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जीवन-निर्माता : सद्गुरु
आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज
परमश्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी महाराज के प्रवचन साहित्य एवं 'नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं' ग्रन्थ से यहाँ उनके गुरुविषयक कतिपय विचारों एवं भजनों का संकलन किया गया है। आचार्य श्री हस्ती ऐसे परम गुरुभक्त थे जो अपने गुरु के हृदय में निवास करते थे । आचार्य श्री के यहाँ प्रदत्त भजन प्रायः अपने गुरुदेव को समर्पित हैं।
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सम्पादक
10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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वास्तव में योग्य गुरु की ठोकरे खाने वाला ही योग्य शिष्य पूजनीय बन पाता है। आज कल के स्वेच्छाचारी शिष्यों के लिये यह बहुत ही ध्यान देने योग्य बात है।
निर्ग्रन्थ गुरु के पास भक्त पहुँच जाए तो न तो गुरु उससे कुछ लेता है और न उसे कुछ देता ही है। वह तो एक काम करता है- अज्ञान के अंधकार को हटाकर शरणागत के ज्ञान चक्षु खोलता है, 'ज्ञानांजन-शलाका' के माध्यम से प्रकाश करता है और अज्ञान का जो चक्र घूमता है, उसको दूर करता है।
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देव का अवलम्बन परोक्ष रहता है और गुरु का अवलम्बन प्रत्यक्ष । कदाचित् ही कोई भाग्यशाली ऐसे नररत्न संसार में होंगे, जिन्हें देव के रूप में और गुरु रूप में अर्थात् दोनों ही रूपों में एक ही आराध्य मिला हो। देव और गुरु एक ही मिलें, यह चतुर्थ आरक में ही संभव है। तीर्थंकर भगवान् महावीर में दोनों रूप विद्यमान थे वे देव भी थे और गुरु भी थे। लेकिन हमारे देव अलग हैं और गुरु अलग। हमारे लिए देव प्रत्यक्ष नहीं हैं, परन्तु गुरु प्रत्यक्ष हैं। इसलिए यदि कोई मानव अपना हित चाहता है, तो उस मानव को सद्गुरु की आराधना करनी चाहिए।
गुरु के अनेक स्तर हैं, अनेक दर्जे हैं, जिनको गुरु कहा जाता है, लेकिन वे सभी तारने में, मुक्त करने में सक्षम नहीं होते । आचार्य केशी ने बतलाया है कि आचार्य तीन प्रकार के होते हैंकलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य । यदि कोई व्यक्ति कृतज्ञ स्वभाव का है और उपकार को मानने वाला है, तो उसको जिसने दो अक्षर सिखाए हैं, उसके प्रति भी आदर भाव रखेगा | जिसने थोड़ा सा खाने-माने लायक व्यवसाय प्रारम्भ में सिखाया है, उसको भी ईमानदार कृतज्ञ व्यक्ति बड़े सम्मान से देखेगा। इसी प्रकार जो शिल्पाचार्य हैं और उन्होंने अपने शिष्यों को शिल्प की शिक्षा दी है, उनके प्रति भी शिष्यों को आदरभाव रखना चाहिए। किन्तु कलाचार्य और शिल्पाचार्य को प्रिय है धन । जो भक्त जितनी ज्यादा भेंट- पूजा अपने गुरु के चरणों में चढ़ायेगा उसको कलाचार्य
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I 10 जनवरी 2011 || और शिल्पाचार्य समझेगा कि यही शिष्य मेरा अधिक सम्मान करता है, लेकिन धर्माचार्य की नजर में उसी शिष्य का सम्मान है, जिसने अपने जीवन को ऊँचा उठाने के लिए साधना की है। सद्गुरु होने की प्रथम शर्त यह है कि वह स्वयं निर्दोष मार्ग पर चले और अन्य प्राणियों को भी उस
निर्दोष मार्ग पर चलावे। सद्गुरु की इसलिए महिमा है। 3 मनुष्य जैसा पुरुषार्थ करता है, वैसा भाग्य निर्माण कर लेता है। इतना जानते हुए भी साधारण
आदमी शुभ मार्ग में पुरुषार्थ नहीं कर पाता। कारण कि जीवन-निर्माण की कुंजी सद्गुरु के बिना नहीं मिलती। जिन पर सद्गुरु की कृपा होती है, उनका जीवन ही बदल जाता है। आर्य जम्बू को भर तरुणाई में सद्गुरु का योग मिला तो उन्होंने 99 करोड़ की सम्पदा, 8 सुन्दर रमणियों एवं मातापिता के दुलार को छोड़कर त्यागी बनने का संकल्प किया। राग से त्याग की ओर बढ़कर उन्होंने गुरुपूजा का सही रूप उपस्थित किया। शिष्य के जीवन में गुरु ही सबसे बड़े चिकित्सक हैं। जीवन की कोई भी अन्तर समस्या आती है तो उस समस्या को हल करने का काम और मन के रोग का निवारण करने का काम गुरु करता है। कभी क्षोभ आ गया, कभी उत्तेजना आ गई, कभी मोह ने घेर लिया, कभी अहंकार ने, कभी लोभ .ने, कभी मान ने और कभी मत्सर ने आकर घेर लिया तो इनसे बचने का उपाय गुरु ही बता सकता
* निर्ग्रन्थ, जिनके पास वस्तुओं की गाँठ नहीं होती- आवश्यक धर्मोपकरण के अतिरिक्त जो किसी
तरह का संग्रह नहीं रखते हैं, वे ही धर्मगुरु हैं। साधुओं के पास गाँठ हो तो समझ लेना चाहिए कि ये गुरुता के योग्य नहीं हैं। कड़वी सीख देने वाले गुरु तत्काल खारे लगने पर भी भविष्य सुधारने वाले सच्चे मित्र हैं। दुर्जन की प्रेम-दृष्टि सन्मार्ग से च्युत करने वाली होने से बुरी है। जबकि सज्जन की त्रासपूर्ण तीखी बात भी हित भावना होने से भली है, हितकर है।
गुरु-महिमा
(तर्ज- कुंथु जिनराज तूं ऐसा) अगर संसार में तारक, गुरुवर हो तो ऐसे हों।।टेर।। क्रोध ओ लोभ के त्यागी, विषय रस के न जो रागी। सूरत निज धर्म से लागी, मुनीश्वर हों तो ऐसे हों।।1।। अगर॥ न धरते जगत से नाता, सदा शुभ ध्यान मन आता। वचन अघ मेल के हरता, सुज्ञानी हों तो ऐसे हों ।।2।। अगर ।।
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क्षमा रस में जो सरसाये, सरल भावों से शोभाये। प्रपंचों से विलग स्वामिन, पूज्यवर हों तो ऐसे हों।।3 ।। अगर।। विनयचन्द पूज्य की सेवा चकित हो देखकर देवा। गुरु भाई की सेवा के, करैय्या हों तो ऐसे हों।।4।। अगर।। विनय और भक्ति से शक्ति, मिलाई ज्ञान की तुमने। बने आचार्य जनता के, गुण सुभागी हों तो ऐसे हों।।5 ।। अगर।।
गुरु-विनय (तर्ज-धन धर्मनाथ धर्मावतार सुन मेरी) श्री गुरुदेव महाराज हमें यह वर दो-21 रंग-रग में मेरे एक शान्ति रस भर दो।। टेर।। मैं हूँ अनाथ भव दुःख से पूरा दुखिया-21 प्रभु करुणा सागर तूं तारक का मुखिया। कर महर नज़र अब दीन नाथ तव कर दो-2 ||1 || रंग। ये काम-क्रोध-मद-मोह शत्रु हैं घेरे-2, लूटत ज्ञानादिक संपद को मुझ डेरे। अब तुम बिन पालक कौन हमें बल दो-2112 ।। रंग। मैं करुं विजय इन पर आतम बल पाकर-2, जग को बतला दूं धर्म सत्य हर्षाकर। हर घर सुनीति विस्तार कसै, वह जर दो-2 113 ।। रंग।। देखी है अद्भुत शक्ति तुम्हारी जग में-2 अधमाधम को भी लिये तुम्हीं निज मग में। मैं भी मांगू अय नाथ हाथ शिर धर दो-2114 ।। रंग।। क्यों संघ तुम्हारा धनी मानी भी भीरु-2, सच्चे मारग में भी न त्याग गंभीस। सबमें निज शक्ति भरी प्रभो! भय हर दो-2।।5 ।। रंग।। सविनय अरजी गुरुराज चरण कमलन में-2, कीजे पूरी निज विरुद जानि दीनन में। आनंद पूर्ण करी सबको सुखद वचन दो-2,116 || रंग।
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________________ जिनवाणी 10 जनवरी 2011 गाई यह गाथा अविचल मोद करण में-2, सौभाग्य गुरु की पर्व तिथि के दिन में। सफली हो आशा यही कामना पूरण कर दो-2 117 / / रंग। संकल्प गुरुदेव चरण वन्दन करके, मैं नूतन वर्ष प्रवेश करूँ। शम-संयम का साधन करके, स्थिर चित्त समाधि प्राप्त करूँ।।1।। तन, मन, इन्द्रिय के शुभ साधन, पग-पग इच्छित उपलब्ध करूँ। एकत्व भाव में स्थिर होकर, रागादिक दोष को दूर कसें / / 2 / / हो चित्त समाधि तन-मन से, परिवार समाधि से विचीं। अवशेष क्षणों को शासनहित, अर्पण कर जीवन सफल कसें / / 3 / / निन्दा, विकथा से दूर रहूँ, निज गुण में सहजे रमण कस। गुरुवर वह शक्ति प्रदान करो, भवजल से नैया पार कर / / 4 / / शमदम संयम से प्रीति कसैं, जिन आज्ञा में अनुरक्ति कीं। परगुण से प्रीति दूर करूँ, 'गजमुनि' यों आंतर भाव धरूँ / / 5 / / (अपने 73 वें जन्मदिवस पर के.जी.एफ. में रचित) गुरुदेव तुम्हारे चरणों में जीवन धन आज समर्पित है, गुरुदेव तुम्हारे चरणों में।।टेर।। यद्यपि मैं बंधन तोड़ रहा, पर मन की गति नहीं पकड़ रहा। तुम ही लगाम थामे रखना, गुरुदेव तुम्हारे चरणों में ||1 / / मन-मन्दिर में तुम को बिठा, मैं जड़ बंधन को तोड़ रहा। शिव मंदिर में पहुँचा देना, गुरुदेव तुम्हारे चरणों में।।2।। मैं बालक हूँ नादान अभी, एक तेरा भरोसा भारी है। अब चरण-शरण में ही रखना, गुरुदेव तुम्हारे चरणों में।।3 / / अंतिम बस एक विनय मेरी, मानोगे आशा है पूरी। काया छायावत् साथ रहे, गुरुदेव तुम्हारे चरणों में / / 4 / / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only