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आचार्य श्रीजिनकवीन्द्रसागरसरि [ ले०-साध्वीजी श्री सज्जनश्रीजी 'विशारद']
इस अनादिकालीन चतुर्गत्यात्मक संसार कानन में विचार किया कि हमारा यह बालक जीवित रहा तो इसे अनन्त प्राणी स्व स्व कर्मानुसार विचित्र-विचित्र शरीरधारण शासन सेवार्थ समर्पित कर देंगे। 'होनहार बिरवान के करके कर्म विपाक को शुभाशुभ रूप से भोगते हुए भ्रमण करते होत चीकने पात' के अनुसार यह बालक शैशवावस्था से रहते हैं। उनमें से कोई आत्मा किसी महान् पुण्योदय ही तेजस्वी और तीब्र बुद्धि का था। से मानव शरीर पाकर सद्गुरु संयोग से स्वरूप का भान जब हमारे यह दिव्य पुरुष केवल १० वर्ष के हो थे करके प्रकृति की ओर गमन करते हैं । जन्म और जरामरण तभी पिता की छत्र-छाया उठ गई और यह प्रसंग इस से छूट कर वास्तविक मुक्ति प्राप्त करने के लिये तप संयम बालक के लिये वैराग्योद्भव का कारण बना। की साधना पूर्वक स्व पर कल्याण साधते हैं। ऐसे ही
शोक-ग्रस्त माता पुत्र अपनो अनाथ दशा से अत्यन्त प्राणियों में से स्वर्गीय आचार्यदेव थे, जिन्होंने बाल्यावस्था ःखी हो गये। 'ख' में भगवान याद आता है यह से आत्मविकास के पथ पर चल पर मानव जीवन को
कहावत सही है। कुछ दिन तो शोकाभिभूत हो व्यतीत कृतार्थ किया।
किये। बालक धनपत ने कहा, माँ मैं दोक्षा लूंगा। वंशा-परिचय व जन्म
मुझे किसी अच्छे गुरुजी को सौंप दें। आपश्री के पूर्वज सोनीगरा चौहान क्षत्रिय थे और वीर प्रसविनी मरुभूमि के धन्नाणो ग्राम में निवास करते
माता ने विचार किया, अब एक बार बड़ी बहिन थे। वि० सं० ६०५ में श्री देवानन्दमूरि से प्रतिबोध के दर्शन करने चलना चाहिये। माताजी को बड़ी बहिन, पाकर जैन ओसवाल बो और अहिंसा धर्म धारण किया ।
जिनका नाम जीवीबाई था, स्वनामधन्या प्रसिद्ध विदुषी पूर्व पुरुष जगाजी शाह 'रानो' आकर रहने लो। रानो आरिल श्रीमती पुण्यत्रो जी म. सा. के पास दीक्षा से पाहण और फिर व्यापारार्थ इन्हीं के वंशज श्रीमलजो
लेकर साध्वी बन गई थी। उनका नाम श्रीमती दयाश्री सं० १६१६ में लालपुरा चले गये थे। वहाँ भी स्थिति जी म० था। वे इस समय श्रीमतो रत्नश्रीजी म. सा. ठोक न होने से इनके वंशज शेषमल जो पालमपुर आये के साय मारवाड़ में विचरती थी, वहीं माता पुत्र दर्शनार्थ और वहीं निवास कर लिया। इसो वंश में बेचरभाई जा पहुंचे। के सुपुत्र श्री निहालचन्द्र शाह को धर्मरको श्रीमती बनू श्रीमतो रत्नश्रीजी म. सा० ने इस बुद्धिमान तेजयो बाई की रलक्षि से वि० सं. १९६४ को चैत्र शुका बालक को भावना को वैराग्यमय आख्यानों से परिसुष्ट १३ को शुभ सन सूवित एक दिव्य बाल ने अबतार किया और गणाधीशर श्रीमान हरिसागरजी म. सा. लिया। Hि-पाता के इसके पूर्व कई बाल बाल्पा- के पास वार्मिक पिता-दोसा लेने को कोटे भेज दिया। वथा में ही काल काठिा हो चुके थे। अतः उन्होंने वहीं रह कर शिता प्रात करने लगे। थोड़े दिनों में हो
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[ १४० ] इन्होंने जीवविचार, नवतत्त्व आदि प्रकरण एवं प्रतिक्रमण, गुरुवर्य महोदय की सहायता की। स्तवन, सज्झाय आदि सीख लिये।
आप ही के अदम्य साहस और प्रेरणा से वि० सं० गणाधीश महोदय कोटा से जयपुर पधारे। वहीं २००६ में मेड़ता रोड फलोधी पार्श्वनाथ विद्यालय की वि० सं० १६७६ के फाल्गुन मास की कृष्ण पंचमी को स्थापना हुई। उसो वर्ष गुरुदेव ने मेडता रोड में उपधान १२ वर्ष के किशोर बालक धनपतशाह ने शुभ मुहूर्त में मालारोहण के अवसर पर मार्गशीर्ष शुक्ला १० के दिन बड़ी धूमधाम से ४ अन्य वैरागियों के साथ दीक्षा धारण आपको उपाध्याय पद से विभूषित किया। आपके गुरुदेव की। इनका नाम 'कवीन्द्रसागर' रखा गया और गणा- का पक्षाघात से उसी वर्ष पोष कृष्णा अष्टमी को स्वर्गवास धीश महोदय के शिष्य बने ।
हो जाने पर उपस्थित श्रीसंघ ने आप श्री को आचार्यपद अध्ययन
पर विराजमान होने की प्रार्थना की, किन्तु आपश्री ने ___ अपने योग्य गुरुदेव को छत्रछाया में निवास करके फरमाया हमारे समुदाय में पराम्परा से बड़े ही इस पद व्याकरण, न्याय, काव्य, कोश, छन्द, अलंकार आदि शास्त्र को अलंकृत करते हैं । अत: यह पद वीरपुत्र श्रीमान आनन्दपढ़े एवं संस्कृत प्राकृत गुर्जर आदि भाषाओं का सम्यग सागरजी महाराज सा० सुशोभित करेंगे। मुझे जो गुरुदेव ज्ञान प्राप्त किया व जैन शास्त्रों का भी गम्भीर अध्ययन बना गये हैं, वही रहूँगा । कितनो विनम्रता और निःस्पृहता ! किया। 'यथानाम तथागुणः' के अनुरूप आप सोलह
योग-साधन वर्ष की आयु से ही काव्य प्रणयन करने लग गये थे। आपको आत्मसाधना के लिये एकान्त स्थान अत्यधिक स्वल्प काल में ही आशु कवि बन गये। आपने संस्कृत रुचिकर थे। विद्याध्ययनान्तर आपश्री योगसाधना के लिये
और राष्ट्रभाषा में काव्य साहित्य में अनुपम वृद्धि को है। कुछ ससय ओसियां के निकट पर्वत गुफा में रहे थे, एवं दार्शनिक एवं तत्वज्ञान से पूर्ण अनेक चैत्यवन्दन, स्तवन, लोहावट के पास की टेकरी भी आपका साधना स्थल स्तुतियाँ सज्झाएँ और पुजाएं बनाई है जो जैन साहित्य रहा था। की अनुपम कृतियां हैं। जैन साहित्य के गम्भीर ज्ञान जयपुर में मोहनवाड़ी नामक स्थान पर भी आपने का सरल एवं सरस विवेचन पढ़ कर पाठक अनायास हो कई बार तपस्या पूर्वक साधना की थी। वहाँ आपके तत्वज्ञान को हृदयंगम कर सकता है और आनन्द-समुद्र में सामने नागदेव फन उठाये रात्रि भर बैठे रहे थे। यह दृश्य मम हो सकता है। आधुनिक काल में इस प्रकार तत्त्व- कई व्यक्तियों ने आँखों देखा था। आप हठयोग को आसन ज्ञानमय साहित्य बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। जैन प्राणायाम मुद्रानेति, धौती आदि कई क्रियायें किया समाज को आपसे अत्यधिक आशाएं थीं, कि असामयिक करते थे। निधन से वे सब निराशा में परिवर्तित हो गई।
तपश्चर्या आपने ४१ वर्ष के संयमी जीवन में ३० वर्ष गुरुदेव के प्रायः देखा जाता है कि ज्ञानाभ्यासी साधु साध्वी चरणों में व्यतीत किये और मारवाड़, कच्छ, गुजरात, वर्ग तपस्या से वंचित रह जाते हैं किन्तु आप महानुभाव उत्तर प्रदेश, बंगाल में विहार करके तीर्थ यात्रा के साथ ही इसके अपवाद रूप थे। ज्ञानार्जन, एवं काव्य-प्रणयन के धर्म प्रचार किया। जयपुर, जैसलमेर आदि कई ज्ञान के साथ ही ताश्चर्या भो समय समय पर किया करते भंडारों को सुव्यवस्थित करने, सोचपत्र बनाने आदि में थे। ४२ वर्ष के संयमी जोवन में आपने मास-ग, पन
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________________ क्षमण, अछाइयाँ, पंचौले, आदि किये। तेलों को तो महोत्सव पूर्वक आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। गिनती ही नहीं की जा सकती। __ आपश्री स्वभाव से ही सरल मिलनसार और गम्भीर साहित्य सेवा थे। दयालुता और हृदय की विशालता आदि सद्गुणों से आपने सैकड़ों छोटे मोटे चैत्यवन्दन, स्तुतियाँ स्तवन, सुशोभित थे / आपश्री के अन्तःकरण में शाशन, व गच्छ सज्झाय आदि बनाये, रत्नत्रय पूजा, पार्श्वनाथ पंचकल्याणक व समदाय के उत्कर्ष की भावनाएँ सतत् जागृत रहती थी। पूजा, महावीर पंचकल्याणक पूजा, चौसठप्रकारी पूजा, पालीताना में "श्री जिन हरि विहार" आपश्री को सत्प्रेरणा तथा चारों दादा गुरुओं की पृथक 2 पूजाएँ एवं चैत्रोपूर्णिमा कार्तिक पूर्णिमा विधि, उपधान, विंशतिस्थानक, वर्षीतप छम्मासी तप आदि के देव-वन्दन आदि विशिष्ट ____ आपश्री के कई शिष्य हुए, पर वर्तमान में केवल श्री रचनाएं की हैं। आप संस्कृत प्राकृत हिन्दी में समान रूप कल्याणसागरजी तथा मुनिश्री कैलाशसागर जी विद्यमान है / में रचनाएँ करते थे। बहुत सी रचनाओं में आपने अपना समुदाय के दुर्भाग्य से आपश्री पूरे एक वर्ष भी नाम न देकर अपने पूज्य गुरुदेव का, गुरुभ्राताओं का एवं आचार्य पद द्वारा सेवा नहीं कर पाये कि करालकाल ने अन्यों का नाम दिया है। इस सारे साहित्य का पूर्ण निर्दयता पूर्वक इस रत्न को समुदाय से छीन लिया। उग्न परिचय विस्तार भय से यहाँ नहीं दिया जा रहा है। विहार करते हुए स्वस्थ्य सबल ___ आपकी प्रवचन शैली ओजस्वी व दार्शनिक ज्ञानयुक्त अहमदाबाद से केवल 20 दिन में मन्दसौर के पास बूढ़ा थी। भाषा सरल, सुबोध और प्रसाद गुणयुक्त थी। ग्राम में फा * शु० एकम को संध्या समय पधारे। वहाँ रचनाओं में अलंकार स्वभावतः ही आ गये हैं। अत: प्रतिष्ठा कार्य व योगोद्वहन कराने पधारे थे किन्तु फा० शु० आपको एक प्रतिभाशाली कवि भी कहा जा सकता है। 5 शनिवार 2018 को रात्रि को 12 // बजे अक्समात आचार्य पद हार्टफेल हो जाने से नवकार का जाप करते एवं प्रतिष्ठा विक्रम सं० 2017 को पौष शुक्ला 10 को प्रखरवक्ता कार्य के लिगे ध्यान में अवस्थित ये महानुभाव संघ व समुव्याख्यान-वाचस्पति वीरपुत्र श्री जिन आनन्दसागर दाय को निराधार निराश्रित बनाकर देवलोक में जा विराजे सूरीश्वर जी म. सा. के आकस्मिक स्वर्ग गमनानन्तर सारी दादा गुरुदेव व शासनदेव उस महापुरुष को आत्मा को शांति समुदाय ने आपही को समुदायाधीश बनाया। अहमदाबाद एवं समुदाय को उनके पदानुसरण को शक्ति प्रदान करें, में चैत्र कृष्ण 7 को श्री खरतरगच्छ संघ द्वारा आपको यही हमारी हार्दिक अभिलाषा है। |