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0 डा. पुष्पलता जैन
प्राध्यापिका एस. एफ. एस. कालेज, नागपुर
जैन भूगोल का व्यावहारिक पक्ष
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समग्र भारतीय वाङमय की ओर दृष्टिपात जहाँ तक भौगोलिक मान्यता का प्रश्न है, यह करने से यह निष्कर्ष निकालना अनैतिहासिक नहीं विषय भी कम विवादास्पद नहीं। तीनों संस्कृतियों होगा कि उसका प्रारम्भिक रूप श्रुति परम्परा के के भौगोलिक सिद्धान्तों का उत्स एक ही रहा होगा माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी गुजरता हुआ उस समय जिसे लगता है, कुछ परिवर्तन के साथ सभी ने अपने संकलित होकर सामने आया जबकि उसके आधार ढंग से विकसित कर लिया। इस संदर्भ में जब हम पर काफी साहित्य निर्मित हो चुका था। यह तथ्य भारतीय भौगोलिक ज्ञान के ऊपर दृष्टिपात करते वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों संस्कृतियों के प्राचीन हैं तब हम उसके विकासात्मक स्वरूप को आठ पन्नों के उलटने से उद्घाटित होता है । ऐसी स्थिति प्रमुख युगों में विभाजित कर सकते हैंमें प्राचीन सूत्रों में अपनी आवश्यकता, परिस्थिति १. सिन्ध-सभ्यता काल (आदिकाल से लेकर
और सुविधा के अनुसार परिवर्तन और परिवर्धन १५० होता ही रहा है । वेद, प्राकृत और जैन आगम तथा पालि त्रिपिटक साहित्य का विकास इस तथ्य
२. वैदिक काल (१००० ई० पू० तक) का निदर्शन है।
३. संहिता काल (१५०० ई० पू० तक) ____इसी प्रकार यह तथ्य भी हमसे छिपा नहीं है ४. उपनिषद् काल (१५०० ई० पू० से ६०० ई० कि तीनों संस्कृतियों ने अपने साहित्य में तत्कालीन पू० तक) प्रचलित लोककथाओं और लोकगाथाओं का अपने- ५. रामायण-महाभारत काल (१६०० ई० पू० अपने ढंग से उपयोग किया है। यही कारण है कि से ६०० ई० पू० तक) | लोककथा साहित्य की शताधिक कथाएँ कुछ हेर- ६. बौद्ध काल (६०० ई० पू० से २०० ईसवी फेर के साथ तीनों संस्कृतियों के साहित्य में प्रयुक्त तक)
७. नया पौराणिक काल (२०० ने ८०० इन कथा सूत्रों के मूल उत्स को खोजना सरल हो नहीं है । किस सूत्र को किसने कहाँ से लेकर आत्मसात् किया है इसे निर्विवाद रूप से हल नहीं किया ८. मध्यकाल (८०० ई० से लगभग १७वीं शताजा सकता। इसलिये यह मानकर चलना अधिक ब्दा तक) उचित होगा कि इस प्रकार के कथासूत्र लोककथाओं भारतीय भौगोलिक ज्ञान का यह काल विभार के अंग रहे होंगे जिनका उपयोग सभी धर्माचार्यों ने जन एक सामान्य दृष्टि से किया गया है । इन
अपने धार्मिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन की पृष्ठभूमि कालों में मूल भौगोलिक परम्परा का विकास सुमें किया है।
निश्चित रूप से हुआ है।
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पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 60d6. साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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भूगोल (Geography) यूनानी भाषा के दो पदों निचला पर्त, जिसमें ऋतु, जलवायु की विभिन्नताएँ Ge तथा grapho से मिलकर मिला है। ge का होती हैं। अर्थ पृथ्वी और Grapho का अर्थ वर्णन करना है। (४) पृथ्वी के सौर सम्बन्ध । इस प्रकार Geography की परिधि में पृथ्वी का
पृथ्वी को केन्द्र में रखकर जर्मनी, फ्रांस, अमेवर्णन किया जाता है।
रिका, सोवियत संघ आदि देशों में काफी शोध हए भूगोल जिसे हम साधारणतः पौराणिकता के हैं और हो रहे हैं। वहां के विद्वानों की भौगोलिक ||5 साथ जोड़ते चले आये हैं, आज हमारे सामने एक विचारधाराओं को हम एक-दूसरे की परिपूरकता प्रगतिशील विज्ञान के रूप में खड़ा हो गया है। के सन्दर्भ में समझ सकते हैं। उनके अध्ययन में दो उसका उद्देश्य और अध्ययन काफी विस्तृत होता पक्ष उभरकर सामने आते हैंचला जा रहा है । उद्देश्य के रूप में उसने मानव
१. वातावरण और परिस्थिति विज्ञान की उन्नति और कल्याण के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण
२. प्रादेशिक विभिन्नताएँ और मानवीय प्रगति योगदान दिया है इसलिये आज वह अन्तर्वैज्ञानिक
' तथा कल्याण में असमानतायें और असन्तुलन । (Interdisciplinary) विषय बन गया है।
इस सन्दर्भ में जब हम प्राचीन भूगोल और 12 जैसे-जैसे भूगोल के अध्ययन का विकास होता गया विद्वानों ने उसे परिभाषाओं में बाँधने का
__ अर्वाचीन भूगोल की समीक्षा करते हैं तो हम इस MMS प्रयत्न किया है । ऐसे विद्वानों में एकरमेन, ल्यूकर
निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राचीन भूगोल कतिपय मेन, यीट्स, रिट्टर, हेटलर आदि विद्वान प्रमुख हैं
लोकाख्यानों पर आधारित रहा है और आधुनिक 18 जिनकी परिभाषाओं के आधार पर भूगोल की
भूगोल वैज्ञानिक तथ्यों पर अवलम्बित है जहाँ मान | निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत की जाती है-'भूगोल
- वीय साधनों की क्षमता और योग्यता पर अधिक
" बल दिया जाता है । प्राचीन भगोल आर्थिक प्रगति वह विज्ञान है जो पृथ्वी का अध्ययन तथा वर्णन
। से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रखता, जबकि आधु-4 मानवीय संसार या मानवीय निवास के रूप में (१) क्षेत्रों या स्थानों की विशेषताओं (२) क्षेत्रीय
निक भूगोल का तो यह केन्द्रीय तत्व ही है इसलिये एक विविधताओं तथा (३) स्थानीय सम्बन्धों की पृष्ठ
__ आधुनिक भूगोल को व्यावहारिक भूगोल(Applied Hg भमि में करता है । इस प्रकार भूगोल पृथ्वी पर
Geography) कहा जाने लगा है । इसमें मुख्य रूप ||G वितरणों का विज्ञान (Science of distribution on
से-१. समूह व्यवहार-(Group behaviour) Earth) है।
तथा व्यावहारिक क्षेत्र में मानसिक समायोजन
जैसे तत्वों पर विशेष विचार किया जाता है। इस परिभाषा के आधार पर यह कहा जा र सकता है, भूगोल की अध्ययन सीमा में पृथ्वीतल
प्रारम्भ से ही भूगोल का उद्देश्य और उपयोग का अध्ययन प्रमुख है। इस कथ्य में चार तथ्य
व्यक्ति और समाज का हित-साधन रहा है। चाहे वह सम्मिलित है
आध्यात्मिक रहा हो या लौकिक । आधुनिक व्याव-५
हारिक भूगोल में आध्यात्मिक दृष्टि का कोई विशेष (१) पृथ्वीतल पर समस्त थल खण्डों और महा
सम्बन्ध नहीं है। इसलिए व्यावहारिक भूगोल | सागरों के तल ।
की परिभाषा साधारण तौर पर इस प्रकार की (२) पृथ्वीतल से थोड़ी गहराई तक का सीधा जाती है- "समाज की आवश्यकताओं की पूर्तियों ने प्रभावकारी पर्त ।
के लिए भौगोलिक वातावरण के समस्त संसाधनों (३) वायुमण्डल, विशेषतः वायुमण्डल का को विवेकपूर्वक करने के लिए भौगोलिक आचार
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________________ विचार ज्ञान पद्धतियों एवं तकनीकों का व्यावहारिक जम्बूद्वीप तीनों संस्कृतियों में स्वीकार किया H उपयोग ही व्यावहारिक भूगोल है।" गया है। भले ही उसकी सीमा के विषय में विवाद 12 इस परिभाषा से यह स्पष्ट है कि व्यावहारिक रहा है / जैन संस्कृति में तो इसका वर्णन कितने / भूगोल का उपयोग समाज के हित के लिए किया अधिक विस्तार से मिलता है जितना जैनेतर * 1 जाता है और इसीलिए इसके अध्ययन की परिधि साहित्य में नहीं मिलता। पर्वत, गुफा, नदी, वृक्ष, 720 में मानव, स्थान तथा संसाधन का अध्ययन आता अरण्य, देश, नगर आदि का वर्णन पाठक को हैरान है। इसे हम निम्नलिखित वर्गीकरण के माध्यम से / कर देता है। इसका प्रथम वर्णन ठाणांग और समसमझ सकते हैं __ वायांग में मिलता है। इन दोनों ग्रन्थों के आधार | 1. भौतिक अध्ययन-भ-आकृति, जलवाय. पर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति और चन्द्र प्रज्ञप्ति समुद्री विज्ञान आदि इसके अन्तर्गत आता है। की रचना हुई है। इन सभी ग्रन्थों को हम लगभग 2. आर्थिक अध्ययन-इसमें कृषि, औद्योगिक, ५वीं शताब्दी की रचना कह सकते हैं। आचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति भी इसी समय के व्यापार, यातायात, पर्यटन आता है। आसपास की रचना होनी चाहिए। श्री पं० फूल३. सामाजिक, सांस्कृतिक अध्ययन-इसमें चन्द सिद्धान्तशास्त्री इस रचना को वि. सं. 873 जनसंख्या, अधिवास, बस्ती, नगरीय, राजनीतिक, के बाद की रचना मानते हैं. जबकि श्री पं० जगलप्रादेशिक, सैनिक आदि का अध्ययन होता है। किशोर मुख्तार उसे ईसवी सन् के आसपास रखने 4. अन्य शाखाएँ-जीव (वनस्पति), चिकित्सा, का प्रयत्न करते हैं। मौन चित्रकला आदि का अध्ययन होता है। जम्बूद्वीप जैन संस्कृति में समस्त पृथ्वी अर्थात् जैन भूगोल यद्यपि पौराणिकता को लिए हुए मध्यलोक का नामांतरण है जिसे सात क्षेत्रों में है, फिर भी उसका यदि हम वर्गीकरण करें तो हम विभक्त किया गया है। इसके सारे सन्दर्भो को व्यावहारिक भूगोल के उपयुक्त अध्ययन प्रकरणों रखने की यहाँ आवश्यकता नहीं है, पर इतना ) से सम्बद्ध सामग्री को आसानी से खोज सकते हैं। अवश्य है कि पर्वत, नदी, नगर, आदि की जो इस दृष्टि से यह एक स्वतन्त्र शोध प्रबन्ध का स्थितियाँ करणानुयोग में वर्णित हैं उन्हें आधुनिक विषय है। भूगोल के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयत्न किया | जैसा हमने पहले कहा है जैन भूगोल प्रश्न- जाए / उदाहरण के तौर पर जम्बूद्वीप को यूरेशिया कट चिन्हों से दब गया है। आधुनिक भूगोल से वह खण्ड से यदि पहचाना जाए तो शायद उसकी | निश्चित ही समग्र रूप से मेल नहीं खाता, इसका अवस्थिति किसी सीमा तक स्वीकार की जा सकती ) तात्पर्य यह नहीं कि जैन भूगोल का समूचा विषय है। इसी तरह सुमेरु को पामेर की पर्वत श्रेणियों - अध्ययन और उपयोगिता के बाहर है / इस परि- के साथ किसी सीमा तक रखा जा सकता है। स्थिति में हमारा अध्ययन वस्तुपरकता की मांग / हिमवान को हिमालय, निषध को हिन्दुकुश, नील करता है। आगमिक श्रद्धा को वैज्ञानिक अन्वेषणों को अलाई नाम, शिखरी को सायान से मिलाया 10) के साथ यदि हम पूरी तरह से न जोड़ें और तब जा सकता है / रम्यक की मध्य एशिया या दक्षिणी तक रुक जाएँ, जब तक उन्हें वैज्ञानिक स्वीकार न पश्चिमी की सीक्यांग से, हैरण्यवत् की उत्तरी ) कर लें तो हम उन्मुक्त मन से दोनों पहलुओं को सीक्यांग से, उत्तरकुरु की रूस तथा साइबेरिया से 10 और उनके आयामों को अपने परिधि के भीतर रख सकते हैं। (शेष पृष्ठ 382 पर) 377 पंचम खण्ड : जन साहित्य और इतिहास 3 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jar a tion Internations Pivate & Personal Use Only www.jainelsary.org