Book Title: Karm Siddhant Ek Tippani Author(s): Shanta Mahatani Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/229894/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कर्म सिद्धान्त : एक टिप्पणी डॉ० शान्ता महतानी प्रायः यह कहा जाता है कि अच्छे कर्म का फल अच्छा होता है और बुरे कर्म का फल बुरा । यहां प्रश्न उत्पन्न होता है कि 'अच्छा' क्या है और 'बुरा' क्या है ? इन पदों को परिभाषित करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि 'अच्छा' और ' बुरा' इन पदों को परिभाषित करते समय हम उन्हें कुछ परिस्थितियों या वस्तुओं या मानसिक अवस्थाओं से जोड़ते हैं इतना ही नहीं कुछ व्यक्तियों के लिये एक ही परिस्थिति अच्छी हो सकती है तो अन्यों के लिये बुरी । न केवल यही बल्कि यह भी सही है कि परिस्थिति जो एक समय विशेष में अच्छी कही गयी, वही अन्य समय में बुरी कही जाती है । इसी प्रकार जब हम संसार में देखते हैं तो पाते हैं कि कुछ व्यक्ति दुराचारी और बेईमान होते हुए भी सुखी जीवन बिताते हैं तो दूसरी ओर सदाचारी और ईमानदार व्यक्ति दुःखी देखे जाते हैं | जब इन विसंगतियों के बारे में प्रश्न उठाया जाता है तो उनकी यह कहकर व्याख्या की जाती है कि ये अपने पिछले जन्मों का फल भोग रहे हैं और इस जीवन में जो कर्म कर रहे हैं, उनका फल अगले जीवन में भोगेंगे । 'कर्म' पद की व्याख्या के लिये इस शब्द के अन्य प्रयोगों पर विचार कीजिये । उदाहरण के रूप में इस कथन को लें - 'करम गति टारे नाहिं टरे' । इस कथन में प्रयुक्त 'कर्म' पद पर जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि यहां 'कर्म' पद का वह अर्थ नहीं है जो ऊपर के उदाहरण से लक्षित होता है । यहाँ 'भाग्य' के अर्थ में 'कर्म' पद को समझा जा रहा है । लेकिन भाग्य भी तो कर्म के अनुसार निर्धारित होता है । एक और अन्य अर्थ पर विचार कीजिये । 'वह अपने कर्मों का फल भोग रहा है।' इस कथन में व्यक्ति के इसी जीवन में कर्मों के आधार पर प्राप्त फलों की बात कही जा रही है । उदाहरण के रूप में कोई गरीब लड़का मेहनतमजदूरी करके शिक्षा प्राप्त करता है और अपनी योग्यता के आधार पर अच्छी नौकरी पा जाता है तो हम कहते हैं यह उसके कर्मों का फल है । इसी प्रकार अगर कोई व्यक्ति निरन्तर शराब पीने के कारण अपना स्वास्थ्य खराब कर लेता है तो भी हम इसी प्रकार की बात कहते हैं । उपर्युक्त सभी उदाहरणों में कर्म के द्वारा कुछ व्यवहारों की व्याख्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] [ कर्म सिद्धान्त जा रही है और 'कर्म' पद का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जा रहा है । अतः कर्म के स्वरूप और उससे सम्बन्धित कुछ प्रश्नों की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करना वांछनीय है । चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दार्शनिक तंत्र किसी न किसी रूप में कर्म के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं । कर्म को बन्धन के कारण के रूप में एवं मुक्ति के साधन के रूप में व्याख्यायित किया गया है । कर्म के बारे में विभिन्न मान्यताएँ हैं जिनके आधार पर कर्म के कारण और साधन रूप पर प्रकाश पड़ता । एक मान्यता है कि प्रत्येक कर्म का कोई न कोई परिणाम अवश्य होता है ( या होना चाहिये ) । इस मान्यता ( या वास्तविकता ? ) का आधार है कारण और कार्य नियम की सार्वभौमिकता । दूसरे शब्दों में, कारण और कार्य में सार्वभौमिक सम्बन्ध है । इसी कारण और कार्य के नियम के आधार पर कर्म और फल के बीच सम्बन्ध की व्याख्या की जाती है । और कहा जाता है कि अगर हम इस नियम कि 'कर्म होगा तो फल अवश्य मिलेगा' को स्वीकार नहीं करेंगे तो कारण कार्य नियम की सार्वभौमिकता को भी अस्वीकार करना पड़ेगा | अगर हम थोड़ा विचार करें तो ज्ञात होगा कि कर्मवादी मात्र इतना ही नहीं कह रहा है कि कारण और कार्य के बीच का सम्बन्ध भौतिक घटनाओं की व्याख्या तक सीमित है वरन् वह इस नियम को नैतिक घटनाओं की व्याख्या के लिये भी कह रहा है । ऐसा करते समय उसका यह दावा है कि कर्म का जैसे प्राकृतिक परिणाम होता है, उसी प्रकार नैतिक परिणाम भी होता है । देखा जाय तो कर्मवादी की रुचि इसी में ही होती है । कर्म चाहे व्यक्तिगत रूप से किया जाय या सामूहिक रूप से, उसका नैतिक परिणाम अवश्य होता है । इसीलिए कर्मवादी कहता है कि अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे का बुरा परिणाम होता है । कर्म के नैतिक परिणाम के बारे में सभी कर्मवादी एक मत नहीं हैं । नैतिक परिणाम मानने वाले विचारक यह मानते हैं कि कर्म से एक शक्ति उत्पन्न होती है जो जीव में सुरक्षित रहती है और बाद में नैतिक परिणाम उत्पन्न करती है । ये विचारक किसी व्यक्ति के हैजे से मरने या पेड़ से गिरकर हड्डी के टूटने जैसी घटनाओं की व्याख्या भी व्यक्ति द्वारा पिछले जन्म में किये ये अशुभ कर्मों के आधार पर करते हैं । इस दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि कर्मवादी न तो कर्म के प्राकृतिक कारणों में रुचि रखता है और न प्राकृतिक परिणाम में । उसके अनुसार किसी घटना का प्राकृतिक कारण वास्तविक कारण नहीं होता, वास्तविक कारण होता है पिछले कर्म से उत्पन्न शक्ति जो जीव में परिणाम उत्पत्ति तक रहती है । प्राकृतिक कारण उसके लिए गौणहोते हैं । उदाहरण के रूप में हैजे से मरना या पेड़ से गिरकर मरना, पिछले कर्म (उसके द्वारा किसी व्यक्ति की हत्या) का परिणाम कहा जायेगा | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सिद्धान्त : एक टिप्पणी ] . [ 307 'कर्म की शक्ति' के स्वरूप के बारे में तथा उसके निर्देशन के बारे में विभिन्न भारतीय दार्शनिक तंत्रों के मत अलग-अलग हैं जिनकी संक्षेप में चर्चा करना सम्भव नहीं। यहां केवल दो विवादास्पद बिन्दुनों, जिन पर चर्चा की जानी चाहिये, को इंगित किया जाता है-(१) क्या चेतन सत्ता के अतिरिक्त किसी अन्य अर्थात् कर्म में शक्ति रह सकती है ? तथा (2) क्या नैतिक मूल्यों और प्राकृतिक गुणों को समान स्तर का माना जा सकता है ? इन प्रश्नों को उठाने का आधार यह है कि 'होना चाहिये' और 'है' दो अलग-अलग कोटियां हैं। एक को दूसरे में घटित करने में ताकिक कठिनाई उत्पन्न होती है। कुछ दर्शन-सम्प्रदाय कर्म सिद्धान्त के साथ ईश्वर के प्रत्यय को भी जोड़ते हैं। इन दार्शनिकों का मत है कि ईश्वर कुछ भी कर सकता है क्योंकि वह सर्वज्ञ है और सर्वशक्तिशाली है। लेकिन क्या उचित और अनुचित, शुभ और अशुभ, अच्छा या बुरा क्या है, इसे भी ईश्वर तय करता है ? लेकिन हम देखते हैं नैतिक नियम सार्वभौमिक नहीं होते और चूकि नैतिक नियम प्राकृतिक नियम जैसे नहीं हैं अतः ईश्वर के नियमों के ज्ञान की सम्भावना संदेहास्पद है। इन आलोचनाओं से बचने का एक ही मार्ग है और वह है कि ईश्वर को नैतिक नियमों का स्रोत न मानकर मानव या मानव-समाज को ही नैतिकता का स्रोत माना जाय / ___ कर्म से सम्बन्धित उपर्युक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि कर्मवाद की एक मान्यता तो यह है कि प्रत्येक कर्म का उसके अनुसार फल मिलता है, दूसरी मान्यता है कि पुनर्जन्म होता है और तीसरी मान्यता (कुछ दर्शनों के अनुसार) यह है कि ईश्वर की सत्ता है और वह इन सबका नियंत्रण करता है। लेकिन इसके साथ-साथ हमने यह भी देखा है कि ऐसा मानने पर कुछ वैचारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए एक सुझाव प्रस्तुत किया कि अगर नैतिक विधान को मानवीय विधान मान लिया जाय तो ये कठिनाइयाँ दूर की जा सकती हैं। इस प्रकार की विचारधारा के पक्ष में हमें बहुत से तर्क मिल सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म के बारे में जानता है, अतः वह अपने कर्म के लिए उत्तरदायी भी है। अतः उसे कर्मों के लिए पुरस्कार और दण्ड दिया जा सकता है। लेकिन इस मत के विरुद्ध भी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित की जा सकती हैं क्योंकि विभिन्न कालों और समाजों में नैतिकता के स्तर या अच्छे और बुरे की परिभाषा भिन्न-भिन्न रही है, अतः हम कोई सार्वकालिक और सार्वभौमिक नियम नहीं बना पायेंगे। नैतिक नियम निरपवाद एवं निरपेक्ष होना चाहिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only