Book Title: Jain Dharm me Achar
Author(s): Rishabhdas Ranka
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210762/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में प्राचार श्री रिषभदास जी रांका जैनधर्म प्रधान रूप से आचारप्रधान है। मुख्यतः जन-जीवन के लिए है। फिर भी उसका अपना दर्शन है जो अनुभव पर आधारित है। आचारधर्म में दृढ़ता लाने के लिए है। जैनदर्शन ने जीवन के अन्तिम ध्येय शाश्वत सुख और शांति के लिए गहराई और गहराई से विचार कर अनुभव से तथ्य प्रकट किए हैं । वह हैं 'धर्म' जीवन में उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा संयम और तप धर्म है । जो इसकी साधना ठीक से करते हैं उन्हें देवता भी नमन करते हैं । जैनदर्शन आत्मवादी और मोक्षाकांक्षी है। धर्म मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। सांसारिक सुख क्षणिक, अन्त में स्वयं तथा दूसरों के लिए भी दुःखदायी हैं और परावलंबी होते हैं। जिनकी कभी तृप्ति नहीं होती। आत्म-सुख चिरंतन, अपने तथा दूसरों के लिए सुखकर है, स्वावलम्बी है। वह ही वांछनीय है। जैनदर्शन के अनुसार संसार में जीव और अजीव दो मुख्य तत्त्व है। जीव का लक्षण उपयोग अथवा चेतना का है, जिसके दो भेद है। एक दर्शन और दूसरा ज्ञान । दर्शन यानी स्व-संवेदन अर्थात् आत्म-चेतना । ज्ञान पर-संवेदन अर्थात् पर-पदार्थों की जानकारी कराता है। जीव में कतत्व शक्ति और उसे भोगने की क्षमता है। ये जीव एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक है। सबमें मूलतः समानता है, विकास की दृष्टि से भेद है। प्रत्येक जीव में पूर्ण विकास की क्षमता है । अहिंसा के मूल में सब जीवों की समानता-आत्मोपम्य का सिद्धान्त है। जिसमें ऊंच-नीच के भेद को स्थान नहीं है । अजीव के पांच भेद है। पुद्गल यानी दृश्य पदार्थ, धर्म जीव और पुद्गल को गति देने वाला तत्त्व है। यहाँ धर्म और अधर्म नीति-अनीति के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। अधर्म यानी जीव और पुद्गल को स्थिरता प्रदान करने वाला तत्त्व, आकाश यानी पदार्थ को अवकाश देने वाला तत्त्व और काल-ये पांच पदार्थ है। जैनदर्शन परमाणवादी है। यह दृश्य जगत् परमाणुओं का समूह है। ये पाँच तत्त्व और जीव छट्ठा, छह द्रव्य हैं। द्रव्य का प्रधान लक्षण है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । द्रव्य नित्य होते हुए भी नये-नये पर्यायों में रूपांतरित होता है। नया रूप धारण करता है, पुराने पर्यायों का व्यय होता है, क्षीणता प्राप्त होती है, फिर भी उसमें स्थिरता है। जैनदर्शन ने इस प्रकार वेदान्त की कूटस्थ नित्यता और बौद्धदर्शन के क्षणिकतावाद का समन्वय कर द्रव्य सत्ता नित्य किन्तु पर्याय परिणामी, परिवर्तनशील मानी है। यह अनेकान्त दृष्टि है। देह और आत्मा के संयोग से मन, वचन और काया की क्रियाएँ होती हैं। राग-द्वेष, अहंता, ममता, क्रोध, मान, माया, लोम, वासनाओं और कामनाओं के कारण मन चंचल होता है। विविध क्रियाओं से आत्मा में परिस्पंदन होता है, जो कर्म-पुद्गल को अपनी ओर आकृष्ट करता है, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में आचार ३२३ इस प्रकार आत्मा में कर्म का प्रवाह बहता रहता है, जिसे आस्रव कहा जाता है । इस चलने वाली प्रक्रिया से आत्मा को बंध होता है और उसके शुद्ध स्वरूप पर आवरण जमते जाते हैं। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि माना गया है । प्रत्येक जीव अनेक प्रकार के कर्म लेकर जन्म लेता है, जिनका उसके क्रिया-कलापों पर प्रभाव होता है । वह जो कर्म करता है उससे फिर नये कर्मों का बंध होता जाता है । यह सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है। इससे मुक्ति हो सकती है, मुक्ति का मार्ग है । कर्म के प्रवाह को बदला जा सकता है, रोका भी जा सकता है । नये कर्म बंध को रोकने की क्रिया संवर है और संचित कर्मों का भी क्षय हो सकता है, उसे निर्जरा कहते हैं । संपूर्ण कर्म क्षय होने पर आत्मा स्वयं सिद्ध स्वरूप को प्राप्त सकता है । आत्मा से परमात्मा बनता है । दुःख से मुक्ति पाता है, यही मोक्ष है । जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष यह सात तत्त्व है। कई उनमें पुण्य और पाप को जोड़ते हैं। शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के फलस्वरूप शुभ और अशुभ कर्म ही पुण्य और पाप होते हैं । इस प्रकार नव तत्त्व और षद्रव्य में पूरा जैनदर्शन आजाता है । जैनदर्शन बुद्धिगम्य है और व्यावहारिक है । उसका रहस्यवाद समझ आ सकने जैसा है, गूढ़ नहीं है । हर प्रबुद्ध व्यक्ति उसे समझ सकता है और उसमें बताई बातें जीवन में उतार सकता है । बंध बाँधता है । इस ध्यान द्वारा देखा जा होता है । जीव वासनाओं, कामनाओं तथा कषायों के कारण अनेक प्रकार के मनो-व्यापार को अन्तर्निरीक्षण और विश्लेषण द्वारा देखा जा सकता है। सकता है। ध्यान से चित्त की स्थिरता, निर्मलता आती है, अगला मार्ग स्पष्ट संवर और निर्जरा के लिए आचारधर्म की उपयोगिता है । जीवन साधना का आरम्भ है और अन्तिम साध्य दुःख विमुक्ति है । जनदर्शन की विशेषता कर्म सिद्धान्त है । जिसकी नींव पुरुषार्थ है । जो जैसा करेगा, वैसा पावेगा | अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं ही है । आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है। जीव शिव हो सकता है, आत्मा परमात्मा बन सकता है, नर का नारायण हो सकता है। जैनदर्शन ईश्वर को कर्ता नहीं मानता, आत्मा ही शुद्ध-बुद्ध होकर परमात्म पद पा सकता है । परमात्म पद पाने का उपाय है, सम्यक् श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र | सही दृष्टि यानी जीव और पुद्गल की मिन्नता, देह आत्मा की पृथकता का भान । यह सम्यक् दृष्टि ही जीव को चारित्र्य की ओर मोड़ती है । और सम्यक् चारित्र के मार्ग पर बढ़ने से सम्यक्दर्शन पर Safar frष्ठा बढ़ती है। रागद्वेष और अहंता - ममता की मंदता से सम्यक्ज्ञान की ओर रुचि बढ़ती है और सम्यकूदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों का साथ होता है तब जीव शिव बनता है, दुःख से मुक्त होकर अपना साध्य प्राप्त करता है । पदार्थ व वाह्य जगत् का ज्ञान ठीक से हो वह सम्यक्ज्ञान है । सम्यक्ज्ञान होने के लिए उदार दृष्टिकोण होना आवश्यक है, इसलिए इस मार्ग में अनेकांत सहायक होता है । हर वस्तु के अनेक गुण और पर्याय हैं। वाणी में उन सभी का समावेश नहीं होता । स्वयं कहता है वही ठीक ऐसा आग्रह संघर्ष पैदा करता है । जहाँ भी सत्य हो उसका आदर करना अनेकांत है । अंश को पूर्ण मानने का आग्रह नहीं रखना- इसमें अन्तर की उदारता है । आचार में अहिंसा और विचार में अनेकांत में धर्म का सार आ जाता है । अहिंसा : जैनधर्म का आचारधर्म अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह से प्रारम्भ होता है तो भी उसमें अहिंसा की प्रधानता है । अहिंसा परमधर्म इसलिए है कि यह सभी जीवों की समानता Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ पर आधारित है। जीवों में ऊँच-नीच का भेद नहीं। सभी जीव समान हैं, किसी भी जीव की हिंसा करना पाप है । जैनियों पर यह आक्षेप है कि वे जीव-जन्तुओं की तो रक्षा करते हैं, पर मनुष्य की ओर ध्यान नहीं देते पर सच यह है कि मनुष्य की उपेक्षा कर जीव-जन्तुओं की रक्षा नहीं होती । अहिंसा की भूमिका है-सभी जीव सुख से जीना चाहते है, कोई मरना नहीं चाहता, दुःख किसी को अच्छा नहीं लगता । दूसरे हम अपने प्रति जिस तरह के व्यवहार की आशा रखते हैं, वैसा व्यवहार हम दूसरों के प्रति करें। हिंसा से हिंसा पैदा होती है। इसलिए उससे बचा जाय पर प्रकृति में 'जीवो जीवस्य जीवनम्' का क्रम है। शरीर की प्रत्येक क्रिया में हिंसा अपरिहार्य है। यह कम से कम की जाय क्योंकि अहिंसा आत्मा का गुण है अहिंसा के पालन का प्रयत्न होना चाहिए । हिंसा कम से कम हो यह कोशिश रहे । यदि शरीर की प्रत्येक क्रिया विवेकपूर्वक यतना के साथ करें तो बाह्य हिंसा के पाप से बचा जा सकता है । हिंसा मात्र बाह्य क्रिया नहीं है । उसका स्थान मन में है, भाव में है। मनुष्य सतत जाग्रत रहकर अप्रमत्त भाव से कर्म करे तो बाह्य हिंसा का परिमार्जन हो सकता है। जब जीवन में समता आवे तभी अहिंसा का ठीक से पालन हो सकता है। जो समदर्शी है उससे पाप नहीं होता। पर इन पांचों महाव्रतों का पालन सभी समान रूप से नहीं कर सकते । इसलिये श्रावकों को अणुव्रत और साधु मुनियों के लिये महाव्रत कहे गये हैं। श्रावक स्थूलप्राणातिपातविरमण करता है जिसमें अपराधी को दण्ड देना और जीवन निर्वाह के लिये सूक्ष्म हिंसा, जो अनिवार्य है, कर सकता है। वह निरपराध प्राणियों की हिंसा नहीं करता। वह पूरी सावधानी रखता है कि किसी के प्रति अन्याय न हो, किसी को कष्ट न हो, फिर भी हिंसा हो जाती हो तो वह क्षम्य है। अहिंसा के पालन के लिये विचारों की निमलता और व्यापकता आवश्यक है। किसी के प्रति दुर्भावना भी नहीं रखी जा सकती। हिंसा की व्याख्या आचार्य उमास्वाति ने 'प्रमत्तयोगात प्राणाव्यरोपणं हिंसा' की है। मन, वचन, काया की प्रमादयुक्त अवस्था में होने वाली हिंसा ही हिंसा है। सत्य: सत्य को समी धर्मों ने धर्म का आधार माना है। जैनदर्शन ने भी सत्य को भगवान कहा है। सत्य ही ससार का सारभूत तत्व है। प्रमादरहित होकर हितकारी हो वही बोला जाय । क्योंकि सत्य के बिना कोई व्यवहार नहीं चलता। असत्य में हिंसा है। स्वयं अथवा दूसरों को आघात लगे ऐसी भाषा सत्य हो तो भी न बोली जाय । व्यावहारिक दृष्टि से भी निम्नलिखित प्रकार से सत्य के लिये सावधानी बरती जाय : (१) किसी पर झूठा आरोप न लगाया जाय । किसी के प्रति गलत धारणा पैदा न हो यह ध्यान में रखकर बोला जाय । (२) किसी की गुप्त बात प्रकट न करना । (३) पति-पत्नी की या घर के लोगों की गुप्त बात प्रकट न की जाय । (४) किसी को झूठ की प्रेरणा न दे। (५) झूठी लिखा-पढ़ी करना, झूठा सिक्का चलाना, आदि न किया जाय । अदत्तादान : किसी की वस्तु बिना मालिक की जानकारी के न ली जाय । चोरी न करना इतना ही नहीं पर चोरी की चीज खरीदना, या दूसरे से चोरी करवाना भी पाप ही है। राज्य के नियमों का उल्लंघन करके कर न देना, अवैधानिक व्यापार, राज्य के नियमों के विरुद्ध निषिद्ध वस्तुओं का एक स्थान से दूसरी जगह पहुँचाना, नाप-तोल में कम या अधिक दे-लेकर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में आचार ३२५ अप्रामाणिक व्यवहार करना, दूसरे के अज्ञान का स्वार्थ के लिये लाभ उठाना, मिलावट आदि सब अदत्तादान में दोष है, जिनसे बचना चाहिए । ब्रह्मचर्य सब प्रकार के कामभोगों का त्याग और संयम । पर गृहस्थों के लिये स्वदारसन्तोष की मर्यादा रखी गयी है जिसका पालन सामाजिक दृष्टि से भी हितकर है। स्वयं और दूसरे के लिये हितकारी है । अपरिग्रह परिग्रह को पाप का मूल माना है । परिग्रह ही अहिंसाव्रत के पालन में सबसे बड़ी बाधा है । परिग्रह से विषमता बढ़ती है । आज की अशांति और संघर्ष का मूल ही संग्रह है । परिग्रह से छल, कपट और अनाचार पैदा होता है । कामभोग और परिग्रह के लिये हिंसा और असत्याचरण किया जाता है । इसलिये परिग्रह परिमाण या उचित परिग्रह को अपनाना चाहिए। संग्रह पर सीमा बाँध लेनी चाहिए । यही जीवन में सुख और शांति निर्माण करता है । तृष्णा से छुटकारा दिलाता है और दूसरों में सद्भाव निर्माण करता है । आज की विषम समस्याओं का समाधान परिग्रह परिमाण है । जिसे आज की भाषा में गांधीजी ने ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त कहा है । तीन गुणवत इन सब व्रतों का पालन तभी संभव है जब मनुष्य तीन गुणव्रतों को अपनावे वह सादगी अपनावे । भोग-उपभोग की वस्तुओं पर नियन्त्रण रखे । वस्तुओं के भोग पर ही नहीं उसकी सभी प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण हो । प्रवास भी इन दिनों इतना अधिक बढ़ गया है कि उस पर नियन्त्रण रखना अपने और दूसरों की दृष्टि से हितकर है। जिसे दिशा परिमाण व्रत तथा उपभोग परिभोगपरिमाण व्रत कहा है । तीसरा गुणव्रत है अनर्थदण्डविरमण व्रत अनावश्यक पाप पूर्ण प्रवृत्तियों से अपने आपको बचाना । निरर्थक बातें, आत्म-प्रशंसा या निष्प्रयोजन कोई भी काम करना, समय को बर्बाद करके मन में मलिनता आती है, शक्ति का व्यय होता है । शिक्षाव्रत निरर्थक व्यय होने वाली शक्ति और समय को शिक्षाव्रतों के द्वारा आत्म-विकास में लगाया जाता है । जो चार हैं । (१) सामायिक सामायिक, समभाव की उपलब्धि के लिये सामायिक उत्तम उपाय है। जो हर रोज निश्चित समय करके की जाती है। उस समय में पूर्णरूप से समता रखी जाय, सभी प्रकार की दुष्प्रवृत्तियों से अपने आपको दूर रखा जाय । सामायिक में यह ध्यान रखा जाय कि किसी प्रकार के मलिन विचार पैदा न हों, वाणी का दुरुपयोग न हो, कठोर या असत्य भाषण न हो, शरीर से कोई पापकारी प्रवृत्ति न हो । सामायिक प्रसन्न चित्त से और नियत समय तक करना आत्म-साधना में लाभदायक होता है । (२) देशावका शिकव्रत इसमें दिशाओं के भ्रमण में मर्यादा बाँध ली जाती है। इसमें आवागमन ही नहीं अपितु उपभोग - परिभोग के लिए वस्तुओं के उपयोग पर भी मर्यादा करनी होती है। स्वयं मर्यादित क्षेत्र Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ के बाहर न जाना, दूसरों को न भेजना और बाहर से लाई हुई वस्तु का उपभोग नहीं करना और क्रय-विक्रय के ऊपर भी मर्यादा आती है। जीवन में महारम्भ की प्रवृत्तियों को कम कर अल्पारम्भ को अपनाना होता है। जिसमें स्वदेशी व्रत को सहज प्रेरणा मिलती है और खादी ग्रामोद्योग को सहज सहयोग प्राप्त होता है। जो व्यक्तिगत सन्तोष के साथ-साथ दूसरे को रोजी-रोटी प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करता है। अल्पारंभ को संरक्षण मिलता है। (३) पोषध व्रत आत्मा-विकास के साधक के लिए चितन, आत्मनिरीक्षण और अपने ध्येय की जागति के लिए कुछ समय निकालना आवश्यक होता है। जिसमें आठ प्रहर तक श्रमणचर्या अपनाई जाती है। (४) अतिथिसंविभाग व्रत अतिथिसंविभाग में गृहस्थ द्वारा अपने यहां आने वाले सन्त सज्जनों की समुचित व्यवस्था करना, दीन-दुखियों की सहायता करना, कष्ट से पीड़ित या दुखियों के सहानुभूति सहयोग देना आदि है। गृहस्थी पास-पड़ोसी और जरूरतमन्द को मदद करता है, वह उसका सहज कर्तव्य है। इन व्रतों के अतिरिक्त जैन गृहस्थ दान, शील, तप और भावना को अपने जीवन में महत्वस्थान देते आये है। खासकर दान की बडी महिमा गाई गई है। फलस्वरूप दान जैनियों के दैनिक जीवन का अंग ही बन गया है। फिर सभी दानों में अभयदान को श्रेष्ठ माना है और अभयदान की तरह ज्ञानदान, औषधिदान और अन्नदान को समता की साधना में उपयुक्त साधन माना है। ईसाई, मुस्लिम और बौद्धों की तरह अन्य धर्मियों को अपने धर्म में दीक्षित करने वाले धर्मों की तरह जैनधर्म भी धर्मान्तर को मानने वाला धर्म था और उसने कई मारतेतर जातियों को अपने धर्म में दीक्षित किया था। दक्षिण में दो हजार वर्ष पूर्व धर्म-प्रचार किया था उसमें अन्नदान, औषधिदान, ज्ञानदान और अभयदान साधन के रूप में अपनाया था। दान ने जैनियों के दैनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान पा लिया है और आज भी जैनियों के जीवन में सहज रूप से दान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेकों अस्पताल, शिक्षा संस्थायें, पिंजरापोल तथा राहत के काम उनके द्वारा चलते हैं। कई लोगों का अनुमान है कि सेवा कार्यों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार जो दिखाई दे रहा है यह तरीका शायद अठारहसौ साल पहले मलाबार के किनारे से यह बात ईसाइयों ने अपनाई हो। जन शिक्षा का काम जैन गुरुओं ने संभाल रखा था और कुछ वर्ष पूर्व तक शिक्षा के प्रारम्भ में ओ३म् नमः सिद्धाय लिखा जाता था वह जैन संस्कृति का हो चिन्ह था। जैनधर्म में अन्धश्रद्धा को कतई स्थान नहीं था, वह पुरुषार्थ और बुद्धिवाद पर आधारित धर्म था और उसमें अपने भाग्य का विधाता अपने आप को ही मानकर स्वावलम्बन की शिक्षा दी जाती थी और आचार और नीति धर्म को प्राथमिकता दी जाती थी । धर्म जन-जीवन के आचार में उतरे इसलिए उसमें ऊँच-नीच का भेद नहीं था। जो भी इस धर्म का पालन करता वह जिन का अनुयायी बन सकता था । एक तरह से जैनधर्म जनधर्म है और जनधर्म होने से जनता के लिए उपयोगी हो ऐसी ही नोति की विधा उसमें पाई जाती है। वह समता पर आधारित होने से उससे छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच सभी लाभान्वित हो सकें ऐसी व्यापकता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सबके लिए कल्याणकारी है, उसका सर्वोदयी रूप इसीलिए आज के युग में अधिक आकर्षक है। उसमें सभी समस्याओं को Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में आचार 327 सुलझाने की क्षमता है और सबसे बड़ी विशेषता यही है वह व्यक्ति की स्वाधीनता अक्षुण्ण रखता है। किसी को एक विशिष्ट विचार प्रणाली में या धर्म में शामिल होना अनिवार्य नहीं, किसी भी धर्म या साधना मार्ग को अपनाकर आत्म-कल्याण साधा जा सकता है और ऐसे अहंतों की संख्या भी कम नहीं है जो अपने आपको अपनी परम्परा में रखकर समता की साधना कर अहंत बने थे। भगवान महावीर परम अनाग्रही थे। उनकी उद्घोषणा थी कि वे जो कह रहे हैं वह समता धर्म ध्रव है, नित्य है और शाश्वत है। मेरे पहले भी अनेक जिनों ने कहा, आज भी कह रहे हैं और भविष्य में भी कहेंगे / यह धर्म चर्चा का विषय नहीं, निश्चित है, स्पष्ट है और आचरणीय है। इसके पालन के लिए अपने आप पर नियन्त्रण करना होता है, सादगी लानी होती है, तप सहज बन जाता है। जिस आचार का पालन स्वयं से प्रारम्भ करना होता है, दूसरा क्या करता है यह देखने की जरूरत नहीं, फल की आशा नहीं, दूसरों से अपेक्षा नहीं, क्योंकि वह इस निष्ठा पर आधारित है कि शुभ का फल निश्चित ही शुभ ही होने वाला है। जिसके पास कल्पवृक्ष हो वह जितना सन्तुष्ट और तुष्ट रहता है उतना ही इस नीति धर्म का पालन करने वाला। यह निष्ठा कि शुभ का फल शुभ ही मिलने वाला है उसे धीरज बँधाता है। वह यदि फल-प्राप्ति में विलम्ब हो तो भी क्ष भित नहीं होता / जैन परम्परा की नीति विधा सार्वजनिक, सर्वकालीन और जनता की है इसलिए जन-नीति की पोषक है, जनता की है। क्योंकि उसके पीछे अनुभव है और उस अनुभव ने जैनधर्म को आचार धर्म बनाया है, जो स्व-पर-कल्याणकारी है।