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जैन दर्शन में कर्मवाद की महत्ता
साध्वी प्रियदर्शनाश्रीजी, एम. ए.
कम-सिद्धान्त भारतीय दर्शन की एक अनूठी विशेषता है। भारतीय-दर्शन में कर्म और उसके फल के संबंध में बड़ा व्यापक चिन्तन किया गया है। कार्य क्या है ? जीव और कर्म का संबंध कैसे होता है? उसका फल कैसे मिलता है? इत्यादि के संदर्भ में भारतीय ऋषि महिर्षियों ने जितना गहन विचार प्रस्तुत किया है उतना और वैसा पाश्चात्य-दर्शन में नहीं किया गया है। पाश्चात्य विद्वान ए. बी. कीथ ने भी स्वीकार किया हैभारतीयों का कर्म बन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है।
__ “संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह उक्त सिद्धान्त को
जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता।" । भारत भूमि दर्शनों की जन्मदात्री है। यहां की पावन धरती पर अतिप्राचीन काल से ही चिन्तन मनन की, दर्शन की विचार धारा बहती चली आ रही है। अपने दार्शनिक चिन्तन से भारतीय संस्कृति की प्राण प्रतिष्ठा है, गौरव है।
प्रत्येक धर्म दर्शन के कुछ अपने मौलिक सिद्धान्त होते हैं · जो अन्य धर्मों, दर्शनों से न केवल भिन्नता ही रखते हैं बल्कि विशेषता भी। अगर सरसरी दृष्टि से देखा जाय तो विश्व के सभी धर्मों, दर्शनों के मूलभूत सिद्धान्त साम्यता लिए हुए दृष्टिगत होंगे। भले ही उनके विवेचन, विश्लेषण, व्याख्या विषयक दृष्टिकोण में पृथक्ता परिलक्षित होती हो।
दार्शनिक जगत में जैन दर्शन का प्रतिनिधित्व करने वाले अनेक सिद्धान्तों में से कर्मवाद का अपना विशिष्ट सिद्धान्त है। "वाद" शब्द अंग्रेजी भाषा के Ism (इज्म) का समानार्थक है। "वाद" (इज्म) का अर्थ होता है विचारधारा या सिद्धान्त । कर्मवाद अर्थात् कर्मसंबंधी विचारधारा।
तो इस कर्मवाद को बिना समझे भारतीय तत्वज्ञान का विशेष तौर से आत्मवाद का यथार्थ परिज्ञान नहीं हो सकता।
जैनागमों में जिसे "कर्म" की संज्ञा दी गई है, अन्य दर्शनों में उसे विभिन्न नामों से अभिहित किया गया है। नैयायिक और वैशेषिक "कर्म" को "धर्माधर्म", "संस्कार" और अदृष्ट कहते हैं। योगदर्शन भाष्य और सांख्यकारिका में उसे "आशय" और "क्लेश' कहा गया है। मीमांसक उसे "अपूर्व" कहता है। बौद्ध उसे "वासना" कहते हैं। कुरान शरीफ और बाइबल में उसे "शैतान" के रूप में मान्यता मिली है। ये सारे शब्द "कर्म" के समानार्थक शब्द ही हैं। ___ जैन दर्शन का मूल नवतत्व है किन्तु इन नवतत्वों की आधार भी भित्ति कर्मवाद है इसीलिये कर्मवाद को जैन दर्शन का एक अविभाज्य अंग माना गया है। कर्म का जैसा सूक्ष्म विश्लेषण, गहनविवेचन जैन दर्शन के साहित्य में उपलब्ध है उतना और वैसा विश्व के दार्शनिक साहित्य में अन्यत्र दृष्टिगत नहीं होता।
मानव मस्तिष्क में यह जिज्ञासा उद्भूत होना स्वाभाविक ही है कि जीवन में कर्मवाद की क्या आवश्यकता है, क्या उपयोगिता है, आखिर उसे क्यों स्वीकार किया जाय? इसलिए कि, कर्मवाद मानव को आत्म-विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उत्साह और प्रेरणा प्रदान करता है। जीवन की विविध उलझनों को सुलझाता है। जीवन में कर्मवाद की सबसे महती उपयोगिता यही है कि मानव को हताश और निराश होने से बचाता है। वह प्राणी को दीनता, हीनता के गहन गर्त से निकाल कर विकास की चरम सीमा पर पहुंचने के लिए अनवरत प्रेरित करता रहता है। जब यह निरुत्साह हो जाता है, अपने आपको चारों ओर से परिवेष्ठित पाता है, गन्तव्यस्थल का परिबोध लुप्त हो जाता है उस समय उस विह्वल आत्मा को कर्मवाद, शांति,
वी. नि. सं. २५०३
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सहिष्णुता और धीरता प्रदान करता है। वह सान्त्वना दिलाता है कि मानव यह सब तूने स्वयं ने किया है और जो कुछ किया है उसका फल भी तुझे ही भोगना होगा । ऐसा कभी हो नहीं सकता कि कर्म मानव स्वयं करे उसका फल और कोई भोगे। यह बात उत्तराध्ययन में कही गई है।
अप्पाकत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अर्थात् यह आत्मा सुख-दुःख का कर्ता उपभोक्ता स्वयं ही है। कर्मवाद का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा ही है। जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल मिलेगा। न्याय दर्शन की तरह जैन दर्शन कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता है। जैसे गणित की संख्या बताने वाली जड़ मशीन अंक गिनने में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता। उसके लिए ईश्वर को नियन्ता मानने की कतई आवश्यकता नहीं है। कर्म के विपरीत ईश्वर कुछ फल देने में समर्थ थोड़े ही होगा। वैदिक दर्शन की तरह ही जैन दर्शन कर्मफल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। जो कुछ इस आत्मा ने पूर्व में किया है वही आज उसे मिला है। इसी क्रम में आचार्य अमितगति का कथन है कि:
स्वयं वृत्तं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट
स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा तात्पर्य यह है कि कर्मवाद को समझ लेने के बाद जीवन में आने वाले सुख-दुःख के झंझावातों से मानव का मन कंपित नहीं होता। वह बताता है कि हमारी वर्तमान अवस्था जैसी और जो कुछ भी है वह किसी दूसरे के द्वारा थोपी हुई नहीं है बल्कि मानव स्वयं उसका निर्माता है।
मानव जीवन में जो कुछ भी सुख-दुःख अवस्थाएं आती हैं, उनका बनाने वाला कोई अन्य नहीं है स्वयं मानव ही है। अतएव जीवन में जो उत्थान-पतन आता है, उत्कर्ष-अपकर्ष होता है, तथा सुख-दु.ख आता है- उन सबका उत्तरदायित्व उसके जीवन पर ही निर्भर है वह स्वयं ही सुख-दुःख का केन्द्र है, एक दार्शनिक कहता है।
I AM MASTER OF MY FATE
I AM THE CAPTAIN OF MY SOUL. अर्थात् मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हूं। मैं स्वयं अपनी आत्मा का अधिनायक हैं। मैं स्वयं ही अपनी शक्ति के सहारे उठता है और स्वयं ही अपनी शक्ति के ह्रास से गिरता हूं। जो कुछ मैं अपने जीवन में प्राप्त करता हूं वह सब कुछ मेरी अपनी बोई हुई खेती का अच्छा या बुरा फल है। अत: जीवन में उदासीनता, हताशा, निरुत्साहिता, दीनता और हीनता लाने
की आवश्यकता ही नहीं है यही प्रेरणा मानव को कर्मवाद देता है।
पुरुषार्थ मूलक कर्मवाद मानव को उत्साहवर्धक प्रेरणा देता है कि नियतिवाद, भाग्यवाद से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस भाग्य का निर्माण उसके अतीतकाल के पुरुषार्थ से ही तो निर्मित हुआ है।
जैन दर्शन के कर्मवाद में मानव अपने भाग्य की एवं नियति चक्र की कठपुतली मात्र नहीं है। इस आधार पर वह अपने पुरुषार्थ एवं प्रयास से तथा अपनी विवेक शक्ति से अपने भाग्य • को, अपने कर्म को बदल भी सकता है। अपने नियति-चक्र को वह जैसा चाहे पलटने की योग्यता और क्षमता रखता है। आत्मबल के द्वारा कर्मावरण को दूर कर परमात्मस्वरूप प्रकट कर सकता है।
कर्मवाद में दृढ़ विश्वास रखनेवाला व्यक्ति यह भलीभांति समझता है कि सुख-दुःख, हानि-लाभ, यश-अपयश, जीवन-मरण मेरे अपने ही हाथ में हैं। वे किसी के द्वारा दिए गए वरदान या अभिशाप का फल नहीं हैं। अपने शौर्य से, पुरुषार्थ से, सब कुछ अधिगत कर लेता है। न कभी उन्मत्त होता है और न कभी विह्वल होता है, कष्ट में।
कर्मवाद के इस स्वर्ण सिद्धान्त को अगर अपने जीवन में स्थान दें तो जीवन के लिए कितना उपयोगी सिद्ध होता है। हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं, अनुभव करते हैं कि कभी जीवन में सुख के सुहावने बादल छा जाते हैं और कभी दुःख की धनघोर काली घटाएं छा जाती हैं। दुःख आने पर हम विह्वल हो जाते हैं उस समय लगता है कि यह जीवन अनेक संकटों, कष्टों और क्लेशों से व्याप्त है। एक ओर बाह्य प्रतिकूल विवशताएं बेहद परेशान करती हैं मानव को और दूसरी तरफ अन्तर्हृदय में व्याकुलता बढ़ जाती है। ऐसी विषम परिस्थितियों में हम तो क्या ज्ञानी पुरुष भी अपने पथ से भटक जाते हैं। सन्तुलन खो जाता है। निरुत्साह, हतोत्साह हो जाते हैं। अन्य को कोसने लगते हैं जो मात्र बाहरी निमित्त है। मूल उपादान को भूलकर हमारी नजरें बाहर दौड़ने लगती हैं ऐसे प्रसंगों में वस्तुतः कर्मवाद ही हमें शांति प्रदान करता है, हमारे गन्तव्य मार्ग को आलोकित कर सकता है, विपथगामी आत्मा को सत्तथ पर ला सकता है।
कर्मशास्त्र बतलाता है कि सुख-दुःख का मूल कारण मेरा अपना पूर्वकृत कर्म ही है। यह एक शाश्वत सिद्धान्त है कि जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा। वृक्ष का मूल कारण जैसे बीज है वैसे मानव के भौतिक जीवन का कारण कर्म ही है। रामचरितमानस में भी कहा गया है
कर्म प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस करहिं सो तस फल चाखा। सुख-दुःख के इस कार्यकारण भाव को समझा कर कर्म-शास्त्र मनुष्य को आकुलता-व्याकुलता, समता-विषमता की गहन
राजेन्द्र-ज्योति
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________________ कन्धराओं से निकालकर जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए उत्प्रेरित करता है, प्रोत्साहित करता है। इस प्रकार कर्मवाद आत्मा को निराशा से बचाता है। जैन दर्शन प्ररूपित कर्मवाद जीवन के अनेक रहस्यों को उद्घाटित कर हमारे सम्मुख प्रकट कर देता है। इसके अतिरिक्त दुःखकष्ट सहने की क्षमता प्रदान करता है। संकटाकीर्ण समय में भी ध्रुव की भांति स्थिर रहने का दिव्य संदेश देता है / जीवन में शांति, समता, उदारता, सहिष्णता आदि सद्गुणों को अभिव्यक्त करने में कर्मवाद बहत सहायक सिद्ध होता है। कर्मवाद को समझ लेने पर उतार-चढ़ाव की सम-विषम परिस्थितियां विचलित नहीं कर सकती हैं। सुख आता है तो भी स्वागत है और कष्ट आता है तो उसका भी स्वागत है। कर्मवाद में अटल आस्था, विश्वास रखने वाला व्यक्ति यह सोचता है कि जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता निर्मित करने वाला मैं स्वयं ही हूं, फलस्वरूप उसका फल भी मुझे ही भुगतना है। ऐसी भावना, ऐसी दृष्टि मानव जीवन को स्वर्गमय, सन्तोषमय और आनन्दमय बना देती है। कर्मवाद का जीवन में यही उपयोग है, यही महत्ता है, यही गरिमा है और यही अपूर्व देन है। इस तरह कर्मवाद का भारतीय दर्शन में, विशेष तौर से जैन दर्शन में विशिष्ट स्थान है, उसमें भी जैन दर्शन के कर्मवाद का तो अपना एक अलग ही महत्व है जो विश्व इतिहास की अद्वितीय देन है। इस कर्मशास्त्र ने मानव को सम-विषम परिस्थिति में सूर्य के प्रकाश की भांति ही नहीं बल्कि मेरु की तरह अचल, अकम्पित रहने की प्रेरणा दी है। कर्मवाद की गरिमा के गीत तो पाश्चात्य दार्शनिक मेक्समूलर ने भी गाए हैं "यह तो निश्चित है कि कर्ममत का असर मनुष्य जीवन पर बेहद हुआ है। यदि किसी मनुष्य को यह मालूम पड़े कि वर्तमान अपराध के सिवाय भी मुझको जो कुछ भोगना पड़ता है, वह मेरे पूर्व जन्म के कर्म का ही फल है, तो वह पुराने कर्ज को चुकाने वाले मनुष्य की तरह शान्त भाव से उस कष्ट को सहन कर लेगा और वह मनुष्य इतना भी जानता है कि सहनशीलता से पुराना कर्ज चुकाया जा सकता है तथा उसी से भविष्य के लिए नीति की समृद्धि इकट्ठी की जा सकती है तो उसको भलाई के रास्ते पर चलने की प्रेरणा आप ही आप होगी। अच्छा या बुरा कोई भी कर्म नष्ट नहीं होता; यह तो नीति शास्त्र का मत और पदार्थ शास्त्र का बल-संरक्षण संबंधी मत समान ही है। दोनों मतों का आशय इतना ही है कि किसी का नाश नहीं होता। किसी भी नीति शिक्षा के अस्तित्व के सम्बन्ध में कितनी ही शंका क्यों न हो पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि कर्ममत सबसे अधिक जगह माना गया है। उससे लाखों मनुष्यों के कष्ट कम हुए हैं और उसी मत से मनुष्यों को वर्तमान संकट झेलने की शक्ति पैदा करने तथा भविष्य जीवन को सुधारने में उत्तेजन मिला इससे साफ जाहिर है कि भारतीय दर्शन का कर्मवाद का सिद्धान्त अपने आप में अबाध्य, अकाट्य और बेजोड़ है। आधुनिक युग के इस विज्ञान और विनाशकाल में भी यह सिद्धान्त मानव जीवन को सुख, सन्तोष, समता और सहिष्णुता की सुरभि से सुवासित कर सकता है; निराशा के अन्धकार में भी प्रकाश की किरणें बिखेर सकता है। जन-जीवन के लिए प्रकाश स्तम्भ का कार्य कर सकता है। यही कर्मवाद की जीवन में सबसे बड़ी उपयोगिता है। परिग्रह-संचय शान्ति का शत्रु है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्राम-स्थल है, बुरे विचारों का क्रीडोद्यान है, घबराहट का खजाना है, प्रमत्तता का मन्त्री है और लड़ाई-दंगों का निकेतन है, अनेक पाप कर्मों का कोष है और विपत्तियों का विशाल स्थान है, अत: जो इसे छोड़कर सन्तोष धारण कर लेता है, वह संसार में सर्वत्र-सदैव सुखी रहता है। -राजेन्द्र मूरि वी. नि. सं. 2503