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जैन-दर्शन : आस्तिक-दर्शन
मनुष्य जब साम्प्रदायिकता के रंग में रंग कर अपने मत का समर्थन और दूसरे मतों का खण्डन करने लगता है, तब वह कभी-कभी बहुत भयंकर रूप धारण कर लेता है। किसी विषय में मतभेद होना उतना बुरा नहीं है, जितना कि मतभेद में घृणा का जहर भर जाना। भारतवर्ष में यह साम्प्रदायिक मतभेद इतना उग्र, कटु एवं विषाक्त हो गया है कि आज हमारी अखण्ड राष्ट्रीयता भी इसके कारण छिन्न-भिन्न हो रही है।
हिन्दू, मुसलमानों को म्लेच्छ कहते हैं और मुसलमान, हिन्दुओं को काफिर कहते हैं। इसी प्रकार कुछ महानुभाव जैन-धर्म को भी नास्तिक कहते हैं। मतलब यह कि जिसके मन में जो आता है, वही आँख बन्द करके अपने विरोधी सम्प्रदाय को कह डालता है। इस बात का जरा भी विचार नहीं किया जाता कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह कहाँ तक सत्य है ? इसका क्या परिणाम निकलेगा? किसी पर मिथ्या दोषारोपण करना तथा किसी के प्रति घृणा का वातावरण फैलाना अनुचित ही नहीं, बल्कि एक नैतिक अपराध भी है। क्या जैन-धर्म नास्तिक है?
जैन-धर्म पूर्णत: पास्तिक-धर्म है। उसे नास्तिक-धर्म कहना, सर्वथा असंगत है। न तो यह कथन तर्क-संगत है और न सत्य है। पूर्णतः कपोल-कल्पित है।
भारत के कुछ लोग जैन-धर्म को नास्तिक क्यों कहने लगे. इसके पीछे एक लम्बा इतिहास है। ब्राह्मण धर्म में जब यज्ञ-याग आदि का प्रचार हुआ और धर्म के नाम पर दीन-हीन मूक पशुओं की हिंसा प्रारम्भ हुई, तब भगवान् महावीर ने इस अंध-विश्वास और यज्ञीय हिंसा का जोरदार विरोध किया। यज्ञ-याग आदि के समर्थन में आधार-भूत ग्रन्थ वेद थे, अतः हिंसा का समर्थन करनेवाले वेदों को भी अप्रामाणिक सिद्ध किया गया। इस पर कुछ मताग्रही ब्राह्मणों में बड़ा क्षोभ फैला। वे मन-ही-मन झुझला उठे। जैन-धर्म की अकाट्य तर्कों का तो कोई उत्तर दिया नहीं गया, उलटे यह कह कर शोर मचाया जाने लगा कि जो वेदों को नहीं मानते हैं, जो वेदों की निन्दा करते हैं, वे नास्तिक है-'नास्तिको वेद-निन्दकः।' तब से लेकर आज तक जैन-धर्म पर यही आक्षेप लगाया जा रहा है। तर्क का उत्तर तर्क से न देकर गाली-गलौज करना, तो स्पष्ट ही दुराग्रह और साम्प्रदायिक अभिनिवेश है। कोई भी तटस्थ प्रबुद्ध विचारक कह सकता है, यह सत्य के निर्णय करने की कसौटी कदापि नहीं है।
वैदिक-धर्मावलम्बी जैन-धर्म को वेद-निन्दक होने के कारण यदि नास्तिक कह सकते हैं, तो फिर जैन भी वैदिक-धर्म को जैन-निन्दक होने के कारण नास्तिक कह सकते हैं--'नास्तिको जैन-निन्दकः । परन्तु यह कोई अच्छा मार्ग नहीं है । यह कौन-सा तर्क है कि ब्राह्मण-धर्म के ग्रन्थों को न माननेवाला नास्तिक कहलाए और जैन-धर्म के ग्रन्थों को न मानने वाला नास्तिक न कहलाए? सच तो यह है कि कोई भी धर्म अपने से विरुद्ध किसी अन्य धर्म के ग्रन्थों को न मानने मात्र से नास्तिक नहीं कहला सकता। यदि ऐसा है, तो फिर विश्व के सभी धर्म नास्तिक हो जाएँगे, क्योंकि यह प्रत्यक्ष सिद्ध है कि सभी धर्म क्रिया-काण्ड आदि के रूप में कहीं न कहीं एक-दूसरे के परस्पर विरोधी हैं। दुःख है, आज के प्रगतिशील-युग में भी इन थोथी दलीलों
जैन-दर्शनः प्रास्तिक-दर्शन
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से काम लिया जा रहा है और व्यर्थ ही सत्य की हत्या करके एक-दूसरे को नास्तिक कहा जा
वेदों का विरोध क्यों? ___जैन-धर्म को वेदों से कोई द्वेष नहीं है। वह किसी प्रकार की द्वेष बुद्धिवश वेदों का विरोध नहीं करता है। जैन-धर्म जैसा समभाव का पक्षपाती धर्म भला क्यों किसी की निन्दा करेगा? वह तो विरोधी से विरोधी के सत्य को भी मस्तक झुका कर स्वीकार करने के लिए तैयार है। आप कहेंगे, फिर वेदों का विरोध क्यों किया जाता है ? वेदों का विरोध इसीलिए किया जाता है कि वेदों में अजमेध, अश्वमेध आदि हिंसामय यज्ञों का विधान है और जैन-धर्म हिंसा का स्पष्ट विरोधी है। अत: जैन-धर्म, धर्म के नाम पर किए जानेवाले निरीह पशुओं का वध तो तलवारों की छाया के नीचे भी सहन नहीं कर सकता। क्या जैन परमात्मा को नहीं मानते ?
जैन-धर्म को नास्तिक कहने के लिए आजकल एक और कारण बताया जाता है। वह कारण बिल्कुल ही बेसिर-पैर का है, निराधार है। लोग कहते हैं कि 'जैन-धर्म परमात्मा को नहीं मानता, इसलिए नास्तिक है।'
लेकिन प्रश्न यह है कि यह कैसे पता चला कि जैन-धर्म परमात्मा को नहीं मानता? परमात्मा के सम्बन्ध में जन-धर्म की अपनी एक निश्चित मान्यता है । वह यह कि जो प्रात्मा राग-द्वेष से सर्वथा रहित हो, जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त हो, केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर चुकी हो, न शरीर हो, न इन्द्रियाँ हों, न कर्म हो, न कर्मफल हो--वह अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त प्रात्मा ही परमात्मा है। जैन-धर्म इस प्रकार के वीतराग-प्रात्मा को परमात्मा मानता है। वह प्रत्येक प्रात्मा में इसी परम-प्रकाश को छुपा हुआ देखता है। कहता है कि हर कोई साधक वीतराग-भाव की उपासना के द्वारा परमात्मा का पद पा सकता है। इस स्पष्टीकरण के बाद भी यह सोचा जा सकता है कि जैन-धर्म परमात्मा को कैसे नहीं मानता है ?
वैदिक-धर्मावलम्बी विचारक कहते हैं कि 'परमात्मा का जैसा स्वरूप हम मानते हैं, वैसा जैन-धर्म नहीं मानता, इसलिए नास्तिक है।' यह तर्क नहीं, मताग्रह है। जिन्हें वे आस्तिक कहते हैं, वे लोग भी परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में कहाँ एकमत हैं ? मुसलमान खुदा का स्वरूप कुछ और ही बताते हैं, ईसाई कुछ और ही। वैदिक-धर्म में भी सनातन-धर्म का ईश्वर और है, प्राय-समाज का ईश्वर और है। सनातन-धमका ईश्वर अवतार धारण कर सकता है, परन्तु प्रार्थ-समाज का ईश्वर अवतार धारण नहीं कर सकता। अब कहिए कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक ? सिर्फ परमात्मा को मानने भर से ही कोई आस्तिक है, तो जैन-धर्म भी अपनी परिभाषा के अनुसार परमात्मा को मानता है, अत: वह भी आस्तिक है, परम आस्तिक है।
कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि जैन लोग परमात्मा को जगत् का कर्ता नहीं मानते, इसलिए नास्तिक है। यह तर्क भी ऊपर के तर्क के समान व्यर्थ है। जब परमात्मा वीतराग है, रागद्वेष से रहित है, तब वह जगत का क्यों निर्माण करेगा? और फिर उस जगत् का, जो प्राधिव्याधि के भयंकर दुःखों से संत्रस्त है, तथा अनेक हास्यास्पद विसंगतियों से ग्रस्त है। इस प्रकार जगत की रचना में वीतराग-भाव कैसे सरक्षित रह सकता है? और बिना शरीर के, निर्माण होगा भी कैसे ? अस्तु, परमात्मा के द्वारा जगत्-कर्तृत्व कथमपि सिद्ध नहीं होता। - किसी वस्तु का अस्तित्व होने पर ही तो उसे माना जाए ! मनुष्य के पंख नहीं है। कल यदि कोई यह कहे कि मनुष्य के पंख होना मानो, नहीं तो तुमे नास्तिक हो, तब तो अच्छा तमाशा शुरू हो जाएगा! यह भी एक अच्छी बला है। इस प्रकार से तो सत्य का गला ही घोंट दिया जाएगा।
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पन्ना समिक्खए धम्म
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________________ नास्तिक कौन? वैदिक-सम्प्रदाय में मीमांसा, सांख्य और वैशेषिक आदि दर्शन कट्टर निराश्वरवादी दर्शन है। जगत-कर्ता तो दूर की बात रही, ये तो ईश्वर का अस्तित्व तक ही स्वीकार नहीं करते / फिर भी वे आस्तिक है। और. जैन-धर्म अपनी परिभाषा के अनसार परमात्मा को मानता हुआ भी नास्तिक है। यह सिर्फ स्व-मत के प्रति मिथ्या राग और पर-धर्म के प्रति मिथ्या द्वेष नहीं, तो और क्या है ? आज के बुद्धिवादी-युग में ऐसी बातों का कोई महत्त्व नहीं। _ शब्दों के वास्तविक अर्थ का निर्णय व्याकरण से होता है। शब्दों के सम्बन्ध में व्याकरण ही विद्वानों को मान्य होता है, अपनी मनःकल्पना नहीं / आस्तिक और नास्तिक शब्द संस्कृतभाषा के शब्द है। अतः इन शब्दों को प्रसिद्ध संस्कृत व्याकरण के आधार पर विवेचित करके, इसका यथार्थ अर्थ स्पष्ट कर लेना परमावश्यक है। यह व्याकरण भी वैदिक-संप्रदाय काही है। महर्षि पाणिनि के द्वारा रचित व्याकरण के अष्टाध्यायी नामक ग्रंथ के चौथे अध्याय के चौथे पाद का साठवाँ सूत्र है-'आस्ति नास्ति दिष्टं मतिः' 41460 महान् व्याकरणाचार्य भट्टोजी दीक्षित ने अपनी सिद्धान्त-कौमुदी में इसका अर्थ किया __ "अस्ति परलोकः इत्येवं मतिर्यस्य स प्रास्तिकः, नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिकः।" ___ हिन्दी अर्थ यह है---"जो परलोक को मानता है, वह पास्तिक है। और, जो परलोक को नहीं मानता है, वह नास्तिक है।" कोई भी विचारक यह सोच सकता है कि व्याकरण क्या कहता है और हमारे ये कुछ पड़ोसी मित्र क्या कहते हैं ? जन-दर्शन आत्मा को मानता है, परमात्मा को मानता है, प्रात्मा की अनन्त शक्तियों में विश्वास करता है। प्रात्मा को परमात्मा बनने का अधिकार देता है। वह परलोक को मानता है, पुनर्जन्म को मानता है, पाप-पुण्य को मानता है, बंध और मोक्ष को मानता है। फिर भी उसे नास्तिक कहने का कौन-सा आधार शेष रह जाता है? जिस धर्म में कदम-कदम पर अहिंसा और करुणा की गंगा बह रही हो, जिस धर्म में सत्य-सदाचार के लिए सर्वस्व का त्याग कर कठोर साधना का मार्ग अपनाया जा रहा हो, जिस धर्म में परम वीतराग भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों की विश्व कल्याणमयी वाणी का अमर स्वर गूंज रहा हो, वह धर्म नास्तिक कदापि नहीं हो सकता। यदि इतने पर भी जैन-धर्म को नास्तिक कहा जा सकता है, तब तो संसार में एक भी धर्म ऐसा नहीं है, जो आस्तिक कहलाने का दावा कर सके। जैन-दर्शन आस्तिक-दर्शन Jain Education Interational