Book Title: Itihas Darshan Sanskruti Samrakshan aur Acharya Hastimalj
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229904/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास - दर्शन, संस्कृति संरक्षण और आचार्य श्री अतीत की घटनाएँ, विचार-दर्शन, सभ्यता के बदलते प्रतिमान एवं संस्कृति के विभिन्न उन्मेष सब मिलकर किसी युग विशेष के इतिहास का निर्माण करते हैं । अतः इतिहास वह दर्पण है, जहाँ सभ्यता और संस्कृति के प्रतिबिम्ब झलकते हैं । ऐसे इतिहास की विभिन्न कड़ियों को मिलाकर उसे एक सुनिश्चित स्वरूप प्रदान करने से इतिहासकार की बहुश्रुतता एवं कठोर परिश्रम का दिग्दर्शन होता है । इतिहास - रत्न प्राचार्य श्री स्व. पूज्य हस्तीमलजी महाराज सा. ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" के चार भागों का निर्माण कर जैन संस्कृति के क्षेत्र में ऐतिहासिक कार्य किया है। जैन संघ और संस्कृति की परम्परा हजारों वर्ष प्राचीन है। देश-विदेश के विस्तृत भू-भाग में फैली हुई है। सैकड़ों प्राचार्यों एवं संघों के उपभागों में बंटी हुई है । विभिन्न भाषाओं के, कला-साधनों के घटकों में अन्तर्निहित है । उन सबको एक सूत्र में बाँधकर जैन धर्म के इतिहास के भवन को निर्मित करना पूज्य आचार्य श्री जैसे महारथी, मनीषी सन्त के पुरुषार्थ की ही बात थी, अन्य सामान्य इतिहासकार इसमें समर्थ नहीं होता । आचार्य श्री के पुरुषार्थ और इतिहास- दर्शन से जो यह " जैन धर्म का मौलिक इतिहास" लिखा गया है, वह जैन संस्कृति का संरक्षण- गृह बन गया है । यह एक ऐसी प्राधारभूत भूमि बनी है, जिस पर जैन संस्कृति के विकास के कितने ही भवन निर्मित हो सकते हैं । १. जैन धर्म का यह तटस्थ और प्रामाणिक इतिहास है । डॉ. प्रेम देश-विदेश के मूर्धन्य विद्वानों ने आचार्य श्री द्वारा निर्मित इस इतिहास ग्रन्थरत्न की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । उस सबको संक्षेप में समेटना चाहें तो इस ग्रन्थ की निम्नांकित विशेषताएँ उजागर होती हैं Jain Educationa International सुमन जैन - पं. दलसुख भाई मालवणिया ( अहमदाबाद ) २. जैन धर्म के इतिहास सम्बन्धी आधार - सामग्री का जो संकलन इसमें हुआ है, वह भारतीय इतिहास के लिए उपयोगी है । - डॉ. रघुबीरसिंह (सीतामऊ ) For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • १२३ ३. दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के प्रसिद्ध पुरुषों के चरित्रों का इसमें दोहन कर लिया गया है। -स्व. पं. हीरालाल शास्त्री (ब्यावर) ४. इतिहास के अनेक नये तथ्य इसमें सामने आये हैं। -स्व. श्री अगरचन्द नाहटा (बीकानेर) ५. चौबीस तीर्थंकरों के चरित को तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। __ -स्व. डॉ. श्री ज्योतिप्रसाद जैन (लखनऊ) ६. इस इतिहास से अनेक महत्त्वपूर्ण नई बातों की जानकारी होती है । -प्रो. डॉ. के. सी. जैन (उज्जैन) ७. जैन तीर्थंकर-परम्परा के इतिहास को तुलनात्मक और वैज्ञानिक पद्धति से मूल्यांकित किया गया है । -डॉ. नेमीचन्द जैन (इन्दौर) ८. ऐतिहासिक तथ्यों की गवेषणा के लिए ब्राह्मण और बौद्ध साहित्य का भी उपयोग किया गया है। -श्रमण (वाराणसी) में समीक्षा ६. फुटनोट्स के मूल ग्रन्थों के सन्दर्भ से यह कृति पूर्ण प्रामाणिक बन -डॉ. कमलचन्द सोगानी (उदयपुर) १०. इस ग्रन्थ में शास्त्र के विपरीत न जाने का विशेष ध्यान विद्वान् लेखक ने रखा है। -डॉ. भागचन्द जैन भास्कर (नागपुर) इन मन्तव्यों से स्पष्ट है कि प्राचार्य श्री ने इस इतिहास के निर्माण में विभिन्न आयामों का ध्यान रखा है। यह केवल किसी धर्म विशेष का इतिहास नहीं है अपितु जैन धर्म की परम्परा में हुए धार्मिक महापुरुषों, आचार्यों और लेखकों ने अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये, उन सबका इतिवृत्त ऐतिहासिक दृष्टि से इसमें प्रस्तुत किया गया है। आचार्य श्री का यह कथन सत्य है कि "धार्मिक पुरुषों में प्राचार-विचार, उनके देश में प्रचार एवं प्रसार तथा विस्तार का इतिवृत्त ही धर्म का इतिहास है।" अत: 'जैन धर्म के मौलिक इतिहास' के इन चार भागों में जैन धर्म के आदि प्रवर्तक, कुलकर और उनके वंशज आदिदेव ऋषभ तीर्थंकर से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी के धार्मिक क्रान्ति-प्रवर्तक लोकाशाह के समय तक का जैन संघ का इतिहास उपलब्ध जैन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १२४ • व्यक्तित्व एवं कृतित्व स्रोतों के आधार पर, प्रस्तुत किया गया है। इस इतिहास में प्रस्तुत सामग्री धर्म, दर्शन, साहित्य, समाज एवं संस्कृति के लिये कई दृष्टियों से उपयोगी है । ___ इस इतिहास के प्रथम भाग में जैन परम्परा में कुलकर-व्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है। भगवान् ऋषभ देव से लेकर भगवान महावीर तक के चौबीस तीर्थंकरों का जीवन चरित इसमें वर्णित है। प्रसंगवश सिन्धु सभ्यता, वैदिक काल एवं महाकाव्य युग के इतिहास की प्रमुख घटनाओं, राजाओं एवं समाज का विश्लेषण भी इसमें हुआ है। ग्रन्थ के द्वितीय भाग में महावीर के निर्वाण से लेकर १००० वर्ष तक का धार्मिक इतिहास प्रस्तुत किया गया है। इसमें केवलिकाल, दस पूर्वधरकाल, श्रुतकेवलिकाल एवं सामान्य पूर्वधरकाल का विवरण है। यह सामग्री दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा के उद्भव एवं विकास को जानने के लिये महत्त्वपूर्ण है। प्रागम साहित्य एवं उसके व्याख्या साहित्य पर भी इससे प्रकाश पड़ता है । मौर्ययुग और उसके परवर्ती राजवंशों, विदेशी आक्रान्ताओं तथा विचारक आचार्यों के सम्बन्ध में भी यह ग्रन्थ कई नये तथ्य प्रस्तुत करता है। प्राकृत एवं संस्कृत में लिखित मौलिक ऐतिहासिक सामग्री के परिज्ञान के लिए. यह खण्ड विशेष महत्त्व है। इस खण्ड की कतिपय मान्यताएँ एवं निष्कर्ष इतिहासज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं, जिन पर अभी भी गहन चिन्तन-मनन की आवश्यकता है। 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास' का तृतीय भाग किन कठिनाइयों में लिखा गया, इसका विवरण सम्पादक महोदय श्री गजसिंह राठौड़ ने प्रस्तुत किया है। देवद्धि क्षमा श्रमण के स्वर्गारोहण के उपरान्त ४७५ वर्षों के जैन धर्म का इतिहास इस भाग में है । अर्थात् ईसा की लगभग चतुर्थ शताब्दी से नवीं शताब्दी तक की ऐतिहासिक घटनाएँ इसमें समायी हुई हैं। यह काल साहित्य और दर्शन का उत्कर्ष काल है, किन्तु इस समय में ऐतिहासिक सामग्री की प्रचुरता नहीं है। इसलिये यह खण्ड विभिन्न तुलनात्मक सन्दर्भो से युक्त है। यह भाग यापिनी संघ, भट्टारक परम्परा, दक्षिण भारत में जैन धर्म, दार्शनिक जैनाचार्यों के योगदान, गुप्त युग के शासकों आदि पर विशेष सामग्री प्रस्तुत करता है। साहित्यिक सन्दर्भो से इतिहास के तथ्य निकालना दुष्कर कार्य है, जिसे आचार्य श्री जैसे खोजक सन्त ही कर सकते हैं। स्वभावतः इस खण्ड में प्रस्तुत कई निष्कर्ष विभिन्न परम्पराओं के इतिहासज्ञों एवं धार्मिक पाठकों को पुनः चिन्तन-मनन की प्रेरणा देते हैं । इतिहास का अध्ययन करवट बदले, यही इस खण्ड की सार्थकता है। __वीर निर्वाण सम्वत् १४७६ से २००० वर्ष तक अर्थात् लगभग ईसा की दसवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के जैन धर्म के इतिहास को इतिहास Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ग्रन्थमाला के चतुर्थ भाग में प्रस्तुत किया गया है । आचार्य श्री की प्रेरणा और मार्गदर्शन में इस भाग का लेखन श्री गजसिंह राठौड़ ने किया है । जैन धर्मं और इतिहास के मर्मज्ञ लेखक ने इस भाग को बड़े श्रमपूर्वक लिखा है और उपयोगी सामग्री प्रस्तुत की है । इस भाग में सामान्य श्रुतधर जैन आचार्यों का प्रामाणिक विवरण उपलब्ध है । जिनचन्द्रसूरि, अभयदेवसूरि, आचार्य हेमचन्द्र, जिनप्रभसूरि आदि अनेक प्रभावक आचार्यों के योगदान की इसमें चर्चा है । किन्तु सम्भवतः विस्तार भय से दिगम्बर जैनाचार्यों का उल्लेख नहीं है । यह खण्ड श्वे० परम्परा के प्रमुख जैन गच्छों और संघों का इतिहास प्रस्तुत करता है । प्रसंगवश मुगल शासकों, प्रमुख जैन शासकों और श्रावकों का विवरण भी इसमें दिया गया है । मध्ययुगीन भारतीय इतिहास के लिए इस खण्ड की सामग्री बहुत उपयोगी है । यह युग धार्मिक क्रान्तियों का युग था। जैन धर्म और संघ के अनुयायियों में भी उस समय पारस्परिक प्रतिस्पर्धा एवं उथल-पुथल थी । इतिहास लेखक इसके प्रभाव से बच नहीं सकता । अतः इस खण्ड में वही सामग्री प्रस्तुत की जा सकी है, जिससे जैन धर्म के इतिहास की कड़ियाँ जुड़ सकें और उसके सिद्धान्त / स्वरूप में कोई ब्यवधान न पड़े । ग्रन्थ के आकार की, समय की भी सीमा होती है अतः बहुत कुछ जैन इतिहास के वे तथ्य इसमें रह भी गये हैं, जिनसे जैन परम्परा की कई शाखाएँ - प्रशाखाएँ पल्लवति - पुष्पित हुई हैं । " जैन धर्म का इतिहास" विभिन्न आयामों वाला है। तीर्थंकरों, महापुरुषों, प्रभावक श्रावक-श्राविकाओं, राजपुरुषों, दार्शनिकों, साहित्यकारों, संघोंगच्छों, आचार्यों आदि को दृष्टि में रखकर इतिहास लिखा जा सकता है । यह सुनियोजित एवं विद्वानों के समूह के अथक श्रम की अपेक्षा रखता है । पूज्य आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज सा. ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास " के चार भागों का निर्माण एवं प्रकाशन कराकर एक ऐतिहासिक कार्य किया है । तीर्थंकरों एवं उनके शिष्यों / पट्टधरों को आधार बनाकर यह इतिहास लिखा गया है । प्रसंगवश इसमें सम्पूर्ण जैन संस्कृति का संरक्षण हो गया है । आचार्य श्री ने समाज को बे इतिहास चक्षु प्रदान कर दिये हैं जो और गहरे गोते लगाकर जैन धर्म के इतिहास को पूर्ण और विविध आयाम वाला बना सकते हैं । जैन धर्म के इतिहास का अध्ययन अनुसंधान गतिशील हो, इसके लिए निम्नांकित आधुनिक ग्रन्थ उपयोगी हो सकते हैं : १. जैन परम्परानो इतिहास, भाग १ - २ ( त्रिपुटी ) २. जैन शिलालेख संग्रह भाग १, २, ३, ४, बम्बई • १२५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 126 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व 3. भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास (मुनि ज्ञानसुन्दर), फलौदी जैनिज्म इन साउथ इण्डिया (देसाई), शोलापुर 5. दक्षिण भारत में जैन धर्म (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री), बाराणसी 6. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा भाग 1-4 (डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री) सागर 7. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य (साध्वी संघमित्रा), लाडनूं 8. जैन धर्म - प्राचीन इतिहास (पं. हीरालाल श्रावक), जामनगर है. जैन साहित्य और इतिहास (पं. नाथराम प्रेमी), बम्बई 10. जैन साहित्य व इतिहास पर विशद प्रकाश (पं. जुगल किशोर मुख्तार) 11. जैन परम्परा का इतिहास (मुनि नथमल), चूरू 12. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग 1 (पं बलभद्र जैन) दिल्ली 13. जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग 2 (पं. परमानन्द शास्त्री), दिल्ली 14. त्रिपिटक और आगम-एक परिशीलन (मुनि नगराज) 15. जैनिज्म इन राजस्थान (डॉ. के. सी. जैन), शोलापुर 16. जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग 1-4 (प्राचार्य हस्तीमल), जयपुर 17. जैन सोर्जेज ऑफ द हिस्ट्री ऑफ एन्शियेन्ट इण्डिया (डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन), दिल्ली 18. जैन संस्कृति और राजस्थान (डॉ. नरेन्द्र भानावत), जयपुर जैन धर्म के इतिहास से सम्बन्धित उक्त ग्रन्थों की सूची में अनेक ग्रन्थ अभी और जुड़ सकते हैं / इतिहास विषयक सामग्री से युक्त सैकड़ों प्राचीन जैन ग्रन्थ हैं, कुछ ऐतिहासिक काव्य ग्रन्थ हैं एवं कतिपय साहित्यिक ग्रन्थों में, प्रशस्तियों में इतिहास की सामग्री गुंथी हुई है / इधर जैन साहित्य के जो ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं, उनके सम्पादकों ने इतिहास विषयक सामग्री का मूल्यांकन भी किया है। इस सब ऐतिहासिक सामग्री का तुलनात्मक विश्लेषण और अध्ययन किया जाना आवश्यक है। "जैन धर्म का बृहत इतिहास" कई भागों में निष्पक्ष रूप में लिखे जाने की अपेक्षा है, तब कहीं जैन संस्कृति के सभी पक्ष विभिन्न आयामों में उद्घाटित हो सकेंगे। आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज के इस इतिहास ग्रन्थ के भागों के नये संस्करणों में भी अद्यावधि प्रकाशित एवं उपलब्ध नवीन तथ्यों के समावेश से ग्रन्थ की उपयोगिता द्विगुणित होगी। ऐसे महत्त्वपूर्ण और विशालकाय ग्रन्थों की प्रकाशन संस्था एवं अनुदाता धर्मप्रेमी बन्धु बधाई के पात्र हैं। -विभागाध्यक्ष-जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only