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कर्म सिद्धांत और समाज-संरचना
0 श्री रणजीतसिंह कूमट
। वर्तमान समाज-संरचना के लिये जिम्मेदार कौन ? किसने यह व्यवस्था की, परिवर्तन कैसे आता है व कौन लाता है ?
. इस प्रश्नावली का उत्तर देने का प्रयत्न दार्शनिक, समाजशास्त्री, इतिहासज्ञ और धार्मिकों ने किया परन्तु जितना इनका अध्ययन करते हैं, उलझते जाते हैं । उत्तर आसान नहीं है । प्रत्येक ने अपने-अपने दृष्टिकोण से तो देखा ही परन्तु कई स्थानों पर ऐसा आभास भी होता है कि इन दार्शनिक सिद्धांतों और वादों के पीछे निहित स्वार्थ भी कार्य करते रहे हैं। ऐसे सिद्धांत भी प्रतिपादित होते रहे हैं जिनसे व्यवस्था स्थायी बनी रहे और उसमें उथलपुथल कम-से-कम हो। कभी यह भी हुआ कि पूर्णतः वैज्ञानिक सिद्धांत को कालान्तर में ऐसा मरोड़ दे दिया कि उसका अर्थ उल्टा हो गया और वह निहित हितों की रक्षा में काम आया।
_अब इसी प्रश्न को ले लें व्यक्ति गरीब क्यों है ? गरीब घर में जन्म क्यों लिया? कोई उच्च कुल कहलाता, कोई अछूत या नीच कुल । किसी को खाने से अजीर्ण हो रहा है, तो किसी को दो वक्त का भोजन भी नसीब नहीं।
___ भारत में प्रचलित कर्म सिद्धांत कहता है कि व्यक्ति गरीब है क्योंकि यह उसके पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। उसके कर्मों की वजह से ही वह नीच कुल में पैदा होता है और दुःख पाता है। इन्हीं कर्मों से समाज में वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा, गरीबी-अमीरी, छुआछूत आदि की व्यवस्था निर्धारित है।
___व्यक्ति के जीवन में सुख-दुःख, यश-अपयश, धन-प्रतिष्ठा, पांडित्य-मूर्खता, जन्म-मरण आदि कर्म-आधारित हैं । व्यक्ति पर लागू होने वाले इस सिद्धान्त को पूरे समाज पर लागू कर समाज की पूरी संरचना व व्यवस्था की भी व्याख्या की जाती है और इसको वैज्ञानिक भी बताया जाता है। इसके विपरीत पश्चिम के प्रसिद्ध दार्शनिक मार्क्स का कहना है कि यह गरीबी, अमीरी समाज की संरचना का फल है । यदि समाज में व्यक्तिगत पूंजी को एकत्र करने की छूट है तो अधिक चालाक व्यक्ति उपलब्ध जमीन, धन व उत्पादन के साधनों पर आधिपत्य कर लेंगे और फिर अन्य निर्धन व्यक्तियों का शोषण कर अपनी सत्ता व साधनों
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कर्म सिद्धान्त और समाज-संरचना ]
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का पोषण करेंगे । वे ऐसी व्यवस्था करेंगे कि उनका धन-साधन सुरक्षित रहे और जो उनकी सत्ता को उखाड़ने की कोशिश करें, वे दण्ड के भागी बनें। न केवल राजदण्ड बल्कि धार्मिक व्यवस्था भी ऐसी करावेंगे कि उनको कोई छेड़े नहीं । ऐसे नियम व उपदेश का प्रचार होगा कि पराया धन नरक में ले जाने वाला है, अत: उस ओर नजर भी न डालें । इससे सुन्दर व्यवस्था बनी रहे और जो जैसा जीवन जी रहे हैं, उसी में सुख महसूस करें। जो वर्तमान स्थिति है उसे पूर्व कर्मों का फल मानकर इस जीवन में पश्चात्ताप करें और आगे का जीवन सुधारने का प्रयत्न करें । इसीलिये मार्क्स ने धर्म को जनता के लिये अफीम की संज्ञा दी है ।
व्यक्ति को फल अपने कर्म के अनुसार मिलता है । इस वैज्ञानिक सिद्धांत को कौन नकार सकता है ? जैसा बीज वैसा फल । जैसा कर्म वैसा जीवन ।
परन्तु व्यक्ति पर लागू होने वाले सिद्धांत को बिना अपवाद के पूरे समाज पर लागू करके समाज की व्यवस्था बनाना और उसकी अच्छाइयों या बुराइयों को तर्कसंगत बनाना उतना वैज्ञानिक नहीं है । बल्कि यह सिद्ध किया जा सकता है कि इस कर्म सिद्धांत को समाज व्यवस्था का आधार बनाने में निहित स्वार्थी ने कार्य किया है और धर्म व कर्म के वैज्ञानिक और शुद्ध स्वरूप को विकृत कर व्यवस्था को स्थायी बनाये रखने का प्रयास किया है ।
यदि धार्मिक और दार्शनिक बार-बार यह कहें कि जो कुछ तुम्हें मिला या मिलेगा वह कर्म आधारित है और पूर्व जन्म के कर्मों का फल है तो अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में यही समझ कर संतोष करेगा कि उसके पूर्व जन्म के कर्म खराब हैं अतः उसे ऐसा दुःखी जीवन मिला है और वर्तमान को किसी तरह भोगते हुए अगले जीवन को सुधारने का प्रयत्न करना है । वर्तमान को कैसे सुधारें, यह कौन बताये ? जब अमीर आदमी के पास धन-दौलत है तो वह उसको अपने पूर्व जन्म के कर्म का फल मानकर गर्व करता है कि यह उसका पुराना गौरव है और उसको भोगना उसका हक है । यदि कोई उसे छीनने का प्रयत्न करे तो धार्मिक कहते हैं यह पाप है क्योंकि सम्पत्ति पर उसका हक पूर्व जन्म के कर्मों के फल से है ।
व्यक्ति का वर्तमान के कर्मों के फल प्राप्त कर उसका भोग करना एक बात है और भूत के कर्मों के फल पर बिना प्रयत्न के भी वर्तमान अमीरी में रहना दूसरी बात है । यह अमीरी और गरीबी कर्म आधारित नहीं वरन् समाज व्यवस्था पर आधारित है । जैसी व्यवस्था होगी उसी आधार पर गरीबी या अमीरी होगी ।
व्यक्ति धन कमाकर रोटी खावे यह वर्तमान कर्म का फल है; परन्तु पिता कमाकर पुत्र के लिये छोड़ जावे और पुत्र उसका भोग करे, यह पूर्व जन्म
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[ कर्म सिद्धान्त
के कर्म का फल नहीं वरन् समाज-व्यवस्था का फल है। यदि समाज-व्यवस्था में यह नियम हो कि पिता की सम्पत्ति पुत्र को नहीं मिलेगी या कोई व्यक्ति निजी सम्पत्ति नहीं रख सकेगा तो क्या कोई गरीब घर और अमीर घर हो सकता है ? पिता का हक यदि पुत्र को मिलेगा ही नहीं तो पुत्र को नया प्रयत्न करना होगा और वह है उसके कर्म का फल ।
परन्तु जब हम कर्म सिद्धांत की आड़ लेते हैं तो व्यवस्था का पोषण करते हैं । पिता की सम्पत्ति पुत्र को मिले और वह उसका भोग करे, यह समाजव्यवस्था है न कि कर्म-व्यवस्था ।
पूँजीवादी व्यवस्था में जिसके पास उत्पादन का साधन अर्थात् जमीन, सोना, पशु आदि कुछ है, वह आगे संवर्द्धन कर सकता है बशर्ते अपनी सम्पत्ति को सम्हाल कर रखे। परन्तु जिसके पास कोई सम्पत्ति नहीं है उसे जन्म भर मजदूरी के अलावा कोई राह नहीं है।
__ अक्सर कहा जाता है कि जो गरीब हैं वे वास्तव में मेहनत नहीं करते और गरीबी में ही मस्त रहना चाहते हैं। लेकिन अध्ययन बताता है कि जो जितने गरीब हैं उतनी ही अधिक कड़ी मेहनत व लम्बे समय तक कार्य करते हैं। अच्छे पद या सम्पत्ति वाला व्यक्ति मेहनत का कार्य या लम्बे घंटों तक कार्य नहीं करते जबकि भूमिहीन मजदूर दिन भर कार्य करके भी रोटी खाने जितना नहीं कमा पाते । धन जोड़ने की बात तो बहुत दूर है।
धनवान के पुत्र को धनहीन कर गरीब के बराबर की स्थिति में लाकर बराबर का मौका दिया जाय और फिर जो अच्छी स्थिति या कमजोर स्थिति में आवे तो वे उनके कर्म के फल हैं। परन्तु धनवान और गरीब की दौड़ तो बराबरी की दौड़ नहीं है। हम कई बार कहते हैं कि सबके लिये बराबर के अवसर हैं परन्तु यह भ्रम मात्र है । जो धनवान पुत्र है उसे पढ़ने का, पूँजी का, बचपन में अच्छे लालन-पालन सबका लाभ मिला है जबकि गरीब को बचपन में पूरा खाना व पहनने को भी नहीं मिलता। अतः यह कहना कि गरीबी या अमीरी पूर्व कर्म का फल है, यह भ्रम है। यह वर्तमान व्यवस्था का ही फल है, इसे समझना चाहिये।
बार-बार जब उपदेश देते हैं कि तुम गरीब हो, अछूत हो या नीच कुल के हो, क्योंकि तुमने पूर्व जन्म में कर्म खराब किये हैं तो यह उनको गुमराह करना है। कर्म जीवन को सुधारने के किये हैं । कर्म भुलावा देने के लिये नहीं है । यदि पूर्व कर्म से ही सब कुछ होता है और इस जीवन के कर्म का फल अभी नहीं मिलना है तो निष्कर्मण्यता को बढ़ावा मिलता है। फिर तो शांत होकर भोगना ही जीवन का उद्देश्य बनता है। यही कारण है की भारत में इतनी गरीबी
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________________ कर्म सिद्धान्त और समाज-संरचना ] [ 297 है परन्तु कहीं विद्रोह का काम नहीं। गरीबों को धार्मिकों ने काफी गहरी नींद सुला दिया है। यदि सिर कभी उठाया भी तो राजदण्ड और उच्च वर्ग के अत्याचारों ने दृढ़तापूर्वक दबा दिया है / सदियों के अत्याचार से वे मूक बन गये हैं / चुपचाप सहना सीख गये हैं / कर्मों के सुफल का इन्तजार है, इस जीवन में नहीं तो अगले जीवन में सही। कर्म सिद्धांत मानव को सबल बनाने, अपने प्रति जागरूक और सक्रिय बनाने के लिये था। कर्म का फल उसे ही मिलेगा जिसने कर्म किया है, परन्तु व्यवस्था ऐसी बना दी कि कर्म का फल बिचौलिये-श्रेष्ठ वर्ग-छीन ले गये / हल चलाया किसान ने और फल खाया जमींदार ने। यदि किसान ने आवाज उठाई तो पिटाई हो गई। तब कोई धार्मिक नहीं बोला। धार्मिकों का लालनपालन तो राजा ही करते थे। उनको भिक्षा तो श्रेष्ठ घरों से ही मिलती थी। उन्होंने उस पिटे किसान को पुचकारा और मरहम पट्टी की और सलाह दी "अगले जीवन को सुधार"। कर्म सिद्धांत का संबंध व्यक्तिगत जीवन से है समाज की संरचना से इसका सीधा संबंध नहीं है। समाज में भाईचारे, सहानुभूति और सहृदयता के नये संस्कार डालने होंगे। आज समाज में हृदयहीनता जगह-जगह देखी जाती है / यह सब मानव मूल्यों के खिलाफ है / लेकिन धन के नशे में चूर और उनको यह गर्व कि यह धन उनके कर्मों का फल है और जो गरीब हैं वे गरीबी भोगने के लिये हैं, ये संस्कार हृदयहीनता के कारण हैं। कर्म-सिद्धांत की आड़ लेकर धनी वर्ग बहुत दिन सुखी नहीं रह सकता / समाज-संरचना की वजह से धन का योग है; यदि उन्होंने सहृदयता और सहानुभूति नहीं दर्शाई और गरीबीअमीरी में काफी अन्तर रहा तो वह दिन दूर नहीं जब विद्रोह की आग भड़केगी। विद्रोह का आधार हिंसा है। अतः उसका सुफल हो मिले, आवश्यक नहीं / परिवर्तन में अहिंसा का आधार हो तो समाज में सरसता व सहृदयता बनी रह सकती है। विद्रोह के अनन्तर एक सबल वर्ग दूसरे वर्ग पर सत्तारूढ़ हो सकता है; परन्तु अहिंसात्मक परिवर्तन निर्देशित ढंग से हो सकता है और उसमें शोषक और शोषित दोनों मुक्त होते हैं। अतः समय रहते समाज की व्यवस्था में निर्देशित परिवर्तन, शिक्षा और संस्कृति के माध्यम से हो तो न्यायवादी और समतावादी समाज का आधार बनाया जा सकता है / गुमराह कर विषमताओं का पोषण अन्ततोगत्वा खतरनाक साबित हो सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only