Book Title: Jina Shasana me Shramaniyo ki Bhumika Author(s): Kusumlata Jain Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/210527/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n ghe nhạc जिन शासन में श्रमणियों की भूमिका 3552388003888888888888888888888888888 MA8403200003880WOR000080888 • डॉ. (श्रीमती) कुसुम लता जैन प्रवहमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी तक श्रमणी परम्परा अनवरत रूप से चलती रही तथा वह परम्परा आज तक भी प्रवहमान प्रथम राजा व प्रथम साधु के पश्चात् भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर हुए क्योंकि उन्होंने साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चार तीर्थं की स्थापना की थी। उनके धर्म शासन में ८४००० साध, ३००००० (तीन लाख) साध्वियाँ, ३०५००० (तीन लाख पाँच हजार) श्रावक और ५५४००० (पाँच लाख चोपन हजार) श्राविकाएं थीं। धर्म प्रचार और प्रसार के कार्य को साधुओं की अपेक्षा साध्वियों ने अधिक वृहद् रूप में सम्पादित किया था। उनकी पुत्री महासती ब्राह्मी जिन शासन की प्रथम साध्वी थीं जिन्होंने भाई बाहुबली के गर्व को गलित किया। तत्पश्चात् ही बाहुबली को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। श्रमणियों के महत्व को स्थापित करने के लिए ही भगवान ऋषभदेव ने ब्राह्मी तथा सुन्दरी को ही बाहुबली को समझाने भेजा अन्यथा वे स्वयं भी इस कार्य को कर लेते अथवा साधुओं से भी करवा सकते थे। श्रमणियों में वाक् माधुर्य विशेष रूप से होता है जो श्रोता को शीतलता प्रदान करता है। श्रोता मन्त्र मुग्ध से धर्म पालन को तत्पर हो जाते हैं। श्रमणी वृन्द में विनय एवं अनुशसन की भावना भी बहुत अधिक होती है। जिससे जिन शासन देवीप्यमान होता रहता है। इस अवसर्पिणी काल के चौबीसों तीर्थंकरों के शिष्य श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या प्रायः अधिक रही है यथा - नाम तीर्थंकर श्रमण श्रमणी प्रमुख आर्थिका भगवान ऋषभदेव जी ८४००० ३००००० भगवान अजितनाथ जी १००००० ३३०००० प्रकुब्जा भगवान संभवनाथ जी २००००० ३३६००० धर्मश्री भगवान अभिनन्दजी ३००००० ६३०००० मेरुषेणा भगवान सुमतिनाथ जी ३२०००० ५३०००० अनन्ता भगवान पद्मप्रभु जी ३३०००० ४२०००० रतिषणा भगवान सुपार्शवनाथ जी ३००००० ४३०००० मीना भगवान चन्द्र प्रभु जी . २५०००० ३८०००० अरुणा भगवान सुविधिनाथ जी २००००० १२०००० शीतलनाथ जी १००००० १००००६ धरणा ब्राह्मी EFFEEL FREE घोषा (५७) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्रेयांसनाथ जी ८४००० १०३००० चारण भगवान वासुपूज्य जी ७२००० १००००० वरसेना भगवान विमलनाथ जी ६८००० १००८०० पद्मा भगवान अनन्तनाथ जी ६६००० ६२००० सर्वश्री भगवान धर्मनाथजी ६४००० ६२४०० सुव्रता भगवान शांतिनाथ जी ६२००० ८९००० हरिषेण्म भगवान कुंथुनाथ जी ६०००० ६०६०० भाकिता भगवान अरनाथ जी ५०००० ६०००० कुंथु सेना भगवान मल्लिनाथ जी ४०००० ५५००० मधुसेना भगवान मुनि सुव्रत जी ३०००० ५०००० पूर्वदत्ता भगवान नमिनाथ जी २०००० ४१००० मार्मिणी भगवान अरिष्टनेमि जी १८००० ४०००० रक्षी भगवान पार्श्वनाथ जी १६००० ३८००० मुकोका भगवान महावीर स्वामी जी १४००० ३६००० चंदना . निन शासन में श्रमण और श्रमणियों को समान अधिकार एवं समान नियमों का पालन दर्शाया गया है। श्रमण और श्रमणी शब्द में मुख्य शब्द 'श्रम' है जिसका तात्पर्य स्वावलम्ब की उत्कृष्टता को घोषित करता है। ये महानुभाव अपनी दिनचर्या स्वयं के श्रम से प्रारम्भ करते हैं, तथा अपने सारे कार्य स्वयं ही करते हैं, अपने उपयोग के लिए कोई वस्तु वे गृहस्थ से नहीं मंगवाते वे स्वयं जाकर लाते हैं। ये महापुरुष संसार को सार रहित मानकर असत से सत् अन्धकार से आलोक, नश्वर से अनश्वर तथा मृत्यु से मोक्ष की ओर अग्रसर हो एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करते हैं जो कष्टकाकीर्ण होते हुए भी दुःख नाशक तथा शांति प्रदायक है। जिन शासन के इन प्रहरियों को समान रूप से पाँच महावन, पाँच, समिति, तीन गुप्ति, षट् आवश्यक, प्रतिक्रमण, दस लक्षण धर्म आदि का पालन अनिवार्य बताया गया है। ___ दशवैकालिक सूत्र में साधु साध्वियों के लिए रात्रि भोजन परित्याग नामक छठे व्रत का उलेलख है। इसके अन्तर्गत रात्रि में इन्हें आहार-पानी आदि लाना तथा सेवन करना वर्जित किया गया है, क्योंकि रात्रि में जीवों की विराधना विशेष होती है। अन्य तीर्थंकरों द्वारा इस व्रत का विधान नहीं किया गया था परन्तु भगवान महावीर के शिष्य वक्र जड़ थे अतः उनको स्पष्ट वर्जित करना आवश्यक था। सामान्यतया अहिंसा के अन्तर्गत ही रात्रि भोजन का परित्याग आ जाता है। जिन शासन में श्रमणी व्रत अंगीकार करने के लिए जाति, सम्प्रदाय आदि का कोई भेद भाव नहीं है। किसी भी कुल या जाति की नारी श्रमणीव्रत ग्रहण कर सकती है। __ व्यवहार भाष्य से विदित होता है कि एक गणिका द्वारा भी दीक्षा ली गई थी। जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसमें सभी तीर्थंकरों ने नारी को धर्म कार्य सम्पादन की स्वतन्त्रता प्रदान की है, एवं मोक्ष मार्ग पर अनुगमन करने का अधिकार प्रदान किया है जिसके लिए उसे पुरुष का या किसी अन्य का मुखापेक्षी नहीं होना पड़ता है। जिन शासन में। श्रमणी और नारी अपनी धार्मिक क्रियाएं स्वयं सम्पादित कर सकती है। स्थानांग तथा निशीथ भाष्य में कुछ व्यक्तियों के सन्दर्भ में दीक्षा का निषेध किया गया है यथा (५८) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्ध, व्याधिग्रस्त ऋणपीड़ित, गर्भवती तथा छोटे शिशुओं की माता आदि। इस तरह दीक्षा व्रत प्रगति के पथ पर अग्रसर करने की प्रक्रिया है। नारियों में त्याग तप, सहनशीलता, गाम्भीर्य पुरुषों की अपेक्षा अधिक होता है इसी कारण हर तीर्थंकर के काल में श्रमणों की अपेक्षा श्रमणियों की संख्या अधिक रही है और आज भी श्रमणियों की युवाओं और वृद्धों में धर्म प्रचार समता एवं सद्भावना का प्रसार कर रही हैं अतः समाज निर्माण में श्रमणियों का विशिष्ट स्थान है। इसी श्रमणी परम्परा को अग्रेषित करने हेतु साध्वी रला श्री कानकुंवरंजीम एवं श्री चम्पाकुवंरजी का अभ्युदय हुआ है। आप दोनों परम विदुषी, ओजस्वी व्याख्यात्री, मधुर भाषिणी, त्यागी समाजोद्धारक, ___ आप दोनों संस्कृत प्राकृत हिन्दी एवं गुजराती की ज्ञाता थी। आपने उत्तर भारत से दक्षिण भारत-कर्नाटक तामिलनाडु तक पदयात्रा करते हुए धर्म प्रचार किया है। अहंकार यदि अहंकार-पोषण के लिये सत्कर्म करते भी हैं तो वह फल शून्य हो जाता है। * जिस व्यक्ति में अहंकार की अधिकता होती है वह न तो किसी को सहयोग दे पात है और न अन्य व्यक्तियों से सहयोग ले पाता है। आचरण आम जनता इतिहास नहीं देखती, वर्तमान को देखकर आचरण करती है। यदि आपका आचरण व व्यवहार अभद्र है, निन्दनीय है और आप चाहें कि लोग आपकी प्रशंसा करें - तो यह तो अमावस की रात में चन्द्रमा देखने की लालसा जैसी बात हो गई। आत्मा * संसार में कहीं ऐसा स्थान नहीं, जहाँ आत्मा अपने को न देखता हो। मनुष्य सबको धोखा दे आत्म-दर्शन भी एक प्रकार का शीशा है, इससे अपने जीवन की खामियाँ, दुर्बलताएँ और बुराइयाँ मनुष्य के सामने खुलकर आ जाती हैं। . ... स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि