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तपश्चर्यारत संयमी जीवन में आपको रात्रि में पानी तक आदि आपके उपदेशो से हुई। सं० १९४६ में महातीर्थ रखने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। पीछे जब साधु शत्रुजय की तलहट्टी में मुर्शिदाबाद निवासी रायबहादुर समुदाय बढा तब रखने लगे। एकबार आप प्राचीन तीर्थ बाबू धनपतसिंहजी दुगड़ द्वारा निर्मापित विशाल जिनालय श्रीओसियां पधारे तो वहां का मन्दिर गर्भगृह और प्रभु की प्रतिष्ठा-अंजनशलाका आपही के कर-कमलो से सम्पन्न प्रतिमा तक बालु में ढंके हुए थे। आपने जबतक जीर्णोद्धार हुई थी। कार्य न हो विगय का त्याग कर दिया। पीछे नगरसेठ को
आपका शिष्य परिवार विशाल था, आपमें सर्वगच्छ मालूम पड़ा और जीर्णोद्धार करवाया गया। ओसियां के मन्दिर में आपश्री की मत्ति विराजमान है।
समभाव का आदर्श गुण था अत: आपका शिष्य समुदाय ___आपमे मारवाड, गजरात, काठियावाड आदि अनेक आज भी खरतर और तपगच्छ दोनों में सुशोभित है। ग्राम नगरों में अप्रतिबद्ध विहार किया था। बम्बई जैसी
___आपके व आपके शिष्यों द्वारा अनेक मन्दिरों, दादावाड़ियों महानगरी में जैन साधुओं का विचरण सर्वप्रथम आपने ही
के निर्माण, जीर्णोद्धारादि हुए, ज्ञान भंडार आदि संस्थाएं प्रारभ किया। वहाँ आपका बड़ा प्रभाव हुआ, वचन-सिद्ध
स्थापित हुई, साहित्योद्धार हुआ। आप अपने समय के एक प्रतापी महापुरुष तो थे ही, बम्बई में घर धरमें आपके चित्र तेजस्वी युगपुरुष थे। निर्मल तप-संयम से आत्मा को देखे जाते हैं। आपने अनेकों भव्यात्माओं को देशविरति
भावित कर अनेक प्रकार से शासन-प्रभावना करके सं० सर्वविरति धर्म में दीक्षित किया। आपका विशाल साधू १९६४ वैशाख कृष्ण १४ को सूरत नगर में आप समाधि समुदाय हुआ। अनेक स्थानों में जोर्णोद्धार-प्रतिष्ठाएं पूर्वक स्वर्ग सिधारे ।
आचार्य-प्रवर श्रोजिनयश:सरिजी
[ भंवरलाल नाहटा]
खरतर गच्छ विभूषण, वचन सिद्ध योगीश्वर श्री मोहन- यात्रा करते हुए अहमदाबाद जा पहुँचे। किसी सेठ की लालजी महाराज के पट्ट-शिष्य श्री यशोमनिजी का जन्म दुकान में जाकर मधुर व्यवहार से उसे प्रसन्न कर नौकरी सं. १९१२ में जोधपुर के पूनमचंदजी सांड की धर्मपत्नी कर ली और निष्ठापूर्वक काम करने लगे। मुनि महाराजों मांगोबाई को कुक्षि से हुआ। इनका नाम जेठमल था, के पास धार्मिक अभ्यास चालू किया एवं व्याख्यान श्रवण व पिताश्री का देहान्त हो जाने पर अपने पैरों पर खड़े होने पर्वतिथि को तपश्या करने लगे। एक बार कच्छ के परासवा और धार्मिक अभ्यास करने के लिये माता की आज्ञा लेकर गांव गए; जहां जीत विजयजी महाराज का समागम हुआ। किसी गाड़ेवाले के साथ अहमदाबाद को ओर चल पड़े। आपकी धार्मिकदृवृत्ति और अभ्यास देखकर धर्माध्यापक इनके पास थोड़ा सा भाता और राह खर्च के लिये मात्र रूप में नियुक्ति हो गई। धार्मिक शिक्षा देते हुए भी आपने दो रुपये थे। इनके पास पार्श्वनाथ भगवान के नाम का ४५ उपवास की दीर्घतपश्चर्या की। स्वधर्मी-बन्धुओं के संबल था अतः भूख प्यास का ख्याल किये बिना आवरत साथ समेतसिखरजी आदि पंचतीर्थी की यात्रा की।
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पन्द्रह वर्ष के दीर्घ प्रवास से जेठमलजी जोधपुर लौटे और विनयपूर्वक माता को स्थानकवासो मान्यता छुड़ाकर जिनप्रतिमा के प्रति श्रद्धालु बनाया । तदनन्तर उन्होंने ५१ दिन की दीर्घ तपश्चर्या प्रारम्भ की दीवान कुंदनमलजी ने बड़े ठाठसे अपने घर ले जाकर पारणा कराया। माता-पुत्र दोनों वैराग्य रस ओत-प्रोत थे। माता को दीक्षा दिलाने के अनन्तर जेठमलजी ने खरतरगच्छ नभोमणि श्री मोहनलाल जो महाराज के वन्दनार्थ नवाशहर जाकर दीक्षा की भावना व्यक्त कर जोधपुर पधारने के लिये वोनती की। गुरुमहाराज के जोधपुर पधारने पर आपने सं० १९४१ जेठ शु०५ के दिन उनके करकमलों से दीक्षा ली और 'जसमुर्ति' बने । व्याकरण, काव्य, जैनागमादि के अभ्यास में दत्तचित होकर अभ्यास करते हुए गुरुमहाराज के साथ अजमेर, पाटण और पालनपुर चातुर्मास कर फलोदी पधारे । जोधपुर संघ की वोनती से गुरु महाराजने जसमुनिजी को वहां चातुर्मास के लिये भेजा । तपश्वी तो आप थे ही सारे चातुर्मास में आयंबिल तप करते तथा उत्तराध्ययन सूत्र का प्रवचन करते थे । अपनी भूमि के मुनिरत्न को देख संघ आनन्द-विभोर हो गया । चातुर्मास के अनन्तर फलोदी पधार कर गुरुमहाराज के साथ जेसलमेर, आबू, अचलगढ आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए अहमदाबाद पधार कर चातुर्मास किया । तदनन्तर पालोताना, सूरत, बंबई, सूरत, पालीताना चातुर्मास किया सातवें चातुर्मास में आपने गुणमुनि को दीक्षित किया ।
सिद्धाचलजी की जया तलहटी में राय धनपतसिंहजी बहादुर ने धनवसी टुंक का निर्माण कराया। उनकी धर्मपत्नी रानी मैनासुन्दरी को स्वप्न में आदेश हुआ कि जिनालय की प्रतिष्ठा श्री मोहनलालजी महाराज के करकमलों से करावे | उन्होंने बाबूसाहब को अपने स्वप्न की बात कही । उनके मन में भी वही विचार था अतः अपने पुत्र बाबू नरपतसिंह को भेजकर महाराज साहब को
प्रतिष्ठा के हेतु पालीताना पधारने की प्रार्थना की ।
बाबू साहब की भक्तिसिक्त प्रार्थना स्वीकार कर पूज्यवर श्री मोहनलालजो महाराज अपने शिष्य समुदाय सहित पालीताना पधारे और नौ द्वार वाले विशाल जिनालय की प्रतिष्ठा सं० १९४६ माघ सुदि १० के दिन बड़े ठाठ के साथ कराई । १५ हजार मानव मेदिनी की उपस्थिति में अंजनशलाका के विधि-विधान के कार्यों में गुरु महाराज के साथ श्रीयशोमुनि जी की उपस्थिति और पूरा पूरा सहयोग था ।
इसी वर्ष मिती अषाढ़ सुदि ६ को चूरु के यति रामकुमारजी को दीक्षा देकर ऋद्धिमुनिजी के नाम से यशोमुनिजी के शिष्य प्रसिद्ध किये। फिर केवलमुनि और अमर मुनि भी आपके शिष्य हुए। सूरत-अहमदाबाद के संघ की आग्रहभरी वीनती थी । अतः सं० १९५२-५३ के चातुर्मास सूरत में करके अहमदाबाद पधारे । सं० १९५४५५-५६ के चातुर्मास करके पन्यास श्री दयाविमल जी के पास ४५ आगमों के योगोद्वहन किये। समस्त संघ ने आपको पन्यास और गणिपद से विभूषित किया 1 तदमन्तर गुरु महाराज के चरणों में सूरत आकर हर्ष निजी को योगोद्वहन कराया । सं० १६५७ सूरत चौमासा कर १६५८ बम्बई पधारे और हरखमुनिजी को पन्यास पद प्रदान किया ।
राजस्थान में धर्म प्रचार और विहार के लिये गुरु महाराज की आज्ञा हुई तो आपश्री ने सात शिष्यों के साथ शिवगंज चातुर्मास कर उपधान कराया। राजमुनिजी के शिष्य रत्नमुनिजी, लब्धिमुनिजी और हेतश्रीजी को बड़ी दीक्षा दी । सं० १९६० का चातुर्मास जोधपुर में किया और सं० १६६१ का चातुर्मास अजमेर विराजे । इसी समय कान्फ्रेन्स अधिवेशन पर गए हुए कलकत्ताके राय बद्रीदास मुकीम बहादुर, रतलाम के सेठ चांदमलजी पटवा, ग्वालियर के रायवहादुर नथमलजी गोलछा और फलौदी के सेठ फूलचन्दजी गोलछा ने श्री मोहनलालजी महाराज
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महान् प्रतापी श्रीमोहनलालजी महाराज
Jain जैनाचार्य श्री जिनऋद्धिसूरिजी महाराज
महान् तपश्वी श्रीजिनयशः सूरिजी महाराज
विद्वर्य उपाध्याय श्री किमती
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हयाना
मस्तयोगी श्री ज्ञानसागरजी और वा. जयकीतिजी
जं. य.प्र. भ. स्व.जैनाचार्य पुज्य श्री हरिसागर सूरीश्वरजी महाराज साहब
शिव्यरत्न
शिष्यरत्न
INSFERENGERSमरमममममसमपात
जन्म १ere: दिक्षा १९५७
आचार्यपद- स्वर्गवास श्रीकांतीसागरजी महाराज साहब.स.१९२-सं.२००ET
मिसर-सं.२००६ श्री दर्शनसागरजी महाराज साहब
जन्म-१९८४ दिक्षा-२००२
जन्म १९६८ दिक्षा-१e७६
चांदा चातुर्मासमें से. २०१२
जैनाचार्य श्री जिनहरिसागरसूरिजी शिष्य रत्न मुनि कान्तिसागरजी व दर्शनसागरजी
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________________ से अर्ज की कि आप खरतर गच्छ के हैं और इधर धर्म का ऋद्धिमनिजी और केशरम निजी को उत्सव पूर्वक पन्यास पद उद्योत करते हैं तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बंगाल को से विभषित किया। पूर्व देश के तीर्थों की यात्रा की भी धर्म में टिकाये रखिये ! गुरुमहाराज ने पं० हरखमुनिजी भावना होने से ग्वालियर से विहार कर दतिया, झांसी, को कहा कि तुम खरतरगच्छ के हो, पारख गोत्रीय हो कानपुर, लखनऊ, अयोध्या, काशी, पटना होते हुए पावाअत: खरतर गच्छ को क्रिया करो। पंन्यास जी ने गुर्वाज्ञा- पुरी पधारे। वीरप्रभु को निर्वाणभूमि की यात्रा कर कुंडशिरोधार्य मानते हुए भी चालू क्रिया करते हुए उधर के क्षेत्रों लपुर, राजगृहो, क्षत्रियकंड आदि होते हुए सम्मेतशिखरजी को संभालने की इच्छा प्रकट की। गुरुमहाराज ने अजमेर पधारे / कलकत्ता संघ ने उपस्थित होकर कलकत्ता पधारने स्थित हमारे चरित्र नायक यशोमुनि जी को आज्ञापत्र लिखा को वीनति की। आपश्री साधुमण्डल सहित कलकत्ता जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। गुरु महाराज को पधारे और एक मास रहकर सं० 1966 का चातुर्मास इससे बड़ा सन्तोष हुआ। चातुर्मास बाद पन्यास जी किया। सं० 1967 अजीमगंज और सं० 1968 का बम्बई की और पधारे और दहाणु में गुरुमहाराज के चरणों में चातुर्मास बालचर में किया। आपके सत्संग में श्रीअमरउपस्थित हुए। आपने गुरु-महाराज की बड़ी सेवाभक्ति चन्दजी बोथरा ने धर्म का रहस्य समझकर सपरिवार तेरापंथ की, वेयावच्च में सतत् रहने लगे। को श्रद्धात्यागकर जिनप्रतिमा की दृढ़ मान्यता स्वीकार एकदिन गुरुमहाराज ने यशोमुनिजी को बुलाकर शत्रु- की। संघ की वीनति से श्रीगमानमुनिजी, वेशरमुनिजी ञ्जय यात्रार्य जाने की आज्ञा दी। वे 8 शिष्यों के साथ और बद्धिम निजी को कलकत्ता चातुर्मास के लिए आपश्री वल्लभीपुर तक पहुँचे तो उन्हें गुरुमहाराज के स्वर्गवास के ने भेजा। समाचार मिले। ... आपश्री शान्तदान्त, विद्वान और तपस्वी थे। सारा सं० 1964 का चातुर्मास पालीताना करके सेठाणी संघ आपको आचार्य पद प्रदान करने के पक्ष में था / सूरत में आणंदकुंवर बाई की प्रार्थना से रतलाम पधारे / सेठानीजी किये हुए 30 मुनि-सम्मेलन का निर्णय, कृगचन्द्रजी महा राज व अनेक स्थान के संघ के पत्र आजाने से जगत् सेठ ने उद्यापनादिमें प्रचुर द्रव्य व्यय किया / सूरत के नवलचन्द फतेचन्द, रा. ब. केशरीमलजी, रा० ब० बद्रीदासजी, भाई को दीक्षा देकर नीतिमुनि नाम से ऋद्धिमुनिजी के नथमलजी गोलछा आदि के आग्रह से आपको सं० 1966 शिष्य किये / इसी समय सूरत के पास कठोर गांव में ज्येष्ठ शुद 6 के दिन आपको आचार्य पद से विभूषित किया प्रतिष्ठा के अवसर पर एकत्र मोहनलालजी महाराज के गया। आपश्री का लक्ष आत्मशुद्धि की ओर था मौन संघाड़े के कान्तिमुनि, देवमुनि, ऋद्धिमुनि, नयमुनि, कल्या- अभिग्रह पूर्वक तपश्चर्या करने लगे। पं० केशरमुनि भावणमुनि क्षमामुनि आदि 30 साधुओं ने श्रीयशोमुनिजी को मुनिजी साधुओं के साथ भागलपुर, चम्पापुरी, शिखरजी की आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का लिखित निर्णय किया। यात्रा कर पावापुरी पधारे / आश्विन सुदी में आपने ध्यान श्रीयशोमुनिजी महाराज सेमलिया, उज्जैन, मक्सीजो और जापपूर्वक दीर्घतपस्या प्रारम्भ की। इच्छा न होते होते हुए इन्दौर पधारे और केशरमुनि, रतनमुनि, भावमुनि हुए भी संघ के आग्रह से मिगसरवदि 12 को 53 उपवास को योगोद्वहन कराया। ऋद्धिमुनिजी भी सूरत से विहार का पारणा किया। दुपहर में उल्टो होने के बाद अशाता कर मांडवगढ में आ मिले / जयपुर से गुमानमुनिजी भी बढ़ती गई और मि० सु०३ सं० 1970 में समाधि पूर्वक गुणा को छावनी आ पहुँचे। आपने दोनों को योगोद्वहन रात्रि में 2 बजे नश्वर देह को त्यागकर स्वर्गवासी हुए। क्रिया में प्रवेश कराया। सं० 1965 का चातुर्मास ग्वा- पावापुरी में तालाब के सामने देहरी में आपकी प्रतिमा लियर में किया। योगोद्वहन पूर्ण होने पर गुमानमुनिजी, विराजमान की गई।