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2009 OGA
2000-22629
| अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर
५२१
कर्म चक्र से सिद्ध चक्र
229:6
यथा
-विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्र सागर प्रचंडिया
(एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट.) प्राण एक अविनाशी तत्त्व/द्रव्य है। प्राण जब पर्याय धारण | रहता है। इसके अतिरिक्त चारित्र के अन्तर्गत नौ नोकषाय भी करता है तब वह प्राणी कहलाता है। प्राणी अनादि काल से सक्रिय रहती हैं-यथा . जन्म-मरण के दारुण दुःखों को भोग रहा है। भव-भ्रमण की कहानी
१. रति २. अरति ३. भय लम्बी है।
४. शोक ५. जगुप्सा
६. स्त्रीवेद जन्म-मरण, आना-जाना तथा करना-धरना परक आवृत्ति जब
७. पुरुषवेद८. नपुंसकवेद ९. हास्य। रूप धारण करती है, तब चक्र का जन्म होता है। प्राणी जब अपने कर्म द्वारा चक्र का संचालन करते हैं तब वह कहलाता है
इस प्रकार मोहनीय कर्मकुल कुटिल और कठोर होते हैं। कर्म-चक्र। कर्म-चक्र का अपर नाम है संसार-चक्र। कर्म-वैविध्य को
इनसे उबरना सामान्यतः सरल नहीं है। बड़ी बारीक पकड़ होती है आठ भागों में अथवा प्रकारों में विभक्त किया गया है। यथा
मोह की। १. दर्शनावरणी कर्म २. ज्ञानावरणी कर्म
अन्तराय कर्म में वीर्य, उपभोग, भोग, लाभ, दान परक रूप ३. मोहनीय कर्म ४. अन्तराय कर्म
भेद में कर्म कौतुक सक्रिय रहते हैं। वेदनीय कर्म साता और
असाता रूप मे, आयुकर्म-देव, मनुष्य तिर्यंच, नरक रूप में, नाम ५. वेदनीय कर्म ६. आयु कर्म
कर्म कुल स्थावर दशक, प्रत्येक प्रकृति. त्रस दशक और पिण्ड ७. नाम कर्म८ . गोत्र कर्म
प्रकृति रूप में तथा गोत्रकर्म ऊँच और नीच रूप में सक्रिय इनको शास्त्रीय विधान से दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है- रहते हैं।
_कर्मचक्र शुभ और अशुभ रूप में सतत सक्रिय रहता है। शुभ १. प्रथम चार कर्म-कुल को घातिया कर्म खहा गया
कर्मों की अपेक्षा अशुभ कर्म निर्बाध रूपेण सक्रिय रहते हैं। प्राणी २. अन्तिम चार कर्म-कुल को अघातिया कर्म कहा गया।
अपनी अज्ञान दशा में आम्नव को सदा खुला रखता है। कर्म
बँधते-रहते हैं और इस प्रकार कर्मचक्र सदा चिरंजीवी रहता है। घातिया कर्म आत्मा के स्वभाव को आवरित कर उसका घात करने का भयंकर काम करते हैं। जीव जब अपने स्वभाव को
संसार में प्राणी जब इन वसु कर्मों के कौतुक में सक्रिय रहता जानने-मानने से विमुख हो जाता है, तब उसका भटकना प्रारम्भ हो
है तब वह कहलाता है बहिरात्मा। बहिरात्मा पर-पदार्थों को अपना जाता है। मोहनीय कर्म कुल की भूमिका उसे पथ भ्रष्ट होने में
समझता है। वह उन्हीं को कर्म का कर्ता, हेतु तथा भोक्ता भी टॉनिक का काम करती है। दर्शन का आवरण होने पर जब ज्ञान
मानता है। इस प्रकार उसकी चर्या में मिथ्यात्व का एकछत्र साम्राज्य का भी आवरण हो जाता है तब पथभ्रष्टता का पोषण होने लगता
रहता है। कर्मचक्र से छुटकारा पाना कोई एक-दो भव की साधना है। भ्रष्ट से उत्कृष्ट की ओर कहीं मुड़ने न लगे, इस अवसर और
का परिणाम नहीं होता। भव्य जीव ही कर्म चक्र से छूटने का शुभ आशंका को निर्मूल करते हैं अन्तराय कर्म। अन्तराय कर्म शुभकर्मों संकल्प किया करते हैं। अभव्य सदा कर्म चक्र में ही अवगाहन में बाधा प्रस्तुत करते हैं।
करते रहते हैं। कर्मचक्र वस्तुतः थर्राने वाला चक्र है। मनुष्य और
तिर्यंच गति की दारुण दास्तान तो प्रत्यक्षतः सुनने और देखने में दर्शनावरणी कर्म कुल चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल, निद्रा,
आती ही है। नरक गति का रौरवपूर्ण वातावरण दिल दहला देता निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, सत्यान और गृद्धि दश रूपों में सक्रिय होते हैं। ज्ञानावरणी कर्म मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय
है। नरक गति से भी अधम अवस्था है निगोद। यहाँ जीव परम तथा केवल ज्ञान विषयक पाँच रूपों में आवरित कर सक्रिय होते
मूढ़ता के साथ अनन्त अवधि तक जीता-मरता रहता है। हैं। मोहनीय दर्शन और चारित्ररूप में सक्रिय रहते हैं। दर्शन निगोद से निकल कर जब प्राणी किसी प्रकार जब कभी मनुष्य मोहनीय में ये कर्म मिथ्यात्व, सम्यक्त्व तथा मिश्र रूप में तथा / गति प्राप्त करता है तब, उसके विकास की सम्भावना बढ़ जाती है। चारित्र मोहनीय में ये कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ नामक यहाँ आकर वह कर्मचक्र को समझने का सुअवसर प्राप्त करता है कषाय कौतुक में पोषित होते रहते हैं। यहाँ इनका पोषण बंध और तब अपने को धर्मचक्र की ओर अग्रसर होने का सुअवसर अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान एवं संज्वलन कोटि में होता । प्राप्त करता है।
हा दर्शन
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________________ T oo 800: 090020660000000000000 80000/feedb6900%aloPADOR-0000000000 DOORDIDIOD. उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ विचार कीजिए धर्म वस्तुतः एक शाश्वत द्रव्य है। इसके उदय / भोगों के प्रति विरति भावना उद्भूत होती है और संयम के संस्कार होने से प्राणी की दशा और दिशा में आमूलचूल परिवर्तन होने परिपुष्ट होते हैं। लगता है। धर्म चक्र में प्रवृत्त होने पर प्राणी स्व और पर-पदार्थ का तीर्थ वंदना, गुरु वंदना और शास्त्र वंदना अर्थात् स्वाध्याय स्पष्ट अन्तर अनुभव करने लगता है। उसे संसार के प्रत्येक पदार्थ | सातत्य से उसका अन्तरंग धर्ममय होने लगता है। ऐसी स्थिति में की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। प्राणी के सोच और समझ में युगान्तर उसकी इन्द्रियाँ भोग के लिए बगावत करना छोड़ देती हैं। वे उत्पन्न होने लगता है। वस्तुतः योग के प्रयोग की पक्षधर हो जाती हैं। _धर्म चक्र में प्रवृत्त प्राणी की दृष्टि में प्रत्येक पदार्थ का अपना धर्मचक्र से प्राणी की चर्या षट् आवश्यक और पंच समिति HD स्व भाव होता है। वह स्वभाव ही वस्तुतः उस पदार्थ का धर्म सावधानी से वस्तुतः मूर्छा मुक्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में कहलाता है। प्रत्येक प्राणी अपने कर्म का स्वयं ही कर्ता होता है। आत्म-गुणों के प्रति वंदना करने के शुभभाव उसमें रात-दिन जाग्रत अर्थात् उसकी मान्यता मुखर हो उठती है कि उपादान एवं निमित्त / होते रहते हैं। ऐसे प्राणी की चर्या पंच परमेष्ठी की वंदना में प्रायः के सहयोग से ही कर्म का सम्पादन होता है। यह भी स्पष्ट है कि लीन हो जाती है। अन्ततः वह श्रावक से श्रमणचर्या में दीक्षित अपने कर्मानुसार ही प्राणी को निमित्त जुटा करते हैं। उसकी दृष्टि होकर अनगार की भूमिका का निर्वाह करता है। प्रतिमाएँ और वमें निमित्त का जुटना पर-पदार्थ की कृपा का परिणाम नहीं है। कर्म गुणस्थानों को अपनी चर्या में चरितार्थ करता हुआ जैसे-जैसे वह बँधते हैं और जब उनका परिणाम उदय में आता है तब शुभ अन्तरात्मा ऊर्ध्वमुखी होता जाता है, वैसे-वैसे मानो वह परमात्मा के अथवा अशुभ परिणाम वह बड़ी सावधानीपूर्वक स्वीकार करता है। द्वार पर दस्तक देने लगता है। उसके उत्तरोत्तर विकास-चरण उस शान्ति पूर्वक भोगता है। शुभ अथवा अशुभ परिणाम को वह किसी / सीमा को लाँघ जाते हैं जहाँ पर शुद्धोपयोग पूर्वक केवल ज्ञान को दूसरे के मत्थे नहीं मड़ा करता है। इतना बोध और विवेक धर्मचक्र जगाता है। ज्ञान जब केवल ज्ञान में परिणत हो जाता है तब 5 HD में संश्लिष्ट प्राणी की अपनी विशेषता होती है। धर्मचक्र में सक्रिय धर्मचक्र की भूमिका प्रायः समाप्त होकर सिद्ध चक्र की अवस्था 0 3 प्राणी की आत्मा अन्तरात्मा बन जाती है। प्रारम्भ हो जाती है। अन्तरात्मा मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व के साथ धर्मचक्र को सिद्ध चक्र का प्रारम्भ होते ही प्राणी अपने घातिया कर्मों का BAD बड़ी सावधानीपूर्वक समझता और सोचता है कि कर्म-बन्ध से किस समूल नाश कर लेता है। घातिया कर्मों के क्षय हो जाने पर ही प्रकार मुक्त हुआ जा सकता है। कर्म-बन्ध की प्रकृति के अनुसार उसमें केवल ज्ञान का उदय होता है। इसके उपरान्त अघातिया कर्म Procea वह संयम और तपश्चरण में प्रवृत्त होता है। अपने भीतर संयम को भी क्षय होने लगते हैं फिर भी यदि आयुकर्म के अतिरिक्त अन्य a l जगाता है और कर्म की निर्जरा हेतु वह अपने पूरे पुरुषार्थ का अघातिया क्षय होने से शेष रह जाते हैं तो साधक समुद्घात करके उपयोग करता है। यह उपयोग वस्तुतः उसका शुभ उपयोग उसे भी क्षय कर लेता है और अन्ततः वह सिद्धत्व प्राप्त कर लेता कहलाता है। है। सिद्ध चक्र तक पहुँचने पर साधक कर्म चक्र और धर्म चक्र से शुभोपयोग की स्थिति में प्राणी धर्म को अपनी चर्या में मुक्त होता हुआ कर्म-बन्ध से वस्तुतः निर्बन्ध हो जाता है। इस चरितार्थ करता है। सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र 1 प्रकार वह जन्म-मरण के दारुण दुःखों से सर्वदा के लिए छुटकारा पूर्वक वह सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु में श्रद्धान जाग्रत प्राप्त कर लेता है। करता है। इसी श्रेद्धान से अनुप्राणित चर्या-मोक्ष-मार्ग पर चलने का पता : भाव बनाती है। ऐसी स्थिति में प्राणी की आत्मा वस्तुतः अन्तरात्मा मंगल कलश का रूप धारण कर लेती है। उसकी जागतिक चर्या वस्तुतः 394, सर्वोदयनगर BSD20 व्रत-विधान हो जाती है। व्रत-साधना से उसकी चित्तवृत्ति में इन्द्रिय आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१ 000000000. 00 L 2000.0000000 * ऐसा कोई भी कार्य जिसके साथ पीड़ा और हिंसा जुड़ी है धर्म की संज्ञा कैसे पा सकता है? * धर्म से वर्तमान और भविष्य दोनों सुधरते हैं। हाल -उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि 1000000696 280 0-000200.0.0.0.00.00CTRENDI 886.300039306624 0.0000.0DSpeopanp00302 6:00%A000000 DOHORQ00000000DADDED