Book Title: Jain Achar me Utsarg marg aur Apavad Marg
Author(s): 
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आचार में उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद-मार्ग उत्सर्ग और अपवाद स्थविरकल्प में यह अनिवार्य हो गया कि जितना “प्रतिषेध" का पालन जैन आचार्यों ने आचार सम्बन्धी जो विभिन्न विधि-निषेध प्रस्तुत आवश्यक है, उतना ही आवश्यक "अनुज्ञा" का आचरण भी है। किये हैं वे निरपेक्ष नहीं हैं। देश-काल और व्यक्ति के आधार पर उनमें बल्कि परस्थितिविशेष में "अनुज्ञा" के अनुसार आचण नहीं करने परिवर्तन सम्भव हो सकता है। आचार के जिन नियमों का विधि-निषेध पर प्रायश्चित्त का भी विधान करना पड़ा है। जिस प्रकार प्रतिषेध का जिस सामान्य स्थिति को ध्यान में रखकर किया गया है उसमें वे आचार भंग करने पर प्रायश्चित्त है उसी प्रकार अपवाद का आचरण नहीं करने के विधि-निषेध यथावत् रूप में पालनीय माने गये हैं, किन्तु देश-काल, पर भी प्रायश्चित्त है अर्थात् “प्रतिषेध" और "अनुज्ञा' उत्सर्ग और परिस्थिति अथवा वैयक्तिक परिस्थितियों की भिन्नता में उनमें परिवर्तन अपवाद दोनों ही समबल माने गये हैं। दोनों में ही विशुद्धि है। किन्तु भी स्वीकार किया गया है। व्यक्ति और देश-कालगत सामान्य यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्सर्ग राजमार्ग है, जिसका अवलम्बन परिस्थितियों में जिन नियमों का पालन किया जाता है वे उत्सर्ग-मार्ग साधक के लिए सहज है, किन्तु अपवाद, यद्यपि आचरण में सरल कहे जाते हैं किन्तु जब देशकालगत और वैयक्तिक विशेष परिस्थितियों है, तथापि सहज नहीं है।" में उन सामान्य विधि-निषेधों को शिथिल कर दिया जाता है तो उसे वस्तुत: जीवन में नियमों-उपनियमों की जो सर्व सामान्य विधि अपवाद-मार्ग कहा जाता है। वस्तुत: आचार के सामान्य नियम उत्सर्ग- होती है वह उत्सर्ग और जो विशेष विधि है वह अपवाद-विधि है। मार्ग कहे जाते हैं और विशिष्ट नियम अपवाद-मार्ग कहे जाते हैं। उत्सर्ग सामान्य अवस्था में आचरणीय होता है और अपवाद विशेष दोनों की व्यावहारिकता परिस्थिति-सापेक्ष होती है। जैन आचार्यों की संकटकालीन अवस्था में। यद्यपि दोनों का उद्देश्य एक ही होता है मान्यता रही है कि सामान्य परिस्थितियों में उत्सर्ग-मार्ग का अवलम्बन कि साधक का संयम सुरक्षित रहे। समर्थ साधक के द्वारा संयम-रक्षा किया जाना चाहिए किन्तु देशकाल, परिस्थिति अथवा व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है वह उत्सर्ग है और असमर्थ साधक एवं क्षमता में किसी विशेष परिवर्तन के आ जाने पर अपवाद-मार्ग के द्वारा संयम की रक्षा के लिए ही उत्सर्ग से विपरीत जो अनुष्ठान का अवलम्बन किया जा सकता है। यहाँ इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप किया जाता है वह अपवाद है। अनेक परिस्थितियों में यह स्थिति से समझ लेना चाहिए कि अपवाद-मार्ग का सम्बन्ध केवल आचरण उत्पन्न हो जाती है कि व्यक्ति उत्सर्ग-मार्ग के प्रतिपालन के द्वारा संयम सम्बन्धी बाह्य विधि-निषेधों से होता है और आपवादिक परिस्थिति और ज्ञानादि गुणों की सुरक्षा नहीं कर पाता तब उसे अपवाद-मार्ग में किये गये सामान्य नियम के खण्डन से न तो उस नियम का मूल्य का ही सहारा लेना होता है। यद्यपि उत्सर्ग और अपवाद परस्पर विरोधी कम होता है और न सामान्य रूप से उसके आचरणीय होने पर कोई प्रतीत होते हैं किन्तु लक्ष्य की दृष्टि से विचार करने पर उनमें वस्तुतः प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक आचार के आन्तरिक पक्ष का प्रश्न है, विरोध नहीं होता है। दोनों ही साधना की सिद्धि के लिए होते है, जैनाचार्यों ने उसे सदैव निरपेक्ष या उत्सर्ग के रूप में स्वीकार किया उसकी सामान्यता एवं सार्वभौमिकता खण्डित होती है। उत्सर्गमार्ग को है। हिंसा का विचार या हिंसा की भावना किसी भी परिस्थिति में नैतिक सार्वभौम कहने का तात्पर्य भी यह नहीं है कि अपवाद का कोई स्थान या आचरणीय नहीं मानी जाती। जिस सम्बन्ध में अपवाद की चर्चा नहीं है। उसे सार्वभौम कहने का तात्पर्य इतना ही है कि सामान्य की जाती है वह अहिंसा के बाह्य विधि-निषेधों से सम्बन्धित होता परिस्थितियों में उसका ही आचरण किया जाना चाहिए। उत्सर्ग और है। मान लीजिए कि हम किसी निरपराध प्राणी का जीवन बचाने के अपवाद दोनों की आचरणीयता परिस्थिति-सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। लिए अथवा किसी स्त्री का शील सुरक्षित रखने के लिए हिंसा अथवा यह उस परिस्थिति पर निर्भर होता है कि व्यक्ति उसमें उत्सर्ग का असत्य का सहारा लेते हैं तो इससे अहिंसा या सत्यसम्भाषण का अवलम्बन ले या अपवाद का। कोई भी आचार, परिस्थिति निरपेक्ष सामान्य नैतिक आदर्श समाप्त नहीं हो जाता। अपवाद-मार्ग न तो नहीं हो सकता। अत: आचार के नियमों के परिपालन में परिस्थिति कभी मौलिक एवं सार्वभौमिक नियम बनता है और न अपवाद आचरण के विचार को सम्मिलित किया गया है। फलत: अपवाद-मार्ग की का कारण माना जाता है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद- आवश्यकता स्वीकार की गई है। मार्ग पर चलने पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। जैन-संघ में अपवाद-मार्ग का कैसे विकास हुआ? इस सम्बन्ध यदि ऐसा न माना जाता तब तो एकमात्र उत्सर्ग-मार्ग पर ही चलना में पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि आचारांग में निर्ग्रन्थ अनिवार्य हो जाता, फलस्वरूप अपवाद-मार्ग का अवलम्बन करने के और निर्ग्रन्थी संघ के कर्तव्य और अकर्तव्य के मौलिक उपदेशों का लिए कोई भी किसी भी परिस्थिति में तैयार ही न होता। परिणाम संकलन है किन्तु देश-काल अथवा क्षमता आदि के परिवर्तित होने यह होता कि साधना-मार्ग में केवल जिनकल्प को ही मानकर चलना से उत्सर्ग-मार्ग पर चलना कठिन हो जाता है। अस्तु ऐसी स्थिति पड़ता। किन्तु जब से साधकों के संघ एवं गच्छ बनने लगे, तब से में आचारांग की ही निशीथ नामक चूला में उन आचार-नियमों के केवल औत्सर्गिक मार्ग अर्थात् जिनकल्प संभव नहीं रहा। अतएव विषय में जो वितथकारी हैं उनका प्रायश्चित्त बताया गया है। अपवादों Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - का मूल सूत्रों में कोई विशेष निर्देश नहीं है। किन्तु नियुक्ति, भाष्य, मार्ग का निर्धारण कर लेना चाहिए। परिस्थितिविशेष उत्पन्न होने पर चूर्णि आदि में स्थान-स्थान पर विस्तृत वर्णन है। जब एक बार यह जो अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करता उसे जैन आचार्यों ने प्रायश्चिल स्वीकार कर लिया जाता है कि आचार के नियमों की व्यवस्था के का भागी बताया है किन्तु जिस परिस्थिति में अपवाद का अवलम्बन सन्दर्भ में विचारणा को अवकाश है तब परिस्थिति को देखकर मूलसूत्रों लिया गया था उसके समाप्त हो जाने पर भी यदि कोई साधक उस के विधानों में अपवादों की सृष्टि करना गीतार्थ आचार्यों के लिए सहज उपवाद मार्ग का परित्याग नहीं करता है तो वह भी प्रायश्चित्त का भागी हो जाता है। उत्सर्ग और अपवाद के बलाबल के सम्बन्ध में विचार होता है। कब उत्सर्ग का आचरण किया जाये और कब अपवाद का? करते हुए पं० जी पुनः लिखते हैं कि “संयमी पुरुष के लिए जितने इसका निर्णय देश-कालगत परिस्थितियों अथवा व्यक्ति के शरीर-सामर्थ्य भी निषिद्ध कार्य न करने योग्य कहे गये है, वे सभी "प्रतिषेध" के पर निर्भर होता है। एक बीमार साधक के लिए अकल्प्य आहार एषणीय अन्तर्गत आते हैं और जब परिस्थितिविशेष में उन्हीं निषिद्ध कार्यों माना जा सकता है किन्तु उसके स्वस्थ हो जाने पर वही आहार उसके को करने की “अनुज्ञा" दी जाती है, तब वे ही निषिद्ध कर्म "विधि" । लिए अनैषणीय हो जाता है। बन जाते हैं। परिस्थिति विशेष में अकर्तव्य भी कर्तव्य बन जाता है, यहाँ यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि साधक किन्तु प्रतिषेध को विधि में परिणत कर देने वाली परिस्थिति का औचित्य कब अपवाद-मार्ग का अवलम्बन करे? और इसका निश्चय कौन करे? और परीक्षण करना, साधारण साधक के लिए सम्भव नहीं है। अतएव जैनाचार्यों ने इस सन्दर्भ में गीतार्थ की आवश्यकता अनुभव की और ये "अपवाद", "अनुज्ञा' या "विधि' सब किसी को नहीं बताये कहा कि गीतार्थ को ही यह अधिकार होता है कि वह साधक को जाते। यही कारण है कि “अपवाद' का दूसरा नाम "रहस्य' उत्सर्ग या अपवाद किसका अवलम्बन लेना है, निर्णय दे। जैन-परम्परा (नि०चू०,गा०४९५) पड़ा है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि में गीतार्थ उस आचार्य को कहा जाता है जो देश, काल और परिस्थिति जिस प्रकार "प्रतिषेध" का पालन करने से आचरण विशुद्ध माना जाता को सम्यक् रूप से जानता हो और जिसने निशीथ, व्यवहार, कल्प है, उसी प्रकार अनुज्ञा के अनुसार अर्थात् अपवाद-मार्ग पर चलने आदि छेदसूत्रों का सम्यक् अध्ययन किया हो। साधक को उत्सर्ग और पर भी आचरण को विशुद्ध ही माना जाना चाहिए। (देखें निशीथ एक अपवाद में किसका अनुसरण करना है? इसके निर्देश का अधिकार अध्ययन, पृ० ५४) प्रशमरति में उमास्वाति स्पष्ट रूप से कहते हैं गीतार्थ को ही है। जहाँ तक उत्सर्ग और अपवाद इन दोनों में कौन कि परिस्थितिविशेष में जो भोजन, शय्या, वस्त्र, पात्र एवं औषधि श्रेय है और कौन अश्रेय अथवा कौन सबल है और कौन निर्बल है? आदि ग्राह्य होती है वही परिस्थिति विशेष में अग्राह्य हो जाती है और इस समस्या के समाधान का प्रश्न है, जैनाचार्यों के अनुसार दोनों जो अग्राह्य होती है वही ग्राह्य हो जाती है, निशीथ भाष्य में स्पष्ट ही अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार श्रेय व सबल हैं। आपवादिक रूप से कहा गया है कि समर्थ साधक के लिए उत्सर्ग स्थिति में जो परिस्थिति में अपवाद को श्रेय और सबल माना गया है किन्तु सामान्य द्रव्यादि निषिद्ध माने जाते हैं वे असमर्थ साधक के लिए आपवादिक परिस्थिति में उत्सर्ग को श्रेय एवं सबल कहा गया है। बृहत्कल्पभाष्य स्थिति में ग्राह्य हो जाते हैं। सत्य यह है कि देश, काल, रोग आदि के अनुसार ये दोनों (उत्सर्ग और अपवाद) अपने-अपने स्थानों में के कारण कभी-कभी जो अकार्य होता है वह कार्य बन जाता है और श्रेय व सबल होते हैं। इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बृहत्कल्पभाष्य जो कार्य होता है वह अकार्य बन जाता है। उदाहरण के रूप में सामान्यतया की पीठिका में कहा गया है कि जो साधक स्वस्थ एवं समर्थ है उसके ज्वर की स्थिति में भोजन निषिद्ध माना जाता है किन्तु वात, श्रम, लिए उत्सर्ग स्वस्थान है और अपवाद परस्थान है। जो अस्वस्थ एवं क्रोध, शोक और कामादि से उत्पन्न ज्वर में लंघन हानिकारक माना असमर्थ है उसके लिए अपवाद स्वस्थान है और उत्सर्ग परस्थान है। जाता है। वस्तुत: जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं। यह सब व्यक्ति उत्सर्ग और अपवाद की इस चर्चा में स्पष्ट रूप से एक बात की सामर्थ्य एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कब आचरणीय सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह कि दोनों ही परिस्थिति-सापेक्ष हैं और अनाचरणीय एवं अनाचरणीय आचरणीय हो जाता है। कभी उत्सर्ग इसलिए दोनों ही मार्ग हैं, उन्मार्ग कोई भी नहीं है। यद्यपि यहाँ यह का पालन उचित होता है तो कभी अपवाद का। वस्तुत: उत्सर्ग और प्रश्न उठ सकता है कि यह कैसे निर्णय किया जाये कि किस व्यक्ति अपवाद की इस समस्या का समाधान उन परिस्थितियों में कार्य करने को उत्सर्ग-मार्ग पर चलना चाहिए और किसको अपवाद मार्ग पर। वाले व्यक्ति के स्वभाव का विश्लेषण कर किये गये निर्णय में निहित इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों की दृष्टि यह रही है कि साधक को सामान्य है। वैसे तो उत्सर्ग और अपवाद के सम्बन्ध में भी कोई सीमा रेखा स्थिति में उत्सर्ग का अवलम्बन करना चाहिए, किन्तु यदि वह किसी निश्चित कर पाना कठिन है, फिर भी जैनाचार्यों ने कुछ आपवादिक विशिष्ट परिस्थिति में फंस गया है जहाँ उसके उत्सर्ग के आलम्बन परिस्थितियों का उल्लेख कर यह बताया है कि उनमें किस प्रकार का से स्वयं उसका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है तो उसे अपवाद- आचरण किया जाये। मार्ग का सेवन करना चाहिए फिर भी यह सदैव स्मरण रखना चाहिए सामान्यतया अहिंसा को जैन-साधना का प्राण कहा जा सकता कि अपवाद का आलम्बन किसी परिस्थितिविशेष में ही किया जाता है। साधक के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म हिंसा भी वर्जित मानी गई है। है और उस परिस्थितिविशेष की समाप्ति पर साधक को पुनः उत्सर्ग- किन्तु जब कोई विरोधी व्यक्ति आचार्य या संघ के वध के लिए तत्पर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- यतीन्द्रसूरिस्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन हो, किसी साध्वी का बलपूर्वक अपहरण करना चाहता हो और वह के कारण शीलभंग करे तो इस स्थिति में शीलभंग करने वाले भिक्षु उपदेश से भी नहीं मानता हो तो ऐसी स्थिति में भिक्षु, आचार्य, संघ के मनोभावों को लक्ष्य में रखकर ही प्रायश्चित्त का निर्धारण किया अथवा साध्वी की रक्षा के लिए पुलाकलब्धि का प्रयोग करता हुआ जाता है। भी साधक संयमी माना गया है। जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर सर्वाधिक बल दिया। इसलिए सामान्यतया श्रमण साधक के लिए वानस्पतिक जीवों अथवा उन्होंने न केवल मैथुन-सेवन का निषेध किया अपितु भिक्षु के लिए अप्कायिक जीवों के स्पर्श का भी निषेध है किन्तु जीवन-रक्षा के लिए नवजात कन्या का और भिक्षुणी के लिए नवजात शिशु का स्पर्श भी इन नियमों के अपवाद स्वीकार किये गये है। जैसे पर्वत से फिसलते वर्जित कर दिया। आगमों में उल्लेख है कि भिक्षुणी को कोई भी समय भिक्षु वृक्ष की शाखा या लता आदि का सहारा ले सकता है। पुरुष चाहे वह उसका पुत्र या पिता ही क्यों न हो, स्पर्श नहीं करे जल में बहते हुए साधु या साध्वी की रक्षा के लिए नदी आदि में किन्तु अपवाद रूप में यह बात स्वीकार की गई कि नदी में डूबती उतर सकता है। हुई या विक्षिप्त-चित्त भिक्षुणी को भिक्षु स्पर्श कर सकता है। इसी . इसी प्रकार उत्सर्ग-मार्ग में स्वामी की आज्ञा-बिना भिक्षु के लिए प्रकार सर्पदंश या काँटा लग जाने पर उसकी चिकित्सा का कोई अन्य एक तिनका भी अग्राह्य है। दशवैकालिक के अनुसार श्रमण अदत्तादान उपाय न रह जाने पर भिक्षु या भिक्षुणी परस्पर एक दूसरे की सहायता को न स्वयं ग्रहण कर सकता है, न दूसरों से ग्रहण करवा सकता कर सकते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि उक्त अपवाद ब्रह्मचर्य है और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन ही कर सकता है। के खण्डन से सम्बन्धित न होकर स्त्री-पुरुष के परस्पर स्पर्श से सम्बन्धित परन्तु परिस्थितिवश अपवाद-मार्ग में भिक्षु के लिए अयाचित स्थान है। निशीथ भाष्य और बृहत्कल्पभाष्य के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता आदि ग्रहण के उल्लेख हैं। जैसे भिक्षु भयंकर शीतादि के कारण या है कि जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर कितनी गहराई से विचार हिंसक पशुओं का भय होने पर स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही ठहरने किया। जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर भी विचार किया कि एक ओर व्यक्ति योग्य स्थान पर ठहर जाए तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा प्राप्त करने का शीलभंग नहीं करना चाहता किन्तु दूसरी ओर वासना का आवेग इतना प्रयत्न करे। तीव्र होता है कि वह अपने पर संयम नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति जहाँ तक ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अपवादों का प्रश्न है उस पर हमें में क्या किया जाये? दो दृष्टियों से विचार करना है। जहाँ अहिंसा, सत्य आदि व्रतों में ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध-विनाश अपवाद-मार्ग का सेवन करने पर बिना तप-प्रायश्चित के भी विशुद्धि की नीति को भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में जैनाचार्यों ने यह सम्भव मानी गई है वहाँ ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में तप-प्रायश्चित्त के बिना उपाय भी बताया है कि ऐसे भिक्षु अथवा भिक्षुणी को अध्ययन, लेखन, विशुद्धि को सम्भव नहीं माना गया है। ऐसा क्यों किया गया इस वैयावृत्य आदि कार्यों में इतना व्यस्त कर दिया जाये कि उसके पास सम्बन्ध में जैनाचार्यों का तर्क है कि हिंसा आदि में राग-द्वेषपूर्वक और काम-वासना जगने का समय ही न रहे। इस प्रकार उन्होंने काम-वासना रागद्वेष रहित दोनों ही प्रकार की प्रतिसेवना सम्भव है और यदि प्रतिसेवना पर विजय प्राप्त करने के उपाय भी बताए। रागद्वेष से रहित है तो उसके लिए विशेष प्रायश्चित नहीं है किन्तु सामान्यतया भिक्षु के लिए परिग्रह के पूर्णत: त्याग का विधान मैथुन का सेवन राग के अभाव में नहीं होता, अत: ब्रह्मचर्य व्रत की है और इसी आधार पर अचेलता की प्रशंसा की गई है। सामान्यतः स्खलना में तप-प्रायश्चित्त अपरिहार्य है। जिस स्खलना पर तप-प्रायश्चित्त आचारांग आदि सूत्रों में भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्र और अन्य का विधान हो उसे अपवाद-मार्ग नहीं कहा जा सकता। निशीथ भाष्य परिमित उपकरण रखने की अनुमति है किन्तु यदि हम मध्यकालीन के आधार पर पं० दलसुख भाई मालवणिया का कथन है कि यदि जैन-साहित्य का और साधु-जीवन का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हिंसा आदि दोषों का सेवन संयम के रक्षण हेतु किया जाय तो तप लगता है कि धीरे-धीरे भिक्षु-जीवन में रखने योग्य वस्तुओं की संख्या प्रायश्चित्त नहीं होता किन्तु अबह्मचर्य सेवन के लिए तो तप या छेद बढ़ती गई है। अन्य भी आचार सम्बन्धी कठोरतम नियम स्थिर नहीं प्रायश्चित्त आवश्यक है। रह सके हैं। अत: आपवादिक रूप में कई अकरणीय कार्यों का करना यद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत की स्खलना पर प्रायश्चित्त का विधान होने भी विहित मान लिया गया है जो सामान्यतया निन्दित माने जाते थे। से ब्रह्मचर्य का कोई अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु अपवाद-मार्ग के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा निशीथ भाष्य एवं निशीथइसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनाचार्यों ने उन सब परिस्थितियों पर चूर्णि आदि में उपलब्ध हैं। साथ ही पं० दलसुखभाई मालवणिया ने विचार नहीं किया है जिनमें कि जीवन की रक्षा अथवा संघ की प्रतिष्ठा अपने ग्रन्थ “निशीथःएक अध्ययन"" में एवं उपाध्याय अमरमुनिजी को सुरक्षित रखने के लिए शीलभंग हेतु विवश होना पड़े। निशीथ ने निशीथ चूर्णि१२ के तृतीय भाग की भूमिका में इसका विस्तार से और बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि यदि ऐसा प्रसंग उपस्थित विवेचन किया है। इसी प्रकार निशीथ सूत्र हिन्दी विवेचन में भी उत्सर्ग हो जहाँ शीलभंग और जीवन-रक्षण में से एक ही विकल्प हो तो और अपवाद मार्ग का स्वरूप समझाया गया है।" जिज्ञासु पाठक उसे ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ तो यही है कि व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करे और वहाँ देख सकते हैं। शीलभंग न करे किन्तु जो मृत्यु को स्वीकार करने में असमर्थ होने