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खरतरगच्छ के साहित्यसर्जक श्रावकगण
[लेखक-अगरचन्द नाहटा ]
जैनधर्म महान् तीर्थङ्करों की एक साधना परम्परा है। रुद्रपल्लीय शाखा के सोमतिलकसूरि रचित सम्यक्त्व सप्तसाधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ-तीर्थ की तिका वृत्ति के अनुसार ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध स्थापना तीर्थङ्कर करते हैं। साधना के दो मुख्य मार्ग तिलकमंजरी नामक अप्रतिम कथा ग्रन्थ के प्रणेता महाकवि उन्होंने बतलाये हैं, अणगार धर्म और सागार धर्म । साधु- धनपाल के पिता जिनेश्वरसूरि के मित्र थे और धनपाल के साध्वी अणगार धर्म का व श्रावक श्राविका आगार धर्म भ्राता शोभन (चतुर्विशति के प्रणेता) जिनेश्वरसूरि के शिष्य का पालन करते हैं अर्थात् साधु-साध्वी पचमहाव्रतधारी थे। इस प्रवाद के अनुसार खरतरगच्छ के प्रथम श्रावक होते है और श्रावक-श्राविका सम्यक्त्व तथा बारह व्रतों के कवि धनपाल माने जा सकते हैं। महाकवि धनपाल की धारक होते हैं । साधु-साध्वी की आवश्यकताए सीमित तिलकमंजरी के अतिरिक्त ऋषभपंचाशिका, सच्चउरीय महाहोने से उनका अधिकांश समय स्वाध्याय ध्यान और तप संयम वीर उत्साह, जिनपूजा व श्रावक-विधि प्रकरण आदि रचमें व्यतीत होता है अत: उन्हें अपनी ज्ञान-वृद्धि, साधु- नाए प्राप्त है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तीनों भाषाओं साध्वियों को वाचना प्रदान, श्रावक-श्राविकादि भव्यों को में प्राप्त ये रचनाएं प्रकाशित हो नको हैं । धर्मोपदेश देनेके साथ-साथ ग्रन्थ-निर्माण और लेखन के लिए
श्रीजिनदत्तसूरिजी के उल्लेखानुसार श्रीजिन०ल्लभकाफी समय मिल जाता इसलिए अधिकांश जैनसाहित्य
सूरिजी कालीदास के सदृश विशिष्ट कवि थे। उनके भक्त जैनाचार्यों व मुनियों द्वारा रचित प्राप्त है । पर श्रावक
नागोर निवासी धनदेव श्रावक के पुत्र पद्मानंद सस्कृत भाषा समाज अपनी आजीविका व गृह-व्यापार में अधिक व्यस्त
के अच्छे कवि थे। उनके रचित वैराग्य शतक प्रकाशित रहता है इसलिए उनके रचित साहित्य अल्प परिमाण में
हो चुका है। प्राप्त होता है। खरतरगच्छ में भी आचार्यों व मुनियों का जितना विशाल साहित्य उपलब्ध है, उसके अनुपात में श्रीजिनदत्तसूरिजी के श्रावक पल्हकवि रचित जिनदत्तश्रावकों का रचित साहित्य बहुत ही कम है। फिर भी सूरि स्तुति की ताडपत्रीय प्रति जेसलमेर भंडार में प्राप्त समय-समय पर जिन विद्वान एव कवि श्रावकों ने प्राकृत, है । यह स्तुति हमारे 'ऐतिहासिक जैनकाव्य-संग्रह में प्रकासंस्कृत, अपभ्रंश राजस्थानी-गुजराती-हिन्दी आदि में जो शित है। जिनदत्तसूरिजी के अन्य श्रावक कपूरमल ने ब्रह्मरचना की है उनका यथाज्ञात विवरण यहां प्रकाशित चर्य परिकरणम् ( गा० ४५ ) मणिधारी जिन चन्द्रमूरिजी के किया जा रहा है।
समय में बनाया था जिसे हम 'मणिधारी जिनचन्द्रसूरि' की ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य वर्द्धमानसूरि और उनके प्रथमावृत्ति में प्रकाशित कर चुके हैं। मणिधारीजी के विद्वान शिष्य जिनेश्वरसूरि से खरतरगच्छ को विशिष्ट श्रावक "लखण' कृत 'जिनचन्द्रसूरि अष्टक' उपर्युक्त ग्रन्थ की परम्परा प्रारम्भ होती है। सं० १४२२ में खरतरगच्छ के द्वितीयावृत्ति में प्रकाशित है ।
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। १५० , ___ वादि-विजेता जिनपतिसूरिजो ने मरोट के नेमिचन्द चलकर दिल्ली सम्राट अलाउद्दीन खिलची के कोश और टंकभंडारी को सं० १२५३ में प्रतिबोध दिया। भंडारीजी के शाल के अधिकारी बने और अपने विविधविषयक अनूभव पुत्र ने जिनपतिसूरिजी से दीक्षाग्रहण की वे उनके पुत्र के आधार से रत्नपरीक्षा सं० १३७२ में पुत्र हेमपाल के जिनेश्वरसूरि बने । श्रीनेमिचन्द्र भंडारो अच्छे विद्वान थे, लिए गा० १३२ में रचा, जिसको हिन्दी अनुवाद और अन्य उनका प्राकृत भाषा में रचित "षष्टिशतक प्रकरण" श्वेता. महत्त्वपूर्ण रचनाओं के साथ हमने अपने "रत्नपरीक्षा' म्बर समाज में ही नहीं, दिगम्बर समाज तक में मान्य ग्रन्थ में प्रकाशित किया है। वास्तुशास्त्र संबन्धी वस्तुसार हुआ। उसकी कई टीकाए और बालावबोध विद्वान नामक रचना भी प्राकृत की २०५ गाथाओं में है जो मुनियों द्वारा रचित उपलब्ध और प्रकाशित हैं। भंडारीजो कन्नाणापुर में सं० १३७२ विजयादशमी को रची गई और को दूसरी रचना जिनवल्लभसूरि गुणवर्णन । गा० ३५ ) है हिन्दी अनुवाद सह पंडित भगवानदासजी ने इसे प्रकाशित और हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित हो कर दी है। ज्योतिष विषयक गा० २४३ का ज्योतिषसार चकी है। इनके अतिरिक्त एक गाथा का पार्श्वनाथ ग्रन्थ भी सं०१३७२ में रचा। गणित विषयक गणितसार स्तोत्र जेसलमेर भंडार में मिला है।
नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ३११ गाथा का रचा। आपकी __ जिनपतिसूरिजी के दो भक्त श्रावक साह रयण और अन्य महत्वपूर्ण रचना धातोत्पत्ति गा०५७ की है इसे भी कविभत्तउ ने २० गाथाओं के "जिनपतिसूरि धवल गीत हमने अनुवाद सहित यू. पी. हिस्टोरीकल जर्नल में प्रकाबनाये जो हमारे ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह में प्रका- शित करवा दिया है। शित हैं।
भारतीय साहित्य का अद्वितोय ग्रन्थ-द्रव्यपरोक्षा मुद्राजिनेश्वरसूरि के समय श्रावककवि झगड़ने “सम्यक्त्व शास्त्र सम्बन्धी है जो १४६ गाथाओं में सं० १३७५ में माई चौपाई' सं०१.३१ में बनाई जो बड़ौदा से प्रका
रचा गया। इसमें भारतीय प्राचीन सिक्कों का बहत हो महत्वशित "प्राचीन गूर्जर काव्य संचय में छप चुकी है। पूर्ण वैज्ञानिक विवरण दिया है जिससे अनेक महत्वपूर्ण
श्रीजिनकुशलसूरिजी के गुरु श्रीजिनचन्द्रसूरिज़ी के नवीनतथ्य प्रकाश में आते हैं। उन सिक्कों का माप तोल श्रावक लखमसीह रचित जिनचन्द्रसूरि वर्णनारास ( गा० भी सही रूप में दिया गया है क्योंकि वे स्वयं अलाउद्दीन ४७ ) जेसलमेर भडार से प्राप्त हुआ है, प्रतिलिपि हमारे बादशाह को टंकशाल में अधिकारी रहे थे। अत: उसमें संग्रह में है।
अलाउद्दीन के समय तक की मुद्राओं का विशद विवरण दिया उपर्युक्त श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के समय में ठक्कुर फेरू गया है। ठक्कुर फेरू के ग्रन्थों की एकमात्र प्रति हमने नामक बहुत बड़े ग्रन्थकार खरतरगच्छ में हुए। उनकी कलकत्ते के नित्य मणि जीवन जैन लाइब्रेरी के ज्ञानभंडार प्रथम रचना "युगप्रधान चतुष्पदिका" सं० १३४७ में रची में खोज के निकाली थी। इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों के सम्बन्ध गई उक्त रचना को हमने संस्कृत छाया व हिन्दी अनुवाद में सर्वप्रथम हमने विश्ववाणी में लेख प्रकाशित किया था। सहित 'राजस्थान भारतो' में प्रकाशित की थी। ठक्कुर स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजी के भी विशाल-भारत में लेख फेरू कन्नाणा निवासी थे यह चतुष्पदिका अपभ्रश के २६ प्रकाशित हुए थे। प्राप्त सभी ग्रन्थों का संकलन करके हमने पद्यों में राजशेखर वाचक के सानिध्य में माघ महीने में पुरातत्त्वाचार्य मुनिजिनविजयजी द्वारा राजस्थान प्राच्य रची गई। ये फेरू, श्रीमाल धांधिया चन्द्र के सुपुत्र थे, आगे विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से "रत्नपरीक्षादि-सप्त-ग्रन्थ संग्रह"
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नाम से प्रकाशित करवा दिया है । स्व० मुनि कान्तिसागरजी ने इनके एक अन्य ग्रन्थ भूगर्भप्रकाश ( श्लोक ५१) का उल्लेख किया है पर हमें अभी तक कहीं से प्राप्त नहीं हो सका है ।
चौदहवीं शताब्दी के श्रावक कवि समधर रचित नेमि नाथ फागु गा० १४ का प्रकाशित हो चुका है । पन्द्रहवीं शताब्दी के जिनोदयसूरि के श्रावक विद्धणु की ज्ञानपंचमी चौपई सं० १४२१ भा० शु० ११ गुरु को रची गई । कवि विद्धणु ठक्कुर माहेल के पुत्र थे, इसकी प्रति पाटण के संघ भंडार में उपलब्ध है ।
खरतरगच्छ के महान् संस्कृत विद्वान श्रावक कवि मण्डन मांडवगढ में रहते थे और आचार्य श्रीजिनभद्रसूरिजी के परम भक्त थे । इन्होंने ठक्कुर फेरू की भांति इतने अधिक विषयों पर संस्कृत ग्रन्थ बनाये हैं जितने और किसी श्रावक के प्राप्त नहीं है । मंत्री मंडन श्रीमाल वाहड़ के पुत्र थे इनके जीवनी के संबन्ध में इनके आश्रित महेश्वर कवि ने "काव्य मनोहर" नामक काव्य रचा है। मुनि जिनविजयजी ने विज्ञप्ति - त्रिवेणी में मंत्री मंडन संबन्धी अच्छा प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं- "ये श्रीमाल जाति के सोनिगिरा वंश के थे। इनका वंश बड़ा गौरवपूर्ण व प्रतिष्ठावान् था । मंत्री मंडन और धनदराज के पितामह का नाम 'भंझण' था । मंडण बाहड़ का छोटा पुत्र था व धनदराज देहड़ का एक मात्र पुत्र था इन दोनों चचेरे भाइयों पर लक्ष्मीदेवी की जैसी प्रसन्न दृष्टि थी वैसे सरस्वती देवी की पूर्ण कृपा थी अर्थात् ये दोनों भाई श्रीमान् होकर विद्वान भी वैसे ही उच्चकोटि के थे ।”
"मंडन ने व्याकरण, काव्य, साहित्य, अलंकार और संगीत आदि भिन्न-भिन्न विषयों पर मंडन शब्दाङ्कित अनेक ग्रंथ लिखे हैं । इनमें से 8 ग्रंथ तो पाटन के बाड़ी पार्श्वनाथ भंडार में सं० १५०४ लिखित उपलब्ध हैं: जो ये हैं-१ काव्यमंडल ( कौरव पांडव विषयक ) २ चम्पूमंडन
( द्रौपदी विषयक ) ३ कादम्बरी मंडन ( कादम्बरी कां सार ) ४ शृंगार मंडन ५ अलंकार मंडन ६ संगीत मंडन ७ उपसर्ग मंडन ८ सारस्वत मंडन ( सारस्वत व्याकरण पर विस्तृत विवेचन ) 8 चंद्रविजय प्रबन्ध ।" इनमें से कई ग्रंथ तो मंडन ग्रंथावली के नाम से दो भागों में "हेमचंद्र सूरि ग्रंथमाला " पाटण से प्रकाशित हो चुके हैं ।
"मंडन की तरह धनराज या धनद भी बड़ा अच्छा विद्वान था । इसने 'धनद त्रिशती' नामक ग्रंथ भर्तृहरि की तरह शतकत्रयीका अनुकरण करने वाला लिखा है । यह काव्यत्रय निर्णयसागर प्रेस काव्यमाला १३ वे गुच्छक में छप चुका है। इन ग्रंथों में इनका पाण्डित्य और कवित्व अच्छी तरह प्रगट हो रहा है ।
मंडन का वंश और कुटुम्ब खरतरगच्छ का अनुयायी था । इन भ्राताओं ने जो उच्च कोटि का शिक्षण प्राप्त किया था वह इसी गच्छ के साधुओं की कृपा का फल था । इस समय इस गच्छ के नेता जिनभद्रसूरि थे इस लिये उनपर इनका अनुराग व सद्भाव स्वभावतः ही अधिक था। इन दोनों भाइयों ने अपने अपने ग्रंथों में इन आचार्य की भूरि भूरि प्रशंसा की है। इनने जिन भद्रसूरि के उपदेश से एक विशाल सिद्धान्त कोष लिखाया था । वह ज्ञानभंडार मांडवगढ का विध्वंश होने से विखर गया पर उसकी कई प्रतियां अन्यत्र कई ज्ञानभंडारों में प्राप्त है ।
प्रगट - प्रभावी श्री जिनकुशलसूरिजी के दिव्याष्टक, जिसकी रचना जिनपद्मसूरिजी ने की थी, पर घरणीघर की अवचूरि प्राप्त है पर कवि का विशेष परिचय और समय की निश्चित जानकारी नहीं मिल सकी । सोलहवीं शताब्दी के श्रावक कवि लक्ष्मीसेन वीरदास के पौत्र एवं हमीर के पुत्र थे । उन्होंने केवल सोलह वर्ष की आयु में जिन वल्लभसूरि के संघपट्टक जैसे कठिन काव्य की वृत्ति सं० १५११ के श्राबण में बनाई ।
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। १२ । जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार सातवें ग्रन्थांक के रूप में उ. बनारसीदासजी का अर्द्धकथानक नामक हिन्दी की हर्षराज को लघु वृत्त एवं साधुकीति की अवचूरि सह पहला पद्यबद्ध आत्मचरित हिन्दी साहित्य में अपने ढंगका प्रकाशित हो चुकी है।
अद्वितीय ग्रन्थ है। समयसार, बनारसी-विलास, नाममाला सतरहवीं शताब्दी में हिन्दी जैन कवियों में कविवर आदि आपको रचनाएं पर्याप्त प्रसिद्ध हैं और प्रकाशित हैं। बनारसोदास सर्व श्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। वे श्रीमाल सतरहवीं शताब्दी के अंत में लखपत नामक खरतरजाति के खडगसेन विहोलिया के पुत्र और जौनपुर के निवासी गच्छ के एक श्रावक कवि हुए हैं जो सिन्धु देश के सामुही थे। खरतरगच्छ की श्रोजिनप्रभसूरि शाखा के विद्वान नगर के कूकड़ चोपड़ा तेजसी के पुत्र थे। इनकी प्रथम भानुचन्द्रगणि से आपने विद्याध्ययन और धार्मिक अभ्यास रचना तिलोयसुंदरी मंगलकलश चो० सं० १६६१ के आ० किया था । बनारसीदासजो के लिये भानुचन्द्रजी ने मृगांक- सु० ७ थट्टानगर में बुहरा अमरसी के कथन से रचित है। लेखा चौपाई सं० १६६३ में जौनपुर में बनाई। बनारसी. १२ पत्रों की प्रति का केवल अंतिम पत्र ही तपागच्छ भंडार दासजी ने अपनी नाममाला आदि रचनाओं में अपने जेसलमेर में हमारे अवलोकन में आया था। कवि की विद्यागुरु भानुचन्द्र का सादर स्मरण किया है। आगे दूसरी रचना मृगांकलेखा रास सं १६६४ श्रा० सु० १५ चलकर ये व्यापार के हेतु आगरा आये और समयसार, बुधवार को जिनराजसूरि-जिनसागरसूरि के समय में रची गोमट्टसार आदि दिगम्बर ग्रन्थों के अध्ययन से इनका गई। २५ पत्रों के अन्तिम २ पत्र ही तपागच्छ भंडार झुकाव दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर हो गया। उनके साथी जेसलमेर में हमारे देखने में आये । कुवरपाल चोरडिया भी 'सिंदुरप्रकर के' पद्यानुवाद में १८वीं शताब्दी में कवि उदयचन्द मथेन बीकानेर में सहयोगी रहे हैं और भी कई व्यक्ति आपकी अध्यात्मिक हुए, जो महाराजा अनूपसिंह से आदर प्राप्त थे। अनूपसिंह चर्चा से प्रभावित हुए और बनारसीदासजी का मत अध्या- के नाम से इन्होंने हिन्दी में अनूप शृगार नामक ग्रन्थ सं० स्ममती या बनारसीमत नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुलतान १७२८ में बनाया, जिसकी एक मात्र प्रति अनुप संस्कृत
आदि दूरवर्ती खरतरगच्छ के ओसवाल भी अध्यात्ममत से लायब्ररी, बीकानेर में है। इसको रचना सं० १७६५ में प्रभावित हुए और वहाँ जो भी श्वेताम्बर कवि एवं विद्वान हुई। उदयचन्द मथेन का तीसरा ग्रन्थ पांडित्य-दर्पण गए उन्हें भी अध्यात्मिक रचना करने के लिये प्रेरित किया। प्राप्त है। बनारसीदासजी का वह अध्यात्म-मत अब दिगम्बरों में मलुकचन्द रचित पारसी वैद्यकग्रन्थ तिव्वसहावी का तेरहपंथ नाम से प्रसिद्ध है और लाखों व्यक्ति दिगम्बर हिन्दी पद्यानुवाद 'वैद्यहुलास'नाम से प्राप्त है। कवि ने सम्प्रदाय में उस तेरहपंथी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। अपना विशेष परिचय या रचनाकालादि नहीं दिए पर मलतः कविवर बनारसीदासजी खरतरगच्छ के ही विशिष्ट इसकी कई हस्तलिखित प्रतियां खरतरगच्छ के ज्ञानभंडारों कवि थे। उपाध्याय मेघविजय ने भी अपने युक्ति-प्रबोध में देखने में आई अतः इसके खरतर गच्छोय होने की नाटक में इनके खरतर गच्छानुयायी होने का उल्लेख किया संभावना है। है। बनारसीदासजी की प्रारम्भिक रचनायें श्वेताम्बर १९वीं शताब्दी में अजीमगंज-मकसूदावाद के श्रावक सम्प्रदाय से सम्बन्धित हैं।
सबलसिंघ अच्छे कवि हुए जिन्होंने सं० १८९१ में चौबीस
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________________ जिन स्तवनों और विहरमान बोसो की रचना को। इन्होंने भक्ति को ओर दिखाई देता है। राजा शिवप्रसाद सितारे अपनी रचना में श्रोजिनहर्षसूरि के प्रसाद से रचे जाने का हिंद को लड़को गोमती बोबी जैनधर्म की अच्छी जानकार उल्लेख किया है। थी। यहखानदान खरतरगच्छोय हैं / २०वीं शताब्दी में नाथनगर में श्री अमरचन्द जी स्वयं ग्रन्थ रचना करने के अतिरिक्त खरतरगच्छ के बोथरा खरतरगच्छ के कट्टर अनुयायी और सुकवि थे। इनके बहुत से श्रावकों ने विद्वान यतिमुनियों से अनुरोध कर रचित दो चौवीसियां प्रकाशित हो चुकी है। ये पहले अनेकों रचनाए करवायी थी। उनसब का विवरण तेरापंथी थे श्रोजिनयश:सूरिजी महाराज के अजोमगंज देखने से खरतर गच्छीय श्रावकों के साहित्य प्रेम का अच्छा पधारने पर अनेक वादविवाद के पश्चात् ये खरतरगच्छा- परिचय मिल जाता है। नुयायो मन्दिर-मार्गी बने। खरतरगच्छ को आचरणाओं ज्ञानभंडारों को स्थापना और अभिवृद्धि में तो श्रावक आदि के विषय में आपका गहरा अध्ययन व चिन्तन था। समाज का महत्वपूर्ण योग रहा है। हजारों प्रतियां श्रीमद् देवचन्द्रजी की रचनाए आपको अत्यन्त प्रिय थी। उन्होंने प्रचुर द्रव्य व्यय कर लिखवायी। कविजनों को उपर्युक्त खरतर गच्छ के श्रावक कवियों के अतिरिक्त समय समय पर पुरष्कार आदि देकर प्रोत्साहित किया। कतिपय छोटे मोटे और भी अनेक कवि हुए हैं जिनके कई श्रावक अच्छे विद्वान थे, पर साहित्य निर्माण का उन्हें जिनभद्रसूरि गीत आदि रचनाएं हमारे अवलोकन में आई सुयोग प्राप्त नहीं हुआ। विद्वानों का सत्संग, स्वाध्याय प्रेम पर और कई खरतरगच्छीय कवियों की उन्हें बहुत रुचिकर रहा है। समय समय पर विद्वान मुनियों रचनाएं प्राप्त होगी। बीसवीं शताब्दी में तो हिन्दी गद्य- सेउन्होने गम्भीर विषयों पर प्रश्न उपस्थित कर उनसे समापद्य लेखक, कई कवि हो गए हैं जिनमें से राजा शिवप्रसाद धान किया जिसका उल्लेख कई प्रश्नोत्तर ग्रन्थों में पाया सितारेहिंद बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। खरतर गच्छीय यति जाता है / रायचन्द जी ने इनके खानदान के राजा डालचन्द के लिये खरतर गच्छ को कई संस्थाओं ने विद्वान बनाने की सं० 1838 में कल्पसूत्र का पद्यानुवाद किया था। उन्होंने योजना बनाई थी पर खेद है कि वह योजना सफल नहीं विचित्र मालिका और अवयदी शकुनावलो को रचना की। हो पायी / आज भी इस बात की बड़ी आवश्यकता राजाशिवप्रसाद सितारे हिन्द' के बहत से ग्रन्थ प्रकाशित प्रतीत होती है कि उचित व्यवस्था करके उध्वस्तरीय हो चुके हैं उनको दादी रत्नकुंवरि बोबी लखनऊ के राजा अध्ययन कर जिज्ञासु विद्यार्थियों को विद्वान बनाने का पूर्ण वच्छराज नाहटा की पुत्री थी। उसने सं० 1844 में माघ प्रयत्न किया जाय / खरतरगच्छ के साहित्य के संपादन बदि 5 को प्रेमरलनामक हिन्दी काव्य बनाया। कवियित्री प्रकाशन, नवीन साहित्य निर्माण में विद्वान श्रावकों की रत्नकवरि बढ़त बड़ी पंडिता थी और उसका झकाव कृष्ण- अत्यन्त आवश्यकता है।