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महेन्द्र राजा एम० ए०, डिप० लिप-एस-सी०, एफ० एल० ए० (लंदन) कुछ विदेशी लेखकों की दृष्टि में जैनधर्म एवं भगवान महावीर
लगभग ७ वर्ष तक इंग्लैंड के सार्वजनिक पुस्तकालयों के संपर्क में रहने के बाद मुझे आज यह लिखने में जरा भी संकोच नहीं कि भारत और भारतीयों के विषय में जितनी पुस्तकें अंग्रेजी में प्रकाशित हुई हैं, उतनी हिन्दी तो बहुत दूर, भारत ही नहीं, संसार की भी किसी अन्य भाषा में उपलब्ध नहीं होंगी. इतना होने पर भी अंग्रेजी में प्रतिवर्ष भारत सम्बन्धी २०-२५ पुस्तकें प्रकाशित होती ही रहती हैं. इन पुस्तकों के रचयिता कोई ऐरे-गेरे लोग नहीं होते जो इंग्लैंड या युरोप में रहते हुए भारत के सपने देखते रहते हैं और फिर भारत के संबंध में इधर उधर से कुछ पढ़कर स्वयं के नाम से कोई पुस्तक तैयार कर लेते हैं. इन पुस्तकों के लेखक वस्तुत: वे लोग होते हैं जिन्हें भारतीय परिवारों के संपर्क में आने का भले ही कोई अवसर न मिला हो, पर उन्होंने भारत के बाहरी रूप को अच्छी तरह देखा है. आज अंग्रेजी के उपलब्ध प्रकाशित साहित्य की स्थिति यह है कि आपको प्रायः प्रत्येक विषय की पुस्तक मिल जाएगी. कुछ विषयों के एक-एक अंग पर बड़े-बड़े ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं. किसी भी देश का इतिहास, संस्कृति, धर्म, आचारविचार, आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था आदि के सम्बन्ध में उस देश की किसी भाषा में भले ही कोई पुस्तक न मिले, पर यदि आप अंग्रेजी साहित्य की ओर दृष्टि करें तो आपको शायद ही निराश होना पड़े. सूचीकार एवं वर्गीकार (Cataloguer and classifier) के रूप में कार्य करते हुए प्रतिवर्ष लगभग दस हजार से ज्यादा पुस्तकें मेरे हाथ से गुजरती हैं. इन पुस्तकों में मैंने उपन्यास एवं कथासाहित्य की पुस्तकें सम्मिलित नहीं की हैं. इतनी अधिक पुस्तकें पढ़ने का अवसर भले ही न मिला हो पर इन पुस्तकों की विषयवस्तु, उनके लेखक का परिचय, उनकी उपादेयता, विषय-विश्लेषण आदि को समझने का अवसर अवश्य मिला है. इसके अतिरिक्त कभी-कभी पुस्तक के किसी अध्याय में अकस्मात् भारत सम्बन्धी कोई बात नजर आ गई तो फिर उत्सुकतावश उसे पढ़ने का मोह भी संवरण नहीं कर पाया हूँ. इस प्रकार अपने कार्य के दौरान में मेरे हाथों से ऐसी अनेक पुस्तकें गुजरी हैं जिनमें यथावसर भगवान् महावीर एवं जैन धर्म सम्बन्धी चर्चा भी आई है. इन पुस्तकों के जैनधर्म सम्बन्धी अध्यायों या पेरेग्राफों को मैंने रुचिपूर्वक पढ़ा है. उन्हें पढ़ कर कई बार मेरे मन में यह इच्छा हुई कि मैं "विदेशी लेखकों की दृष्टि में जैनधर्म एवं महावीर" शीर्षक एक लेख लिख डालू, पर आलस्यवश ऐसा नहीं कर सका. पिछले वर्ष जब श्री हजारीमल स्मृति-ग्रंथ के लिए किसी लेख की मांग की गई तो अकस्मात् ही मुझे उक्त विषय स्मरण हो आया और मैं इस लेख की तैयारी करने लगा. अभी तक मुझे जितनी भी पुस्तकों में जैन धर्म सम्बन्धी उल्लेख देखने को मिले हैं, उन सभी के लेखक इस मत से सहमत हैं कि जैनधर्म बौद्धधर्म से पुराना है पर इन दोनों ही धर्मों का विकास एवं उत्थान छठी शताब्दी में विशेष रूप से हुआ. प्रायः सभी लेखक इस मत के भी हैं कि ये दोनों धर्म ब्राह्मणत्व के विरोध में उठे और अपने उद्देश्य में बहुत कुछ सफल भी हुए.
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२७२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय “एन एनसाईक्लोपीडिया आफ रिलीजन' में चार्ल्स एस०ब्रेडन जैनधर्म सम्बन्धी परिच्छेद में लिखते है “कि जैनधर्म स्पष्ट ही बौद्धधर्म से कुछ पुराना है और उसका प्रारम्भ छठी शताब्दी से बहुत पहले का माना जा सकता है ..जैनधर्म में हिंदू धर्म के कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को कुछ परिवर्तित रूप में अपनाया गया है. विश्व के किसी भी अन्य धर्म की अपेक्षा जैनधर्म में 'अहिंसा' या किसी को कष्ट न देने के सिद्धान्त को सर्वाधिक प्रमुखता दी गई है. जैनधर्मानुयायियों के मंदिर बहुत ही आकर्षक एवं विश्व के अन्य मतानुयायियों के पूजास्थलों की अपेक्षा भव्य होते हैं. वास्तुकला की दृष्टि से भी उनका अलग महत्त्व है. कोई भी अपरिचित व्यक्ति उन्हें प्रथम बार देखकर सहसा स्तंभित रह जाता है." विश्वप्रसिद्ध अमेरिकी पाक्षिक पत्रिका 'लाइफ' में समय-समय पर जो लेखमालाएं प्रकाशित होती हैं, बाद में अधिकांश का प्रकाशन संदर्भ-ग्रन्थ के रूपमें भी होता है. १६५६ में इस पत्रिकाके संपादकों की ओर में वर्ल्ड स् ग्रेट रिलीजियन्स'२ नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था. वैसे तो इस ग्रंथ में प्रायः सभी धर्मों के सम्बन्ध में लम्बे-लम्बे सचित्र लेख दिये गए हैं तथा विश्व के अनेक धर्मों का परिचय अलग-अलग परिच्छेदों में हैं. कम संख्या वाले मतानुयायियों का परिचय एक प्रारम्भिक परिच्छेद में दिया गया है. इसी परिच्छेद में जैन, सिख और पारसी धर्मों के लिए भी एक-एक पैराग्राफ दिया गया है. अन्य प्रसिद्ध लेखकों के समान, 'लाइफ' के संपादकों के मत से भी जैनधर्म का प्रारम्भ ईसापूर्व छठी शताब्दी में हिन्दूधर्म की बुराइयों के विरुद्ध एक आंदोलन के रूप में हुआ था... - एक शब्द में जैनधर्म का मुख्य सिद्धांत 'अहिंसा' है जिसे बहुधा जैन लोग इस सीमा तक मानते हैं कि पाश्चात्य वातावरण में पले लोगों को हास्यास्पद सा जान पड़ता है. ऐसी स्थिति में यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होना चाहिए कि जैन लोग गांधीजी को किस प्रकार अपने मत का अनुयायी मानने का दावा करते हैं. 'लाइफ' के मत से जैनत्व 'धर्म' की अपेक्षा नीति' अधिक है, भले ही जैनियों के अपने तीर्थकर हों, विशाल मन्दिर हों तथा उनमें वे पूजन-अर्चन करते हों. आधुनिक युग में जैनधर्म एक नए रूप में विश्व के समक्ष आगे आ रहा है. विश्वबन्धुत्व तथा युद्ध की समाप्ति की पृष्ठभूमि में जैनधर्म का अपना अलग महत्त्व है तथा रहेगा. "दी न्यू शेफ-हर जोग एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजियस नालेज" 3 में श्री ज्योफ डब्ल्यू० गिलमोर ने जैनधर्म के संबन्ध में लिखा है कि जैनधर्म के संस्थापक पार्श्वनाथ थे जिन्होंने यद्यपि एक स्वतंत्र विचारधारा को जन्म दिया पर वह विचारधारा उनके बाद दो शताब्दी तक कार्यशील नहीं हो पाई. उनकी इस विचारधारा को आगे बढ़ाने का श्रेय महावीर को है जो उनके करीब २५० साल बाद हुए. इसके बाद जैनधर्म एवं बौद्धधर्म की समानता बतलाते हुए लेखक ने मुख्य रूप से अहिंसा का उल्लेख किया है और यह ठीक ही लिखा है कि "दोनों धर्मों में अहिंसा मुख्य सिद्धांत होते हुए भी जैनधर्म इस अर्थ में अधिक महत्त्व रखता है कि अहिंसा के सिद्धान्त को जैन लोग जिस कट्टरता से मानते हैं और उसका व्यवहार में जितना प्रयोग करते हैं, उतना बौद्ध लोग नहीं. इसका प्रमाण केवल इस तथ्य से मिल जाता है कि जैन मुनि अहिंसा का पालन करने में इतने आगे बढ़े हुए हैं कि वे अपने मुंह पर हमेशा एक पट्टी बाँधे रहते हैं ताकि सांस लेने या बाहर निकालने में किसी जीव की हत्या न हो जाए, इसी प्रकार जब वे उठते-बैठते या सड़क पर चलते हैं तो एक छोटा सा झाडू साथ में लिए रहते हैं जिससे वे रास्ता साफ करते चलते हैं और इस प्रकार किसी संभावित हिंसा से बचे रहते हैं.
१. Encyclopedia of Religion; edited by vergilius Ferm (New york, Philosophical Library,
1945) २. 'World's Great religions' by the editors of 'Life' International. 3. The New Schaff Herzog encyclopedia of religious Knowledge, edited by Samuel Macaulay
Jackson (Baker Book, House Michigan,1956, ४. लेखक का आशय रजोहरण से है, जो प्रायः ऊन का होता है.-सम्पादक
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महेन्द्र राजा : विदेशी लेखकों की दृष्टि में जैनधर्म और महावीर : २७३
बाद में जैनधर्म एवं ब्राह्मण धर्म की समानता का विलक्षण उदाहरण देते हुए लेखक ने जैनधर्म का मूल ब्राह्मण धर्म में बतलाया है. लेखक का मत है कि जैनधर्म का अधिकांश आचार-विचार ब्राह्मण धर्म पर आधारित है. उदाहरणतः ब्राह्मण धर्म में साधुओं को वर्षाकाल में विहार करना मना है तथा किसी एक स्थान पर निश्चित काल से अधिक समय तक ठहरने का भी निषेध है. यही बात जैन धर्म में भी है. ब्राह्मण एवं जैन धर्म दोनों में ही साधुओं को केश न कटवाने का विधान है तथा दोनों ही धर्मों में पानी छान कर पीने तथा साधुओं को साथ में एक भिक्षापात्र रखने का नियम है. अत: जैनधर्म को ब्राह्मण धर्म के विरोध में खड़े दो आन्दोलनों में से एक ही माना जा सकता है, जैनधर्म की नींव, विचारधारा एवं आचार-विचार का आधार ब्राह्मण धर्म ही है." कहने की आवश्यकता नहीं कि लेखक के उक्त मत से विशेषकर 'पानी छानकर पीने की बात' से शायद ही कोई व्यक्ति सहमत होगा. अहिंसा के समान ही पानी छानकर पीने की बात भी जैनधर्म की अपनी विशेषता है तथा उसका उद्देश्य भी अनावश्यक हिंसा से बचाव ही है. आज तक ऐसा कहीं कभी सुना या पढ़ा नहीं गया कि ब्राह्मण धर्म में भी पानी छानकर पीने का एक आवश्यक नियम बतलाया गया है. जैनधर्म को इतनी जल्दी महत्त्व कैसे मिल गया तथा महावीर को अपने सिद्धांतों का प्रचार करने में इतनी अधिक सफलता क्यों मिली, इसका समाधान भी लेखक ने अपनी विलक्षण सूझ-बूझ से किया है. लेखक का मत है कि चूंकि महावीर को समाज में महत्त्व प्राप्त था तथा धनी लोगों से उनका परिचय था अतः उन्हें उन सभी का सहयोग आसानी से प्राप्त हो गया. दूसरी ओर उनके सरल जीवन एवं विचारधारा से निम्न वर्गों के लोग भी उनकी ओर आकर्षित हए. जैनधर्म को ब्राह्मण धर्म के विरोध में सफलता केवल इसीलिए मिली कि जैनधर्म ने सभी वर्गों के लिए अपना द्वार खोल दिया और तथाकथित जातिवाद को कोई प्रश्रय नहीं दिया. जैनधर्म के सिद्धांतों का जितना स्पष्ट, निष्पक्ष एवं सही-सही परिचय लंदन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर श्री ए० एल० बाशम ने 'कान्साइज एन्साइक्लोपीडिया आफ लिविंग फैथ्स' में दिया है, वैसा संभवत: अब तक कोई अन्य आधुनिक लेखक नहीं दे पाया है. श्री बाशम का मत है कि हिन्दु धर्म से अपने आपको अलग एवं स्वतन्त्र माने जाने का जितना दावा बौद्ध धर्म का है, करीब उतना ही, बल्कि उससे कुछ अधिक ही, दावा जैन धर्म का भी है. जैन धर्म प्रारम्भ से ही विशुद्ध रूप में एक भारतीय धर्म रहा है. बौद्धधर्म के विपरीत जैन धर्म Theism से कभी समझौता नहीं किया और वह अपनी जन्मभूमि में ही फलता-फूलता रहा. बौद्ध धर्म यदि जीवित रह सका तो इसका मुख्य श्रेय उन बौद्ध मठों को मिलना चाहिए जो बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिये गये. इसके विपरीत जैनधर्म यदि जीवित रह सका तो केवल उन इने-गिने शिक्षित एवं सुसंस्कृत अनुयायियों के कारण जो अपने भिक्षुओं के कड़े आचरण के कारण उनसे प्रभावित रहे तथा अपने सिद्धान्त एवं विश्वास पर दृढ रहे. जैन धर्म के सिद्धान्तों को उन्होंने अपने जीवन में उतारा. इन थोड़े से धर्मभक्त नागरिकों एवं उनकी भावी पीढ़ी ने आज तक जैन धर्म को जीवित रखा है. लेखक का मत है कि जैन धर्म का आत्मा एवं मोक्ष का सिद्धान्त हिन्दुओं के सांख्यदर्शन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है और इस बात की भी सम्भावना की जा सकती है कि जैन एवं सांख्यदर्शन दोनों का ही आधार कोई एक प्राचीन मुल सुत्र रहा हो. ... ... अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म की एक मुख्य विशेषता यह है कि इस धर्म ने ही सर्व प्रथम यह मत प्रतिपादित किया कि संपूर्ण विश्व जीवमय है. वैसे देखा जाय तो अब बहुत कुछ बातों में जैन धर्म ने हिन्दू धर्म से अप्रत्यक्ष रूप में समझौता कर लिया है. कुछ
१. Concise encyclopedia of living faiths; edited by R. C. Zaehner. (London, Hutchinson,
1959)
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२७४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
हिन्दू देवताओं को जैन लोग भी पूजते हैं तथा जैनियों के यहां जन्म, मृत्यु व शादी के अवसर पर विविध संस्कारों के लिए ब्राह्मणों को भी बुलाया जाता है.
इसके बावजूद भी Theism से जैनधर्म ने कभी समझौता नहीं किया. जैन धर्म जैसा आज से करीब दो बाई हजार वर्ष पूर्व था, वैसा ही, अपने उसी मूल रूप में आज भी है.
यद्यपि संख्या में जैन लोग भारत के अन्य किसी भी धर्म के मतानुयायियों की अपेक्षा कम हैं, पर भारत के दैनिक सामाजिक एवं राजनैतिक जीवन में ये बड़े ही प्रभावशाली रहे हैं. इसका मुख्य कारण इनकी संपन्नता, इनका अतुल वैभव एवं शिक्षा का उच्च स्तर है. इस बात की किंचित् भी सम्भावना नहीं की जानी चाहिए कि ये लोग हिन्दुत्व के विशाल सागर में समाकर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त कर देंगे.....
... इनके अहिंसा सिद्धान्त का आधुनिक भारत पर जो प्रभाव पड़ा है, उसका पूरा-पूरा श्रेय उन्हें नहीं मिल सका है. महात्मा गांधी के जीवनदर्शन पर जिन कुछ मुख्य बातों के प्रभाव का अभी तक पता चल सका है, उसमें जैनधर्म का प्रमुख स्थान है. अपनी युवावस्था में ही गांधीजी जैन साधुओं से प्रभावित हो चुके थे. इस बात में कोई संदेह नहीं कि गांधीजी का अहिंसा का सिद्धान्त वस्तुतः जैन धर्म की ही देन है तथा इस बात के लिए गांधीवादी जैनियों के सदा ऋणी रहेंगे."
करीब दो वर्ष पूर्व बालकों के लिए उपयोगी एक छोटी सी पुस्तक यहां प्रकाशित हुई थी. इस पुस्तक का नाम है " एनसियेण्ट इण्डिया"" और इसके लेखक हैं श्री ई० रायस्टन पाइक. १३ से १५ वर्ष तक के बालकों के लिए लिखित इस पुस्तक में प्राचीन भारत का परिचय १० परिच्छेदों में दिया गया है. इसमें से एक परिच्छेद भगवान् महावीर के सम्बन्ध में है. जिसका शीर्षक है "दी प्रिंस हू बिकेम ग्रेट हीरो" The prince who became great hero ( अर्थात् वह राजकुमार ओ महावीर बना 'ग्रेट हीरो' वस्तुतः महावीर का ही अंग्रेजी अनुवाद है, पर मैं समझता हूँ कि हिन्दी में 'महावीर' का जो शाब्दिक अर्थ होता है, अंग्रेजी में 'ग्रेट हीरो' का अर्थ उससे कहीं अधिक प्रभावोत्पादक है. ऐसा लिखने का मेरा अभिप्राय मात्र इतना ही है कि इस पुस्तक के लेखक की दृष्टि में महावीर का स्थान काफी ऊंचा है.
जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूं, उक्त पुस्तक प्राचीन भारत से संबन्धित है, अतः भगवान् महावीर सम्बन्धी इस परिच्छेद में भी तत्कालीन भारतीय पृष्ठ भूमि में ही भगवान् महावीर का विवरण दिया गया है.
लेखक ने बड़ी ही सरल एवं सुबोध शैली में पहले महावीर के समय के भारत का परिचय देते हुए विम्बसार, अजातशत्रु, वैशाली, कोशल आदि का विवरण दिया है. अजातशत्रु का उल्लेख करते हुए लेखक ने लिखा है कि उसने महावीर और बुद्ध दोनों के दर्शन किये थे और वह उनसे काफी प्रभावित भी हुआ था.
महावीर के अवतरण के पूर्व सर्वत्र हिंसा का बोलबाला था. पशुबलि चरम सीमा पर थी. मंदिरों में इस कार्य के लिए विशेष स्थान नियत कर दिये गए थे और देवताओं के नाम पर प्रतिदिन अनेक मूक पशुओं की बलि दी जाती थी. जातिवाद की प्रथा भी उन दिनों इस प्रकार व्याप्त थी कि कुछ इने-गिने लोगों को छोड़कर अधिकांश का जीवन बड़ी विपन्न अवस्था में बीतता था. केवल ब्राह्मणों को ही वेद पढ़ने-पढ़ाने या तत्सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार था. इतना ही नहीं, भगवान् की पूजा-आराधना भी हर कोई नहीं कर सकता था. केवल ब्राह्मणों की कृपा से ही कोई व्यक्ति किसी प्रकार का धार्मिक कार्य कर सकता था. इसका एक मुख्य कारण यह भी था कि उन दिनों ब्राह्मणों ने धर्म को इतना जटिल बना दिया था, धर्म सम्बन्धी प्रत्येक क्रियाकलाप ऐसी-ऐसी रूढ़ियों एवं संस्कारों से ग्रसित कर
१. Ancient India; by E. Royston Pike. (London, Weidenfeld and Nicolson, 1961) Young enthusiast library : The young historian series. No. 5.
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महेन्द्र राजा : विदेशी लेखकों की दृष्टि में जैनधर्म और महावीर : २७५
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दिया गया था कि उन विधि-विधानों की क्रिया ब्राह्मणों के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता था. ब्राह्मणों के अभाव में किया गया कोई भी कार्य व्यर्थ और महत्त्वहीन समझा जाता था.. ब्राह्मणों की ही इच्छानुसार देश में स्थान-स्थान पर कुछ ऐसे स्थल नियुक्त कर दिये गए थे जहां बड़े समारोह के साथ पशुबलि दी जाती थी. ब्राह्मणों ने जनसाधारण के मन में ऐसी धारणा उत्पन्न कर दी थी कि भगवान् बलि से प्रसन्न होते हैं. उनका ऐसा कहना सच हो या नहीं, पर यह निर्विवाद है कि धर्म की आड़ लेकर उस समय ब्राह्मण लोग अनेक प्रकार से अपना स्वार्थ साधन करते थे. ब्राह्मणों का इस प्रकार का बाह्य आडम्बर और भ्रष्टाचार देखते-देखते जब लोग तंग हो गए, लगातार बलि के दृश्य देखते-देखते जब लोगों के मन में भी कुछ समझ आई तो यह स्वाभाविक था कि उनके हृदय में ब्राह्मणों के एकाधिकार के विरुद्ध भावना जागृत हो. पर इतना ही पर्याप्त नहीं था. ईसापूर्व छठी और ५वीं सदी में लोगों के मन में धर्म और दर्शन के प्रति आस्था बढ़ रही थी और लोग स्वयं इन बातों में रुचि लेने लगे थे. 'ब्राह्मणवाक्य प्रमाणम्' मानने के लिए अब वे तैयार नहीं थे. अब वे प्रत्येक बात के विषय में क्यों और कैसे ?' कहां ब क्या ? आदि प्रश्न पूछने लगे थे. जब ब्राह्मण लोग उनकी इस जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सके तो उनके मन में ब्राह्मणों के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा हो उठी. ऐसे ही समय महावीर का अवतरण हुआ. 'महावीर' शब्द का अर्थ है 'ग्रेट हीरो' (Great hero) यह उपाधि उन्हें उनके अनुयायियों द्वारा दी गई है. उनका असली नाम वर्द्धमान था तथा उनका जन्म गणतन्त्र की राजधानी वैशाली के लिच्छवि वंश में हुआ था. कुछ लोगों का यह भी मत है कि वे वैशाली-नरेश के नाती थे तथा कुछ लोग राजा बिम्बसार से भी उनका संबंध जोड़ते हैं. महावीर का जन्म कब हुआ, इस सम्बन्ध में लोगों में मतभेद है पर आधुनिक अनुसंधान के आधार पर उनका जन्म ई० पू० ५४० में हुआ माना जाता है. क्षत्रियवंश में जन्म लेने के कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा भी तत्कालीन रीति-रिवाजों के अनुसार हुई. शिक्षासमाप्ति के बाद युवावस्था में उनका विवाह हुआ और उनको एक पुत्री भी हुई. लेकिन महावीर एक महान् विचारक थे. घर-गृहस्थी में उनका मन अधिक समय तक नहीं रह सका. तीस वर्ष की अवस्था में वे अपनी पत्नी, पुत्री तथा घर-बार छोड़कर कुछ ऐसे साधुओं के साथ चले गए जो पार्श्वनाथ के उपासक माने जाते थे.' पार्श्वनाथ लगभग २५० वर्ष पूर्व हुए थे तथा वे जैनों के महापुरुषों की श्रेणी में २३३ माने जाते हैं. कहा जाता है कि उनके पूर्व २२ अन्य महापुरुष हो चुके थे. लगभग १२ वर्ष तक महावीर सारे देश में इधर-उधर घूमते रहे. अपनी दैनिक जीवन की आवश्यकताएं उन्होंने बहुत कम कर दी तथा वे तपस्या में अधिक समय बिताने लगे. कभी-कभी वे ध्यानावस्था में कई दिनों तक भूखे-प्यासे रह जाते थे. पहले तो वे कुछ वस्त्र पहने रहे पर कुछ समय बाद उन्होंने सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर दिया. उन्होंने वस्त्रों को भी अनावश्यक कहकर त्याग दिया. कहा जाता है कि इसके बाद वे मृत्यु पर्यन्त निर्वस्त्र रहे. इस प्रकार रहते-रहते वे १३वें वर्ष में जिन हो गए. 'जिन' का अर्थ है 'विजेता'. यह एक प्रकार से ठीक ही है, क्योंकि इस अवधि में उन्होंने प्रत्येक विषय का ज्ञान प्राप्त कर लिया था और सभी प्रकार की मानवीय भावनाओं, आकांक्षाओं पर विजय प्राप्त कर ली थी. इसी 'जिन' शब्द से ही जैन शब्द बना जो आज उनके अनुयायियों के लिए प्रयोग किया जाता है. महावीर यद्यपि जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, पर अन्य किसी व्यक्ति की अपेक्षा उन्होंने ही इसके प्रसार-प्रचार में सर्वाधिक योगदान दिया. उन्हें 'तीर्थंकर' भी कहा जाता है. उनके पहले २३ तीर्थंकर हो चुके थे, अतः उन्हें २४वां
१. महावीर ने कुछ साधुओं के साथ नहीं, एकाकी ही अभिनिष्कमण किया था और दीर्घ काल तक वे एकाकी ही साधनानिरत रहे थे, यह
तथ्य इतिहास से प्रमाणित है किन्तु यहाँ श्रीपाइक के विचार दिये जा रहे हैं.-सम्पादक
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२०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
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तीर्थकर माना गया है. तीर्थंकर का अर्थ होता है वह व्यक्ति जो जनसाधारण को सांसारिक बंधनों से छुटकारा दिलाकर 'निर्वाण' की ओर अग्रसर करे. तीर्थंकर की विशेषताओं के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह 'पुरुषोत्तम' 'आदर्श पुरुष' होता है. वह ऐसा व्यक्ति होता है जो न किसी से राग करता है, न द्वेष, न किसी पर क्रोधित होता है, न प्रसन्न. जिसे किसी वस्तु के प्राप्त होने पर न तो खुशी होती है और न उसके वियोग में रंज. धनी-गरीब, ऊंच-नीच, सभी के साथ वह समान व्यवहार करता है. सर्वथा निर्भय और निःशंक वह सभी मानवीय आवश्यकताओं के प्रति रागहीन होकर न तो निद्रा की आवश्यकता महसूस करता है और न किसी प्रकारके आहार-विहार की. जैनों के धार्मिक ग्रंथों में तीर्थंकर की ३४ विशेषताएँ बतलाई गई हैं. महावीर में ये सभी विशेषताएँ थीं. लगभग ३० वर्ष तक महावीर जगह-जगह उपदेश देते रहे. करीब ७२ वर्ष की आयु में शरीरत्याग किया. यद्यपि महावीर ने उपनिषदों से भी बहुत कुछ ग्रहण किया पर उपनिषदों की अपेक्षा महावीर के सिद्धान्तों में कुछ मौलिक अंतर था. महावीर 'आत्मा' को मानते थे 'विश्वात्मा' को नहीं. जैनधर्म के अनुसार मरने के बाद जीव पुनः (तुरन्त) जन्म लेता है. इस प्रकार यह जीवन-चक्र चलता ही रहता है. जैनधर्म में 'कर्म' को बहुत महत्त्व दिया गया है. वस्तुत: जैनधर्म के सारे सिद्धान्त 'कर्म' के इर्द-गिर्द घूमते हैं. कर्म का सीधा और सरल अर्थ है जीव द्वारा किया गया कार्य. जो जीव जैसा कार्य करता है उसी के अनुसार जन्म-जन्मांतर में उसे अच्छा-बुरा फल मिलता है. महावीर के सिद्धान्त के अनुसार जीव को जहाँ तक संभव हो अच्छे-से-अच्छे कार्य करके शीघ्रातिशीघ्र जन्म-मरण के इस चक्कर से छुटकारा पाना चाहिए. इसका सरल मार्ग भी उन्होंने बतला दिया. यह सरल मार्ग है 'अहिंसा' अर्थात् किसी को किसी प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट नहीं देना. महावीर का मत था कि केवल मानव ही नहीं, वरन पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जल-वायु आदि में भी जीव होता है. इस आधार पर जैन लोग कम-से-कम वस्तुओं का उपयोग कर अहिंसा का पालन करते हैं. इसी आधार पर जैनधर्म में पशुबलि का निषेध तो हो ही गया, पर ऐसी क्रीड़ाओं-कार्यों का भी जैनों ने बहिष्कार किया, जिनमें पशु-पक्षियों को किसी प्रकार का कष्ट पहुंचता हो. आहार के लिए पशु-हत्या तो स्वाभाविक ही बंद हो गई. आज संसार में जैन समाज ही एक ऐसा समाज है जिसे पूर्णत: शाकाहारी कहा जा सकता है. भारत में जैन परिवारों में किसी भी प्रकार के उपयोग के लिए पानी को पहले छान लिया जाता है. इसका भी मुख्य उद्देश्य अदृश्य जीवों की हत्या रोकना है. कुछ जैन साधु अपने मुंह के ऊपर कपड़ा बांधते हैं (केवल इसीलिए कि बोलने में सूक्ष्म कीटाणु मुंह के अंदर न चले जाएं.) सड़क पर चलते समय भी पूर्णत: सावधानी रखी जाती है ताकि रास्ते में छोटे-छोटे कीड़े न कुचल जाएँ. चूंकि जीवित रहने के लिए कुछ-न-कुछ खाना-पीना आवश्यक है, अतः यह जानते हुए कि 'वनस्पति' में भी जीव होता है, जैन लोग आहार के लिए कुछ (सभी नहीं) ऐसी वनस्पतियों का उपयोग करते हैं जिन्हें प्राप्त करने में जीवहत्या की संभावना कम रहती है. जैन लोगों को इस बात का गौरव है कि भारत में सबसे पहला पशु-अस्पताल उन्होंने ही खोला था.
महावीर के सिद्धान्तों में अहिंसा प्रमुख है. वस्तुत: अहिंसा ही जैनधर्म की रीढ़ है, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह-इन चार बातों से बचना अहिंसा के बाद मुख्य रूप से माना जाता है. ये सभी बातें ऐसी हैं जो कोई भी व्यक्ति आसानी से पालन कर सकता है, पर महावीर का आग्रह था कि संसार में रहते हुए इन बातों से बचे रहना मुश्किल है. अतः उनका मत था कि शीघ्रातिशीघ्र इस संसार से वैराग्य लेकर साधु-संन्यासी का जीवन बिताना चाहिए. जन-साधारण की अपेक्षा जैन साधु के जीवन-निर्वाह के नियम और भी कठिन हैं. वे अपने साथ न तो किसी प्रकार का धन या सामान आदि रखते हैं और न कभी किसी एक मकान में ही रहते हैं. यद्यपि व्यावहारिक जीवन में सभी जैन वस्त्र पहिनते हैं पर सिद्धान्ततः उनमें 'दिगम्बर' नामक एक सम्प्रदाय है जो साधुओं के निर्वस्त्र रहने पर जोर देता है. उनकी मूर्तियाँ भी नग्न रहती हैं. इस प्रकार सोचने-समझने और कार्य करने की प्रेरणा महावीर को कहाँ से मिली ? इस संबंध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता. विद्वानों में भी इस संबंध में मतभेद है. लेकिन हमें इससे कोई सरोकार नहीं. मुख्य बात यही है कि आज से
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महेन्द्र राजा : विदेशी लेखकों की दृष्टि में जैनधर्म और महावीर : २७७ करीब दो हजार वर्ष से भी अधिक समय पहले एक उच्च क्षत्रिय वंश के राजकुमार ने साधारण जन की भांति रहकर जनसाधारण को इतना अधिक प्रभावित किया और उन्हें ऐसा नैतिक उपदेश दिया कि उनके बाद से अब तक वह उपदेश अमिट रहा है. संसार के सभी धर्मों में महावीर के सिद्धान्त किसी-न-किसी रूप में विद्यमान हैं. जिस व्यक्ति ने 'आत्मा' का महत्त्व बतलाया, सरल और सादे जीवन पर जोर दिया, जिसने पशु-पक्षियों को भी मानव के समकक्ष रखा तथा यह बतलाया कि वे भी मानव के समान सुख-दुख का अनुभव करते हैं, उसे हम सर्वोच्च सम्मान व श्रद्धा नहीं दें तो फिर और किसे देगें ? एक ओर जहाँ श्री पाइक ने जैनधर्म एवं महावीर की प्रशंसा में इतना अधिक लिखा है, तथा बच्चों के लिए लिखी गई उक्त पुस्तक में जैनधर्म की बहुत प्रशंसा की है, तो दूसरी ओर अमेरिका में प्रकाशित कालेज स्तर की एक पाठ्य पुस्तक में केवल कुछ ही पैराग्राफों में जैनधर्म को चलता कर दिया गया है. इस पुस्तक के लेखक हैं श्री जार्ज ए. बार्टन और पुस्तक का नाम है 'दी रिलिजियन्स आफ दी वर्ल्ड'. श्री बार्टन लिखते हैं-बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म भी ब्राह्मण धर्म के विरोध में एक आंदोलन के रूप में प्रारंभ हुआ. जहाँ तक ईश्वरों का प्रश्न है, महावीर गौतम से भी बढ़ गए. गौतम ईश्वरों का अस्तित्व मानते थे लेकिन उनकी पूजा के हिमायती नहीं थे. महावीर ईश्वरों को मानते ही नहीं थे पर गौतम के समान पुनर्जन्म एवं कर्म के सिद्धान्त को उन्होंने माना. जैनधर्म के ५ मुख्य (आचारसंबंधी) सिद्धान्त हैं, जिनके आधार पर उसके अनुयायियों को हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह से बचाने का प्रयास किया गया है. यद्यपि बौद्धधर्म में भी कुछ इसी प्रकार के ५ नियम हैं, पर यह कहना गलत होगा कि जैन धर्म ने उन्हें बौद्धधर्म से लिया या बौद्धधर्म ने जैनधर्म से. प्रसिद्ध लेखक जैकोबी के मतानुसार इस बात की संभावना अधिक है कि दोनों पर हिन्दू धर्म का प्रभाव पड़ा. जैन लोग अहिंसा के सिद्धान्त को इतना अधिक आगे मानते हैं कि वे (मनुष्येतर) जीवहत्या को भी बहुत ही बड़ा मानते हैं. शायद यही कारण है कि भारत के प्रत्येक ग्राम और नगर में, जहाँ जैनियों की कुछ बस्ती है, कोई न कोई पशुचिकित्सालय आवश्य है. ई० डब्ल्यू. होपकिन्स तो जैन धर्म को धर्म ही नहीं मानते. उनका कहना है कि जो धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता वरन मानवपूजा का हिमायती है, उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं. "एन्साइक्लोपीडिया अमेरिकाना"४ में जैन धर्म को भारत के बहुत से धर्मों में से एक मानते हुए लेखक का मत है कि केवल अहिंसा के कारण ही जैन धर्म का जन्म व विकास हुआ. मुख्य ब्राह्मणों की बलिप्रथा के विरोध में जन्मे इस धर्म ने लोगों को शीघ्र ही आकर्षित किया और इसी का परिणाम है कि भारत में अधिकांश पशुचिकित्सालय जैनधर्मावलम्बियों द्वारा खुलवाए गए हैं. जैन मन्दिरों की प्रशंसा में लेखक ने लिखा है कि वे अत्यन्त सून्दर चित्ताकर्षक, भव्य एवं वास्तुकला की दृष्टि से उच्चकोटि के होते हैं. जैनियों की अपनी स्वतन्त्र वास्तु कला है. "एन्साईक्लोपीडिया ब्रिटानिका"५ में लेखक ने जैनियों को भारत का एक महत्त्वपूर्ण सम्प्रदाय माना है. अपनी संपन्नता के कारण जैन लोग अपनी संख्या की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हैं. "ब्रिटानिका' के लेखक को यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि जैनधर्म बौद्धधर्म की अपेक्षा कुछ पुराना है. अन्य
१. Barton, George A. : The Religions of the world. (Chicago, University of Chicago Press,
1919). 2nd edition. २. Jacobi, H. in “Sacred Books of the East. Vol. xxii ३. Hopkins E. W. Religions of India (Bostan,1895). ४. Encyclopedia Americana. vol Xv, 1958 edition. ५. Encyclopedia Brittanica. vol. XII 1961. edition.
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२७८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय लेखकों के समान इस लेख का लेखक भी यह मानता है कि पहले के २२ तीर्थंकर भले ही पौराणिक चरित्र हों, पर पार्श्वनाथ एवं महावीर वास्तविक व्यक्ति थे. पहले २२ तीर्थकर कहाँ तक ऐतिहासिक हैं, यह विवाद का विषय है. श्वेताम्बर-दिगम्बर विवाद पर कुछ विचार करते हुए तथा तत्संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों की पुष्टि अपुष्टि पर अपना मत व्यक्त करते हुए लेखक ने जैन साहित्य की अलभ्यता पर खेद प्रकट किया है. लेखक का मत है कि जैन साहित्य प्रचुर मात्रा में अस्तित्व में है, पर उसका अधिकांश अभी तक अप्रकाशित है तथा आलमारियों में बन्द है. इसी कारण जनसाधारण को इस संबंध में अधिक जानकारी नहीं हो सकी. लेखक का मत है कि जैन वास्तुकला, विशेषकर मन्दिरनिमणिकला की अपनी अलग शैली है. इस कला में जैनियों से आगे बढ़ना अन्य किसी के लिए कठिन है. यद्यपि कुछ जैन गुफा मन्दिरों एवं स्तूपों पर बौद्ध-शैली का प्रभाव है पर पत्थरों पर खुदाई की कला को उन्होने चरम सीमा पर पहुँचाया था जिस पर अब तक अन्य कोई नहीं पहुँच सका है. एक छोटे से लेख में यह संभव नहीं कि अंग्रेजी में प्राप्त प्रत्येक ऐसे ग्रन्थ का संदर्भ दिया जा सके जिसमें जैन धर्म या महावीर संबंधी कुछ चर्चा हो. पाठकों की सुविधा के लिए इस लेख के अन्त में कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों का विवरण दिया गया है जिनमें जैन धर्म सम्बन्धी चर्चा विस्तार से की गई है. इच्छुक व्यक्तियों को उन्हें देखने का प्रयत्न करना चाहिए. यहाँ उपसंहार के रूप में मैं अमेरिका में प्रकाशित एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ "दी आर्कियोलाजी आफ वर्ल्ड रिलीजियन्स''' का उल्लेख करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ. इस पुस्तक में करीब ६० पृष्ठों में जैन धर्म एवं महावीर सम्बन्धी विवरण तथा विषय से सम्बन्धित करीब २० चित्र दिये गए हैं. अभी तक मुझे जैन धर्म सम्बन्धी जितने भी ग्रंथ देखने को मिले हैं, उनमें सबसे अधिक विस्तृत एवं स्पष्ट विवरण इसी ग्रंथ में देखने को मिला है. विद्वान् लेखक ने जैन धर्म सम्बन्धी प्रायः प्रत्येक प्रश्न पर जैन धार्मिक ग्रंथों के आधार पर विचार किया है. जैन धर्म के २४ संस्थापक, विपुल जैन साहित्य, सभी तीर्थंकरों का वर्ण, चिह्न, आयु, ऊंचाई, काल तथा एक दूसरे के बीच की अवधि का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि एक के बाद दूसरे प्रत्येक तीर्थकर की आयु एवं बीच की अवधि, तथा ऊंचाई में क्रमशः कमी होती गई. प्रारम्भिक कुछ तीर्थंकरों के सम्बन्ध में तो जैन साहित्य में ऐसे कल्पनातीत आंकड़े दिये गए हैं जो स्पष्ट ही अतिशयोक्ति माने जाएंगे. पर लेखक का अनुमान है कि अन्य धर्मों के देवताओं के समान ये भी पौराणिक चरित्र ही हैं. अन्तिम दो तीर्थंकरों के विवरण सहज संभाव्य मानते हुए लेखक का मत है कि केवल पार्श्वनाथ एवं महावीर को ही ऐतिहासिक चरित्र माना जा सकता है. तथा उन्हें ही इस धर्म का संस्थापक माना जाना चाहिए. यद्यपि पार्श्वनाथ के संबन्ध में लेखक का मत है कि अधिकांश बातें बढ़ा-चढ़ाकर कही गई हैं. पर वह यह स्वीकार करता है कि पार्श्वनाथ के जीवन की घटनाएँ तत्कालीन भारतीय सामाजिक स्थिति देखते हुए सत्य हो सकती हैं तथा उनके संबंध में जो कुछ लिखा गया है, अधिकांश ऐतिहासिक माना जा सकता है. इसके बाद पार्श्वनाथ एवं महावीर की जन्मतिथि एवं काल, जैनधर्म के मूल सिद्धांत, जैनधर्म के आधार पर विश्वरचना, कालक्रमानुसार विश्व-विवरण, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आश्रव आदि का विस्तृत परिचय, धर्म का विश्लेषण, भारतीय इतिहास की पृष्ठभूमि में जैनधर्म का विकास-प्रचार, शिशुनाग एवं नन्द काल, मौर्यकाल, कुषाणकाल, गुप्तकाल तथा मध्यकाल में जैनधर्म के इतिहास पर अलग-अलग परिच्छेदों में विचार किया गया है. जैन धर्म का इतिहास तथा उक्त सभी कालों में जैन वास्तु एवं चित्रकला का जितना विशद विवरण इस पुस्तक में दिया
१. Finegan Jack : The archeology of world Religions. (Princeton, princeton university press
1952.)
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Mw.jainalibudiy.org
Page #9
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________________ ----- ------- महेन्द्र राजा : विदेशी लेखकों की दृष्टि में जैनधर्म और महावीर : 276 गया है उतना अन्यत्र मिलना दुर्लभ है / इस पुस्तक के लेखक श्रीफाइनगेन बर्कली (कैलीफोनिया) में पेसिफिक स्कूल आफ रिलीजियन में लेक्चरर हैं. कुछ अन्य ग्रन्थ जिनका उल्लेख लेख में नहीं हो सका1. Brown, W. Norman : The story of Kalka, Texts, History, Legends, and Miniature Paintings of the Svetambara Jain Hagiographical Work, The Kalkacharyakatha. (Smithsonian Institution, Freer Gallery of Art. Oriental Studies. I) 2 Smith Vincent A. : The Jain Stupa and other antiquities of Mathura . (Archeologi cal Survey of India, New Imperial Series, xx) 1901. Griffin, Lepel : Famous monuments of Central India. 1886 Macdonell, A.A. : India's past : a survey of her literatures, languages and antiquities. 1927 Brown, Noman Brown : A. descriptive and illustrated catalogue of the miniature paintings of the Jain Kalpasutra as executed in the early Western Indian style. (Smithsonian Institution, Freer Gallery of Art, Oriental studies, Vol. 2) 1934 Brown, W. Norman : Manuscript illustrations of the Uttradhyayana Sutra reproduced and described (American Oriental Series 21) 1941 Moore, George Foot : History of religions. International Theological Library 19191920