Book Title: Jatil Muni
Author(s): 
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी जटिल मुनि , आज बड़ा अनर्थ हो गया। पुरोहित चण्डशर्माने चौलक्याधिपति को शाप दिया है किदस महर्तमें वह सिंहासनके साथ पाताल हमें घुस जायेंगे । दुर्वासाकी तरह वक्र भ्रकूटि, लालनेत्र और सर्पकी तरह फुफकारते हुए जब चण्डने शाप दिया तो एक बार तो चौलक्याधिपति हतप्रभ हो गये। मैं उन्हें सान्त्वना तो दे आया हूँ। पर जी आन्दोलित है। मुनिवर, चौलुक्याधिपतिकी रक्षा कीजिए।' राजमन्त्रीने घबड़ाहटसे कहा। जटिलमुनि-मन्त्रिवर, घबड़ानेकी बात नहीं है । क्या चौलुक्याधिपतिने पुरोहितको सम्पत्ति छीन ली या उसका अपमान किया ? बात क्या हुई ? मन्त्री-कुछ नहीं मुनिवर, राजसभामें चर्चा चल रही थी कि यह वर्णभेद क्यों हआ। इसी प्रसंग में चौलुक्याधिपतिने कहा था कि-"जब प्रजाओंका बनानेवाला एक ही ब्रह्मा है तब यह जातिभेद कैसा? एक ही पिता की चार सन्तानोंमें जातिभेदकी कल्पना बुद्धिगम्य तो नहीं है। जैसे कि एक वृक्षकी विभिन्न शाखाओं में उत्पन्न होनेवाले फलोंमें जातिभेद नहीं है उसी तरह एक ब्रह्मकी सन्ततिमें यह जन्मना जातिभेद आ गया? ब्राह्मण ही चन्द्रमाके समान गौर वर्ण, क्षत्रिय ही छेवलेके फलके समान आरक्त वर्ण, वैश्य ही पीतवर्ण तथा शुद्र ही कृष्णवर्ण नहीं देखे जाते, सभी वर्गों में सभी प्रकारके मनुष्य हैं। हमारे पुरोहितजी ही का रंग कृष्ण है। सभी वर्णवालोंका चलना-फिरना, शरीर, केश, खून, चमड़ा, हड्डी आदि एक जैसे हैं उनमें कोई तात्त्विक वर्णभेद नहीं है फिर यह मानव-मानवमें विषमता कैसी?" इतना सुनते ही पुरोहित चण्डशर्माका पारा तेज हो गया। वे राजसभाकी मर्यादाको भूल गये और बोले-चौलुक्याधिपति, सावधान, तुम ब्रह्मतेजको नहीं जानते । क्या वेद प्रतिपादित सत्युगसे प्रचलित वर्ण व्यवस्था झूठी है ? उस समय भी चौलुक्याधिपतिने पुरोहितको शान्त करते हुए नम्र भावसे कहा कि पुरोहितजी, आपने ही पहिले यह बताया था कि कृतयुगमें वर्णभेद नहीं था, त्रेतामें भी प्रजाएँ वर्णविहीन थीं। द्वापर युगमें ही यह वर्णव्यवस्था प्रचलित की गई तथा कलियुगमें लोभ, मोह, द्वेष, विश्वासघात आदिसे वर्णव्यवस्था चौपट हो गई है । आप ही बताइए कि श्रेष्ठ काल तो वही है जिसमें सभी मानव समानतासे रहते थे, यह जातिगत उच्चनीच भाव नहीं था। इस व्यवस्थाके मलमें ब्राह्मणप्रभुत्वकी भावना ही कार्य कर रही है। मानव जातिका एक बड़ा भाग अछूत और अस्पृश्य बना हुआ है, उनकी दशा पशुओंसे भी बदतर है। चौलुक्याधिपतिके इन सयुक्तिक वाक्योंने भी चण्डशर्माको क्रोधाग्निमें घी का काम किया। वह आपेसे बाहर होकर चौलुक्याधिपति से बोला-मूर्ख, तू इन श्रमणोंके चक्करमें है । अब तेरा विनाश काल निश्चित है। शास्त्रपातकिन्, तू दस मुहूर्तमें ही ससिंहासन पातालमें धंस जायगा, मैं अनुष्ठान करता हूँ। इतना कहकर पुरोहित राजसभासे जाने लगा। मैंने अधिपतिकी रक्षाके लिए पुरोहितको जेलमें डाल दिया है। वह वहीं मन्त्र-पाठ कर रहा है। मनिवर, समय थोड़ा है। मेरा चित्त भी कुछ चंचल हो रहा है। जटिलमुनि-मन्त्रिवर, चिन्ताकी विशेष बात नहीं है। मन्त्र अपने में कोई सामर्थ्य नहीं रखता। वे शब्द जिनका मुखसे उच्चारण किया जाता है, पौद्गलिक हैं। असली शक्ति तो उच्चारणकर्ताकी आत्मशक्ति है । आत्मबल ही शब्दों के द्वारा सामने वाले के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। फिर जब अमुक शब्दों के द्वारा दस-बीस प्रभावशाली व्यक्ति आत्मप्रभाव व्यक्त कर चुकते हैं तो वही मन्त्र बन जाता है। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३९१ जिन शब्दोंके पीछे जितने अधिक समर्थ पुरुषोंका साधनाबल रहता है वे दूसरे साधकोंको उतने ही शीघ्र मनकी एकाग्रता करके अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं। यही मन्त्रसामर्थ्यका रहस्य है। आप शीघ्र जाकर चौलुक्याधिपतिको यहाँ लिवा लाइए । इतने में ही सपरिकर चौलुक्याधिपति स्वयं आकर नमस्कार करके मनिराजसे बोले मुनिवर-चण्डशर्माको शाप दिए हुए आठ मुहूर्त व्यतीत हो गए, पर अभी तक तो पातालमें जाने जैसी बात नहीं दीखती । फिर भी मेरा मन भावी अनिष्टकी आशंकासे विचलित सा हो रहा है । जटिलमनि-राजन्, आप चिन्ता न करें। आप क्षत्रिय परम्पराको स्वीकार करनेवाले दृढ़परिकर्मा वीर पुरुष इन अन्धविश्वासोंको छोड़ें और अपने क्षात्रवीर्यको स्मरण करें तथा मनसे हिंसा और द्वेषबुद्धि निकालकर जगत्कल्याणकी सर्वभूतमैत्रीकी भावना भावें। उस अनुपम आत्मरसमें विभोर होकर अब आप मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावमें लीन होंगे तब इन कषायाविष्ट पामर-जनोंकी शक्ति अनायास ही कुण्ठित हो जायगी। आप समस्त विकल्पोंको त्यागकर निराकूल होइए और परम अहिंसक भावोंकी आराधना कीजिए । सब अच्छा ही होगा । मैं आपकी रक्षाका प्रबन्ध भी कर देता हूँ। मुनिराजने राजाके आश्वासनके लिए कुछ क्रिया कर दी। राजा, मन्त्री आदि सभी शान्त वातावरण में अहिंसा और अद्वेषका विचार करने लगे। इस अहिंसक चरचामें पता नहीं चला कि दस मुहर्त कब बीत गए। जब चरचा टूटी तो चौलुक्याधिपतिका ध्यान घटिका यन्त्रपर गया वह हर्षा तिरेकसे बोला, ग्यारह मुहर्त हो गए। बुलाओ उस मिथ्याचारीको। ये झूठे ही शापका भय दिखाते हैं। इन लोगोंने न जाने कितने अज्ञानी लोगोंको शापके भयसे त्रस्त कर रखा है। एक मामूली द्वारपालके आदेश से ये हतप्रभ होते है और हमारी अनुवृत्तिके लिए ही शास्त्र, मन्त्र और शाप आदिके हथियारों का प्रयोग करते हैं। चौलुक्याधिपतिको इस तरह क्रोधाविष्ट देखकर मुनिराज जटिलने कहा-राजन्, क्षमा वीरोंका भूषण है । आप चण्डशर्माके हृदयके चण्डत्वको जीतिए जिससे वे स्वयं मानव-समत्वके पुण्यदर्शन कर सकें और अपने प्रभावका उपयोग व्यक्ति और जातिगत स्वार्थसे हटाकर मानवमात्रके उद्धारमें लगावें।। इतने में द्वारपाल चण्डशर्माको लेकर आ गया। देखते ही चौलुक्याधिपतिका क्रोध फिर भभका । पर मुनिराज जटिलने उन्हें शान्त कर दिया । उनने चण्डशर्मासे आश्वस्त वाणीमें कहा पुरोहितजी, शक्ति और प्रभावका उपयोग मानवमात्र ही नहीं प्राणिमात्रके कल्याणमें करना चाहिए। इस जीवनको जगदुपकारमें लगाइए । जाति, कुल, रूप आदि देहाश्रित है । वर्ण आजीविका और क्रियाके आधीन हैं ये तो व्यवहार हैं। यह तो आपको विदित है कि-व्यास, वसिष्ठ, कमठ, कठ, द्रोण, पराशर आदि जन्मसे ब्राह्मण नहीं थे पर तपस्या और सदाचार आदिसे उनने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। यह संसार एक रंगशाला है। इसमें अपनी वृत्तिके अनुसार यह जीव नाना वेशोंको धारण करता है। कम से कम धर्मका क्षेत्र तो ऐसा उन्मुक्त रहना चाहिए जिसमें मानवमात्र क्या प्राणिमात्र शान्तिलाभ कर सके । आप ही बताइए, शूद्र यदि व्रत धारण कर ले और सफाई से रहने लगे, विद्या और शीलकी उपासना करने लगे, मद्य, मांसादि को छोड़ दे तो उसमें और हमम क्या अन्तर रह जाता है ? शरीरका रक्त, मांस, हड्डो आदि में क्या जातिभेद है ? शरीरमें तो ब्राह्मणत्व रहता नहीं है । आत्माके उत्कर्ष का कोई बन्धन नहीं है । आज ही राज्यमें अनेक तथोक्त नीचकुलोत्पन्न भी ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित हैं । हमारा तो यह निश्चित सिद्धान्त है कि क्रियाविशेषाद् व्यवहारमात्रात् दयाभिरक्षाकृषिशिल्पभेदात् । शिष्टाश्च वर्णाश्चतुरो वदन्ति न चान्यथा वर्णचतुष्टयं स्यात् ॥" -वरांगचरित २५।११ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ अर्थात-दया आदि व्रतोंके धारण करनेसे, रक्षा-कार्य करने से, कृषि करने से और शिल्प आदि से ही ब्राह्मण आदि चारों वर्णों की व्यवस्था है। यह क्रियाश्रित है और व्यवहारमात्र है। दूसरे प्रकार से वर्ण व्यवस्था नहीं है। जटिलमुनिके इन शम और समपूर्ण वचनोंको सुनकर चण्डशर्मा पानी-पानी हो गया / वह गद्गद हो चरणोंमें पड़कर बोला-श्रमणवर, आज आपने मुझे सच्चे ब्राह्मणत्वका मार्ग बताया। मेरी तो जैसे आँखेंही खोल दी हों / आज तो मुझे दुनिया कुछ दूसरी ही दिख रही है। मेरा तो नकशा ही बदल गया है। मुनिवर, मुझे उपासक मानें / आपने चालुक्येश्वर की कोपाग्निसे मेरी रक्षा की, मुझे अभय दिया / धन्य / A.000000