Book Title: Kanakkushalvrutti vishe Ketlik Nondh
Author(s): Trailokyamandanvijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०१० ७७ श्रीहेमचन्द्राचार्य - विरचित नमस्कारनी श्रीकनककुशलकृत वृत्ति विशे केटलीक नोंध मुनि त्रैलोक्यमण्डन विजय कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य भगवन्ते त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रना प्रारम्भे मङ्गल तरीके आर्हन्त्य, सर्व अरिहन्त, अने भरतक्षेत्रनी वर्तमान चोवीसीना तीर्थंकरोनी स्तुतिरूप २६ श्लोको रच्या छे. आ श्लोको पोतानी रम्यता अने भाववाहिताने लीधे सुप्रसिद्ध छे अने तपागच्छीय सामाचारी प्रमाणे पाक्षिक प्रतिक्रमणमां तो तेनो फरजियात पाठ करवामां आवे छे. आ श्लोको पर श्रीविजयसेनसूरिना शिष्य श्रीकनककुशल गणिओ वि.सं. १६५४मां वृत्ति रची छे, जे सरळ भाषामां अन्वय, समासविग्रह व दर्शावती होवाथी संस्कृतना प्रारम्भिक अभ्यासमां व्यापकपणे उपयोगमां लेवाय छे. हमणां पूज्यपाद गुरुभगवन्त आ. श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी म. पासेथी प्रसादीरूपे आ वृत्तिनी हस्तलिखित प्रत प्राप्त थई. प्रत वृत्तिकारना स्वहस्ते लखायेल प्रथमादर्श होवाथी स्वाभाविक रीते मुद्रित वाचना साथे मेळवी जोवानुं मन थयुं. मुद्रित वाचना माटे तपास करतां जिनशासन आराधना ट्रस्टे छापेलुं पुस्तक मळ्युं. जेमां शीलदूतम् अने गुर्वावलीनी साथे प्रस्तुत टीकानी आगमप्रभाकर श्रीपुण्यविजयजी म. द्वारा सम्पादित अने जैन आत्मानन्द सभाभावनगरथी वि.सं. १९९८ मां प्रकाशित वाचनानुं पुनर्मुद्रण करवामां आव्युं हतुं. आ वाचना साथे हस्तलिखित प्रतने मेळवी जोतां जे ध्यानार्ह वातो जणाई ते नीचे नोंधुं छं : + पाक्षिक प्रतिक्रमणमां जे ३३ श्लोकोनो पाठ करवामां आवे छे, ते पहेला श्लोकनुं पहेलुं पद 'सकलार्हत्' होवाथी सकलार्हत्स्तोत्र तरीके ओळखाय छे. आ स्तोत्रमां उपर जणावेला २६ श्लोकमांथी पहेला २५ श्लोको १ थी २५ क्रमांके अने २६मो श्लोक २७मा क्रमांके बोलाय छे. कनककुशल गणिनी टीका फक्त आ २६ श्लोक पर ज छे, ३३ श्लोक पर नहीं. माटे अत्यारे प्रचलित सकलार्हत्स्तोत्रनी टीका तरीके ओने न गणी शकाय. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसन्धान-५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-१ मुद्रित प्रतमा जोके आने सकलार्हत्स्तोत्रवृत्ति तरीके ओळखवामां आवी छे, पण स्वयं टीकाकार अने 'नमस्कार'नी वृत्ति तरीके ओळखावे छे. प्रथमादर्शनी पुष्पिका-"इति कलिकालसर्वज्ञबिरुदधारक - श्रीहेमचन्द्रसूरि-विरचित - नमस्कारवृत्तिविरचिता । प्रथमपाठिसंस्मरणायेति मङ्गलम् ॥ छापेली वाचनानी पुष्पिकामां पण "चतुर्विंशतिजिननमस्काराणां वृत्ति' अवो उल्लेख छे. हजी थोडा समय पहेलां सुधी उपरोक्त २६ श्लोको ज सकलार्हत्स्तोत्र तरीके गणाता हता, अने पाक्षिक प्रतिक्रमणमां अटला श्लोकोनो ज पाठ थतो हतो अq मने गुरुभगवन्त पासेथी जाणवा पण मळ्युं छे. अत्यारे बोलाता सकलार्हत्स्तोत्रमा अने टीकाकारे लीधेला पाठमां केटलीक जग्याओ तफावत छ : श्लोक बोलातो पाठ टीका-पाठ ऋषभस्वामिनम् वृषभस्वामिनम् श्रीसम्भव० श्रीशम्भव० ०त्तेजिताघ्रि त्तेजितांहि० वः श्रियम् वः शिवम् (त्रिषष्टिमां पण) महिता ये ०महितांहये ०स्पर्द्धिकरुणा० ०स्पर्धी, करुणा० (त्रिषष्टिमां पण) ०नाथस्तु भग० ०नाथः स भग० (त्रिषष्टिमां पण) अत्यारे सामान्य रीते 'महेन्द्रमहितांहि' (श्लोक ९) जेवा समासोनो विग्रह आ रीते करवामां आवे छे – 'महेन्द्रैर्महितौ महेन्द्रमहितो, महेन्द्रमहितौ अंडी यस्य स महेन्द्रमहितांहिः' मतलब के पहेला तत्पुरुष समास करी पछी बहुव्रीहि समास करवामां आवे छे. छापेली वाचनामां पण अवो ज समासविग्रह छे. ज्यारे प्रथमादर्शमां आवा तमाम स्थाने 'महेन्द्रैर्महितौ अंही यस्य स' अवो त्रिपद-बहुव्रीहि ज दर्शाववामां आव्यो छे. वृत्तिलाघव कदाच आनुं कारण होइ शके. आवां बीजां स्थानो- ०दर्शसङ्क्रान्तजगत् (श्लोक ४), ०शाणाग्रोत्तेजितांहिनखावलिः (श्लोक ७), ज्योत्स्नानिर्मली Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डिसेम्बर २०१० ७९ कृतदिङ्मुखः (श्लोक १८), निद्राप्रत्यूषसमयोपमम् (श्लोक २२). + अन्य बे स्थाने पण अलग रीते समास विग्रह देखाडायो छे - १. निष्परिग्रहम् (श्लोक ३)-मु.-निर्गतः परिग्रहादिति, ह.-निर्गतः परिग्रहो यस्मात् स....२. निर्मलीकार० (श्लोक २३)-मु.-अनिर्मलं निर्मलं करोतीति निर्मलीकारः, ह. - अनिर्मलस्य निर्मलस्य कारो निर्मलीकारः. मुद्रित वाचनामां केटलांक शुद्धि करवा योग्य स्थानो पण छे - श्लोक-टीका मुद्रित हस्तलिखित भवरोगे आर्त्ताः भवरोगेणाऽऽर्ताः निःश्रेयसः निःश्रेयसम् जलस्य नैर्मल्यं ०जलानां नैर्मल्यम् स्पर्द्धति स्पर्द्धते कृपया मन्थरे कृपाया मन्थरे (= सूचके) केटलाक पाठान्तरश्लोक-टीका मुद्रित हस्तलिखित पवित्रीकुर्वतः पवित्रं कुर्वतः किं कर्मतापन्नम् कं कर्मतापन्नम् किम्भूतं वृषभ० किलक्षणं वृषभ० केवलज्ञानदर्पणः केवलदर्पणः सारणिसदृशाः सारणिसदृश्यः वर्जयित्वा अत्र वर्जयित्वा अन्ये अत्र तद्वद् तस्यै अस्तु, बोधिशब्दः तस्मै, अस्तु स्त्रीलिङ्गः ०कामार्थश्चतुर्वर्गः ०कामार्थाश्चतुर्वर्गः समोक्षकाः समोक्षकः उपमा यस्य तत् उपमा यत्र तत् arm so 5 w orar तदिव å r Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० २६ २६ २६ अनुसन्धान - ५३ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग - १ सङ्गमाख्यो देवः भगवदुपसर्गम् अक्षुब्धं च भगवन्तम् सङ्गमकाख्यो देवः उपसर्गम् अक्षुब्धं भगवन्तम् + मुद्रित वाचनामां प्रथमादर्शनी अपेक्षाओ केटलुंक उमेरण पण थयुं छे जेमके श्लोक १६ अथवा करुणाख्यः तृतीयो रसः, श्लोक २२मां मुनिसुव्रत पदनी व्युत्पत्ति, श्लोक २६ व. मां श्रीनो अर्थ लक्ष्मीनी जग्याओ अष्टप्रातिहार्यलक्ष्मी व.