Book Title: Jainagamo aur Agamik Vyakhyao me Narad Author(s): Pramodkumari Sadhvi Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211050/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में नारद साध्वी प्रमोद कुमारी भारतीय ऋषियों की परम्परा में नारद एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं। नारद के सम्बन्ध में हमें जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनों ही परम्पराओं में उल्लेख प्राप्त होते हैं। यहाँ हम जैन परम्परा में नारद का उल्लेख कहाँ-कहाँ और किस-किस रूप में हुआ है, इसकी चर्चा करेंगे । जैन परम्परा में नारद का उल्लेख सर्वप्रथम 'ऋषिभाषित' ( ई० पू० चौथी-तीसरी शती) में मिलता है। ऋषिभाषित में इन्हें देवनारद कहा गया है तथा इनका उल्लेख अर्हत् ऋषि के रूप में हुआ है।' परवर्ती जैन व्याख्याकारों ने ऋषिभाषित के ऋषियों को प्रत्येकबुद्ध कहा है। इस रूप में ऋषिभाषित के नारद भी एक प्रत्येक बुद्ध माने गये हैं। ऋषिभाषित की संग्रहणी गाथा में नारद को अरिष्टनेमि के तीर्थ में होने वाला प्रत्येक बुद्ध बताया गया है। इससे इतना निश्चित हो जाता है कि नारद अरिष्टनेमि और कृष्ण के समकालिक व्यक्ति हैं। इस तथ्य की पुष्टि 'ज्ञाताधर्मकथा' से भी होती है। 'ज्ञाताधर्मकथा' में यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार की गई है कि वे वासुदेवकृष्ण और बलदेवराम के प्रिय थे तथा 'प्रद्युम्न, शाम्ब' आदि यादव कुमारों के श्रद्धेय थे।' 'ज्ञाताधर्मकथा' से यह बात भी स्पष्ट रूप से ज्ञात होती है कि कृष्ण और पाण्डवों के परिवारों में उनका आवागमन होता रहता था। 'ज्ञाताधर्मकथा' में नारद के पाण्डवों के परिवारों में आने और पाण्डवों द्वारा उन्हें यथायोग्य सम्मान देने के साथ-साथ इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि द्रौपदी ने इन्हें अविरत और असंयत मानकर यथोचित सम्मान नहीं दिया था, परिणामस्वरूप वह उनके रोष की भाजन बनी थी। ज्ञाताधर्मकथा में इन्हें 'कच्छल नारद' कहा गया है। जबकि ऋषिभाषित उन्हें 'देवनारद' कहता है । अतः यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या ऋषिभाषित के देवनारद और ज्ञाताधर्मकथा केकच्छुलनारद भिन्न-भिन्न हैं ? किन्तु यह मान्यता समुचित नहीं है क्योंकि ज्ञाताधर्मकथा में उल्लिखित नारद और ऋषिभाषित में उल्लेखित नारद दोनों ही अरिष्टनेमि के युग में ही हुए हैं। अतः ये दोनों भिन्न व्यक्ति नहीं हैं। यद्यपि यह एक सुनिश्चित सत्य है कि ऋषिभाषित में उन्हें जितने सम्मानित रूप में प्रस्तुत किया गया है उतने सम्मानित रूप में ज्ञाताधर्मकथा में प्रस्तुत नहीं किया गया है । ज्ञाताधर्मकथा में हमें उनके व्यक्तित्व का एक दोहरा रूप मिलता है। एक ओर उन्हें अत्यन्त विनीत और भद्र कहा गया है, वहीं दूसरी ओर उन्हें कलुषितहृदय भी कहा १. इसिभासियाई ११ २. इसिभासियाइं संग्रहणी गाथा १ ३. वही गाथा २ ४. इसिमण्डल गाथा ४२ ५ ज्ञाताधर्मकथा १।१६।१४२ ६. वही १।१६।१३९ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में नारद गया है। एक ओर उन्हें ब्रह्मचर्य का धारक और मध्यस्थ भाव से युक्त कहा गया तो दूसरी ओर उन्हें कोलाहल प्रिय भी कहा गया है। एक ओर उन्हें आकाश में गमन करने की शक्ति आदि अनेक विशिष्ट प्रकार की सिद्धियों से सम्पन्न बताया गया है, दूसरी ओर उन्हें कलह कराकर दूसरों के चित्त में असमाधि उत्पन्न करने वाला भी कहा गया है।' उपर्युक्त विवरण से ऐसा लगता है कि यद्यपि ग्रंथकार एक ओर उन्हें यथोचित सम्मान प्रदान करना चाहता है, तो दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व के धूमिल पक्ष को भी प्रकट करता है। एक ओर उन्हें ब्रह्मचर्य का धारक तथा मध्यस्थ भाव ( समभाव) से युक्त कहना तथा दुसरी ओर अविरत, असंयत, अप्रतिहत (पापकर्मा) कहना अपने आप में विरोधाभासपूर्ण है। इन दोनों विवरणों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहाँ ऋषिभाषित साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ऊपर उठकर नारद के व्यक्तित्व को प्रस्तुत करता है, वहाँ ज्ञाताधर्मकथा में उनके प्रति साम्प्रदायिक अभिनिवेश स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। ऋषिभाषित और ज्ञाताधर्मकथा के अतिरिक्त जैन परम्परा में नारद का उल्लेख 'समवायांग' में भी मिलता है उसमें उन्हें 21 वें भावीतीर्थंकर के रूप में प्रस्तुत किया गया है / यह माना गया है कि नारद का जीव आगामी उत्सर्पिणी काल में विमल नामक 21 वाँ तीर्थकर होगा / पुनः औपपातिक में ब्राह्मण संन्यासियों की आठ परम्पराओं में 'नारद' की परम्परा का उल्लेख भी है। साथ ही उसमें यह भी माना गया है कि वे शौच पर अत्यधिक बल देते थे और चारों वेद, पुरा.. दि अनेक विद्याओं के ज्ञाता थे / इसिमण्डल में भी नारद का उल्लेख है, उसमें इन्हें 'सत्य ही शौच है' नामक प्रथम अध्ययन का प्रवक्ता कहा गया है। यह संकेत ऋषिभाषित के प्रथम अध्ययन का ही सूचक है। आवश्यकचूर्णी में नारद को यज्ञदत्त और सोमयशा का पुत्र शौरीपुर का निवासी कहा गया है और इसकी समानता कच्छुल नारद से बताई गई है / 5 इस प्रकार जैन आगम साहित्य में नारद का उल्लेख 'ऋषिभाषित' 'समवायांग' 'ज्ञाताधर्मकथा' 'औपपातिक' 'ऋषिमण्डल' और 'आवश्यकचूर्णी' में उपलब्ध होता है। जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि ज्ञाताधर्मकथा और ऋषिभाषित के नारद एक ही हैं। हमें समवायांग औपपातिक और आवश्यकचर्णी में उल्लिखित नारद भी वही लगते हैं। इस बात का प्रमाण यह है कि दोनों में उन्हें शौचधर्म का प्रतिपादक बताया गया है। पुनः समवायांग में जिस नारद का भावी तीर्थंकर के रूप में उल्लेख हुआ है वह नारद भी ऋषिभाषित में उल्लिखित नारद ही हैं। क्योंकि हम देखते हैं कि 'समवायांग' में ऋषिभाषित के ऋषियों में से भयाली, द्वैपायन, नारद, अम्बड़ और सारिपुत्र को भी भावी तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार किया गया है। यद्यपि यहाँ एक असंगति हमारे सामने यह आती है कि सामान्यतया प्रत्येकबुद्ध को उसी भव में सिद्ध होने वाला माना जाता है। अतः नारद को एक ओर भावी तीर्थकर मानना और दूसरी ओर प्रत्येकबुद्ध कहना अपने आप में विरोधाभास का सूचक है। परम्परागत विद्वानों को इस असंगति पर विचार करना चाहिए। 1. ज्ञाताधर्मकथा 1 / 16 / 139 2. समवायांगसूत्र, 668 / गाथा 81 3. औपपातिकसूत्र-संन्यासियों का अधिकार सूत्र 76 गाथा 1 4. इसिमण्डलवृत्ति, पूर्वार्द्ध, गाथा 35 5. आवश्यक चूर्णी भाग 2 पृ० 194