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"जैन धर्म में नारी का स्थान"
- लेखक: गोपाल पंवार,
नारी धर्म पालने में, धर्म प्रचार में एवं धर्म को अंगीकार करने में पुरूषों से कई दशक आगे है यद्यपि "नारी" के स्वरूप, स्वभाव, शिक्षा, सहयोग एवं पद समय के अनुसार बदलता रहा है। जन्मदात्री माता से लेकर कोठे की घृणित व प्रताड़ित वेश्या के रूप में भी वह समय-समय पर हमारे समक्ष आई है यशोदा बनकर लालन पालन किया है तो कालिका बनकर असुरों का संहार भी किया है, साक्षात वात्सल्य की प्रतिमूर्ति रही है तो सती के रूप में धधकती ज्वाला में आहुति बनने में भी विलम्ब नहीं किया। समय व काल की गति अनन्त व अक्षुण्ण है, इससे परे न कोई रहा है न रह सकेगा कालचक्र से सभी बन्धे हैं, फिर भला कोई समाज या धर्म उससे विलग कैसे रह सकता है।
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जैन धर्म भारत का एक सशक्त प्रभावी एवं व्यापक धर्म रहा है जिससे मानव जाति को एक ऐसे कगार से उभारा है जो हिंसा, घृणा, अन्याय व स्वार्थ के महासागर में डूब - उतर रहा था। नारी नर की अर्धांगिनी, मित्र, मार्गदर्शिका व सेविका के रूप में हमेशा-हमेशा से समाज में अपना अस्तित्व बनाती रही है किन्तु कभी-कभी तुला का दूसरा पलड़ा अधिक वजनदार हुआ तो नारी को चारदीवारी की पर्दानसीं विलासिता व भोग की वस्तु व मात्र सेवा तथा गृहकार्य करने वाली इकाई भी माना गया, केवल कर्तव्यपरायणा बनकर चुपचाप जुल्म सहना ही उसकी नियति बन गई व बदले में उसे सिसकने तक का अधिकार भी न रहा अधिकार के बिना कर्तव्य का न मूल्य रह जाता है न औचित्य । किन्तु समय-समय पर समाज में जाग्रति व क्रान्ति की लहर आयी जिसने नारी को उसके वास्तविक स्वरूप का बोध कराया।
जैन समाज में आदिकाल से ही नारी का पद व गरिमा सम्माननीय व वन्दनीय ही रही है। कुछेक अपवाद को छोड़कर नारी परामर्शदात्री व अंगरक्षक भी रही है जैन धर्म को संसार में स्थान दिलाने में जैन धर्म की ख्याति तथा जैनत्व के प्रभाव के मूल में नारी की भूमिका प्रमुख व सर्वोपरि रही है।
"नारी से ही जैन धर्म जीवित है" यदि ऐसा भी कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि नारी अपने समस्त उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के साथ ही साथ धर्मपालन, नियम, व्यवहार स्वाध्याय, पूजन, उपवास आदि में अधिक समय देकर पुरुषों से कई गुना आगे है। यदि जैन धर्म के व्यौम से नारी को हटा दिया जाय तो मात्र अन्धकार ही शेष रह जायेगा । आज भी जैन धर्म रूपी व्यौम में चमकते नक्षत्र के रूपमें चन्दनबाला के नाम का स्मरण अत्यन्त स्वाभिमान के साथ किया जाता है और आज भी जैन महिलायें उनके नाम की दुहाई देकर, उन्हें आराध्य मानकर नियम पालन की व्रत-उपवास की धार्मिक क्रियाकलाप की शपथ लेती है। कितना महान आदर्श, त्याग व कर्तव्यपरायणता का पाठ पढ़ने व सीखने को मिलता है, उनके चरित्र से ।
यदि हम समाज को व राष्ट्र को प्रगति व उपलब्धि के मार्ग पर प्रशस्त करना चाहते है, यदि हम भगवान महावीर की शिक्षाओं को व्यवहार में उतारना चाहते है, यदि हम समाज व देश में शिक्षा, अनुशासन, भाईचारा व एकता का शंखनाद फूँकना चाहते है तो हमें नारी
मन की पंखुडियाँ जन एक्यता के सूत्र से पृथक हो जाती है तो प्रत्येक मानवीय प्रयत्न सफळ नहीं हो सकते।
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________________ को उनके अधिकार व उनके उपयोग की स्वतन्त्रता व स्वच्छन्दता देनी होगी, उन्हें उनकी शक्ति, शौर्य, शील व तेज की याद दिलानी होगी। जैन धर्म हो या अन्य धर्म, नारी का झुकाव पुरूषों की तुलना में धर्म की और अधिक ही होता है। यदि हम वर्तमान परिस्थितियों में देखें तो पायेगें कि सेठजी की अपेक्षा सेठानीजी नित्यनेम, धर्म-कर्म, स्वाध्याय, नियम-पालन, एकासना उपवास आदि नियमित व आस्था से करती है जबकि उन्हें एक बहू, बेटी, मां, बहन या पत्नि का कर्तव्य भी निभाना पड़ता है। व्याख्यान में उ स्थिति व रूचि, नियमित सामायिक पालन, नवकार जाप तथा देव-दर्शन, गुरूवन्दन में सेठजी की तुलना में, सेठानीजी की संख्या ही अधिक होती है। पुरूष वर्ग यह कहकर अपने दायित्व से हट जाते हैं कि हमें व्यापार, वाणिज्य, प्रवास आदि कार्य में व्यस्त रहना पड़ता है अत: नियम का पालन सम्भव नहीं। धर्म के मर्म को जितनी पैनी व सूक्ष्म दृष्टि से महिला वर्ग ने देखा, जांचा व परखा है, उतना पुरूष वर्ग नहीं, और यही कारण है कि आज जैन धर्म के उत्थान में, प्रचार-प्रसार में नारी की भूमिका अहम् है, प्रशंसनीय है, स्तुत्य है। नारी ने धर्म ध्वजा को फहराया है। नारी ने ही नियम, संयम व यश कमाया है। अत: यह बात निर्विवाद है कि जैन धर्म में नारी का स्थान, नारी का योगदान आदिकाल से रहा हैं, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी बना रहेगा क्योंकि "वह धर्म की धुरी है। विश्व की प्रत्येक मानवीय क्रिया के साध मन-व्यवसाय बधा हुआ है। यह मन ही एक ऐसी वस्तु है, जिस पर नियंत्रण रखने से भवसागर पार होने की महाशक्ति प्राप्त होती है। और अनंतानं भव भ्रमण वाला भोमिया भी बनता है। मानव जब मनोजयी होता है तो तब वह स्वच्छ आत्मा-दृष्टि और ज्ञान-दृष्टि उपलब्ध करता 354 महापुरुषों की प्रसादी रुप में मात्र उनकी चरण रज भी घर में पड़ जाय तो दैन्यता नष्ट हो जाती है।