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जैन-सिद्धान्त की त्रिवेणी : अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह |
मिटट
कापी
(डॉ. दिव्या भट्ट)
श किसीभी धर्म का प्रसार नव्य विचारों, संस्कारों एवं जीवन विवेकपूर्ण व्यवहार द्वारा व्यक्तिगत एवं समष्टिगत दुर्भावनाओं को की सुंसंबद्धता का प्रतीक है । ई. पूर्व ८०० से ई. पूर्व २०० वर्ष दूरकर एक स्वस्थ जीवन प्रणाली अपनाने की प्रेरणा देती है । इस तक का काल इतिहास का युग कहलाता है । यह युग विश्व संबंध में भगवान महावीर का कथन उल्लेखनीय है - इतिहास में युगपुरुषों की वैचारिक क्रांति से प्रभावित रहा । यूनान
सयं तिवयए पाणे, अद्वन्नेहि घायए। में पैथागोरस, सुकरात और प्लेटो, ईरान में जरथुस्त्र, चीन में कन्फ्यूसियस तथा भारत में उपनिषद्कार, महावीर एवं बुद्ध जैसे
हणतं वाणुजणाइ, वेरं वठ्ठर अप्पनो ।। विचारक एवं अध्यात्म क्षेत्र में क्रांति लानेवाले युग पुरुष इसी युग 3 अर्थात् जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से की देन हैं । महावीर इसी युग के पूर्वार्ध में आए एवं उन्होंने विश्व हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है, को अहिंसा, अनेकांतवाद या स्याद्वाद तथा अपरिग्रह के आधार वह संसार में अपने लिए वैर को बढ़ाता है । यही कारण है कि पर संगठित कर एवं समन्वय, सहअस्तित्व तथा सौहार्द की भावना वैदिक युग में ऋषि-मुनि अहिंसा की स्थापना नहीं कर पाए । को जाग्रत कर एक आदर्श जीवन-प्रणाली को प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वयं तो अहिंसा व्रत का पालन किया किंतु क्षत्रियों को यह अहिंसा जैन धर्म का मूल तत्व है। अहिंसा मात्र बाय
अधिकार दिया कि वे हिंसा कर सकते हैं, इसीलिए जब ऋषि-मुनि आंगिक प्रक्रिया द्वारा संपन्न व्यापार का निषेध नहीं है वरन् अहिंसा
यज्ञ करते तब क्षत्रिय यज्ञ की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहते । क्षत्रियों का क्षेत्र हमारी आंतरिक प्रवृत्तियों से भी संबद्ध है । इसके अंतर्गत
ने जब अपने अधिकारों का दुरुपयोग करना शुरु किया तो क्रोध, अहंकार, वासना आदि उन समस्त व्यापारों का उल्लेख है
परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन करने की प्रतिज्ञा ली किंतु जिनके द्वारा प्राणी-मात्र के हदय को ठेस पहँचती है। भगवान इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन करने के पश्चात भी वे हिंसा महावीर ने अहिंसा का प्रतिपादन कर विश्व में शांति तथा एक्यवृत्ति को रोक न सके । वास्तव में उन्होंने अहिसा की स्थापना की स्थापना करने का प्रयास किया । मानवीय स्वभाव के विभिन्न
हिंसा द्वारा करने का प्रयास किया था और यहीं वे असफल रहे । पहलओं को मनोवैज्ञानिक रूप से चित्रित कर उन्होंने अहिंसा के भगवान महावीर ने अहिंसा के बाहय एवं आंतरिक रूप की चर्चा सिद्धान्त को रखा है । आवेश में, क्रोध में अथवा अन्य मानसिक
कर, उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप का विश्लेषण कर अहिंसा की असंतुलन की स्थिति में मनुष्य उचितानूचित नहीं देख पाता और
स्थापना अहिंसा द्वारा ही संभव है यह सिद्ध किया । इस प्रकार से उस अवस्था में वह शारीरिक या मानसिक रूप से किसी अन्य
प्रस्थापित अहिंसा मनुष्य के हृदय को परिवर्तित कर उसे जीवन में प्राणी को क्षति पहुँचाकर हिंसा का भागी बनता है । इस प्रकार
नई दिशा प्रदान कर एक नव्य आत्मशक्ति से उसे स्फूर्त करती है। भगवान् महावीर ने जीवन में संतुलित विचार पद्धति को अपनाने अनेकांतवाद या स्याद्वाद जैन धर्म का एक व्यापक सिद्धान्त की सलाह दी है । भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का है। संप्रति इसकी व्यापकता के संबंध में आचार्यों ने भी कहा है क्षेत्र अत्यंत व्यापक है उसमें इतनी शक्ति है कि वह विश्व को भी किसंगठित कर सकती है किंतु आज उनकी अहिंसा के बाहय रूप को
आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । ही आचरण का विषय बनाकर जैन धर्मावलम्बी उसी में उलझ कर रह गए हैं । भगवान महावीर ने कहा भी है कि - "शस्त्र तलवार
अर्थात् दीप से लेकर व्योम तक वस्तुमात्र स्याद्वाद की मुद्रा ही नहीं है, मनुष्य भी शस्त्र है और सही अर्थ में मनुष्य ही शस्त्र है
में अंकित है । अनेकांतवाद या स्याद्वाद वस्तु के वास्तविक रूप और वह हर प्राणी शस्त्र है, जो दूसरे के अस्तित्व पर प्रहार करता
के द्योतन हेतु अनेक दृष्टिकोण की संकल्पना स्वीकार करता है। अनेकांतवाद उन समस्त अपेक्षाओं को समन्वित कर चलता है जो
एक वस्तु को मूर्त रूप में प्रतिपादित करती हैं । शुक पिच्छि के ससा स्थूल रूप से देखने पर अहिंसा की अपेक्षा हिंसा का पलड़ा
लिए भगवान महावीर ने कहा है - भारी दीख पड़ता है । वास्तव में जोशीली युवा-शक्ति अहिंसा को,
"व्यवहार नय की अपेक्षा से यह उसकी शक्ति को समझ ही नहीं पाती है । जबकि वास्तविकता
रुक्ष और नील है पर निश्चय नय यह है कि अहिंसा की शक्ति के समक्ष हिंसा एक पग भी नहीं चल
की अपेक्षा से पाँच वर्ण, दो गंध, पाती । वास्तव में अहिंसा कठोर संयम चाहती है । अहिंसा के
पाँच रस व आठ स्पर्श वाले हैं।" अन्तर्गत वे सभी सूक्ष्म व्यावहारिक बातें आ जाती हैं जो शस्त्र
इस प्रकार अनेकांतवाद के अनुसार द्वारा, वाणी द्वारा अथवा व्यवहार द्वारा प्राणी मात्र को दुःख
वस्तु अनंत धर्मा है अर्थात् वस्तु के पहुँचाने का कारण बनती हैं । यही कारण है कि शरीर द्वारा
इन्द्रियग्राह्य स्वरूप एवं वास्तविक अहिंसा का पालन, वाणी द्वारा अहिंसा के पालन की तुलना में
स्वरूप की संकल्पना में अंतर होता सरल है । अहिंसा प्राणी मात्र के प्रति आत्मभाव रखने एवं
विचार अपादित आपको भी
है।"
श्रीमद् जयन्तसेन सूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
(१०१)
समय समय करते भला, बीत गया बहु काल । जयन्तसेन सुकार्य कर, दुर्गति दूर निकाल ।।
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________________ क्या है तो आधी कौनसी हैं और मध्यमा तर है / अनेकांतवाद के अनुसार एक ही वस्तु में उत्पत्ति विनाश एवं प्रति एक अनूठी प्रवृत्ति है / वस्तुओं के संग्रह की वृत्ति एवं ध्रुवता जैसे परस्पर विरोधी धर्म विद्यमान रह सकते हैं / इस प्रकार अधिकारों के संग्रह की वृत्ति ही जब अपना अतिरूप लेकर प्रकट यह कहा जा सकता है कि वस्तु तत्व के निरूपण में या निर्णय में / होती है तब विवाद एवं परस्पर वैमनस्य की भावना बलवती होती जो वाद अपेक्षा की प्रधानता पर बल देता है वह स्याद्वाद या है और हमारी वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय व्यवस्था को अनेकांतवाद है। परिग्रह की यह प्रवृत्ति अव्यवस्थित कर देती है। आज चीन इसी वास्तव में स्याद्वाद या अनेकांतवाद नयों की बहुमुखी है, परिग्रह प्रवृत्ति की चपेट में आ गया है | अपरिग्रह का क्षेत्र भी जो मुख्य रूप से निश्चय नय एवं व्यवहार नय के आधार पर वस्तु मात्र भौतिक स्तर पर यथाशक्य संपत्ति के अल्पीकरण एवं के तात्विक एवं लोकव्यवहार में प्रचलित अर्थ को प्रतिपादित करता परित्याग पर ही आधारित न होकर वैयक्तिक, पारिवारिक एवं है। अनेकांतवाद को आचार्यों ने सरल रूप में इस प्रकार समझाया सामाजिक स्तर के परिसीमित दायरे में वस्तु एवं व्यक्ति विशेष के प्रति “ममत्व-विसर्जन" के रूप में भी हमारे सामने एक आदर्श स्थिति प्रस्तुत करता है / इस प्रकार सहज रूप से संपत्ति का "यथा अनामिकायाः कनिष्ठा दीर्घत्वं, विसर्जन, ममत्व का विसर्जन अपरिग्रह की देन है / अपरिग्रह भाव मध्यमामधिकृत्य इस्वत्वम् / म परस्पर भौतिक एवं भावनात्मक स्तर पर समानता तथा समन्वयात्मकता - प्रज्ञासूत्रवृत्ति प्रस्थापित करता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- जब आचार्यों से पूछा गया कि समजैन धर्म के ये तीनों सिद्धान्त “अहिंसा", "अपरिग्रह" एवं आपका अनेकांतवाद क्या है तो आचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका "अनेकांतवाद" आज प्रत्येक राष्ट्र के लिए अनुकरणीय है / सामने करते हुए पूछा - दोनों में बड़ी कौनसी है ? प्रत्युत्तर था - "अहिंसा" जहाँ शांति एवं आत्मिक तेज प्रदान कर जीवन को अनामिका बड़ी है / कनिष्ठा को समेटकर और मध्यमा को नया मोड़ देती है वहीं “अपरिग्रह" पूर्ण समानता एवं सहयोग की फैलाकर पूछा - 'दोनों अंगुलियों में छोटी कौन-सी है ? उत्तर भावना के साथ जीवन-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है तथा मिला - अनामिका / आचार्यों ने कहा - 'यही हमारा स्यावाद या अनेकांतवाद या स्याद्वाद मानव के पारस्परिक समस्त वाद-विवादों अनेकांतवाद है जो तुम एक ही अंगुली को बड़ी भी कहते हो और का एक सही हल प्रदान कर किसी वस्तु को, किसी धर्म को, किसी छोटी भी / उपर्युक्त उदाहरण से अनेकांतवाद सहजगम्य है। कथ्य को देखने-सुनने एवं उसके निरूपण हेतु एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है | संप्रति आज की परिस्थिति में यह आवश्यक है 1 जैन आगमों में अनेकांतवाद के बीज उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, कि जैन धर्म अपने सिद्धांतों को सही रूप से प्रतिपादित करे / स्यादस्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में बिखरे अहिंसा को सिर्फ "किचन पालिटिक्स" (खाद्याखाद्य) तकही सीमित पड़े हैं / भगवान महावीर ने अपने अनेकांतवाद के अन्तर्गत इन्हें न रख विश्व स्तर पर 'मनसा, वाचा, कर्मणा' के रूप में समन्वित एवं सुस्पष्ट रूप में रखकर इसे इस रूप में प्रतिपादित क्रियान्वित करे साथ ही अनेकांतवाद एवं अपरिग्रह के द्वारा एक किया है कि हम व्यावहारिक-जीवन में अनेक विवादों से बचकर नया दृष्टिकोण एवं एक नवीन व्यवस्था की स्थापना का प्रयास कर एक ऊर्ध्व-पथ की ओर गमन करें / भारतीय दर्शन को विवादों के जैन धर्म के वास्तविक रूप की सक्रिय स्थापना करे / आसन पर बैठकर काफी क्षति पहुँची है / जैन धर्म ने अपने अनेकांतवाद द्वारा समन्वय की भावना को सुदृढ़ता प्रदान कर एक या अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह दरअसल एक सिद्धान्त के वैचारिक संतुलन की स्थापना की है। तीन पहलू हैं - अहिंसा का आचार, अनेकांत का विचार और अपरिग्रह का व्यवहार मनुष्य के जीवन को चेतना के ऊर्ध्वमुखी अपरिग्रह जैन धर्म की सामाजिक समानता की भावना के सोपानों पर स्थापित करता है | साधक की यह जीवनी शक्ति है जो सामान्य व्यक्ति के लिए जीवन शैली (way of life) है / महावीर जिन तत्वों की चर्चा करते हैं उन्हें उन्होंने अपनी जीवन साधना की कसौटीपर कसकर देखा है इसलिए काल की धूल और लेखिका : भाषाविज्ञान तथा राख उन सिद्धान्त वचनों की आग को ढक नहीं सकती / समय के शैलीविज्ञान में विशेष अध्ययन / परिवर्तन और प्रत्यावर्तन के साथ उसके नित नए अर्थ उद्घाटित सम्प्रति : व्याख्याता होते रहते हैं। रोज (हिन्दी), विद्यालय, शहादा (धुलिया), महाराष्ट्रात डॉ. दिव्या एस. भट्ट एम.ए., पी.एच.डी. श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण (102) समय गया आता नहीं, समझ मनुज नादान / जयन्तसेन सचेष्ट हो, कर जीवन उत्थान /