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कोरटाजी तीर्थ का प्राचीन इतिहास
आचार्यदेव यतीन्द्रसूरिजी......)
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देश मारवाड़ में जिस प्रकार ओसियाँ, आबू, कुंभारिया, नामक टीका और रत्नप्रभाचार्यपूजा में लिखा है कि
राणकपुर और जैसलमेर आदि पवित्र और प्राचीन तीर्थ उपकेशगच्छीय श्री रत्नप्रभसूरिजी ने ओसियाँ और कोरंटक माने जाते हैं, उसी प्रकार कोरंटक (कोरटाजी) तीर्थ भी प्राचीनता नगर में एक ही लग्न में दो रूप करके महावीर प्रतिमा की की दृष्टि से कम प्रसिद्ध नहीं है। यह पवित्र और पूजनीय स्थान प्रतिष्ठांजनशलाका की। प्रसिद्ध जैनाचार्य आत्मारामजी ने भी जोधपुर रियासत के बाली परगने में एरनपुरा स्टेशन से १३ मील स्वरचित जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर के पृष्ठ ८१ पर लिखा है - पश्चिम में है। यह किसी समय बड़ा आबाद नगर था। वर्तमान में 'एरनपुरा की छाबनी से ३ कोश के लगभग कोरंट नामा नगर यहाँ सभी जातियों की गृह-संख्या ४०८ और जनसंख्या लगभग ऊजड़ पड़ा है, जिस जगो कोरटा नाम का आज के काल में १७५० है। इनमें वीसा और ओसवाल-जैनों के ६७ घर हैं, जिन गाम बसता है, वहाँ भी श्री महावीरजी की प्रतिमा श्री रत्नप्रभसूरिजी में इस समय पुरुष १२२ और स्त्रियाँ ११३ हैं। इस समय यह की प्रतिष्ठा करी हुई है। विद्यमान काल में सो एक छोटे ग्राम के रूप में देख पड़ता है। इससे लगी हुई एक
पण्डित धनपाल ने वि.सं. १०८१ के लगभग 'सत्यपुरीय छोटी, परंतु बड़ी विकट पहाड़ी है। पहाड़ी के ऊपर अनन्तराम
श्री महावीर उत्साह बनाया है। उसकी १३वीं गाथा के 'कोरिंट सांकला ने अपने शासनकाल में एक सुदृढ़ दुर्ग बनवाया था जो
सिरिमाल धार आहड नराणउ' इस प्रथम चरण में कोरंट तीर्थ धोलागढ़ के नाम से प्रसिद्ध था और अब भी इसी नाम से
का भी नमस्करणीय उल्लेख किया गया है। तपागच्छीय पहचाना जाता है। इस समय यह दुर्ग नष्टप्राय है। दुर्ग के मध्यभाग सोमसन्दरजी के समय में मेघ (मेह) कवि ने स्वरचित तीर्थमाला में पहाड़ी की चोटी पर 'वरवेरजी' नामक माता का स्थान और
में 'कोरंटउ', पंन्यास शिवविजयजी के शिष्य शीलविजयजी ने उसी के पास एक छोटी गुफा है। गुफा के भीतरी कक्ष में किसी
कसा अपनी तीर्थमाला में 'वीर कोरटि मयाल', और ज्ञानविमलसूरिजी तपस्वी की धूनी मालूम पड़ती है। इस समय गुफा में न कोई ने निज तीर्थमाला में 'कोरटइं जीवितस्वामीवीर' इन वाक्यों से रहता है और न कोई आता जाता है। कोरटाजी के चारों तरफ के
इतर तीथों के साथ-साथ इस तीर्थ को भी वंदन किया है। इन खण्डहर, पुराने जैनमंदिर, आदि के देखने से प्राचीन काल में
कथनों से भी जान पड़ता है कि विक्रम की ११वीं शती से लेकर यह कोई बड़ा भारी नगर रहा होगा ऐसा सहज ही अनुमान हो ।
१८वीं तक यहाँ अनेक साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका यात्रा सकता है। इसका पश्चिम-दक्षिण भाग झारोली गाँव के पहाड़ से
करने को आते थे। अतएव यह पवित्र पूजनीय तीर्थ है, और लगा हुआ है।
अति प्राचीन प्रतीत होता है। प्राचीन श्री महावीरमंदिर
प्रतिमा-परिवर्तन . इसकी प्राचीनता सिद्ध करने वाला श्री महावीर प्रभु का
आचार्य रत्नप्रभसूरि-प्रतिष्ठित श्री महावीर प्रतिमा कब मंदिर है। यह धोलागढ़ पहाड़ी से, अथवा कोरटाजी से पौन
और किस कारण से खंडित या उत्थापित हुई ज्ञात नहीं। संवत् मील दक्षिण में 'नहरवा' नामक स्थान में स्थित है। श्री वीरनिर्वाण
१७२८ में विजयप्रभसूरि के शासनकाल में जयविजयगणि के के ७० वर्ष बाद इस भव्य मंदिर की प्रतिष्ठा हुई है ऐसा
उपदेश से जो महावीर-प्रतिमा स्थापित की गई थी, उसका इस उपकेशगच्छ-पट्टावली से विदित होता है। इसके चारों तरफ
मंदिर के मण्डपगत एक स्तम्भ के लेख से पता लगता है। लेख सदृढ़ परिकोष्ट और भीतरी आंगन में प्राचीन समय का प्रच्छन्न
तरी आगन म प्राचान समय का प्रच्छन्न इस प्रकार हैभूमिगृह (तलघर) बना हुआ है। श्री कल्पसूत्र की कल्पद्रमकलिका
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-तीन्द्रनन्ध - इतिहास"संवत् १६२८ वर्षे श्रावण शुदि १ दिने, भट्टारक-श्री ऐसा वृद्धप्रवाद है। इस कथन से इसकी समृद्धता एवं सम्पन्नावस्था विजयप्रभसूरीश्वरराज्ये, कोरटानगरे पण्डित श्री ५ श्री का तो सहज अनुमान हो सकता है। श्रीजयविजयगणिना उपदेशथी मु. जेता पुरसिंगभार्या, मु.
कोरंटगच्छ
१ महारायसिंग भा. सं. बीका, सांवरदास, को. उधरणा, मु. जेसंग, सा. गांगदास, सा. लाधा, सा. खीमा, सा. छांजर, सा. नारायण, जिस समय यह नगर अतीव सम्पन्न एवं प्रसिद्ध था, उस सा. कचरा प्रमुख समस्त संघ भेला हुई ने श्री महावीर पबासण समय इसके नाम से 'कोरंटगच्छ' नामक गच्छ भी निकला था। बइसार्थो छे, लिखितं गणि मणिविजयकेशरविजयेन. वोहरा महवद वह विक्रमीय १६वीं शताब्दी तक विद्यमान था। इस गच्छ के सुत लाधा पदम लखतं समस्त सघंनइ मांगलिकं भवति शभं मूल उत्पादक आचार्यश्री कनकप्रभसूरिजी माने जाते हैं। उएसवंशभवतु।"
स्थापक श्रुतकेवली श्रीरत्नप्रभसूरिजी के वे छोटे गुरुभ्राता थे।
इस गच्छ के आचार्यों की प्रतिष्ठित जिन प्रतिमाएँ अनेक गाँवों में इस प्रतिमा के भी शिखा, कान, नासिका, लांछन, परिकर,
पाई जाती हैं। वि.सं. १५१५ के लगभग इस स्थान में ही 'कोरंट हस्तांगुली और चरणांगुलियाँ खंडित हो गई थीं। अतः पूजने और
तपा' नाम की एक शाखा भी निकली थी। मालूम होता है कि सुधारने के योग्य न होने से उसके स्थान पर नवीन महावीर
यह गच्छ अपनी शाखा के सहित विक्रम की १८वीं शताब्दी में प्रतिमा वि. सं. १९५९ वैशाख शुदि १५ गुरुवार के दिन महाराज
विलीन हो गया। इस समय इसका नामशेष ही रहा जान पड़ता है। श्री विजयराजेन्द्रसूरिजी ने स्थापित की जो विद्यमान है और जयविजयगणि-स्थापित खण्डित प्रतिमा भी स्मृति के लिए एक ताम्रपत्र का पता गूढमण्डप में विराजमान रक्खी गई है।
विक्रम संवत् १६०१ में जब माटुंगानिवासी ईगलिया नामक नवीन महावीर-प्रतिमा कोरटा के ठाकुर विजयसिंह के मरेठा मारवाड को लूटने के लिए आया था, तब वह कोरटा से समय में सियाणा (मारवाड़)-निवासी प्राग्वाट पोमाजी लुंबाजी एक ताम्रपत्र और कालिकादेवी की मूर्ति ले गया था। कहा ने बनवाई है। जो लगभग ७ फुट ऊँची है, और बहुत सुंदर है। जाता है कि वह ताम्रपत्र अब भी माटुंगा में एक महाजन के पास प्रतिष्ठा के समय जो एक छोटा प्रशस्ति-लेख लगाया गया था. है। कोरटा के महाजन प्रतापजी की बही में उक्त ताम्रपत्र से उससे जान पड़ता है कि महावीर-प्रतिमा कोरटाजी के रहने चौदह ककार उतारे गए हैं। वे इस प्रकार है-कणयापुरपाटण १, वाले ओसवाल कस्तूरचंद यशराज ने विराजमान की थी। हरनाथ कनकधर राजा २, कनकावती राणी ३, कनैयां कुवर ४, कनकेसर टेकचंद ने वीरमंदिर पर कलशारोपण किया था, पोमावा-निवासी मुता ५, कालिकादेवी ६, कांबीवाव ७, केदारनाथ ८, सेठ हरनाथ खमाजी ने ध्वजा और कलापुरा-निवासी ओसवाल ककुआतालाव ९, कलरवाव १०, केदारिया बांभण ११, रतनाजी के पुत्रों ने दण्डारोपण किया था।
कनकावली वेश्या १२, किशनमंदिर १३, केशरियानाथ १४ ।
इन चौदह ककारों में से किसन (चारभुजा) का मंदिर कोरंटकनगर की प्राचीन जाहोजलाली
गाँव के बीच में, कालिकादेवी और कुकुआतालाव गाँव के इस ग्राम के कोरंटपुर, कोरंटक, कोरंटी, कणयापुर, दक्षिण में, कांबीवाव और केदारनाथ गाँव से पौन मील पूर्वकोलापल क्रमशः परिवर्तित नाम मिलते हैं। वि.सं. १२४१ के दक्षिण कोण में, कलरवाव धोलागढ और बांभणेरा गाँव के लेखों में इसका कोरंट नाम सर्वप्रथम लिखा हुआ ज्ञात होता है। मध्य में तथा केसरियानाथबिंब कोरटाजी के नए मंदिर में इससे पूर्व के लेखों में यह नाम नहीं पाया जाता। उपदेशतरंगिणी विराजमान हैं। ग्रंथ से पता चलता है कि संवत् १२५२ में यहाँ श्री वृद्धदेवसूरिजी'
किंवदन्ती है कि आनन्दचोकला के राज्यकाल में नाहड ने चौमासा कर के मंत्री नाहड़ और सालिग के पांच सौ कुटुंबी मंत्री ने कालिका मंदिर केदारनाथ खेतलादेवल महादेवदेवल को प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। इनके पहले भी कोरटनगर में और कांबीवाव इन पाँच स्थानों से संबंधित उनके भमिस्थल श्री वृद्धदेवसूरिजी ने तीस हजार जैनेतर कुटुम्बों को जैन बनाया था,
1, महावीर प्रभु की सेवा में अर्पण किए थे, परंतु आज कांबीवाव
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वनीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास
अतिरिक्त अन्य कोई स्थान महावीर प्रभु के मंदिर के अधिकार में नहीं है।
दूसरे दो प्राचीन जिनमंदिर
गाँव से पश्चिम में धोलागढ़ की ढालू भूमि पर पहला मंदिर श्री आदिनाथ का और दूसरा गाँव में उत्तर की ओर है। इन दोनों मंदिरों की स्तंभमालाओं के एक स्तम्भ पर 'ॐ नाढ़ा' अक्षर उत्कीर्णित हुए देखाई पड़ते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये मंदिर नाह के पुत्र ढाकलजी ने अपने श्रेय के लिए बनवाए होंगे। नाह और सालिग के कुटुंबियों द्वारा कोरंटादि नगरों में नाहडवसहि र प्रमुख ७२ जिनालय बनवाने का उल्लेख उपदेशतरंगिणी के ग्रन्थकार ने किया भी है। इनमें प्रथम जिनालय की मण्डप स्तम्भमालाएँ यशोश्चन्द्रोपाध्याय के शिष्य पद्मचन्द्र उपाध्याय ने अपनी माता सूरी और ककुभाचार्य के शिष्य भट्टारक स्थूलभद्र ने निज माता चेहणी के श्रेयार्थ बनवाई है, ऐसा दो स्तम्भों के लेखों से ज्ञात होता है। इन दोनों की प्राचीन मूलनायक प्रतिमाएँ खण्डित हो जाने से, उनको मंदिरों की भ्रमती में भंडार दी गई और उनके स्थान पर एक ऋषभदेव प्रतिमा संवत् १९०३ माघ शु. ५ मंगलवार के दिन और दूसरी पार्श्वनाथ प्रतिमा सं. १९५५ फाल्गुण कृ. ५ को प्रतिष्ठित एवं विराजमान की गई हैं। प्रथम के प्रतिष्ठाकार सागरगच्छीय श्री शांतिसागरसूरिजी और द्वितीय के सौधर्म बृहत्तपागच्छीय श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी हैं।
जो सभी प्राचीन और सर्वांगसुंदर हैं। इनके प्रतिष्ठाकार देवसूरिजी, शांतिसूरिजी और +++ सूरिजी आदि आचार्य हैं। कोरटावासियों का कहना है कि यदि दस-बीस हजार का खर्च उठाकर यहाँ की जमीन को खोदने का काम कराया जाए तो सैकड़ों प्राचीन जिन प्रतिमाएँ निकलने की संभावना है।
प्राचीन मूर्तियों की प्राप्ति
सबसे प्राचीन जिस महावीर मंदिर का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके परिकोष्ट का संभारकार्य कराते समय बायीं ओर की जमीन खोदने पर दो हाथ नीचे सं. १९११ ज्येष्ठ शु. ८ के दिन पाँच फुट बड़ी सफेद पाषाण की अखंडित श्री ऋषभदेव भगवान की एक प्रतिमा और उतने ही बड़े कायोत्सर्गस्थ दो बिंब एवं तीन जिन प्रतिमाएँ निकली थीं। कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं में एक संभवनाथ और दूसरी शांतिनाथ भगवान की है। इनकी प्रतिष्ठा सं. ११४३ वैशाख शु. २ गुरुवार के दिन बृहद्गच्छीय श्री विजयसिंहसूरिजी ने का है। इसी प्रकार संवत् १९७४ में नहरवा नामक स्थान की जमीन से १३ तोरण और चार धातुमय जिन प्रतिमाएँ निकली थीं। अब तक समय-समय पर कोरटाजी की आसपास की जमीन से छोटे-बड़ी ५० प्रतिमाएँ उपलब्ध हुई हैं।
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नया जैन मंदिर
यह मंदिर कोरटाजी के पूर्व पक्ष पर अति विशाल, रमणीय एवं शिखरबद्ध है। भूमि से निर्गत उपर्युक्त विशाल, प्राचीन और सर्वाङ्गसुंदर श्री ऋषभदेवस्वामी की प्रतिमा दो काउसगियों के सहित विराजमान है। इस विशालकाय मंदिर की प्रतिष्ठा और इसी उत्सव में नवीन तीन सौ जिनबिम्बों की अंजनशलाका सं. १९५९ वैशाख शु. १५ गुरुवार के दिन श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने की है।
राज्य - परिवर्तन
कोटाजी जागीर पर प्राचीन समय में किस-किस राजा सामंत एवं ठाकुर का अधिकार रहा, यह बतलाना अति कठिन है। परंतु प्राप्त सामग्रियों से जान पड़ता है कि इस पर भीनमाल के राजा रणहस्ती वत्सराज, जयंतसिंह- उदयसिंह और चाचिगदेव का, चंद्रावती और आबू के परमार राजाओं का, अणहिलवाड (पाटण) के चावडा और सोलंकियों का, नाडौल और जालोर के सोनगरा चौहानों का, सिरोही के लाखावत देवड़ा चौहानों का, आंबेर और मेवाड़ के महाराणाओं का क्रमशः अधिकार रहा। सं. १८१३ और १८१९ के मध्य में उदयपुर महाराणा की कृपा से पाँच गाँवों के साथ कोरटा जागीर वांकली के ठाकुर रामसिंह को मिली। गोडवाड़ परगना जब जोधपुर के महाराजा को मिला तब महाराजा विजयसिंहजी ने सं. १८३१ जेठ कृ. ११ को ठाकुर रामसिंह को कोरटा, बांभणेरा, ३ पोईणा, ४ नाखी, ५ पोमावा, ६ जाकोड़ा और ७ वागीण इन सात गाँवों की जागीर की सनद कर दी और अब तक उसी के वंशजों के अधिकार में रही है।
कोरटाजी तीर्थ का मेला
इस प्राचीनतम तीर्थ की समुन्नति के लिए कूणीपट्टी के २७ गाँवों के जैनों ने विद्वान् मुनिवरों की सम्मति मानकर कार्त्तिक शु. १५ और चैत्र शु. १५ के दो मेले सं. १९७० से प्रारंभ किए
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________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासजो आज तक प्रतिवर्ष भरते चले आ रहे हैं। यात्रियों के वाले यात्रियों को इस प्राचीनतम तीर्थ की यात्रा का भी लाभ आराम के लिए एक विशाल धर्मशाला और एक प्राचीन उपासरा अवश्य लेना चाहिए। भी है। सन्दर्भ जैनियों के लिए संक्षिप्त सूचना एकदा कोरण्टस्थाने वृद्धश्रीदेवसूरयो विक्रमात् सं. 1252 यहाँ तीन प्राचीन और एक नवीन एवं चार सौधशिखरी वर्षे चतुर्मासीं स्थिता; तत्र मंत्रि नाहड़ो लघुभ्राता सालिगस्तयोः जिनमंदिर हैं। सबसे प्राचीनतम श्रीमहावीर प्रभु का मंदिर है। यह 500 कुटुम्बानां च प्रतिबोधस्तत.मुद्रित उपदेशतरंगिणी' पृ.१०२ तीर्थ एरनपुरारोड स्टेशन से 12 मील पश्चिम में है। एरनपुरारोड मंत्रिणा ढधर्मरङ्गेण / 72 जैनविहारा नाहड़वसहि प्रमुखाः से कोरटाजी तक मोटर, बैलगाड़ी, ताँगा, ऊँट आदि सवारियां कारिता: कोरंटादिषु प्रतिष्ठिताः / उपदेशतरंगिणी 5. 103 मिलती हैं। आबूराज और गोडवाड़ की पंचतीर्थी की यात्रा करने awardworivaridrodrowdrivardwonitororanowardiniorid[138/6brdwidwoboroubrobridorodusarowarBrootbrowomar