लेख किया गया है जैसे— नदी पार करना, पानी में डूबती साध्वी को साधुओं द्वारा बाहर निकालना, पाट-बाजोट आदि में से खटमल निकालना आदि-आदि । ग्रन्थाग्र १३७८ के लगभग है । 'कुमति विहंडन' इस ग्रन्थ के नाम से ही पता लगता है कुमति को दूर सद्बुद्धि प्रदान करना । इसके कुछेक विषय इस प्रकार हैं - गृहस्थ को सूत्र पढ़ाना, व्याख्यान देने रात्रि में अन्य स्थान में जाना, नित्यपिड देने का विधान, नव पदार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नय निक्षेप आदि-आदि। इस कृति का ग्रन्थाग्र १२४२ के लगभग हैं । "प्रश्नोत्तर सार्ध शतक" इसमें १५१ प्रश्नोत्तर हैं जैसे- भगवान द्वारा फोडी गई लब्धि की चर्चा, पुण्य की करणी आज्ञा में या बाहर, साधु अकेला रह सकता है या नहीं ? शुभयोग संवर है या नहीं ? आदिआदि । इसका ग्रन्थाग्र १५७८ है । 'चरचा रत्नमाला' यह ग्रन्थ जिज्ञासुओं के प्रश्नों का आगम तथा अन्य ग्रन्थों के प्रमाणों से समाधान प्रस्तुत करता है। इसका ग्रन्थाय १४६१ है । 'भिक्खू पृच्छा' 'बड़ा ध्यान' 'छोटा ध्यान' दोनों कृतियों में चंचल मन को एकाग्र बनाने के सुन्दर तरीके बतलाये हैं--ध्यान और स्वाध्याय । यह ग्रन्थ गद्यात्मक है । ग्रन्थाग्र १५० अनुष्टुप् प्रमाण है। 'प्रश्नोत्तर तत्व बोध', 'बृहद् प्रश्नोत्तर तत्त्व बोध' ये दोनों ग्रन्थ मूर्तिपूजक श्रावक कालूरामजी आदि श्रावकों की जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं । प्रश्नोत्तर में २७ अधिकार हैं, जिनमें १५१७ दोहे, १६३ खो, १० छंद, १० कलम १०३ अनुष्टुप् पद्य परिमाण १० यतिकाऐं एवं समग्र पचों की संख्या १८८३ है। बृहद् प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध की १२४८ गद्यात्मक हैं। श्रद्धा री चौपाई, जिनाज्ञा री चौपाई, अकल्पती व्यावच री चौपाई, झीणी चरचा यह ग्रन्थ लयबद्ध हैं । इनमें स्थान-स्थान पर आगमों के उद्धरण दिये हुए हैं, जिससे पाठकों को अल्प परिश्रम से अधिक ज्ञान सुगमता से प्राप्त हो सकता है। इसकी २२ ढालें, ५२ दोहे ५ सोरठे, समग्र पद्य ७४७ हैं । बड़ी रोचक होने से आज भी सैकड़ों श्रावकों के कण्ठस्थ मिलेगी । 'झीणी चरचा के बोल' यह गद्यात्मक है। द्रव्यजीव और भावजीव की दुरूह चर्चा सरल तौर-तरीकों से समझाई गई है २२५ गाथाएँ है 'शीणी ज्ञान' यह ग्रन्थ सूक्ष्म ज्ञान का दाता है जो जटिल विषय है। जैसे केवली समुद्घात करते समय कितने योगों को काम में लेते हैं, लोक स्थिति कैसी है, स्वर्ग-नरक कहाँ है, रोम आहार, ओज आहार, कवल आहार कौन-कौन से दंडकों में में होता है । आत्मा के साधक बाधक तत्व कौन-कौन से हैं आदि-आदि को बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है । 'भिक्ष कृत हुण्डी की जोड़' इसमें तत्कालीन ज्वलंत प्रश्नों का समाधान है - वे ये हैं- व्रताव्रत, जिनाज्ञा, दान-दया, अनुकंपा, सम्यक्त्व, आश्रय, सावद्य निरवद्य क्रिया, साध्वाचार आदि । 'प्रचूनी बोल' इसमें शास्त्र सम्मत विवादास्पद विषयों का संग्रह कर स्पष्टीकरण किया गया है। इसके ३०८ बोल हैं । ग्रन्थ पठनीय हैं ।
व्याकरण - हमारे धर्मसंघ में सवा सौ वर्ष पूर्व संस्कृत भाषा को कोई नहीं जानता था, क्योंकि अवैतनिक संस्कृतश पण्डित मिलना मुश्किल था, अस्तु, जयापार्य की अध्ययनशीलता एवं पेष्टा ने खोज कर ही डाली। आप जयपुर में थे तब एक लड़का दर्शनार्थ आया । वार्तालाप के दौरान उस छात्र ने कहा- मैं संस्कृत व्याकरण पढ़ता हूँ । आपने कहा- क्या पढ़ा हुआ पाठ मुझे बता सकते हो ? उस छात्र ने पाठ बताया, तब आपने कहा- तुम प्रतिदिन स्कूल में पढ़ कर मुझे सुनाया करो। आपने उस छोटे से बालक से सुने हुए संस्कृत पाठों को राजस्थानी भाषा में प्रतिबद्ध कर डाला । देखिए ज्ञान को पिपासा ! इतने बड़े धर्मसंघ के नायक होते हुए भी एक बच्चे से ज्ञान लेकर संस्कृत का विकास किया। इसके आगे 'आरुवात री जोड़ और साधनिका ये दोनों ग्रन्थ संस्कृत के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। 'दर्शन' दर्शन में 'नयचक्र री जोड़' 'नयचक्र' इसके रचयिता देवचन्द्रसूरि थे । संस्कृत भाषा में होने से हर व्यक्ति के लिए पढ़ना कठिन थी, साथ ही दर्शन का ज्ञान ही गहन होता है। इस दृष्टि से जयाचार्य ने सर्वजनोपयोगी बनाने के लिए राजस्थानी भाषा में रच डाला। इसमें १४४ दोहे, २० सोरठे, १८ छन्द, ७१८ गाथाएँ, ८७८ पद्य परिमाण, १३५ वार्तिकाएँ तथा सर्वपद्य १७७८ हैं ।
उपदेश - " उपदेश री चौपी" इस ग्रन्थ में ३८ डालें, १८ दोहे, सर्वपच ५०३ हैं । जीवन उत्थान हेतु प्रेरणादायक, वैराग्य रंग से ओत-प्रोत मानस को छू लेने वाली गीतिकाएँ हैं । गीत अन्तर्मन की सबसे सरस और मार्मिक
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________________ महान साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जयाचार्य 605 .......................................................................... अभिव्यक्ति का माध्यम है। गीत में मुखरित भावों की चित्रोपमता व्यक्ति को सहज और ग्राह्य बना देती है। इसलिए आपने गीत का सहारा लिया। 'शिक्षक की चोपाई' संघ को सुव्यवस्थित बनाने के लिए है / आचार्य को समयसमय पर अपने शिष्यों को सजग करना आवश्यक होता है। इस कृति में ऐसी ही सुन्दर शिक्षाओं का संकलन है। इसमें खोड़ीलो प्रकृति और चोखी प्रकृति यानी सुविनीत और अविनीत का बड़ा ही रोचक और स्पष्ट वर्णन है। इसी प्रकार गुरु-शिष्य का संवाद आदि अनेक पाठनीय सामग्री हैं। इसमें 26 ढालें, 33 दोहे, समग्र पद्य 660 हैं / "आराधना" यह ग्रन्थ वैराग्य रस से ओत-प्रोत है। साधक को अन्तिम अवस्था में सुनाने से ये पद्य संजीवनी बूटी का-सा काम करते हैं। भाव-पक्ष और शैली-पक्ष-काव्य कसौटी के दो आधार माने गये हैं / इस ग्रन्थ में दोनों ही पक्ष पूर्णतया पाये जाते हैं। जीवन की सम्पूर्ण सक्रियता के पीछे गीतों की प्रेरणा बड़ी रोचक रही है। इसमें दस द्वार हैंआलोयणा द्वार, दुरकृत निन्दा, सुकृत अनुमोदना, भावना, नमस्कार मन्त्र जाप आदि-आदि / "उपदेश रत्न कथा कोष" इसमें करीब 108 विषय हैं। प्रत्येक विषय पर कथाएँ, दोहे, सोरठे, गीत आदि विषय के अनुसार व्याख्यान का मसाला बड़े अच्छे ढंग से संकलित किया गया है। वर्तमान में जैसे मुनि धनराजजी प्रथम ने 'वक्तृत्व कला के बीज" रूप में तैयार किया है। ____ संविधान-“गणविशुद्धिकरण हाजिरी' (गद्यमय) तेरापंथ प्रणेता स्वामीजी ने संघ की नींव को मजबूत बनाने के लिए विभिन्न मर्यादाएँ बनायीं। उनका ही आपने क्लासिफिकेशन कर उसका नामकरण "गणविशुद्धिकरणहाजिरी" कर दिया। वे 28 हैं। प्रत्येक हाजिरी शिक्षा और मर्यादा से ओत-प्रोत है। संघ में रहते हुए साधुसाध्वियों को कैसे रहना, संघ और संघपति के साथ कैसा व्यवहार होना, अनुशासन के महत्त्व को आंकना, संघ का वफादार होकर रहना आदि बहुत ही सुन्दर शिक्षाएँ दी गयी हैं। सामुदायिक जीवन की रहस्यपूर्ण प्रक्रियाओं का परिचायक ग्रन्थ है। बड़ी मर्यादा, छोटी मर्यादा तथा लिखता री जोड़-ये तीनों ही कृतियाँ मर्यादाओं पर विशेष प्रकाश डालती है। तेरापंथ धर्मसंघ की प्रगति का श्रेय इन्हीं विधानों और महान् प्रतिभाशाली आचार्यों को है। जिनके संकेत मात्र से सारा संघ इस भौतिक वातावरण में भी सुव्यवस्थित एवं सुन्दर ढंग से चल रहा है। "परम्परा रा बोल" परम्परा रा बोल (गोचरी सम्बन्धी) तथा 'परम्परा री जोड़' इनमें ठाणांग, निशीथ तथा भगवती आदि आदि सूत्रों को साक्षी देकर संयमियों को कैसे संयम निर्वाह करना विधि-विधानों का उल्लेख किया है। इस प्रकार धर्म संघ को प्राणवान् बनाये रखने के लिए जयाचार्य ने विपुल साहित्य का निर्माण किया। सम्पूर्ण जानकारी के लिए देखिए "जयाचार्य की कृतियाँ : एक परिचय" पुस्तिका लेखक मुनि श्री मधुकरजी। इसमें भी विहंगम दृष्टि से ही दिया है / समग्र ग्रन्थों का परिचय तो साहित्य के गहन अध्ययन से ही पाया जा सकता है। सचमुच आप जन्मजात साहित्यकार थे, आपको किसी ने बनाया नहीं / साहित्य भी ऐसा-वैसा नहीं बल्कि अत्यन्त अन्वेषणापूर्वक मौलिक साहित्य लिखा है / संगीत की पीयूष मयी धारा जगह-जगह लालित्यपूर्ण ढंग से प्रवाहित हुई है। कवि का अनुभूतिमय चित्रण साहित्य में बोल रहा है / आपकी महत्वपूर्ण कृतियाँ काव्य जगत् की अत्यधिक आस्थावान आधार बनेंगी। राजस्थान में आज जो पीड़ी राजस्थानी काव्य का प्रतिनिधित्व कर रही है उसमें जयाचार्य का काव्य शीर्षस्थ पंक्ति में होगा। राजस्थानी भाषा का माहिर ही आपके साहित्य से अनूठे रत्न निकाल पायेगा / आपका साहित्य कबीर, मीरा आदि किसी से कम नहीं है। अभी तक आपका साहित्य प्रकाशित नहीं हो पाया है। जब सारा साहित्य प्रकाशित होगा, तब ही जनता आपकी बहुमुखी प्रतिभा से भली भांति परिचित हो पायेगी।