Book Title: Jain Mandiro ke Shasakiya Adhikar Author(s): Lalchand Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/210833/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्दिरों के शासकीय अधिकार श्री लालचन्द जैन, एडवोकेट भारतवर्ष का अल्पसंख्यक जैन समाज अपनी समर्पित निष्ठा एवं धर्माचरण के लिए इतिहास में विख्यात रहा है। जनधर्मानुयायियों ने अपने आचरण एवं व्यवहार में एकरूपता का प्रदर्शन करके भारतीय समाज के सभी वर्गों का स्नेह अजित किया है। इतिहास में कुछ आवाद भी होते हैं। कभी-कभी कट्टर शासक सत्ता में आ जाते हैं और वे राजसत्ता का प्रयोग अपने धर्म प्रचार के लिए करते हैं। इस प्रकार के धर्मान्ध शासन में अन्य धर्मावलम्बियों की धार्मिक मान्यताओं पर प्रहार भी किया जाता है। जैन आचार्यों एवं मुनियों ने सदा से प्राणीमात्र के कल्याण के लिए अपना पावन सन्देश दिया है। हृदय की गहराई से निकली हुई भावना समादर की दृष्टि से देखी जाती है। मुनि हीरविजय सूरि एवं उनके शिष्यों के अनुरोध पर मुगल सम्राट् जलालुद्दीन अकबर ने मिती 7 जमादुलसानी सन् 662 हिजरी को एक फ़रमान जारी कर पजूषण (प'षण) के 12 दिनों में जीव हिंसा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। मेवाड़ के शासक जैन मन्दिरों को अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। जैन समाज भी मन्दिरों की पवित्रता को बनाए रखने के लिए निश्चित आचार संहिता का कड़ाई से पालन करता था। इस दृष्टि से महाराजा श्री राजसिंह का आज्ञा-पत्र जैन समाज के लिए एक स्वणिम दस्तावेज है। कर्नल टॉड कृत 'राजस्यान' नामक ग्रन्थ में आज्ञा पत्र का अविकल पाठ इस प्रकार से है महाराणा श्री राजसिंह मेवाड़ के दश हजार ग्रामों के सरदार, मंत्री और पटेलों को आज्ञा देता है। सब अपने-अपने पद के जीववध न करे यह उनका पुराना हक है। 2. जो जीव नर हो या मादा, वध होने के अभिप्राय से इनके स्थान से गुजरता है वह अमर हो जाता है (अर्थात् उसका जीव बच जाता है।) 3. राजद्रोही, लुटेरे और कारागृह से भागे हुए महापराधियों को जो जैनियों के उपासरे में जाकर शरण लें, राजकर्मचारी नहीं पकड़ेंगे / फसल में कूची (मुठ्ठी), कराना की मुठ्ठी, दान की हुई भूमि, धरती और अनेक नगरों में उनके बनाये हुए उपासरे कायम रहेंगे। 5. यह फरमान ऋषि मनु की प्रार्थना करने पर जारी किया गया है जिसको 15 बीघे धान की भूमि के और 25 मलेटी के दान किये गये हैं। नीमच और निम्बहीर के प्रत्येक परगने में भी हरएक जाति को इतनी ही पृथ्वी दी गई है अर्थात तीनों परगनों में धान के कुल 45 बीघे और मलेटी के 75 बीघे / इस फरमान के देखते ही पृथ्वी नाप दी जाय और दे दी जाय और कोई मनुष्य जतियों को दु:ख नहीं है, बल्कि उनके हकों की रक्षा करे। उस मनुष्य को धिक्कार है जो उनके हकों को उल्लंघन करता है / हिन्दू को गो और मुसलमान को सूअर और मुदीर की कसम है // (आज्ञा से) सम्वत् 1746 महसूद 5 वीं, ईस्वी सन् 1663 / जैन इतिहास, कला और संस्कृति