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चूडा पधारे। सं० २००८ जेठ बदि ७ को दादा जिन- चरणों की प्रतिष्ठा बड़े धूमधाम से हुई। दत्तसूरि मूर्ति, मणिधारी जिन'द्रसूरि व जिनकुशलसूरि एवं सं० २०१० का चातुर्मास सूरिजी ने मांडवी किया। पं, केशरमुनिजी की पादुकाएं प्रतिष्ठित की। वहां से मि० व० २ को धर्मनाथ जिनालय पर ध्वजदड चढ़ाया आहोर, जालोर होते हुए गढ़सिवाणा आकर चातुर्मास गया, उत्सव हुए। मोटा आसंबिया में मंदिर का शताकिया। फिर नाकोडाजी पधार कर मार्गशिर सुदि १ ब्दी महोत्सव हुआ। भुज को दादाबाड़ी में हेमचंद को दादासाहब जिनदत्तसूरि मूर्ति व श्रीकीतिरत्नसूरिजी भाई की ओर से नवीन जिनालय निर्माण हेतु सं० २०११ की जीर्णोद्धारित देहरी में प्रतिष्ठा करवाई। नाकोड़ाजी वै० श० १२ को सूरिजी के कर-कमलों से खात महत से विहार कर सूरिजी डीसा कैंप भील डियाजी होते हुए हुआ। तदनंतर सूरिजी ने अंजार चातुर्मास किया। राधनपुर, कटारिया, अंजार होते हुए भद्रेश्वर तीर्थ पहुँचे । · भद्रेश्वरजी की यात्रा कर मांडवी होते हुए भुज
चातुर्मास के पश्चात् भद्रेश्वर यात्रा कर मांडवी पधारे, संघ का चिरमनोरथ पूर्ण हआ। यहाँ दादाबाडी पधारे। वहां की विशाल रमणीय दादावाड़ी में दादा निर्माण का लम्बा इतिहास है पर इसकी चेष्टा करने वाले जिनदत्तसूरि प्रतिमा विराजमान करने का उपदेश दिया. हेमचन्द भाई जिस दिन स्वर्गवासी हुए उसी दिन आपने स्वप्न
पटेल वीकमसी राघवजी ने इस कार्य को सम्पन्न करने की में पुरानी और नई दादावाड़ी आदि सहित उत्सव को व अपनी भावना व्यक्त की । सूरिजी का शरीर स्वस्थ था, आंख हेमचंद भाई आदि को देखा वही दृश्य मजकी दादावाडी का मोतियबिद उतरता था जिसका इलाज कराना था पर प्रतिष्ठा के समय साक्षात् हो गया । सं० २००६ माघ सुदि
माघ वदी ८ को अर्धाङ्ग व्याधि हो गयी ओर माघ सुदि १ ११ को बड़े समारोह पूर्वक प्रतिष्ठा हई । सूरत से सेठ के दिन समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हुए । आपने अपने जीवन बालूभाई विधि-विधान के लिये आये। जिनदत्तसूरि की में शुद्ध चरित्र पालन करते हुए, शासन और गच्छ की खूब प्रतिमा व मणिधारी जिनचन्द्रसरि व श्रीजिनकशलसरि के प्रभावना की थी।
विद्वदर्थ उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी
[भंवरलाल नाहटा ] बीसवीं शताब्दी के महापुरुषों में खरतरगच्छ विभूषण वाला है। उ० श्रीलब्धिमुनिजी महाराज ने आपके वचनाश्री मोहनलालजी महाराज का स्थान सर्वोपरि है। वे मृत से संसार से विरक्त होकर संयम स्वीकार किया था। बड़े प्रतापी, क्रियापात्र, त्यागी-तपस्वी और वचनसिद्ध श्रीलब्धिमुनिजी का जन्म कच्छ के मोटी खाखर गाँव योगी पुरुष थे। उनमें गच्छ कदाग्रह न होकर संयम साधन में हुआ था। आपके पिता दनाभाई देढिया वीसा ओसऔर समभावी श्रमणत्व सुविशेष था। उनका शिष्य समु- वाल थे। सं० १९३५ में जन्म लेकर धार्मिक संस्कार युक्त द्वाय भी खरतर और तपा दोनों गच्छों की शोभा बढ़ाने माता-पिता की छत्र-छाया में बड़े हुए। आपका नाम
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w] लधाभाई था। आपसे छोटे भाई नानजी और रतनबाई केशरमुनिजी व रत्नमुनिजी के साथ विचर कर चार वर्ष नामक बहिन थी। सं० १६५८ में पिताजी के साथ बम्बई बम्बई विराजे । सं० १९८९ का चौमासा जामनगर करके जाकर लधाभाई, मायखला में सेठ रतनसी की दुकान में फिर कच्छ पधारे । मेराऊ, मॉडवी, अंजार, मोटी खाखर, काम करने लगे। यहाँ से थोड़ी दूर पर सेठ भीमसी करमसी मोटा आसंबिया में क्रमश: चातुर्मास करके पालीताना को दुकान थी, उनके ज्येष्ठ पुत्र देवजो भाई के साथ और अहमदाबाद में दो चातुर्मास व बम्बई, घाटकोपर में आपकी घनिष्ठता हो गई क्योंकि वे भी धार्मिक संस्कार दो चातुर्मास किये । सं० १९९६ में सूरत चातुर्मास करके वाले व्यक्ति थे। सं० १९५८ में प्लेग की बीमारी फैली फिर मालवा पधारे। महीदपुर, उज्जैन, रतलाम में जिसमें सेठ रतनसी भाई चल बसे। उनका स्वस्थ शरीर चातुर्मास कर सं० २००४ में कोटा, फिर जयपुर, अजमेर, देखते-देखते चला गया, यही घटना संसार की क्षणभंगुरता व्यावर और गढ़ सिवाणा में सं० २००८ का चातुर्मास बताने के लिये आपके संस्कारी मनको पर्याप्त थी। मित्र बिता कर कच्छ पधारे। सं० २००६ में भुज चातुर्मास देवजी भाई से बात हुई, वे भी संसार से विरक्त थे। कर श्रीजिनरत्नसूरिजी के साथ ही दादाबाड़ी को प्रतिष्ठा संयोगवश उस वर्ष परमपूज्य श्रीमोहनलालजी महाराज को। फिर मांडवी, अंजार, मोटा आसंबिया, भुज आदि का बम्बई में चातुर्मास था। दोनों मित्रों ने उनकी अमृत- में विचरते रहे। सं० १६७६ से २०११ तक जबतक वाणी से वैराग्य-वासित होकर दीक्षा देने की प्रार्थना की। श्रोजिनरत्नसूरिजी विद्यमान थे, अधिकांश उन्हीं के साथ
पूज्यश्री ने मुमुक्षु चिमनाजी के साथ आपको अपने विचरे, केवल दस बारह चौमासे अलग किये थे। उनके विद्वान शिष्य श्रीराजमुनिजी के पास आबू के निकटवर्ती स्वर्गवास के पश्चात् भी आप वृद्धावस्था में कच्छ देश के मंढार गांव में भेजा। राजमुनिजो ने दोनों मित्रों को विभिन्न क्षेत्रों को पावन करते रहे । सं० १९५८ चैत्रवदि ३ को शुभमुहर्त में दीक्षा दी। आप बड़े विद्वान, गंभीर और अप्रमत्त विहारी थे । श्रीदेवजी भाई रत्नमुनि (आचार्य श्रीजिनरत्नसूरि) और लधा विद्यादान का गुण तो आप में बहुत ही श्लाघनीय था। भाई लब्धिमुनि बने । प्रथम चातुर्मास में पंच प्रतिक्रमणादि काव्य, कोश, न्याय, अलंकार, व्याकरण और जैनागमों का अभ्यास पूर्ण हो गया । सं० १६६० वैशाख सुदि १० के दिग्गज विद्वान होने पर भी सरल और निरहंकार रह को पन्यास श्रीयशोमुनिजी (आ० जिनयशःसूरिजी) के पास कर न केवल अपने शिष्यों को ही उन्होंने अध्ययन कराया आप दोनों की बड़ो दीक्षा हुई। तदनन्तर सं० १९७२ तक अपितु जो भी आया उसे खूब विद्यादान दिया। श्रीजिनराजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात और मालवा में गुरुवर्य श्रीराज- रत्नसूरिजी के शिष्य अध्यात्मयोगी सन्त प्रवर श्रीभद्रमुनि मुनिजी के साथ विचरे । उनके स्वर्गवासी हो जाने से डग ( सहजानंदघन ) जी महाराज के आप ही विद्यागुरु थे । में चातुर्मास करके सं० १६७४-७५ के चातुर्मास बम्बई उन्होंने विद्यागुरु की एक संस्कृत व छः स्तुतियाँ भाषा
और सूरत में पं० श्रीऋद्धिमुनिजी और कान्तिमुनिजी के में निर्माण को जो लब्धि-जीवन प्रकाश में प्रकाशित हैं । साथ किये। तदनन्तर कच्छ पधार कर सं० १९७६-७७ के उपाध्यायजी महाराज अपना अधिक समय जाप में तो चातुर्मास भुज व मॉडवी में अपने गुरु-भ्राता श्रीरत्नमुनिजी बिताते ही थे पर संस्कृत काव्यरचना में आप बड़े सिद्धके साथ किये। सं० १९७८ में उन्हीं के साथ सूरत हस्त थे। सरल भाषा में काव्य रचना करके साधारण चौमासा कर १६७६ से ८५ तक राजस्थान व मालवा में व्यक्ति भो आसानीसे समझ सके इसका ध्यान रख कर
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________________ ( 15 ] क्लिष्ट शब्दों द्वारा विद्वत्ता प्रदर्शन से दूर रहे। आप आपने जैनमन्दिरों, दादावाड़ियों और गुरु चरणसंस्कृत भाषा के प्रखर विद्वान और आशुकवि थे। सं० मूर्तियों की अनेक स्थानों में प्रतिष्ठाए करवायी। आपके 1970 में खरतरगच्छ पट्टावली की रचना आपने 1745 उपदेश से अनेक मन्दिरों का नवनिर्माण व जीर्णोद्धार श्लोकों में की। सं० 1972 में कल्पसूत्रटीका रची / नवपद हआ। सं० 1973 में पणासली में जिनालय की प्रतिष्ठा स्तुति, दादासाहब के स्तोत्र, दीक्षाविधि, योगोद्वहन विधि कराई। सं० 2013 में कच्छ मांडवी की दादावाड़ी का आदि की रचना आपने 1977-76 में की। सं० 1660 माघबदि 2 के दिन शिलारोपण कराया / सं० 2014 में में श्रीपालचरित्र रचा। निर्माण कार्य सम्पन्न होने पर श्रीजिनदत्तसूरि मन्दिर की सं० 1962 में हमारा युगप्रधान श्रीजिनचन्द्रसूरि प्रतिष्ठा करवायी और धर्मनाथ स्वामी के मन्दिर के पास ग्रन्थ प्रकाशित होते ही तदनुसार 1212 श्लोक और छः खरतर गच्छोपाश्रय में श्रीजिनरत्नसूरिजी की मूर्ति प्रतिष्ठित सर्गो में संस्कृत काव्य रच डाला। सं० 1980 में करवायी। सं. 2016 में कच्छ-भुज की दादावाड़ी में आपने जेसलमेर चातुर्मास में वहाँ के ज्ञानभंडार से कितने सं० हेमचन्द भाई के बनवाये हुए जिनालय में संभवनाथ ही प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां की थीं। सं० 1966 भगवान आदि जिनबिम्बों की अञ्जनशलाका करवायी। में 633 पद्यों में श्रीजिनकुशलसूरि चरित्र, सं० 1698 में और भी अनेक स्थानों में गुरुमहाराज और श्रीजिनरत्नसूरि 201 श्लोकों में मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि चरित्र एवं जी के साथ प्रतिष्ठादि शासनोन्नायक कार्यों में बराबर सं० 2005 में 468 श्लोकमय श्रीजिनदत्तसूरि चरित्र भाग लेते रहे / काव्य की रचना की। ___ ढाई हजार वर्ष प्राचीन कच्छ देश के सुप्रसिद्ध भद्रेश्वर ____सं० 2011 में श्री जिनरत्नसूरि चरित्र, सं० 2012 तीर्थ में आपके उपदेश से श्रीजिनदत्तसूरिजी आदि गुरुदेवों में श्रीजिनयश:सूरि चरित्र, सं० 2014 में श्रीजिनऋद्धि का भव्य गुरु मन्दिर निर्मित हुआ। जिसको प्रतिष्ठा आपके सूरि चरित्र, सं० 2015 में श्री मोहनलालजी महाराज स्वर्गवास के पश्चात बडे समारोह पूर्वक गणिवर्य श्रीप्रेमका जोवन चरित्र श्लोकबद्ध लिखा / इस प्रकार आपने मनिजी व श्रीजयानन्दमुनिजी के करकमलों से सं० 2026 नौ ऐतिहासिक काव्यों के रचने का अभूतपूर्व कार्य किया। बैशाख सुदि 10 को सम्पन्न हुई। इनके अतिरिक्त आपने सं० 2001 में आत्म-भावना, सं. 2005 में द्वादश पर्व कथा, चैत्यवन्दन चौबीसी, बीस उपाध्याय श्रीलब्धिमुनिजी महाराज बाल-ब्रह्मचारो, स्थानक चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ और पांचपर्व-स्तुतियों की भी उदारचेता, निरभिमानी, शान्त-दान्त और सरलप्रकृति के रचना की। सं० 2007 में संस्कृत श्लोकबद्ध सुसढ चरित्र दिग्गज विद्वान थे। वे 65 वर्ष पर्यन्त उत्कृष्ट संयम का निर्माण व 2008 में सिद्धाचलजी के 108 खमासमण साधना करके 88 वर्ष की आयु में सं० 2023 में कच्छ भी श्लोकबद्ध बनाये। के मोटा आसंबिया गाँव में स्वर्ग सिधारे /