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जीवन पथ पर कांटें किसने बोए ?
संसार में जितने भी प्राणी है, जितनी भी आत्माएँ हैं, सब के भीतर जो ध्वनि उठ रही है, कल्पना उभर रही है, और भावना तरंगित हो रही है, उनमें से एक है--सुख प्राप्त करने की अभिलाषा। परिस्थितिवश जीवन में जो भी दुःख आ रहे हैं, विपत्तियाँ आ रही है, उन्हें मन से कोई नहीं चाहता, सब कोई उस दुःख से छुटकारा पाना चाहते हैं।
संसार के समस्त प्राणियों की एक ही आकांक्षा है कि दुःख से छुटकारा हो, सुख प्राप्त हो।
दूसरी बात जो प्रत्येक प्राणी में पाई जाती है, वह यह है कि प्रत्येक प्राणी शद्ध और पवित्र रहना चाहता है। कोई भी प्राणी अपने आप को अशुद्ध या मलिन नहीं रखना चाहता, गन्दा नहीं रहना चाहता। भौतिक-चीजों में भी वह गन्दगी पसन्द नहीं करता, मकान भी साफ रखना चाहता है, कपड़े भी साफ-सुथरे पसन्द करता है और शरीर को भी स्वच्छ-साफ रखता है। मतलब यह है कि अशुद्धि के साथ भी उसका संघर्ष चलता रहता है।
तीसरी बात यह है कि कोई भी प्राणी मृत्यु नहीं चाहता। मृत्यु के बाद फिर जन्म लेना होता है और जन्म के बाद फिर मत्य ! इसका अर्थ यह हमा कि जो मत्य नहीं चाहता, वह जन्म ग्रहण करना भी नहीं चाहता। हर प्राणी अजर-अमर रहना चाहता है। यह बात दूसरी है कि कुछ विकट स्थितियों में मनुष्य अपने मन का धर्य खो बैठता है और आत्म-हत्या कर लेता है, किन्तु वह आत्म-हत्या भी दुःख से छुटकारा पाने के लिए ही करता है। उसे आगे सुख मिले या नहीं, यह बात दूसरी है।
कल्पना एक : स्वरूप एक:
इस प्रकार विश्व की प्रत्येक आत्मा में ये तीन भावनाएँ उभरती हई प्रतीत होती है। विश्व के समस्त प्राणियों का चिन्तन एक ही धारा में बह रहा है, एक प्रकार से ही सभी सोच रहे हैं, ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यह है कि सब आत्माएँ समान हैं। शास्त्र में कहा गया है, 'एगे पाया। स्वरूप की दृष्टि से सबकी आत्मा एक समान हैं। सब की मूल स्थिति एक ही जैसी है। जब स्वरूप की दृष्टि से आत्मा-आत्मा में कोई अन्तर नहीं, तो चिन्तन की दृष्टि से भी कोई अन्तर नहीं होना चाहिए ! अग्नि की ज्योति जहाँ भी जलेगी, वहाँ उष्णता प्रकट करेगी, चाहे वह दिल्ली में जले, या मास्को में जले। उसकी ज्योति और उष्णता में कहीं भी कोई अन्तर नहीं आता कि दिल्ली में वह गर्म हो और मास्को में ठण्डी हो। दिल्ली में प्रकाश करती हो और मास्को में अँधेरा करती हो । ऐसा नहीं होता, चूंकि उसका स्वरूप सर्वत्र एक समान है। जब स्वरूप समान है, तो उसकी सब धाराएँ भी एक समान ही रहेगी। प्रत्येक प्रात्मा जब मूल स्वरूप से एक समान है, तो उसकी चिन्तनधारा, कल्पना भी समान होगी। इसलिए ये तीनों भावनाएँ प्रत्येक प्रात्मा में समान रूप से पाई जाती हैं। हमारी प्रवृत्तियों का लक्ष्य एक ही रहता है कि दुःख से मुक्ति मिले, अशुद्धि से शुद्धि की ओर चलें, मृत्यु से अमरता की ओर बढ़ें।
प्रश्न यह है, कि दुःख से छुटकारा क्या कोई देवता दिला सकता है ? क्या कोई
जीवन पथ पर कॉट किसने बोए ?
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भगवान् हमें अशुद्धि एवं मृत्यु से बचा सकता है ? यदि ऐसी कोई शक्ति संसार में मिले, जो हमें सुखी, शुद्ध और अमर बना सके, तो हम उसकी खुशामद, भक्ति या प्रार्थना करें !
भारतीय दर्शन, जो वास्तव में ही एक अध्यात्म चेतना का दर्शन है, वह कहता है कि संसार की कोई अन्य शक्ति तुम्हें दुःख से बचा नहीं सकती । मृत्यु के मुँह से तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकती । तुम्हारी अपवित्रता को धोकर पवित्र नहीं बना सकती । यह कार्य तुम स्वयं ही कर सकते हो, तुम स्वयं ही अपने जीवन के निर्माता हो, तुम्ही अपने भाग्य के नियामक हो ।
दु:ख किसने fear ?
यह है दुःख से छुटकारा तो चाहते हो, पर वह दुःख खड़ा किसने किया ? भगवान् महावीर ने आज से ढाई हजार वर्ष पहले यही प्रश्न संसार से पूछा था कि तुम दुःख-दुःख तो चिल्ला रहे हो, दुःख से मुक्ति के लिए नाना उपाय तो कर रहे हो, पर यह तो बताओ कि यह दुःख पैदा किसने किया --
"दुक्ये केण कडे ?"
इस गम्भीर प्रश्न पर जब सब कोई चुपचाप भगवान् की ओर देखने लग गए और कहने लगे कि - प्रभु! आप ही बतलाइए, तो भगवान् महावीर ने इसका दार्शनिक समाधान देते हुए कहा- 'जीवेण कडे !' दुःख आत्मा ने स्वयं किये हैं । प्रश्न होता है कि श्रात्मा ने अपने लिए दुःख पैदा क्यों किया ? तो उसका उत्तर भी साथ ही दे दिया कि " माण" प्रमादवश उसने दुःख पैदा किया। वह किसी दूसरे के द्वारा नहीं थोपा गया है, किन्तु अपने ही प्रमाद के कारण वह दुःख अर्जित हुआ है । यह प्रशुद्धि भी किसी दूसरे ने नहीं लादी है, बल्कि अपनी ही भूल के कारण आत्मा अशुद्ध और मलिन होती
गई है। जो काम अपने प्रसाद और भूल से हो गया है, उसे स्वयं ही सुधारना पड़ेगा । कोई दूसरा तो नहीं सकता। इसीलिए एक प्राचार्य ने कहा है
-- यह आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं ही उसका फल भोगती है । स्वयं संसार में परिभ्रमण करती है और स्वयं ही संसार से मुक्त भी होती है ।
"स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥ "
ईश्वर सत्कर्म क्यों करवाता है ?
हमारे कुछ बन्धु इस विचार को लिए चल रहे हैं कि ईश्वर ही मनुष्य को कर्म करने की प्रेरणा देता है । वह चाहे तो किसी से सत्कर्म करवा लेता है और चाहे तो ग्रसत्कर्म ! उसकी इच्छा के बिना विश्व सृष्टि का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता ।
किन्तु प्रश्न यह है कि यदि कर्म करवाने का अधिकार ईश्वर के हाथ में है, तो फिर वह किसी से असत्कर्म क्यों करवाता है ? सब को सत्कर्म को हो प्रेरणा क्यों नहीं देता ? कोई भी पिता अपने पुत्र को बुराई करने की शिक्षा नहीं देता, उसे बुराई की ओर प्रेरित नहीं करता । फिर यदि ईश्वर संसार का परम पिता होकर भी ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा घोटाला है। फिर तो जैसे यहाँ की राज्य सरकारों में गड़बड़ - घोटाला चल रहा है, वैसा ही ईश्वर की सरकार भी चल रहा है। जो पहले बुराई करने की बुद्धि देता है और फिर बाद में उसके लिए दण्ड दे, यह तो कोई न्याय नहीं ! जैसा कि लोग कहते हैं
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"जा को प्रभु दारुण दुःख देही ताकी मति पहले हर लेही ।"
पना समिक्ख धम्मं .
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________________ मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं पाई कि ऐसी ईश्वर-भक्ति से हमें क्या प्रयोजन है ? "भगवान् जिसको दुःख देना चाहता है, उसकी बुद्धि पहले नष्ट कर देता है।" मैं पूछता हूँ, बुद्धि नष्ट क्यों करता है ? उसे सद्बुद्धि क्यों नहीं दे देता, ताकि वह बुरे कार्य में फँसे ही नहीं और न फिर दुःख ही पाए। न रहेगा बाँस, न बजेगी बांसुरी ! ईश्वर किसलिए हमें असत्कर्म की प्रेरणा देता है, यह पहेली, मैं समझता हूँ, आज तक कोई सुलझा नहीं सका। दूसरी बात यह है कि कुछ विचारक कर्म का कर्तत्व तो आत्मा की स्वतन्त्र शक्ति मानते हैं, किन्तु फल भोगने के बीच में ईश्वर को ले आते हैं। वे कहते हैं कि प्राणी अपनी इच्छा से सत्कर्म-असत्कर्म करता है, किन्तु ईश्वर एक न्यायाधीश की तरह कर्म-फल को भुगताता है। जैसा जिसका कर्म होता है, उसे वैसा ही फल दिया जाता है। यह एक विचित्र बात है कि एक पिता पुत्र को बुराई करते समय तो नहीं रोके, किन्तु जब वह बराई कर डाले, तब उस पर डण्डे बरसाए। तो इससे क्या वह योग्य पिता हो सकता है ? उस पिता को आप क्या धन्यवाद देंगे, जो पहले लड़कों को खुला छोड़ देता है कि हाँ, जो जी में पाए सो करो, और बाद में स्वयं ही उन्हें पुलिस के हवाले कर देता है। क्या यह व्यवहार किसी न्याय की परिभाषा में आ सकता है ? हमारे यहाँ तो यहाँ तक कहा जाता है कि-- "जो तू देखें अन्ध के, आगे है इक कूप। तो तेरा चुप बैठना, है निश्चय अघरूप // " अंधे को यदि आप देख रहे हैं कि वह जिस मार्ग पर चल रहा है, उस मार्ग पर आगे बड़ा गड्ढ़ा है, खाई है या कुना है, और यदि वह चलता रहा, तो उसमें गिर पड़ेगा, ऐसी स्थिति में यदि आप चुपचाप बैठे मजा देखते रहते हैं, अन्धे को बचाने की कोशिश नहीं करते हैं, तो आप उसे गिराने का महापाप कर रहे हैं। यह नहीं होना चाहिए, कोई संकट में फंस रहा है, और आप चुपचाप उसे देखते रह जाएँ ! और, फंसने के बाद ऊपर से गालियाँ भी दें कि गधा है, बेवकूफ है ! और, फिर इंडे भी बरसाएँ। बात यह है कि ईश्वर जब सर्वशक्तिमान है, वह प्राणियों को शुभ-अशुभ कर्म का फल भुगताता है, तो उसे पहले प्राणियों को असत्कर्म से हटने की प्रेरणा भी देनी चाहिए और सत्कर्म में प्रवृत्त करना चाहिए। पर, यह ठीक नहीं कि उसे असत्कर्म से निवृत्त तो नहीं करे, उलटे दण्ड और देता रहे। आत्मा ही कर्त्ता ओर भोक्ता है : _ ईश्वर के सम्बन्ध में ये जो गुत्थियाँ उलझी हुई हैं, उन्हें सुलझाने के लिए हमें भारतीय दर्शन के प्रात्म-दर्शन को समझना पड़ेगा। आत्मा स्वयं अपनी प्रेरणा से कार्य करती है और स्वयं ही उस कर्म के अनुसार उसका फल भोगती रहती है। इसीलिए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता में बार-बार दुहराया है। ___"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्" आत्मा का अपने से ही कल्याण किया जा सकता है और अपने से ही अपना पतन होता है। इसलिए अपने द्वारा अपना अभ्युत्थान करो, उद्धार करो! पतन मत होने दो। यह आत्मा की स्वतन्त्रता की आवाज है, अखण्ड चेतना का प्रतीक है। कर्म कर्तृत्व, और कर्मफल-भोग दोनों प्रात्मा के अधीन हैं। अतः अात्मस्वरूप की पहचान कर, अपनी पथ-दिशा तय करना, शुद्धता को प्राप्त करना ही, दुःख-मुक्ति एवं अमरता का एकमात्र मार्ग है। जीवन पथ पर कॉट किसने बोए ? Jain Education Interational