Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवन्त प्रेरणा-प्रदीप
W
THAनार
ITHI
............. iminimummy
- डॉ० शान्ता भानावत
आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. जगमगाते प्रेरणा-प्रदीप थे । आपके जीवन में त्याग-वैराग्य अपनी चरम सीमा पर था। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत के आप महान् विद्वान् थे । आपने कई सूत्रों की टीकायें लिखीं । आपका प्रवचन साहित्य विशाल, प्रेरणास्पद और मार्ग-दर्शक है । प्राचार्य श्री ने मानव को शुभ कार्यों की ओर प्रवृत्त होने की प्रेरणा दी । मानव में शुभअशुभ संस्कारों को प्रेरणा ही जगाती है । शुभ प्रेरणा से मानव उत्थान और प्रगति की ओर कदम बढ़ाता है तो अशुभ प्रेरणा से अवनति और दुर्गति की ओर।
आज का युग भौतिकवादी युग है । पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित सांसारिकता में लीन मानव अध्यात्मप्रिय संस्कृति को भूलता जा रहा है। आज उसका मन भोग में आसक्त रहना चाहता है । त्याग की बात उसे रुचिकर नहीं लगती । वह 'खामो पीरो और मौज करो' के सिद्धांत का अनुयायी बनता जा रहा है । धर्म-कर्म को वह अंध-विश्वास और रूढ़िवाद कह कर नकारना चाहता है । ऐसे पथ-भ्रमित मानव का आचार्य श्री ने अपने सदुपदेशों से सही दिशा-निर्देश किया है।
प्राचार्य श्री का मानना है कि व्यक्ति का खान-पान सदैव शुद्ध होना चाहिए । कहावत भी है 'जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' । मांस-मछली खाने वाले व्यक्ति की वृत्तियां शुद्ध सात्विक नहीं रहतीं, वे तामसिक होती जाती हैं । मांस भक्षी व्यक्ति की वृत्तियां वैसी ही खंखार हो जाती हैं जैसी मांस-भक्षी सिंह, भाल आदि की होती हैं। उन्हीं के शब्दों में 'आहार बिगाड़ने से विचार बिगड़ता है और विचार बिगड़ने से प्राचार में विकृति आती है । जब आचार विकृत होता है तो जीवन बिकृत हो जाता है।''
___ व्यक्ति को भूल कर भी किसी दुर्व्यसन का शिकार नहीं होना चाहिए । दुर्व्यसन का परिणाम बड़ा ही घातक होता है-"जैसे लकड़ी में लगा घुन लकड़ी को नष्ट कर डालता है उसी प्रकार जीवन में प्रविष्ट दुर्व्यसन जीवन को नष्ट कर देता है ।"२ व्यक्ति को सुख-दुःख दोनों ही में समान रहना चाहिए । सुख में अधिक सुखी और दुःख में अधिक दुखी होना कायरता है ।
१. आध्यात्मिक पालोक, पृ० ६६ । २. वही, पृ० ५८ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
• २४५
"जो व्यक्ति खुशी के प्रसंग पर उन्माद का शिकार हो जाता है और दुख में आपा भूल कर विलाप करता है, वह इहलोक और परलोक दोनों का नहीं रहता ।"१ व्यक्ति को सदैव मधुर भाषी होना चाहिए । वाणी को मनुष्य के व्यक्तित्व की कसौटी कहा गया है । "अच्छी वाणी वह है जो प्रेममय, मधुर और प्रेरणाप्रद हो । वक्ता हजारों विरोधियों को अपनी वाणी के जादू से प्रभावित करके अनुकूल बना लेता है ।" २
आज शिक्षा, व्यापार, राजनीति आदि प्रत्येक क्षेत्र में अनैतिकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है । तथाकथित धार्मिक नेताओं के कथनी और करनी में बड़ा अंतर दिखाई देता है । उनके जीवन-व्यवहार में धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं होता । ऐसे लोगों के लिए प्राचार्य श्री ने कहा है"धर्म दिखावे की चीज नहीं है । नैतिकता की भूमिका पर ही धार्मिकता की इमारत खड़ी है । प्रामाणिकता की प्रतिष्ठा ही व्यापारी की सबसे बड़ी पूंजी है।"3
मानव की इच्छएँ आकाश के समान अनन्त हैं। उनकी पूर्ति कभी नहीं होती पर अज्ञान में फंसा मानव उनकी पूर्ति के लिए रात-दिन धन के पीछे पड़ा रहता है । इस प्रपंच में पड़ कर वह धर्म, कर्म, प्रभु नाम-स्मरण आदि सभी को विस्मृत कर बैठता है । ऐसे लोगों को प्रेरणा देते हुए आचार्य श्री ने कहा है- "सब अनर्थों का मूल कामना-लालसा है ।" जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दुखों से छुटकार पा लेता है ।" "मन की भूख मिटाने का एक मात्र उपाय संतोष है । पेट की भूख तो पाव दो पाव आटे से मिट जाती है मगर मन की भूख तीन लोक के राज्य से भी नहीं मिटती ।"५ लोभ वृत्ति ही सभी विनाशों का मूल है इसलिये सदैव लोभवृत्ति पर अंकुश रक्खा जाय और कामना पर नियंत्रण किया जाय । प्रभु का नाम अनमोल रसायन है । वस्तु-रसायन के सेवन का प्रभाव सीमित समय तक ही रहता है किन्तु नाम-रसायन जन्म-जन्मांतरों तक उपयोगी होता है । उसके सेवन से आत्मिक शक्ति बलवती हो जाती और अनादि काल की जन्म-मरण की व्याधियां दूर हो जाती हैं।"
आचार्य श्री ने प्रार्थना को जीवन में विशेष महत्त्व दिया है । उनका कहना है कि-"वीतराग की प्रार्थना से आत्मा को सम्बल मिलता है, आत्मा
१. वही, पृ० ३६४ । २. वही, पृ० २३२ । ३. वही, पृ० १२५ ४. आध्यात्मिक आलोक पृ० ४२। ५. वही, पृ० ४४ । ६. वही, पृ० १२८ । ७. वही, पृ० १२८ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________ * 246 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व को एक विशेष शक्ति प्राप्त होती है। जो साधक प्रार्थना के रहस्य को समझ कर आत्मिक शांति के लिए प्रार्थना करता है, उसकी आधि-व्याधियाँ दूर हो जाती हैं, चित्त की आकुलता-व्याकुलता नष्ट हो जाती है, और वह परम पद का अधिकारी बन जाता है।" 1 पर यह प्रार्थना बाह्य दिखाबा मात्र नहीं होनी चाहिए / प्रार्थना करते समय तो "कषाय की जहरीली मनोवृत्ति का परित्याग करके समभाव के सुधा सरोवर में अवगाहन करना चाहिये / "2 ऐसी प्रार्थना से मन को अपार शांति मिलती है। वह शांति क्या है ? शांति आत्मा से सम्बन्धित एक वृत्ति है / ज्यों-ज्यों राग-द्वेष की प्राकुलता कम होती जाती है और ज्ञान का आलोक फैलता जाता है त्यों-त्यों अन्तःकरण में शांति का विकास होता है / प्रार्थना के स्वरूप के सम्बन्ध में प्राचार्य श्री का कहना है कि प्रार्थना केवल चन्द मिनट के लिए भगवान का नाम गुनगुनाना नहीं है वरन् “चित्तवृत्ति की तूली को परमात्मा के साथ रगड़ने का विधि पूर्वक किया जाने वाला प्रयास ही प्रार्थना है / " "अगर हमारे चित्त में किसी प्रकार का दम्भ नहीं है, वासनाओं की गंदगी नहीं है, तुच्छ स्वार्थ-लिप्सा का कालुष्य नहीं है तो हम वीतराग के साथ अपना सान्निध्य स्थापित कर सकते हैं।"५ "प्रात्मा अमर अजर-अविनाशी द्रव्य है / न इसका आदि है, न अंत, न जन्म है न मृत्यु / इसलिए आत्मा से उत्पन्न विकारों के शमन के लिए आध्यात्मिक ज्ञान की अत्यन्त आवश्यकता है / जब मनुष्य का ज्ञान, दर्शन, चारित्र उन्नत हो जाता है तब वह सांसारिक दुखों में भी सुख का अनुभव करने लगता है / जल तभी तक ढलकता, ठोकरें खाता, ऊँचे-नीचे स्थान में पद दलित होता और चट्टानों से टकराता है जब तक कि वह महासागर में नहीं मिल जाता।" सचमुच सत्पुरुषों का जीवन प्रदीप के समान होता है जो स्वयं भी प्रकाशित होता है और दूसरों को भी प्रकाशित करता है / प्राचार्य श्री का जीवन ऐसे ही महापुरुषों जैसा था / आज वे हमारे बीच पार्थिव रूप से नहीं हैं पर उनके जीवनादर्शों और वचनामृतों से प्रेरणा लेकर हमें अपने जीवन को उन्नत बनाना चाहिए / यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। -प्रिंसिपल, श्री वीर बालिका कॉलेज, जयपुर-३०२ 003 1. प्रार्थना-प्रवचन, पृ० 41 / 2. वही, पृ० 235 / 3. वही, पृ० 104 / 4. वही, पृ० 213 / 5. वही, पृ०७ / 6. आध्यात्मिक पालोक, पृ० 123 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only