Book Title: Jain Vyakaran ki Visheshtaye
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन व्याकरणकी विशेषताएँ संसार में यदि भाषातत्त्व नहीं होता तो सर्व सचेतन जगत् पाषाणकी तरह मूक ही रहता, इसमें कोई सन्देह नहीं । यों तो भाषातत्त्व पशु, पक्षी आदिको भी उपयोगी है, किन्तु मनुष्यका तो एक-एक क्षण भी भाषातत्व के विना व्यर्थ -सा प्रतीत होता है । भाषाके जरिये ही हम अपने अभिप्रायको दूसरोंके प्रति प्रकट कर सकते हैं । हमारा जितना लोकव्यवहार है वह भाषातत्त्वके ऊपर ही निर्भर है। यहाँ तक कि भाषा-विज्ञान भी मुक्ति प्राप्ति में एक कारण है । संसार में नाना भाषाएँ प्रचलित हैं । प्रत्येक भाषाका गौरव और लोकमान्यता उस भाषाके शब्दोंकी प्रचुरता एवं मधुरताके साथ-साथ प्रत्येक शब्दके अर्थप्राचुर्यसे हो हो सकते हैं । यदि हम बिना व्याकरणके उल्लिखित कारणों की पुष्टिके लिये शब्दकल्पना और अर्थकल्पना करने बैठें, तो शायद जीवन की परिसमाप्ति होने पर भी उसे पूर्ण नहीं कर सकते तथा शब्दप्रयोगकी व्यवस्था बनाना असम्भव हो जाय, इसलिये भाषाके गौरव और लोकमान्यता के लिये भाषासम्बन्धी नियमका जानना आवश्यक होता है और इस नियमका नाम ही व्याकरण है । (वि + संस्कारविशेषेण) संस्कारविशेषसे ( आ = समन्तात् ) संपूर्ण ( शब्दान्) शब्दों को जो, (करोति = निष्पादयति) उत्पन्न करता है वह व्याकरण है । अथवा (वि = संस्कारविशेषेण ) संस्कारविशेषसे ( आ = समन्तात् ) संपूर्ण (शब्दाः) शब्द (क्रियन्ते = निष्पाद्यन्ते) उत्पन्न किये जाते हैं (येन ) जिससे, वह व्याकरण है । इन दोनों व्युत्पत्तियोंसे भी उल्लिखित भाव स्पष्ट झलकता है | व्याकरणसे भिन्न-भिन्न अर्थों में शब्दनिष्पत्ति की जाती है, इसलिये अर्थ प्राचुर्य में भी व्याकरण ही कारण है । 'अर्थभेदात् ध्रुवः शब्दभेदः, सर्वे शब्दाः सर्वार्थवाचकाः" इत्यादि नियम भी व्याकरणंको ही अर्थप्राचुर्यमें कारण बतला रहे हैं । इसलिये व्याकरण ही भाषातत्त्वमें प्रवेश करनेका मुख ( द्वार ) है । मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादिका यदि मुख नहीं होता, तो उनका जिन्दा रहना दुःशक्य तो क्या असम्भव ही था। ठीक यही हालत उस भाषाकी भी है, जिसकी कि अपनी व्याकरण नहीं है । भावकी स्थिति उस भाषाके प्रचुर साहित्य पर है । साहित्यका निर्माता कवि होता है और कवि नानार्थ से मीठे-मीठे शब्दोंकी चाह रखता है। जहां उसको ऐसे शब्द नहीं मिलते हैं वहाँ वह अपने साहित्यको रमणीय एवं हृदयवेधी नहीं बना सकता है और ऐसी हालत में उसके उस साहित्यको साधारण लोग भी पसन्द नहीं करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि वह भाषा, जिसमें साहित्यकी रमणीयता और हृदयवेधिता नहीं रहती है, अन्तको प्राप्त हो जाती है संस्कृत व्याकरण और उसका वैशिष्ट्य संस्कृत भाषाका प्रचार संसारके कोने-कोने में ( चाहे वह किसी रूप में क्यों न हो ) आज भी विद्यमान है । इसका कारण यह है कि उसका साहित्य विस्तृत तो है ही, साथ में ग्राह्य भी अधिक है । इसका भी कारण संस्कृत भाषाका व्याकरण ही है । संस्कृत व्याकरणकी यह खूबी है कि एक ही शब्दसे शब्दान्तरके योगसे नाना शब्द बन जाते हैं । हार, विहार, आहार, संहार, प्रहार, निहार इत्यादि अनेक शब्दोंको सृष्टि "हृ" शब्दसे ही हुई है । इस खूबीको अन्य किसी भाषाका व्याकरण आज तक नहीं प्राप्त कर सका, इसलिये उन भाषाओं की संकीर्ण भूमिपर किसी साहित्यनिर्माता कविका अन्तःकरण स्वच्छन्द विहार नहीं कर सकता है । यद्यपि इंग्लिश आदि भाषाओं में साहित्यकी अधिकता है, फिर भी शब्दोंकी अधिक पुनरुक्ति कवियोंके लिये अवश्य करनी पड़ती है तथा शब्दकल्पना भी उनको बहुत करनी पड़ी है । आज संस्कृतभाषारूपी सूर्य, जो अपना प्रकाश नहीं फैला रहा है, उसका कारण उसके व्याकरण, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ / साहित्य और इतिहास : १३ साहित्य और ग्राह्यताकी कमी नहीं है, किन्तु उसके साहित्यके अन्तस्तत्त्व तक पहुँचनेके लिये हम असमर्थ हो गये है तथा राजाश्रय छूट गया है इत्यादि हैं। भाषा स्वभावसे परिवर्तनशील होती है। राजाश्रयके बिना उसकी व्यावहारिक उपयुक्तता कम हो जाती है, अतः वह हमारे लौकिक कार्योंमें विशेष सहायक नहीं बन सकती है । यदि संस्कृतभाषा राजभाषा होती और उसके आश्रयसे ही लोग (जबकि हम लोगोंने नौकरी पेशा की ही अपना जीवनोपाय बना लिया है) लौकिक आवश्यक कार्योंका सम्पादन करते होते, तो मालूम पड़ता कि उस भाषाके अन्दर प्रवेश होनेसे हमारा जीवन कितनी धार्मिकताके साथ व्यतीत हो सकता था, तथा हमारे संस्कारोंमें कितनी आर्यताकी संस्कृतिका विकास होता, जिसके कि ह्राससे आज हम गुलाम हो रहे हैं। संस्कृतव्याकरणमें जैन व्याकरण और उसका महत्त्व तथा ग्राह्यता भारतमें जितने दर्शनोंका आविष्कार हआ है, उन्होंने संस्कृत भाषाको जरूर अपनाया है। इसका कारण उसकी व्यापकता और अर्थपूर्ण भाव द्योतकता है। यह मानी हुई बात है कि जो जिस विषयका पूरा विद्वान है. वह उस विषयको दूसरों के सामने स्वतंत्र ढंगसे पेश करता है. तथा जो जिस मतको अपना हितकर समझता है और उसके पोषक जितने विषय उसे आवश्यक प्रतीत होते हैं, उनमें दूसरे मतोंकी अपेक्षा रखना वह पसन्द नहीं करता, क्योंकि वह समझता है कि इस थोड़ी-सी परतन्त्रतासे हमारी संस्कृतिमें दुर्बलता आती है, अतः उसके अंग उपायभूत साहित्यका भी निर्माण वह स्वयं करता है और इस गौरवान्वित महत्त्वाकांक्षासे साहित्यका कलेवर परिपुष्ट होता है । यद्यपि व्याकरण शब्दार्थज्ञानके लिये है, उससे किसी मतविशेषकी पुष्टि नहीं होती, भले ही उसका निर्माता किसी मतविशेषसे सम्बन्ध रखता हो, फिर भी अपना स्वतन्त्र व्याकरण नहीं होनेसे कोई भी मतावलम्बी अपने लिये व अपने सिद्धान्तके लिये प्रभावित नहीं कर सकता है । इसके ऊपर पराधीनता, अर्वाचीनता आदि दोषोंका ( चाहे वह मत स्वतंत्र व प्राचीन क्यों न हो ) आरोप लगाया जाता है । इसी कारणसे संस्कृतभाषासम्बन्धी नाना व्वाकरणोंका आविष्कार हुआ है । उनमें प्रसिद्ध व्याकरणों और उनके निर्माताओंका निर्देश निम्न प्रकार पाया जाता है ऐन्द्र, चान्द्र, काशकत्स्नं, कौमारं, शाकटायनम् । सारस्वतं, चापिशलं, शाकलं पाणिनीयकम् ।। १ ।। इन्द्रश्चन्द्रः काशकत्स्ना पिशली शाकटायनः पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ।। २ ॥ पहले पद्यमें नव व्याकरणोंके नाम हैं। उनमें शाकटायनव्याकरण शाकटायननामके जैनाचार्यकृत है । दुसरे पद्यमें आठ वैय्याकरणोंके नाम हैं, जिनमें शाकटायन और जैनेन्द्र ये दो जैन वैय्याकरण हैं। इन सब व्याकरणों व वैय्याकरणोंमें कौन किससे प्राचीन है, इसका निर्णय पद्यके निर्देशक्रमसे निश्चित नहीं कर सकते है. क्योंकि पहले पद्य में आपिशल व्याकरणका शाकटायन व्याकरणके पश्चात निर्देश किया है और दुसरे पद्य में उनके निर्माताओंका पूर्व निर्देशसे विपरीत निर्देश किया है। इनकी प्राचीनताका विशेष निर्णय तो इस समय इतिहासवेत्ताओं पर ही छोड़ता हूँ क्योंकि मेरी गति इतिहासविषयक नहीं है। किन्तु इतना अवश्य कह सकता है कि पाणिनीय व्याकरणसे शाकटायन व्याकरण पूर्वका होना चाहिये, क्योंकि पाणिनिने अपने व्याकरणमें "त्रिप्रभतिषु शाकटायनस्य" इस सूत्रके द्वारा शाकटायनका निर्देश किया है। आपिशल, काशकृत्स्न, शाकल आदि व्याकरणकर्ताओंका भी निर्देश पाणिनिने अपने ग्रंथोंमें किया है। इसलिये ये व्याकरण भी पाणिनि व्याकरणसे प्राचीन है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सरस्वती-वरवपुत्र पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ पाणिनि नन्दराज्य के समय में हुए हैं। इससे भी प्राचीन समय में उल्लिखित वैय्याकरणोंकी उपस्थिति थी । कई लोग शाकटायन नामके जैन अजैन दो विद्वानको स्वीकार करते हैं। इससे उनका प्रयोजन यह है कि जैन शाकटायनाचार्य पाणिनिले अर्वाचीन हैं और पाणिनिने अपने व्याकरणमें जिनका निर्देश किया है, वे अर्जन थे और पाणिनिके पूर्व विद्यमान थे। वे इसमें यह कारण उपस्थित करते हैं कि शाकटायनका, जिनका कि पाणिनिने निर्देश किया है, वेदादि ग्रन्थोंसे भी बहुत कुछ सम्बन्ध है । किन्तु यह कारण इतना पुष्कल नहीं है कि उनके प्रयोजनको सिद्ध कर सके, क्योंकि मैंने पहले लिखा है कि व्याकरण शब्दार्थज्ञानका ही प्रयोजक है । वैय्याकरण व्याकरण लिखते समय किसी सिद्धान्तविशेषसे कोई प्रयोजन नहीं रखता है । वह तो शब्दसिद्धि ही अपने ग्रन्थ निर्माणका ध्येय समझता है । यदि ऐसा नहीं होता, तो काशिकाकार, जोकि जैन थे, पाणिनीय व्याकरणके ऊपर काशिकावृत्ति नामक टीका नहीं लिखते । और सिद्धान्तकौमुदीके पहले अजैन लोग भी जो उसका रुचिपूर्वक अध्ययन, अध्यापन करते थे वह भी अनुचित ठहरता । कादम्बरी ग्रन्थके ऊपर जैन टीकाकारने जो टीका लिखी है वह भी इसी सिद्धान्तको स्वीकार करनेमें सहायक है कि जो विषय किसी भी सिद्धान्तका विरोधी नहीं होकर समान रूपसे सर्वके उपयोगी है, वे सबको ग्राह्य हैं। कोई-कोई विरोधी ग्रन्थोंकी टीकायें भी आचार्योंने की हैं। लेकिन अवश्य है कि उसका उद्देश्य केवल उनके सिद्धान्तको विस्तारसे समझ उनकी असत्यता प्रकट करना ही है । यह भावना दार्शनिक ग्रंथोंमें ही सम्भव है क्योंकि विरोधकी सत्ता सिद्धान्तके विषय में ही पाई जाती है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है, कि जबतक अकाट्य प्रबल प्रमाण नहीं मिल जाता तबतक जैन शाकटायनाचार्यके अतिरिक्त एक अजैन शाकटायनाचार्यकी सत्ता स्वीकार करना विद्वानोंको रुचिकर प्रतीत नहीं होता। इस समय इस लेखको समयाभावसे संक्षेपमें लिख रहा हूँ अतः सम्पूर्ण बातोंपर विशेष प्रकाश नहीं डाल सका हूँ। मेरी हार्दिक इच्छा है कि जैन व्याकरणका संस्कृत संसारमें प्रचुर प्रचार हो और यह तभी हो सकता है जब विद्वान् लोग व्याकरणके उद्देश्यको सामने रख कर उसकी महत्ताका प्रचार करें। इसके लिये भी मैं भविष्य में यथासम्भव प्रयत्न करूँगा। इस समय तो इस लेखको संक्षेप पूर्वक लिखनेका ही प्रयोजन है । , जैनेन्द्र व्याकरण तो उनके नामसे ही जैनाचार्य कृत सिद्ध होता है। जैनेन्द्र व्याकरणके नामसे दो रूपक हमारे सामने उपस्थित है। एक तो वह जिसकी टीका जैनेन्द्रमहावृत्ति है और दूसरा वह जिसकी कि टीका शब्दार्णवचन्द्रिका है । इन दोनों रूपकोंके कर्ता स्वतंत्र हैं या एक दूसरेका रूपान्तर है, इसमें विद्वानोंका मतभेद है किन्हींका कहना है कि जिसकी टीका जैनेन्द्रमहावृत्ति है वह जैनेन्द्र व्याकरण है और उसके कर्ता देवनन्दि अपरनाम सर्वार्थसिद्धिके कर्ता पूज्यपादाचार्य है और जिसकी टीका शब्दार्णवचन्द्रिका है उस व्याकरणका नाम शब्दार्णव है और उस टीकाका नाम चन्द्रिका ही है, क्योंकि "शब्दार्णवचन्द्रिका" शब्दका शब्दार्णवव्याकरणकी चन्द्रिकानामक टीका अर्थ होता है। किन्हीं का कहना है। एक दूसरेका रूपान्तर है कि इन दोनोंके कर्ता स्वतंत्र ही नहीं है। शब्दार्णवचन्द्रिका यह नाम टीकाका ही है जैसे पाणिनीय व्याकरणकी टीका सिद्धान्तकौमुदी अर्थात् जिस प्रकार सिद्धान्तकौमुदीव्यका अर्थ सिद्धान्त नामक व्याकरणकी कौमुदी नामक टीका नहीं होता है उसी प्रकार शब्दावव्याकरणकी टीका चन्द्रिका यह अर्थ शब्दाणवचन्द्रिका शब्दका नहीं होना चहिये । तथा इन दोनों में सूत्रसादृश्य भी अधिक है । यदि ये स्वतन्त्र व्याकरण होते, तो अन्य व्याकरणोंकी तरह इन दोनोंमें भी इतना सूत्रसादृश्य नहीं होता । परन्तु इन दोनोंमें एक कोई मत तभी मान्य हो सकता है, जबकि एक मत अपनेमें संभव विरोधका निराकरण करते हुए अपनी सिद्धिमें प्रबल प्रमाण रखता हो। मैं इस समय तीनोंके विषय में तटस्वरूप है क्योंकि इस समय मेरे पास पर्याप्त सामग्री नहीं, जिसके आधारपर कुछ लिख सकू, फिर भी इसके निर्णय के लिये सचिन्त अवश्य हूँ । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / साहित्य और इतिहास : १५ raft और भी वैयाकरणोंका उल्लेख जैनेन्द्रव्याकरणमें पाया जाता है । जैसे "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य, राद्भूतवले:, वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इत्यादि । तथापि उनके निर्मित व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । इसीलिये सम्भवतः उनका निर्देश प्रसिद्ध वैय्याकरणोंमें नहीं किया गया है । अथवा जबतक पद्योंका निर्माण हुआ है उसके बाद साम्प्रदायिकता विषने प्रवेश करके इनकी कीर्तिको छुपानेका प्रयत्न किया हो । अस्तु, कुछ भी हो, जैनेन्द्रव्याकरण में इनका निर्देश पाया जाता है। इससे सम्भव है कि जैन साहित्यके अन्य आचार्योंने भी इस विषय में कलम उठायी थी तथा वाङ्मयकी पवित्र सेवा करके जगतका कल्याण किया था। इस कथनसे मालूम पड़ता है कि जैन संसार में बड़े-बड़े महत्त्वशाली वैय्याकरण हुए हैं । कोई यह कहनेका दावा नहीं कर सकता कि जैनियोंमें व्याकरणसूत्रकार नहीं हुए हैं, प्रत्युत हम यह कहने में समर्थ हैं कि जितने व्याकरणसूत्रकार जैनियोंमें हुए हैं उतने शायद ही किसी संप्रदाय में हुए हों । इनमें उपलब्ध व्याकरणोंकी टीकायें- प्रतिटीकायें उपलब्ध हैं, जिनको प्रकाश में लानेकी बहुत आवश्यकता है। हाँ, इतना विस्ताररूप, जितना कि पाणिनीय व्याकरणकी टीका प्रतिटीकाओंका हैं जैन व्याकरणोंकी टीका प्रतिटीकाओंका नहीं है । तथा पाणिनीय व्याकरणका इतना फैलाव इसीलिए हुआ कि उसका वैदिक विद्वानोंने अत्यन्त श्रम करके प्रचार किया है । किन्तु जैनियोंने इस विषयपर बहुत दिनोंसे ध्यान देना छोड़ दिया है । किसी भी व्याकरणका महत्त्व लघुता में है । वह लघुता कई तरहसे हो सकती है । जैसे प्रक्रियाकृत लघुता, प्रतिपत्तिकृत लघुता संज्ञाकृत लघुता आदि । जैन व्याकरणमें इन सब प्रकारकी लघुताओं का पूरापूरा ध्यान रखा गया है । पाणिनीय व्याकरण में जहाँ ङीप, ङीष, ङीन प्रत्ययोंका विधान स्वरादिभेदके लिये स्वीकार किया है वहाँ जैनेन्द्र व्याकरण में ङी प्रत्ययसे ही कार्य निकाल लिया है। यह प्रक्रियाकृत लघुता है । इसी तरह सर्वत्र प्रक्रियाकृत लघुता पायी जाती है । पाणिनिने "अर्धमात्रालाघवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः " इस न्यायको स्वीकार करके भी जब संज्ञाओंके विषयमें लघुताका अभाव देखा, तब संज्ञाविधिमें इस न्यायको प्रवृतिका निषेध भी किया । लेकिन जैन व्याकरण में संज्ञाकी लघुताको स्वीकार कर न्यायकी प्रवृत्तिको अक्षुण्ण रक्खा है । जैसे सर्वणसंज्ञाके स्थान में स्वसंज्ञा, प्रतिपादिक संज्ञाके स्थान में मृत संज्ञा, सभास संज्ञाके स्थान में सखंज्ञा इत्यादि सभी संज्ञाओंको लघु बनाया है जो ग्रन्थों को देखनेसे स्पष्ट मालूम पड़ सकता है । जहाँ प्रक्रियाकृत और संज्ञाकृत लघुता है वहाँ पर प्रतिपत्तिकृत लघुता है ही, क्योंकि उक्त दोनों लघुताओंके रहनेसे पदार्थज्ञानमें सरलता पड़ जाती है । पाणिनिने इत्संज्ञा विधानमें कई नियम बताये हैं किन्तु जैनेन्द्र व्याकरण में "अप्रयोगीत" इस नियमको स्वीकार करके अन्य नियमोंकी आवश्यकता नहीं समझी गयी है । इसी प्रकारकी और भी बहुत-सी लघुतायें व्याकरणकी महत्ताको प्रकट करती हैं । यहाँपर संक्षेपमें दिग्दर्शन मात्र कराया गया है । कातंत्र व्याकरणमें तो इतनी प्रतिपत्तिकृत लघुता मानी हुई है कि बंगाल प्रान्त में उसीका प्रचार है और उसकी परीक्षा कलकत्ता संस्कृत कालेजमें होती है, जोकि कलाप व्याकरणके नामसे प्रसिद्ध है । यह उसकी महत्ताका द्योतक हैं । मुझे विश्वास है कि जिस प्रकार कातंत्रव्याकरणका किसी जमाने में प्रचार हुआ है उसी प्रकार अन्य जैन व्याकरणोंका भी प्रचार हो सकता है। लेकिन हम स्वयं उसकी महत्ताको नहीं समझे हैं । कातंत्र का भी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रचार जैनियोंने नहीं किया, दूसरोंने स्वयं ही उसकी महत्तासे उसे ग्राह्य समझकर उसको अपनाया है। इसमें भी हमें इतनेसे ही सन्तोष करना पड़ता है कि उसका प्रचार है। पढ़ने-पढ़ाने वाले यह नहीं समझते कि इस व्याकरणके मूलकर्ता जैन थे। परन्तु यह बात सब व्याकरणोंके लिये लागू नहीं हो सकती है, क्योंकि जो स्वयं अपनी वस्तुको पसन्द नहीं करता है उसको दुसरा कैसे पसन्द कर सकता है। हमारा कर्तव्य होना चाहिये कि उसकी महत्ताको समझें और उसकी उपादेयताका विचार कर उसीका अध्ययन-अध्यापन करें । पाणिनिकी अष्टाध्यायीसे जो काम नहीं निकलता, वह जैनेन्द्र पन्चाध्यायीसे अनायास सिद्ध हो जाता है । पाणिनिकी कमीको वार्तिककारने पूरी की और वातिककार भी जिन शब्दोंको सिद्ध करना भूल गये उनकी सिद्धि भाष्यकारने भाष्यवार्तिक बनाकर की है। लेकिन ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो सूत्रकार पाणिनि, वार्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतंजलिने सिद्ध किया हो और जैनेन्द्र पंचाध्यायीसे सिद्ध न होता हो। यह भी जैनेन्द्र व्याकरणकी महत्ताका प्रयोजक है। इसी प्रकार सम्पूर्ण जैन व्याकरणोंको महत्त्वशाली बनानेमें आचार्योंने पूरा-पूरा प्रयास किया है । भाषाके प्रचारसे अपनी संस्कृतिका प्रचार होता है। परकी संस्कृतिसे बचाव होता है। यह तत्त्व सर्वमान्य है और यही कारण है कि मुसलमान और यूरोपियन शासकोंने अपनी-अपनी भाषाओंको राजाश्रय दिया है । यदि ऐसा नहीं किया होता तो इनके साम्राज्यका वा जातीय महत्त्वका प्रचार ही नहीं हो पाता । यह तत्त्व आज ही नहीं, प्राचीन कालसे संस्कृतिकी रक्षाके लिये अत्यन्त उपयोगी माना गया है। हमारे आचार्योंने भी इसका उपयोग किया है, अतः हमारे यहाँ जितने आचार्य हुए हैं वे दार्शनिक हो या कवि सभीने आवश्यकता पड़नेपर जैन व्याकरणको ही अपनाया है। मुझे तो विश्वास है कि उन्होंने जैन व्याकरणके द्वारा ही संस्कृत भाषाका ज्ञान किया होगा। क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें जगह-जगह जैन व्याकरणका उल्लेख किया है । अकलंक देव, प्रभाचन्द्राचार्य, विद्यानन्द स्वामी प्रभृति कम विद्वान नहीं थे, जिन्होंने जैन व्याकरणका पूरा-पूरा गौरव रखा। बात तो यह है कि उन्होंने उसके गौरव और ग्राह्यताको समझ लिया था। पं० आशाधरजी, कवि अर्हदासजी आदि, जो कि पूर्वाचार्योंकी अपेक्षासे वहुत अर्वाचीन है, जैन व्याकरणके सहारेपर ही उच्च विद्वान हुए, जिनकी मान्यता और जिनके ग्रन्थोंकी मान्यताको आज हम बड़े गौरव और उत्साहके साथ उल्लिखित करते हैं। अब हम समझ सकते हैं कि कितनी उपादेयता जैन व्याकरणमें भरी हई है। हमारे पूज्य आचार्यों ने व्याकरण इसलिये नहीं बनाया था कि हम लोग उसको व्यवहृत करना भूल जावेंगे, किन्तु उसका ध्येय, भाषा और भावका, जो बोध्य-बोधक सम्बन्ध है और वैय्याकरण भी अपने ही धर्म सम्बन्धी उदाहरणोंसे व्याकरणके नियमोंका विकास करता हुआ जो श्रद्धाका भाव पुष्टि करता है उसके प्रचारका था। जैसे आप जब अन्य काव्य पढ़ते हैं उससे उसके कर्ता कविके विचारोंका आपपर असर पड़ता है वैसे ही आप अन्य व्याकरण पढ़ते हैं उस समय भी अन्यके विचारोंका अनायास ग्रहण होता है । उदाहरणके लिये पाणिनीय व्याकरणमें 'रमन्ते योगिनो यस्मिन्निति रामः ।' जैनेन्द्र व्याकरणमें 'सांसारिकसूख-दुःखतः उत्तमे मोक्षसुखे धरतीति धर्मः' आदि-आदि उदाहरणोंमें कितना धार्मिक भाव भरा हआ है, जिसका कि असर कोमल हृदय विद्यार्थीके अन्तःकरणपर पड़े बिना नहीं रह सकता है। यदि सब विषयके ग्रन्थ अपने होते तो अपनी संस्कृतिका भी अच्छा प्रचार हो सकता है। तथा विपुल साहित्यरूप कार्य देखकर अपनी समाज विद्वान कहला कर आदर्श समाजकी पदवीको प्राप्त हो सकती है। अन्यथा जिस प्रकार खजाना और सेनाका परस्पर अविनाभाव है। खजानेके रहनेपर ही सेनाका जीवननिर्वाह तथा सेनाके रहनेपर ही खजानेकी रक्षा हो सकती है उसी प्रकार जैनधर्ममें स्वसमय और परसमयका भी अविनाभाव है। जितने भी सिद्धान्तग्रन्थ हैं और Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 / साहित्य और इतिहास : 17 जिनका सम्बन्ध आध्यात्मिकतासे है वे स्वसमयमें अन्तर्भूत होते हैं तथा जितने न्याय, व्याकरण, साहित्य सम्बन्धी अन्य हैं ये परसमय कहलाते हैं / न्याय, व्याकरण, साहित्यरूप परसमयके ग्रन्थोंके बिना सिद्धान्तग्रंथों (स्वसमय) का स्वरूप व्यवस्थित नहीं हो सकता, न उनसे आत्मार्थी पुरुष कुछ लाभ भी ले सकता है एवं बिना स्वसमयके न्यायादि परसमयका भी कुछ उपयोग नहीं हो सकता। अतः ऐसी हालतमें समाज जो दोनोंको अनुपादेय समझ रहा है उससे समाजका और उसके स्वसमय-परसमयरूप साहित्यका नाश हो रहा है। इसलिये इनकी रक्षा करनेका हमारे समाजका परम कर्तव्य है / अतः इनके उद्धारके लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये।