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जैन शासक अमोघवर्ष प्रथम
___डॉ. दीनबन्धु पाण्डेय राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम ने ८१४ ई. के लगभग प्रारम्भ' से लेकर ८७८ ई. तक शासन किया। अमोघवर्ष प्रथम जैन धर्म का अनुयायी था किन्तु अपने जीवन में उसने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जिससे वह धर्म सहिष्णुता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत होता है। अन्य धर्मों के साथ उसकी पूर्ण सद्भावना थी। धर्म, साहित्य एवं कला का पुजारी तथा प्रजावत्सल होना अमोघवर्ष प्रथम के व्यक्तित्व का आकर्षक पहलू है। अमोघवर्ष प्रथम के शासन के अन्तिम कुछ दशक राजनैतिक दष्टि से शान्तिपूर्ण जान पड़ते हैं। इस शान्तिपूर्ण समय का पूरा-पूरा उपयोग उसने अपने सांस्कृतिक एवं प्रजा हितार्थ कार्यों के लिए किया होगा।
अमोघवर्ष प्रथम जैन मतावलम्बी, स्याद्वाद' सम्प्रदाय का अनुयायी एवं जिनसेन का शिष्य था । प्रजा के हित का वह ध्यान रखता था। संजान अभिलेख में यह कहा गया है कि प्रजा पर आई विपत्ति को दूर करने के लिए उसने जीमूतवाहन, दधीचि एवं शिबि की परम्परा में महालक्ष्मी की पूजा में अपनी एक उँगली ही अर्पित कर दी थी।" भट्टाकलंक ने अपने शब्दानुशासन में अमोघवर्ष प्रथम की बलिको, जीमूतवाहन, दधीचि एवं शिबि की तुलना में कई गुना श्रेष्ठ बताया है ।।
__ अमोघवर्ष प्रथम स्वयं कविराजमार्ग नामक ग्रन्थ का रचयिता था। यह ग्रन्थ कन्नड़ भाषा का प्रथम काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। इस शासक ने विभिन्न साहित्यकारों को प्रश्रय एवं संरक्षण भी प्रदान किया। १२ वीं से १६ वीं शताब्दी तक के कई साहित्यकारों ने अमोघवर्ष प्रथम द्वारा साहित्यकारों को प्रश्रय देने के गुण की प्रशंसा की है। आदिपुराण के लेखक जिनसेन एवं गुणभद्र का वह संरक्षक था ।' शाकटायन एवं वीरसेन ने अमोघवर्ष प्रथम के काल में ही क्रमशः शाकटायन व्याकरण की अमोघवृत्ति तथा गुणधर रचित कसायपाहुड की जयधवलाटीका'' लिखीं। इन दोनों ग्रन्थों के नाम अमोघवर्ष प्रथम के सम्मान में ही उसकी उपाधियों पर रखे गये हैं।२ इसी शासक के काल में महावीराचार्य ने अपने गणितसारसंग्रह नामक ग्रन्थ को पूरा किया ।3।
कला एवं स्थापत्य के संरक्षक के रूप में अमोघवर्ष प्रथम को हम एलोरा के ब्राह्मण एवं जैन लयणों के निर्माण के सन्दर्भ में देख सकते हैं। यहाँ के दशावतार
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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन नामक शैव लयण में अमोघवर्ष प्रथम का एक अभिलेख अंकित है।१४ इस लेख प्राप्ति के आधार पर दशावतार लयण के निर्माण में अमोघवर्ष प्रथम के सहयोग की संभावना की जा सकती है। एलोरा के जैन लयणों का निर्माण लगभग ९वीं शताब्दी में हुआ था।१५ यद्यपि हमें कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं प्राप्त है किन्तु अमोघवर्ष प्रथम का इन लयण निर्माणों से असम्बद्ध होना नहीं जान पड़ता।
संजान अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष प्रथम गुप्त शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय की तुलना में गुरुतर चरित्र तथा दान देने वाला था ।१७ इन दोनों शासकों के व्यक्तित्व में काफी समानता देखी जा सकती है। दोनों ने ही राजनीतिक परेशानियों के साथ शासन प्रारम्भ किये और क्रमशः अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना कर विद्रोहों का दमन एवं विजय अभियान किये । अमोघवर्ष प्रथम के प्रारम्भिक दिनों की परेशानियाँ कुछ भिन्न प्रकार की एवं गुरुतर थीं। दोनों ही शासक प्रजावत्सल एवं धार्मिक थे और साहित्य तथा कला के अभिवर्द्धक एवं संरक्षक थे। संजान अभिलेख के रचयिता ने अमोघवर्ष प्रथम की तुलना में चन्द्रगुप्त द्वितीय को उचित ही प्रस्तुत किया है। राष्ट्रकूट शासक के गुरुतर व्यक्तित्व का उल्लेख भी उचित ही है । राष्ट्रकूट इतिहास में अमोघवर्ष प्रथम का गुरुतर व्यक्तित्व सदा ही मान्य रहा । गुणधर रचित कसायपाहुड की वीरसेन कृत जयधवला टीका की प्रशस्ति में भी गुर्जर नरेन्द्र के रूप में अमोघवर्ष प्रथम की कीति को चन्द्रमा के समान स्वच्छ तथा उसके मध्य गुप्त नरेश की कीर्ति को मच्छर के समान कहा गया है।
जैन मतावलम्बी अमोघवर्ष प्रथम के शासनकाल में जैन धर्म को पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। अपने समय के जैन आचार्यों का उसने पूर्ण सम्मान एवं संरक्षण किया। आचार्य जिनसेन को उसने अपना गुरु माना था । जिनसेन के शिष्य गुणभद्र को उसने अपने पुत्र कृष्ण द्वितीय के गुरु के रूप में नियुक्त किया था। अमोघवर्ष प्रथम के काल में ही जिनसेन एवं गुणभद्र कृत आदिपुराण, गुणधर कृत कसायपाहुड की वीरसेन कृत जयधवला टीका एवं शाकटायन द्वारा अपने व्याकरण की अमोघवृत्ति नामक टीका रची गई । अमोघवर्ष प्रथम के सामन्तों में बंकेय जैन धर्मावलम्बी था ।१९ सौन्दत्ती के सामन्त भी जैन थे । कान्नूर अभिलेख में अमोघवर्ष प्रथम को जैन धर्मावलम्बियों के लिए दान देता हुआ उल्लिखित किया गया है।२१ एलोरा की जैन गुफाओं के निर्माण में भी सम्भवतः अमोघवर्ष प्रथम का योगदान रहा ।२२ जैन परम्परा में भी इस शासक को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। बनवासी के कुछ जैन विहार उसे कई धार्मिक नियमों के प्रतिस्थापक के रूप में मानते हैं ।२3
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जैन शासक अमोघवर्ष प्रथम
जैन धर्म को संरक्षण देने के साथ ही साथ अमोघवर्ष प्रथम ने स्वयं तथा उसके अन्य राजकीय पदाधिकारियों ने भी दूसरे धर्मों के प्रति पूर्ण सद्भाव रखा । अभिलेखों में प्राप्त उसके देवता सम्बन्धी विश्वास, देवताओं की प्रशस्तियों एवं किये गये दानों आदि से यह ज्ञात होता है कि राज्य शासन अपनी धार्मिक नीति में अत्यधिक उदार था। अमोघवर्ष प्रथम ने लोक उपद्रव को शांत करने के लिए महालक्ष्मी की पूजा की थी जिसमें उसने अपने शरीर का एक अंग ही अर्पित कर दिया था ।२४ उसकी राजमुद्रा पर गरुड़ मुद्रा का स्पष्ट उल्लेख भी प्राप्त होता है ।२५ अभिलेखों के प्रारम्भ में प्राप्त देव प्रशस्तियों तथा किये गये दानों के उल्लेखों से तत्युगीन धार्मिक सहिष्णुता पर विशेष प्रकाश पड़ता है। अमोघवर्ष प्रथम के कोन्नूर अभिलेख में जिनेन्द्र की प्रशस्ति के साथ ही साथ विष्णु की भी प्रशस्ति की गई है। वीर नारायण के रूप में ऐसा जान पड़ता है कि अमोघवर्ष प्रथम विष्णु के अवतार के रूप में माना जाता था।२७ इस सन्दर्भ में उसकी लक्ष्मीवल्लभ तथा श्रीवल्लभ उपाधियाँ उल्लेख्य हैं। अमोघवर्ष प्रथम एवं उसके सामन्त शासकों के कई अभिलेखों में विष्णु एवं शिव की साथ-साथ प्रशस्ति कही गई है ।२८ अमोघवर्ष प्रथम के समय के नीलगुड अभिलेख में विष्णु एवं शिव के साथ-साथ ब्रह्मा, इन्द्र एवं पार्वती का भी उल्लेख हुआ है ।२९ गुजरात शाखा के राष्ट्रकूट शासक दन्तिवर्मा के गुजरात अभिलेख में बुद्ध को नमस्कार के साथ विष्णु एवं शिव की प्रशस्ति भी प्राप्त है। यह अभिलेख बौद्धों को दिये गये दान से सम्बन्धित है। एलोरा के दशावतार नामक शैल लयण के निर्माण में संभवतः अमोघवर्ष प्रथम ने रुचि ली थी।' इस लयण में अंकित इस शासक के अभिलेख का आरम्भ ओम् नमः शिवाय से किया गया है ।३२ अमोघवर्ष प्रथम के काल के मन्त्रवाडि एवं शिग्गौन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सामन्त शासकों ने सूर्य एवं शिव मन्दिरों के लिए दान दिये ।33
अमोघवर्ष प्रथम ने इस प्रकार न केवल प्रजावत्सलता, सांस्कृतिक अभिरुचि एवं धार्मिक सहिष्णुता का एक मानदण्ड स्थापित किया बल्कि शासकों की परम्परा में एक जैन शासक के रूप में महान् योगदान दिया ।
पाद टिप्पणियाँ १. गोविन्द तृतीय के तोखंडे अभिलेख से उसके शासनकाल की अन्तिम ज्ञात तिथि १४ दिसम्बर
८१२ ई. (एपिग्राफिया इण्डिका, भाग ३, पृ० ५४, पंक्ति १-२) एवं अमोघवर्ष प्रथम के सिरुर अभिलेख में उल्लिखित उसके शासन के ५२वें वर्ष की तिथि ८६६ ई. के आधार पर गणना के अनुसार।
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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन २. कण्हेरी अभिलेख के आधार पर (इण्डियन एण्टिक्वेरी, भाग १३, पृष्ठ १३५) जयधवला
टीका की परिसमाप्ति तिथि के आधार पर यह तिथि मानना (सी० आर० कृष्णमाचार्य, साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, भाग ११, खण्ड १, प्रस्तावना, पृ० ५; ए० एस० अल्तेकर, दि राष्ट्रकूटज एण्ड देयर टाइम्स, पृ० ८७) उचित नहीं है क्योंकि परिसमाप्ति तिथि ८३७ ई. है। ____ अमोघवर्ष प्रथम के पुत्र कृष्ण द्वितीय के शासनकाल की ज्ञात प्रारंभिकतम तिथि ८८८ ई. (एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १३, पृ० १८९, पंक्ति २-३) है। अमोघवर्ष प्रथम की मृत्यु ८७८ से ८८८ ई० के बीच कभी हुई होगी, किन्तु कृष्ण द्वितीय के शासन प्रारंभ की निश्चित तिथि के ज्ञात न होने के कारण मृत्यु तिथि को निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता । यदि ८८८ ई. कृष्ण द्वितीय के शासन का आरंभिक वर्ष माना जाय तो अमोघ
वर्ष प्रथम का शासनकाल १० वर्ष के लगभग और बढ़ जाएगा। ३. विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवादिनः । देवस्य नृपतुंगस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥
-महावीर कृत गणितसारसंग्रह, मंगलाचरणं, श्लोक ८। एक अन्य सन्दर्भ में स्याद्वाद का उल्लेख अमोघवर्ष प्रथम के कोन्नूर अभिलेख में भी प्राप्त होता है (एपिग्राफिया इण्डिका, भाग ६, पृष्ट ३७, श्लोक ४४) । ४. यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजरजः पिशङ्कमुकुटप्रत्यग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता त्वमोघवर्षनृपतिः पूताहमोत्यलं स श्रीमज्जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ॥
-गुणभद्ररचित उत्तरपुराण, प्रशस्ति, श्लोक ९ । ५. सर्प पातुमसौ ददौ निजतनुं जीमूतकेतोस्सुतः
श्येनायाथ शिविः कपोतपरिरक्षार्थं दधीचोऽथिने । तेप्येकेकमतर्व्ययन्किल महालक्ष्म्यै स्ववामांगुलिं लोकोपद्रवशान्तये स्म दिशति श्रोवीरनारायणः ।।
-एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १८, पृ० २४८, श्लोक ४७ । ६. कर्णाटक शब्दानुशासनम्, पृ० १९४; इण्डियन एंटिक्वेरी, भाग ३३, पृ० १९८ । ७. दि जर्नल आफ दि बाम्बे ब्राँच आफ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी, भाग २२, पृ० ८१;
कविराजमार्ग, के. बी. पाठक संपादित, १८९८ । ८. वही । प्रशंसा करने वाले साहित्यकार हैं नागवर्मा द्वितीय (११५० ई.) केशिराज (१२२५
ई.) एवं भट्टाकलंक (१६०० ई.)। ९. दि जर्नल आफ दि बाम्बे ब्रांच आफ दि रायल एशियाठिक सोसायटी, भाग २२, पृ० ८५ ।
जिनसेन ने अमोघवर्ष प्रथम का उल्लेख अपने पार्वाभ्युदय (अंतिमसर्ग, श्लोक ७०) में किया है-भुवनमवतु देवः सर्वदामोघवर्षः ।।
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जैन शासक अमोघवर्ष प्रथम १०. सूत्र ‘ख्याते दृश्ये' (४।३।२०८) के उदाहरण रूप में 'अदहदमौघवर्षोऽरातीन्' उल्लिखित
है । अमोघवर्ष प्रथम द्वारा शत्रुशासकों के दाह का उल्लेख एक अभिलेख में भी प्राप्त होता है-'भूपालात्कंडिकाभि (कंटकामान्) सपदि विघटितान्वेष्ठयित्वा ददाह ।'-(कापडवंज
अभिलेख, एपिग्राफिया इण्डिका, भाग १, पृ० ५४, श्लोक ९)। ११. अमोघवर्ष राजेन्द्रराज्यगुणोदया ।—समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥
-जयधवलाटीका, प्रशस्ति, श्लोक ८, १२ । १२. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५ अम्बालाल प्रे० शाह, वाराणसी, १९६९,
प्रस्तावना, पृ० २९ । १३. श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टाहितैषिणा ।
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देवस्य नृपतुंगस्य वर्धतां तस्य शासनम् ।। -मंगलाचरण, श्लोक ३, ८ । १४. आर्कयोलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इंडिया, भाग ४, पृ० ८७-८९ । १५. इण्डियन आर्किटेक्चर, भाग १, पी. ब्राउन, बम्बई, १९५६, पृ० ९० दि आर्ट आफ दि
राष्ट्रकूटज, ए० गोस्वामी एवं ओ. सी. गांगुली, कलकत्ता, १९५८, पृ० २४-२५ । १६. वही । १७. हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरदेवीं च दीनस्ततो
लक्ष्म कोटिमलेरवयत्किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः । येनात्याजि तनुः स्वराज्यमसकृद्वाह्यात्यर्थकः का कथा। ह्रीस्तस्योन्नतिराष्ट्रकूटतिलको दातेति कीामपि ।
-संजान अभिलेख, एपिग्राफिया इंडिका, भाग १८, पृ. २४८, श्लोक ४८ । १८. गूर्जरनरेन्द्रकीर्तेरन्तःपतिता शशाङ्कशुभ्रया।
गुप्तव गुप्तनृपतेः शकस्य मशकायते कीत्तिः ॥ -प्रशस्ति, श्लोक १२ । १९. कोन्नूर अभिलेख, एपिग्राफिया इंडिका, भाग ६, पृ० ३१, श्लोक ३५-३६ । २०.दि जर्नल आफ दि बाम्बे ब्रांच आफ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, भाग १० पृ० १६७
एवं आगे। २१. एपिनाफिया इण्डिका, भाग ६, पृ० ३१ श्लोक ३५ एवं आगे । २२. द्रष्टव्य. उपरि पाद टिप्पणी १७, १५ । एक जैन मंदिर के लिए दिये गये दान का संदर्भ
अमोघवर्ष प्रथम के काल के राणेवेन्नूर कन्नड़ शोध संग्रहालय अभिलेख में भी प्राप्त है ।
-कर्णाटक इंस्क्रिप्शस, भाग १, पृ० १४-१६) । २३. द्रष्टव्य, ए. एस. अल्तेकर, दि राष्ट्रकूटज एण्ड देयर टाइम्स, पृष्ठ ३१२ । २४. संजान अभिलेख, श्लोक, ४७, उपरि टिप्पणी ५ में उद्धृत । २५. संजान अभिलेख, श्लोक ५० (भग्ना समस्तभूपालमुद्रा गरुड़मुद्रया) कोन्नूर अभिलेख, श्लोक १३ (गरुड़मुद्रया) एवं सिरुर अभिलेख पंक्ति १३ (गरूड़ लाञ्छन)। मुद्रा पर
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________________ जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन गरुड़ की प्रतिकृत्ति के लिए द्रष्टव्य, अमोघवर्ष प्रथम का जवखेड़ अभिलेख, एपिग्रापिया इण्डिका भाग 32, पृष्ठ 129, टिप्पणी 1, फलक 3; दन्तिवर्मा का गुजरात अभिलेख वही, भाग 6, पृष्ठ 285; अमोघवर्ष के समय का हूविन-हिप्पगि अभिलेख, साउथ इंडियन इंस्क्रिप्शंस, भाग 11, खंड 1, पृष्ठ 5, टिप्पणी 1 / कर्क सुवर्णवर्ष के बड़ोदा अभिलेख (इंडियन एंटिक्वेरी, भाग 12, पृष्ठ 156) एवं ध्रुव द्वितीय के बगुमरा अभिलेख (वही पृष्ठ 189) की मुद्राओं पर शिव का अंकन कहा गया है। किन्तु ये अंकन गरुड़ के ही जान पड़ते हैं / इनमें से कर्क सुवर्णवर्ष के अभिलेख की मुद्रा प्रकाशित है (वही, पृष्ठ 156 के सामने का फलक) जिसमें गरूड़ के पंख स्पष्ट द्रष्टव्य है। अन्य धार्मिक प्रतीकों में स्वस्तिक का उल्लेख किया जा सकता है जिनका अंकन अमोघवर्ष प्रथम के काल के सौरटूर अभिलेख में प्राप्त है (साउथ इंडियन इंस्क्रिप्शंस, भाग 11, खण्ड 1, पृष्ठ 8 टिप्पणी 3) / 26. श्रियः प्रियस्संगतविश्वरूपस्सुदर्शनच्छिन्नपरावलेपः / दिश्यादनंतः प्रणतामरेंद्रः श्रियं यांद्यः प्रभवो जिनेन्द्रः // अनन्तभोगस्थितिरत्र पातु वः प्रतापशीलप्रभवोदयाचलः / सुराष्ट्रकूटोज्जितवंशपूर्वजस्स वीरनारायण एव वो विभुः / / -कोन्नूर अभिलेख, श्लोक 1-2, एपिग्राफिया इंडिका, भाग 6, पृष्ठ 39 / 27. वही, श्लोक 2 / 28. अमोघवर्ष प्रथम के संजान, जवखेड, तरसादी एवं सिरुर अभिलेख तथा उसके काल के नीलगुंड अभिलेख एवं दन्तिवर्मा के गुजरात अभिलेखों में निम्न श्लोक पाया जाता है स वोऽव्याद्वेधसा धाम यन्नाभिकमलं कृतं / हरस्य यस्य कान्तेन्दुकलया कमलं कृतं // 29. जयति भुवनकारणं स्वयमूज्जित पुरन्द्रनन्दनो मुरारिः / जयति गिरिसुता निरुद्धदेहो दुरितमयापहरो हरश्च देवः / / विष्णु एवं शिव के संबंध में दूसरा श्लोक वही है जो टिप्पणी 28 में उद्धृत है (एपि ग्राफिया इंडिका, भाग 6, पृष्ठ 102, श्लोक 1, 2) / 30. वही, पृष्ठ 277, पंक्ति। 31. द्रष्टव्य, उपरि टिप्पणी 14, 15 / 32. आयोलाजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इंडिया, भाग 5, पृष्ठ 87, पंक्ति / 33. एपिग्राफिया इंडिका, भाग 1, पृष्ठ 211 एवं आगे, कर्णाटक इंस्क्रिप्शंस, भाग 1, पृष्ठ 13 एवं आगे। सुदृष्टिपुरी डिग्री कालेज, बलिया, उ० प्र० . परिसंवाद-४