Book Title: Hindi bhasha ke Vividh Rup
Author(s): Mahaveer Saran Jain
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Hirak_Jayanti_Granth_012029.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/212284/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोफेसर महावीर सरन जैन हिन्दी भाषा के विविध रूप मुसलमानों के भारत आगमन से पूर्व फारसी तथा अरबी साहित्य में 'ज़बाने-हिन्दी' शब्द का प्रयोग भाषिक संदर्भ में भारतीय भाषाओं के लिए प्रयुक्त हुआ। भारत आगमन के बाद इन्होंने 'जुबाने-हिन्दी', 'हिन्दी ज़बान' अथवा 'हिन्दी' का प्रयोग दिल्ली के चतुर्दिक मध्य देश की भाषाओं के लिए किया। अमीर खुसरो के समय यही स्थिति मिलती है। संस्कृत से भिन्न जनपदीय भाषिक रूपों के लिए भाषा अथवा भाखा शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। कबीरदास ने 'संस्कृत है कूप जल, भाषा बहता नीर' कहकर इन्हीं भाषिक रूपों के सामर्थ्य की ओर संकेत किया है। जायसी ने अपने पद्मावत के भाषा रूप को भाषा के नाम से ही पुकारा है 'लिख भाषा चौपाई कहें'। तुलसीदास ने भी मानस को संस्कृत में नहीं अपितु भाषा में निबद्ध किया- 'भाषा निबद्ध मति मंजुल मातनोति'। तात्पर्य यह है कि संस्कृत से भिन्न मध्यदेश के जिन जनपदीय भाषिक रूपों को मात्र भाषा के नाम से पुकारा जा रहा था, उनमें से दिल्ली के चतुर्दिक मध्य देश के जनपदीय भाषिक रूपों को मुसलमानों ने भारत आगमन के बाद 'जुबाने-हिन्दी', 'हिन्दी ज़बान' अथवा 'हिन्दवी' शब्दों से पुकारा। 18वीं सदी तक हिन्दी, हिन्दवी, दक्खिनी, उर्दू, रेख्ता, हिन्दुस्तानी, देहलवी आदि शब्दों का समानार्थी प्रयोग मिलता है। इसी कारण नासिक, सौदा तथा मीर आदि ने एकाधिक बार अपने शेरों को हिन्दी शेर कहा है तथा गालिब ने अपने ख़तों में उर्दू तथा रेख्ता का कई स्थलों पर समानार्थी प्रयोग किया है। यद्यपि 18वीं शताब्दी तक ब्रज अथवा अवधी भाषा रूपों को ही मानक माना जाता रहा तथापि इस अवधि में दिल्ली का राजनैतिक दृष्टि से महत्व बना रहा। इस देहलवी को अवधी और ब्रज के समान मानक बनने का गौरव तो प्राप्त न हो सका, किन्तु फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से इस भाषा रूप को महत्व प्राप्त हुआ।अपनी बात को अधिकाधिक व्यक्तियों तक संप्रेषित करने के लिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति ने इस भाषा रूप का प्रयोग किया। आज यह बात स्पष्ट हो गई है कि संतों की भाषा में खड़ी बोली के प्रचुर तत्व विद्यमान हैं। साहित्य की पारम्परिक अभिव्यक्ति ब्रज भाषा में होने के कारण इन्होंने केन्द्रक भाषा के रूप में भले ही ब्रज भाषा को अपनाया हो , किन्तु चूंकि इनकी रचनाओं का मूल लक्ष्य साहित्यिक नहीं अपितु अपने कथ्य एवं संदेश को जनमानस के प्रत्येक वर्ग तक संप्रेषित करना था, इस कारण तथा तत्कालीन खड़ी बोली एवं दक्खिनी हिन्दी में साहित्यिक सर्जन करने वाले बहुत से सूफी संतों से प्रभावित होने के कारण खड़ी बोली के बहुत से तत्व अनायास इनकी भाषा में समाहित हो गए। संतों के अतिरिक्त अन्य बहुत से शायर एवं कवि हुए जिन्होंने खड़ी बोली को अपनी साहित्यिक रचनाओं का आधार बनाया। इस बोली के अतिरिक्त 17वीं शताब्दी तक जिन साहित्यकारों ने साहित्य सर्जन किया उनमें ऐसे नाम भी हैं जिन्हें हिन्दी के इतिहासकार हिन्दी के साहित्यकार कहते हैं तथा उर्दू वाले उर्दू के शायर। अमीर खुसरो के अतिरिक्त वली कुतुब शाह (1565-1611) को दोनों ही अपने साहित्य के इतिहास में स्थान देते हैं। यह तथ्य इस बात को सिद्ध करता है कि उर्दू एवं आधुनिक साहित्यिक हिन्दी की मूलाधार एक ही बोली है। इस बोली के आधार पर 17वीं शताब्दी तक रचित साहित्य जनजीवन की भावनाओं से अनुप्राणित अधिक रहा है, संस्कृत एवं अरबी-फारसी के साहित्यिक प्रभावों से संपृक्त कम रहा है। ऐसी बहुत-सी साहित्यिक कृतियां हैं जिनकी भाषा के विश्लेषण एवं विवेचन से इस बात की पुष्टि होती है। एक ओर पारम्परिक साहित्यिक ब्रज भाषा की कलात्मक एवं अलंकृत परम्परा से हटकर तथा दूसरी ओर संस्कत की तत्सम शब्दावली का मोह त्यागकर बहत से साहित्यकारों ने खड़ी बोली के जनसुलभ रूप को काव्य रचना का आधार बनाया। मीर (1722-1810) तथा गालिब (1797-1859) ने इसी भाषा को आधार बनाकर साहित्यिक रचना की, किन्तु इन्होंने अरबी फारसी भाषाओं की शब्दावली तथा शैलीगत उपादानों का प्रयोग बहुत अधिक मात्रा में किया। इस कारण इनकी रचनाओं में एक भिन्न रंग आ गया। 19वीं सदी में फोर्ट विलियम कॉलेज के पदाधिकारियों एवं अंग्रेजी शासकों के सुनिश्चित प्रयास के कारण हिन्दी एवं उर्दु शब्दों का प्रयोग भिन्नार्थक रूपों के लिए होने लगा। अंग्रेजों ने इन भाषिक रूपों के साथ साम्प्रदायिक भावना को जोड़ने का अभूतपूर्व प्रयास किया। हिन्दी एवं हिन्दुस्तानी अथवा रेख्ता की भिन्नता का प्रतिपादन सर्वप्रथम 1812 में फोर्ट विलियम कॉलेज के वार्षिक विवरण में केप्टन टेलर ने यह कह कर किया कि मैं केवल हिन्दुस्तानी अथवा रेख्ता का ज़िक्र कर रहा हूं जो फारसी लिपि में लिखी जाती है। इस हिन्दुस्तानी एवं रेख्ता से हिन्दी की भिन्नता को स्थापित करने के उद्देश्य से उन्होंने बल देकर कहा कि मैं हिन्दी हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड /२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का जिक्र नहीं कर रहा हूं जिसकी अपनी लिपि है तथा जिसमें अरबी, फारसी शब्दों का प्रयोग नहीं होता है। इस प्रकार फोर्ट विलियम कॉलेज में एक भाषिक रूप का निर्माण संस्कृत की तत्सम शब्दावली के बहुल प्रयोग के साथ देवनागरी लिपि तथा दूसरे रूप का निर्माण अरबी फारसी शब्दावली की बहुलता के साथ फारसी लिपि में कराकर एक ही भाषा के दो रूपों को दो भिन्न भाषाओं के रूप में मान्यता प्रदान करने के लिए षड्यंत्र रचा गया। प्रत्येक भाषा का जन समुदाय अपनी भाषा के विविध रूपों के माध्यम से एक 'भाषिक इकाई' का निर्माण करता है। एक भाषा के समस्त भाषिक रूप जिस क्षेत्र में प्रयुक्त होते हैं उसे उस भाषा का भाषा क्षेत्र कहते हैं। प्रत्येक भाषा में अनेक क्षेत्रीय एवं वर्गगत भिन्नताएं होती हैं। इन समस्त भिन्नताओं की समष्टिगत अमूर्तता का नाम भाषा है। यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि हम यह निर्णय किस प्रकार करें कि विभिन्न भाषिक रूप एक ही भाषा के भिन्न रूप हैं अथवा अलग-अलग भाषा रूप हैं। व्यावहारिक दृष्टि से जिस क्षेत्र में भाषा के विविध रूपों में बोधगम्यता की स्थिति होती है तथा जिन्हें उस क्षेत्र के बहुमत भाषी एक भाषा के विविध रूप मानते हैं, वह क्षेत्र उस भाषा का भाषा-क्षेत्र' कहलाता है। भिन्न भाषा-भाषी व्यक्ति परस्पर विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते तथा अपने-अपने भाषा रूपों को भिन्न भाषाओं के रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसी स्थिति में उन भाषा रूपों को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है। जब कोई तमिल भाषी व्यक्ति हिन्दी भाषी व्यक्ति से तमिल में बात करता है तो हिन्दी भाषी व्यक्ति उसकी बात संकेतों, मुद्राओं, भावभंगिमाओं के माध्यम से भले ही समझ जावे, भाषा के माध्यम से नहीं समझ पाता। इसके विपरीत जब ब्रज बोलने वाला व्यक्ति अवधी बोलने वाले से बातें करता है तो दोनों को विचारों के आदान-प्रदान में कठिनाई तो होती है किन्तु फिर भी वे किसी न किसी मात्रा में विचारों का आदान-प्रदान कर लेते हैं, एक दूसरे की बातों को समझ लेते हैं। भाषाओं की भिन्नता अथवा भिन्न भाषा रूपों की एक भाषा के रूप में मान्यता का यह व्यावहारिक आधार है। दो भाषिक रूपों को एक ही भाषा के रूप में अथवा भिन्न भाषाओं के रूप में मान्यता प्रदान करने में ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक आदि कारण तथा उन भाषिक रूपों की संरचना एवं व्यवस्था की समता अथवा भिन्नता की स्थिति महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। एक भाषा क्षेत्र में एकत्व की दृष्टि से एक भाषा होती है किन्तु भिन्नत्व की दृष्टि से उस भाषा क्षेत्र में जितने व्यक्ति निवास करते हैं उसमें उतनी ही 'व्यक्ति बोलियां होती हैं। व्यक्ति बोलियों एवं उस क्षेत्र की भाषा के बीच प्रायः बोली का स्तर होता है। किसी भाषा की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताएं ही उसकी बोलियां हैं। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि भाषा की संरचक बोलियां होती हैं तथा बोली की संरचक व्यक्ति-बोलियां होती हैं। प्रत्येक भाषा क्षेत्र में किसी बोली के आधार पर मानक भाषा का विकास होता है। भाषा के इस मानक रूप को समस्त क्षेत्र के व्यक्ति मानक अथवा परिनिष्ठित रूप मानते हैं तथा उस भाषा-क्षेत्र के पढ़े-लिखे व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं। इस प्रकार किसी भाषा का मानक भाषा रूप उस भाषा क्षेत्र में सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बन जाता है। इस भाषा रूप की शब्दावली, व्याकरण एवं उच्चारण का स्वरूप अधिक निश्चित एवं स्थिर होता है। कलात्मक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक अभिव्यक्ति का माध्यम भी यही भाषा रूप होता है। चूंकि उस भाषा क्षेत्र के अधिकांश शिक्षित व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करते हैं, इस कारण यह संपूर्ण भाषा क्षेत्र के व्यक्तियों के लिए मानक बन जाता है। जो व्यक्ति उस समाज के पढ़े-लिखे एवं साधन-सम्पन्न व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं वे भी इस मानक भाषा रूप को सीखने का तथा प्रयोग करने का प्रयास करते हैं। ___ व्यवहार में मानक भाषा को भाषा क्षेत्र की मूल भाषा अथवा केन्द्रक भाषा के नाम से पुकारा जाता है तथा बोल-चाल में अधिकांश व्यक्ति इस मानक भाषा रूप को भाषा के नाम से तथा भाषा क्षेत्र की समस्त क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्नताओं को इस मानक भाषा की बोलियों के नाम से पुकारते हैं। किन्तु तत्वत: भाषा अपने क्षेत्र में व्यवहृत होने वाली समस्त क्षेत्रगत भिन्नताओं, वर्गगत भिन्नताओं, शैलीगत भिन्नताओं तथा विभिन्न प्रयुक्तियों की समष्टि का नाम है। बोलियों, शैलियों एवं प्रयुक्तियों से इतर जिस भाषिक रूप को व्यावहारिक दृष्टि से अथवा प्रयत्न लाघव की दृष्टि से 'भाषा' के नाम से पुकारा जाता है वह भाषा नहीं अपितु उस भाषा के किसी क्षेत्र विशेष के भाषिक रूप के आधार पर विकसित मानक भाषा होती है। इसी मानक भाषा को मात्र भाषा अभिधान से पुकारने तथा भाषा समझने की गलत दृष्टि के कारण हम बोलियों को भाषा का अपभ्रष्ट रूप, अपभ्रंश रूप, गंवारू भाषा जैसे नामों से पुकारने लगते हैं। वस्तुतः बोलियां प्रकृत अथवा प्राकृत हैं। भाषा का मानक रूप उस भाषा क्षेत्र की समस्त बोलियों के मध्य संपर्क सूत्र का काम करता है। इसी दृष्टि से यदि हिन्दी भाषा शब्द पर विचार करें तो इसके दो प्रयोग हैं। एक व्यावहारिक तथा दूसरा सैद्धान्तिक। व्यावहारिक दृष्टि से अथवा बोलचाल में हिन्दी भाषा के मानक रूप को अथवा परिनिष्ठित रूप को हम हिन्दी भाषा के नाम से पुकारते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से सम्पूर्ण हिन्दी क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाले समस्त क्षेत्रीय भाषा रूपों, वर्गगत रूपों, शैलीगत प्रभेदों तथा विविध व्यवहार क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले प्रयोग रूपों की समष्टि का नाम हिन्दी भाषा है। ___ मानक हिन्दी की मूलाधार बोली हिन्दी भाषा की खड़ी बोली है किन्तु खड़ी बोली एवं मानक हिन्दी समानार्थक नहीं हैं। जाने-अनजाने बहुत से व्यक्ति हिन्दी शब्द का प्रयोग खड़ी बोली के अर्थ में करते हैं। हिन्दी शब्द की अर्थवत्ता को सीमित करने के प्रयास इस देश में नियोजित रूप से होते रहे हैं। जुलाई 1965 में “आलोचना" के तत्कालीन सम्पादक शिवदान सिंह चौहान ने अपने संपादकीय में इस प्रकार की विचारधारा से प्रेरित होकर यह प्रतिपादित किया कि “हिन्दी क्षेत्र के समस्त क्षेत्रीय रूप हिन्दी भाषा से अलग एवं पृथक हैं"। उनके विचारों को उन्हीं के शब्दों में उद्धृत करना समीचीन होगा जिससे यह समझा जा सके कि हिन्दी को उसके अपने ही घर में खंड-खंड कर देने का षड्यंत्र कितना गंभीर हो सकता है: "हिन्दी को मातृभाषा बताना चूंकि देश-भक्ति का पर्याय बताया हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड /३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है इसीलिए यहां हिन्दी से जीविका कमाने वाले या हिन्दी भक्त के नाम से वोट मांगने वाले और बदले में हिन्दी को मातृभाषा घोषित करने वाले ऐसे देश भक्तों की संख्या नित्य बढ़ती जाती है यद्यपि उनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है- पंजाबी, राजस्थानी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रज, छत्तीसगड़ी, हरियाणवी, कुमाउनी, डोगरी, गढ़वाली आदि चाहे कोई और हो पर हिन्दी (खड़ी बोली) नहीं है"। 1965 के बाद साहित्य अकादमी ने भी हिन्दी क्षेत्र की बहुत सी उपभाषाओं को हिन्दी भाषा से अलग स्वतंत्र दर्जा दिलाने की दिशा में विशेष प्रयत्न किया। हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने की विखंडनवादी नीति के विरोध में अनेक चिंतकों का ध्यान आकर्षित हुआ। 1971 में भारतीय हिन्दी परिषद् के 25वें वार्षिक अधिवेशन में उपस्थित विश्वविद्यालयों के 300 से भी अधिक हिन्दी प्राध्यापकों की सभा ने साहित्य अकादमी की भाषा नीति की तीव्र आलोचना की तथा एक प्रस्ताव पारित करके साहित्य अकादमी के सभापति से अनुरोध किया कि वे हिन्दी क्षेत्र की संश्लिष्ट भाषा, साहित्य और संस्कृति की परम्परा को क्षेत्रों में खंडित करने का उपक्रम अविलम्ब समाप्त करावें । हिन्दी के व्यापक और संश्लिष्ट रूप का निर्माण उसके साहित्य की एक हजार वर्ष की लम्बी परम्परा ने किया है और किसी अकादमी को यह अधिकार नहीं है कि वह इस प्रकृति को उल्टी दिशा में मोड़े। वस्तुतः हिन्दी भाषा का क्षेत्र बहुत बड़ा है तथा हिन्दी क्षेत्र में ऐसी बहुत सी उप भाषाएं हैं, जिनमें पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत बहुत कम है किन्तु ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से संपूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र एक भाषिक इकाई है तथा इस हिन्दी भाषा क्षेत्र के बहुमत भाषा-भाषी अपने-अपने भाषा रूप को हिन्दी भाषा के रूप में मानते एवं स्वीकार करते आए हैं। इस हिन्दी भाषा क्षेत्र में मानक हिन्दी के बोलचाल वाले भाषिक रूप का प्रकार्यात्मक मूल्य बहुत अधिक है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र के दो उप भाषी अथवा बोली भाषी जब अपनी उप भाषाओं अथवा बोली रूपों के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर पाते तो वे भाषा के इसी रूप के द्वारा संप्रेषण कार्य करते हैं। जिन भाषाओं का क्षेत्र हिन्दी भाषा क्षेत्र के समान विशाल होता है तथा जिस भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा के प्रयोक्ताओं के समान बहुत अधिक होती है उन भाषाओं में इसी प्रकार की स्थिति मिलती है। हिन्दी, चीनी एवं रूसी भाषाओं के भाषा क्षेत्रों की भाषिक स्थिति का अध्ययन भाषा क्षेत्र के क्षेत्रगत भिन्न भाषिक रूपों में परस्पर बोधगम्यता के आधार पर नहीं किया जा सकता। हिन्दी, चीनी एवं रूसी भाषाओं में से किसी भी भाषा के 'भाषा क्षेत्र' में प्राप्त सभी क्षेत्रगत भाषा रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता की स्थिति नहीं है। इन तीनों भाषाओं में उनकी क्षेत्रगत भाषा रूपों के अतिरिक्त भाषा का एक ऐसा रूप मिलता है जिसके माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्ति परस्पर विचारों का आदान-प्रदान कर पाते हैं। भाषा के क्षेत्रगत भाषा रूपों में पारस्परिक बोधगम्यता की स्थिति होना एक बात है तथा किसी भाषा के सभी भाषा क्षेत्रों के व्यक्तियों का अपनी भाषा के किसी विशिष्ट रूप के माध्यम से परस्पर बातचीत कर पाना दूसरी बात है । इस दूसरी हीरक जयन्ती स्मारिका स्थिति में 'पारस्परिक बोधगम्यता' नहीं होती, 'एक तरफा बोधगम्यता' होती है। इस स्थिति में क्षेत्र विशेष के व्यक्तियों से क्षेत्रीय भाषा रूप में बातें होती हैं किन्तु भाषा के दूसरे भाषा क्षेत्रों अथवा बोली क्षेत्र के व्यक्तियों से अथवा औपचारिक अवसरों पर उस भाषा के मानक रूप का अथवा मानक भाषा के आधार पर विकसित व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया जाता है। भाषा की उप भाषाओं अथवा बोलियों से मानक भाषा के इस प्रकार के सम्बन्ध को फर्ग्युसन ने बोलियों की परत पर मानक भाषा की ऊर्ध्व प्रस्थापना माना है तथा गम्पर्ज ने इस प्रकार की भाषिक स्थिति को 'बाइलेक्टल' के नाम से अभिहित किया है। प्रश्न उठता है कि हिन्दी भाषा का क्षेत्र क्या है ? इस दृष्टि से हमारे संविधान में जो राज्य हिन्दी भाषी राज्यों के रूप में मान्य हैं उनके आधार पर हिन्दी भाषा की पहचान की जा सकती है। बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा दिल्लीये समस्त राज्य हिन्दी भाषी राज्य हैं। इन सम्पूर्ण हिन्दी भाषी राज्यों का क्षेत्र ही हिन्दी भाषा का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कहीं-कहीं अन्य भाषाओं की बोलियों के भाषाद्वीप अवश्य हैं तथा इन हिन्दी भाषी राज्यों की सीमाओं से जहां-जहां हिन्दीतर भाषी राज्यों की सीमाएं लगती हैं वहां हिन्दी एवं अहिन्दी भाषाओं के 'संक्रमण क्षेत्र' भी हैं। तथापि अधिकांश क्षेत्र हिन्दी भाषा का क्षेत्र है तथा इस क्षेत्र में जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं वे हिन्दी भाषा के ही अंग हैं। हिन्दी की दो प्रधान साहित्यिक शैलियां हैं 1. खड़ी बोली के आधार पर विकसित संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक रूप जिसे साहित्यिक हिन्दी भाषा के नाम से जाना जाता है। 2. खड़ी बोली के ही आधार पर विकसित अरबी फारसी निष्ठ साहित्यिक रूप जिसे उर्दू के नाम से पुकारा जाता है। यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि खड़ी बोली हिन्दी भाषा का एक क्षेत्र विशेष में बोले जाने वाला भाषा रूप है उसी प्रकार जिस प्रकार ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि भाषा रूप हिन्दी भाषा के क्षेत्रीय रूप हैं। खड़ी बोली हिन्दी भाषा का वह क्षेत्रीय रूप है जो मेरठ, रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर आदि जिलों तथा देहरादून आदि के सीमित भागों में व्यवहृत होता है। खड़ी बोली क्षेत्र में रहने वाले सभी वर्गों के व्यक्ति जो कुछ बोलते हैं वह खड़ी बोली है किन्तु हिन्दी की अन्य उप भाषाओं (ब्रज, हरियाणवी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, गढ़वाली, कुमाऊँनी, मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी, निवाड़ी आदि) की भांति इस क्षेत्र में भी हिन्दी की उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति परस्पर संभाषण अथवा औपचारिक अवसरों पर मानक भाषा का प्रयोग करते हैं। मानक भाषा का प्रयोग हिन्दी क्षेत्र के अन्य उप भाषा क्षेत्रों में भी होता है। इस मानक हिन्दी का विकास खड़ी बोली के आधार पर हुआ है। मानक हिन्दी की मूलाधार खड़ी बोली है। खड़ी बोली के आधार पर मानक हिन्दी विकसित तो हुई है किन्तु खड़ी बोली ही मानक हिन्दी नहीं है। मानक हिन्दी बनने के बाद इस पर ब्रज एवं हरियाणवी का भी प्रभाव पड़ा है तथा हिन्दी की अन्य उप भाषाओं के शब्द रूपों को भी इसने आत्मसात् किया विद्वत् खण्ड / ४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अखिल भारतीय संपर्क भाषा होने के कारण इसने हिन्दीतर भारतीय भाषाओं के शब्दों, रूपों एवं शैली तत्वों को भी अपने में पचा लिया है। हिन्दी भाषा क्षेत्र के प्रत्येक उप भाषा एवं बोली क्षेत्र में मानक हिन्दी पर वहां की स्थानीय भाषिक विशेषताओं का प्रभाव पड़ता है तथा भारत के हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों में मानक हिन्दी वहां की भाषिक विशेषताओं से रंजित हो जाती है। हिन्दी भाषा के मानक हिन्दी भाषा रूप को हिन्दी अभिधान से पुकारने का कारण केवल व्यावहारिक है। इस तथ्य से परिचित न होने के कारण ही 'उर्दू हिन्दी की साहित्यिक शैली है'- जैसे वाक्य को सुनकर या पढ़कर उर्दू के साहित्यकारों के मन में इस प्रकार का भाव-बोध जागृत होता है कि उर्दू को आधुनिक साहित्यिक हिन्दी की एक शैली मात्र कहा जा रहा है। वस्तुत: उर्दू हिन्दी की उसी तरह से एक साहित्यिक शैली है जिस प्रकार से आधुनिक साहित्यिक हिन्दी उसकी एक दूसरी शैली है। __ खड़ी बोली के आधार पर जिस मानक हिन्दी का विकास हुआ है उसका मूल्य भाषिक दृष्टि से बहुत अधिक है। यह तो स्पष्ट है कि खड़ी बोली, मानक हिन्दी एवं साहित्यिक हिन्दी इन तीनों में अन्तर खड़ी बोली हिन्दी भाषा का क्षेत्रीय रूप है, साहित्यिक हिन्दी आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रयुक्त होने वाली साहित्यिक भाषा है तथा हिन्दी भाषा के प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दी की उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति औपचारिक अवसरों पर तथा भिन्न उप भाषा अथवा बोली क्षेत्र के व्यक्तियों से जिस भाषिक रूप के माध्यम से व्यवहार करते हैं वह मानक हिन्दी अथवा मानक हिन्दी का व्यावहारिक रूप है। हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न सुदूरवर्ती उप भाषाओं एवं बोलियों में पारस्परिक बोधगम्यता का तथा उनकी भाषिक संरचनात्मक व्यवस्थाओं में समानता का प्रतिशत भले ही कम हो फिर भी मानक हिन्दी भाषा अथवा उसके व्यावहारिक उप-मानक रूप के अत्यधिक उच्च प्रकार्यात्मक मूल्य के कारण सम्पूर्ण क्षेत्र में संप्रेषणीयता सम्भव है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में पारस्परिक भावात्मक एवं सामाजिक एकता तथा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संश्लिष्ट परम्परा ने भी सम्पूर्ण क्षेत्र को एक भाषिक इकाई के रूप में विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। दूसरे शब्दों में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं सामाजिक कारणों से सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में मानक हिन्दी के व्यावहारिक रूप का प्रसार अधिकाधिक सम्भव हो सका है। कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण हिन्दी भाषा क्षेत्र में इस व्यावहारिक हिन्दी को बोलकर अपनी यात्रा पूरी कर सकता है, हिन्दी क्षेत्र के किसी भी भूभाग के बाजार में जाकर सामान खरीद सकता है, किसी भी रेलवे स्टेशन पर उतरकर कुली तथा रिक्शेवाले से बातें कर सकता है, किसी भी होटल में जाकर बातचीत कर सकता है, किसी भी सरकारी अथवा अर्धसरकारी कार्यालय में जाकर सूचना प्राप्त कर सकता है। व्यावहारिक हिन्दी का पूरे भारत राष्ट्र में प्रचार, प्रसार एवं विकास होने के कारण भाषा व्यवहार की उपर्युक्त स्थितियों में से बहुत-सी स्थितियां हिन्दीतर भाषी राज्यों में भी उपलब्ध हैं। इस कारण मानक हिन्दी का यह व्यावहारिक रूप सम्पूर्ण भारत की (तथा पाकिस्तान की भी) सम्पर्क भाषा के रूप में व्यवहत है। हिन्दी भाषा क्षेत्र की तो यह स्थिति है कि इस क्षेत्र के किसी भी गांव में जाकर कोई व्यक्ति व्यावहारिक हिन्दी बोलकर किसी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति से बातें कर सकता है तथा उस गांव के किसी भी ऐसे व्यक्ति से जिसका अपने जनपद से इतर हिन्दी के अन्य भाषी क्षेत्र से सामाजिक सम्पर्क बना रहता है, वार्तालाप कर सकता है। इस प्रकार हिन्दी की दो भिन्न उप भाषाओं अथवा बोलियों के व्यक्ति जब अपनी-अपनी उप भाषाओं अथवा बोलियों के माध्यम से परस्पर संभाषण नहीं कर पाते तो वे मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी के द्वारा परस्पर बातचीत करते हैं। हिन्दी के दो सीमांत क्षेत्रों __ में रहने वाले मैथिली एवं मारवाड़ी बोलने वाले व्यक्ति अपने क्षेत्रीय भाषिक रूपों के माध्यम से परस्पर विचारों का आदान-प्रदान भले ही न कर पाएं फिर भी वे अपनी क्षेत्रीय उप भाषाओं की परत पर ऊर्ध्व प्रस्थापित मानक-हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी के द्वारा परस्पर बातचीत कर लेते हैं। मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी के अत्यधिक प्रकार्यात्मक मूल्य के कारण हिन्दी भाषा का जन समुदाय हिन्दी भाषा के विविध रूपों के मध्य संभाषण की स्थिति के कारण एक भाषिक इकाई का निर्माण करता है। __हिन्दी भाषा के विविध भाषा रूपों के मध्य मानक हिन्दी अथवा व्यावहारिक हिन्दी के कारण सम्भाषण प्रक्रिया से भाषिक एकता की चेतना का निर्माण हुआ है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक समन्वय के प्रतिमान के रूप में यह मानक अथवा व्यावहारिक हिन्दी सम्पूर्ण हिन्दी क्षेत्र के सामाजिक जीवन में परस्पर आश्रित सह सम्बन्धों की स्थापना करती है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषी क्षेत्र में साहित्यिक धरातल पर भी साहित्यिक हिन्दी की अविरल परम्परा रही है। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने मैथिली, अवधी, ब्रज, राजस्थानी आदि सभी उप भाषा रूपों में रचित साहित्य को हिन्दी साहित्य के इतिहास की सीमा रेखा में आबद्ध किया है और हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के आरम्भ से हिन्दी के प्रत्येक उप भाषा क्षेत्र के साहित्यकार आधुनिक साहित्यिक हिन्दी में साहित्य रचना कर रहे हैं। ___इस प्रकार हिन्दी भाषा क्षेत्र में व्यवहृत होने वाले क्षेत्रगत, वर्गगत, शैलीगत, प्रयुक्तिपरक भाषिक रूपों तथा मानक हिन्दी, व्यावहारिक हिन्दी, आधुनिक साहित्यिक हिन्दी तथा उर्दू साहित्य सभी की समष्टिगत अमूर्तता का नाम 'हिन्दी भाषा' है। 'हिन्दी' की व्यापक अर्थवत्ता है और इस कारण उर्दू, फारसी लिपि में लिखी जाने वाली इसकी उसी प्रकार एक साहित्यिक शैली है जिस प्रकार आधुनिक साहित्यिक हिन्दी' देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली इसकी दूसरी साहित्यिक शैली है और इसी कारण भोजपुरी, मैथिली, मगही, मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, निमाड़ी आदि समस्त भाषिक रूप हिन्दी भाषा के अंग हैं, हिन्दी भाषा के उप भाषिक रूप हैं। निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा (उ0 प्र0) हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड /5