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हर्ष सागर - रचित राजसी साह रासका सार
- श्री भँवरलाल नाहटा
जैन कवियों का रास साहित्य बहुत ही विशाल है । बारहवीं शती से वर्तमान समय तक लगभग ८०० वर्षों में विविध प्रकार की रचनाएं प्रचुर प्रमाण में लोक भाषा में रची गई हैं, जिनमें ऐतिहासिक रासों का महत्त्व भाषा और इतिहास उभय दृष्टि से है । ऐतिहासिक रासों की परम्परा भी तेरहवीं शती से प्रारम्भ हो जाती है । कुछ वर्ष पूर्व इनके प्रकाशन का कुछ प्रयत्न हुआ था पर अब इनका प्रचार और महत्त्व दिनोंदिन घटता जा रहा है । इसलिए मूलरासों का प्रकाशन तो अब बहुत नज़र नहीं आता । इसलिए अपने "ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह " के प्रकाशन बाद जितने भी ऐतिहासिक रास या गीत उपलब्ध हुये हैं उनका संक्षिप्त सार प्रकाशित करते रहने में ही हम संलग्न हैं ।
जैन रास साहित्य की शोध स्वर्गस्थ मोहनलाल दलीचंद देसाई ने जिस लगन और श्रम के साथ की वह चिरस्मरणीय रहेगी । उन्होंने, गुर्जर जैन कवियों की ३ भागों में हजारों रचनाओं का विवरण प्रकाशित करने के साथ अनेक महत्त्वपूर्ण रासों की नकल अपने हाथ से की थी। जिनमें से एक संग्रह बड़ौदा से प्रकाशित होने वाला था । पर उनके स्वर्गवासी हो जाने से उनकी इच्छा पूर्ण न हो सकी। उनकी हाथ की की हुई प्रेस कोपियां व नोंध श्रीयुत मोहनलाल चोकसीने जितने भी उन्हें प्राप्त हो सके, बम्बई के श्री गोड़ीजी के मंदिरस्थ श्री विजयदेव सूरि-ज्ञानभंडार में रख छोड़े हैं। कुछ वर्ष पूर्व श्रीयुत काकाजी अगरचंदजी के बम्बई जाने पर उपयोग करने व प्रकाशन के लिए सामग्री का थोड़ासा अंश वे बीकानेर ले आये थे, जिनमें से हर्षसागररचित साह राजसी नागडा का रास भी एक है। इस रास का उल्लेख जैन- गुर्जर कवियों के तीनों भागों में नहीं देखने में आया । रास की प्रतिलिपि अंत में देसाई जी के किये हुये नोट्स के अनुसार अनंतनाथभंडार नं. २६२२ के चोपड़े से उन्होंने ता. २७-९-४२ को यह कृति उद्धृत की थी। राजसी रास के समाप्त होने के बाद इसमें उनकी दो पत्नियों के सुकृत्यों का वर्णन भी पीछे से जोड़ा गया है । और उसके पश्चात् हरिया शाह के वंशजों के धूतलंभनिकादि वर्णन करने वाला एक रास है। जो अपूर्ण रह गया है । दासई जी के संग्रह में एक अन्य ऐतिहासिक रास ठाकुरसी साह रास (अपूर्ण) भी नकल किया हुआ है जिसका संक्षिप्त सार अन्य लेख में दिया जायगा ।
"શ્રી આર્ય કલ્યાણૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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जिस ऐतिहासिक रासका सार प्रस्तुत लेख में दिया जा रहा है । वे नवानगरके अंचलगच्छीय श्रावक
थे और वहाँ उन्होंने एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया । इनके संबंध में अचलगच्छ पट्टावली में तो वर्णन मिलता ही है । तथा इस राससे पहले का मेघकविरचित एक अन्य रास सं. १६१० में रचित सिंधिया ऑरियण्टल इन्स्टीट्यूट उज्जैन में प्राप्त है, जिसकी प्रतिलिपि मंगाकर जैन सत्यप्रकाश के वर्ष १८, अंक ८ में सार प्रकाशित किया जा चुका है । उस राससे यह रास बड़ा है और पीछे का रचित है । इसलिए वर्णन कुछ विस्तृत और अधिक होना स्वाभाविक है, कविता की दृष्टि से प्रथम प्राप्त राससे यह रास हीन कोटिका ही है । कई जगह भाव स्पष्ट नहीं होते हैं पर लम्बी नामावली ऊबा देती है । यह राजसी कारित नवानगर के जिनमंदिरकी नींव डालने के समय में मत भिन्नता है; प्रथम रासमें सं. १६६८ अक्षय तृतीया और दूसरे रासमें १६७२ अष्टमी तिथि को खतमुहूर्त होना लिखा है । इस रासमें राजसी के पिता तेजसी द्वारा सं. १६२४ में नवानगर में शांतिजिनालय के निर्माणका भी उल्लेख है । राजसी साहके मंदिर का भी विस्तृत वर्णन इस रासमें है : जैसे ९९ x ३५ गज तथा ११ स्तरों के नाम व शिल्पस्थापत्य का भी अच्छा परिचय है । शत्रुञ्जय यात्रा तथा पुत्र रामू के गौड़ी पार्श्वनाथ यात्रा का अभिग्रह होने से संघयात्रा का वर्णन तथा लाहरण की विस्तृत नामावली एवम् दो सौ गोठी मूढज्ञातीया लोगों को जैन बनाने का प्रस्तुत रास में महत्त्वपूर्ण उल्लेख है । सं. १६९६ में नवानगर की द्वितीय प्रतिष्ठा का तथा ब्राह्मणों को दान व समस्त नगर को जिमाने आदि का वर्णन भी नवीन है । इसके बाद दो छोटे रास राजसी साह की स्त्रियों से संबंधित हैं जिनके संक्षिप्त सार भी इसके बाद दे दिये हैं । सरीयादे के रासमें तीर्थयात्रा संघ निकालने तथा राणादे रासमें स्वधर्मी वात्सल्यादि का वर्णन है । नवानगरके इस मंदिरका विशेष परिचय व शिलालेख आदि प्रकाश में ग्राने चाहिए। वहाँ के अन्य मंदिर भी बहुत कलापूर्ण व दर्शनीय हैं । इन सबका परिचय फोटो व शिलालेखादि के साथ वहाँ के संघ को प्रकाशित करना चाहिए ।
राजसी रासका सार :
कवि हर्षसागरने हंसवाहिनी सरस्वती एवं शंखेश्वर व गौड़ी पार्श्वनाथ को नमस्कार करके नागड़ा साह राजसीका रास प्रारंभ किया है । भरतखंडमें सुंदर और विशाल 'नागनगर' नामक नगर है जहां यदु वंशियों का राज्य है । राउल जामके वंशज श्री विभो, सतोजी, जसो जाम हुए जिनके पाट पर लाखेसर जाम राज्य करते हैं । इनके राज्य में प्रजा सब सुखी, मंदिर जलाशय और बागबगीचों का बाहुल्य है; चौमुख देहरी जैनमंदिर, नागेश्वर शिवालय, हनुमान, गणेशादि के मंदिर हैं । श्री लखपति जामकी प्रिया कृष्णावली और पुत्र रणमल व रायसिंह हैं। राजा के धारगिर और वसंतविलास बाग में नाना प्रकार के फलादि के वृक्ष फले रहते हैं । बड़े-बड़े व्यापारी लखपति और करोड़पति निवास करते हैं। नगर में श्रीमाली बहुत से हैं । एक हजार घर श्रावकों के हैं। छह सौ पांच घर प्रोसवालों के हैं, नगरशेठ सवजी है उसके भ्राता नैणसी है । यहाँ नागड़ वंशका बड़ा विस्तार है जिसका वर्णन किया जाता है ।
अमरकोट के राजा रा' मोहरणके कुल में ऊदल, जाहल, सधीर सूटा - समरथ - नरसंग - सकजू - वीरपाल कंधोधर, हीरपाल और क्रमशः भोज हुग्रा । भोज के तेजसी और उनके पुत्र राजसी ( राजड़) कुलमें दीपक के समान यशस्वी हुए थे, धर्म कार्य में जागसी, जावड़, जगडू, भाभा, राम, कुरपाल, श्रासकररण, जसू, टोडरमल भाल, कर्मचंद, वस्तुपाल और विमल साहकी तरह सुकृतकारी हुए ।
શ્રી આર્ય કલ્યાણ ગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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नागडसा राजसी के भाई नैणसी नेता धारा, मूला आदि तथा मूला के पुत्र हीरजी, हरजी, वरजी और राजा थे। रतनशीका पुत्र अमरा । अमरा का पुत्र सवसी व समरसी थे, मंगल भी मतिमान थे। धनराज के पोमसी और जेठाके पुत्र मोहणसी हुये। साह तला के खीमसी गोधु थे। अभा के पुत्र हाथी, विधाधर, और रणमल थे, ठाकरसी और भाखरसी भी पुण्यवान थे । इस कृटुम्ब में राजसी प्रधान थे, भाई नैणसी और पुत्र रामा और सोमकरण महामना थे । नैणसी के पुत्र कर्मसी हये। इन प्रमारवंश दीपकों ने परामर्श कर जोसी मा'श्वर को बुलाया, उससे जिनालय के लिए उत्तम मुहर्त मांगा।
भोजाके पांच पुत्रोंमें चतुर्थ तेजसी थे, इन्होंने आगे सं. १६२४ में नौतनपुरमें शांतिनाथ प्रभुका मंदिर निर्माण कराया था। अब विशाल मंदिर बनाने के लिए विचार किया तो चांपाके पुत्र मूलसीशाहने कितनाक हिस्सा दिया। वीजलदेके पुत्र राजसी और स्वरूपदे-नंदन रामसीने जिनालयका निश्चय किया। सरियादेका भरि मनमें बहुत आह्नादवान् है। ये दोनों भाई और रामसी व मुला जाकर राउल सत्र साम के नंदन जसवंतसे आज्ञा मांगी कि हमें नलिनीगुल्म विमानके सदृश जिनालय निर्माण की आज्ञा दीजिये। राजाज्ञा प्राप्त कर सानंद घर आये और गजधर, जसवंत, मेधाको बुलाकर जिनालय योग्य भूमिकी गवेषणा की और अच्छा स्थान देखकर जिनालयका मंडाण प्रारंभ किया।
राजड़के मनमें बड़ी उमंग थी। उसने विमल, भरत, समरा, जियेष्टल, जावड़, बाहड़ और वस्तुपालके शत्रुजयोद्धार की तरह नागनगरमें चैत्यालय करवाया। सं. १६७२ में उसका मंडाण प्रारंभ किया। वास्तुक जसवंत मेधाने अष्टमी के दिन शुभमुहुर्तमें ९९ गज लम्बे और ३५ गज चौड़े जिनालयका पाया लगाया। पहला घर कुजाका, दूसरा किलसु, तीसरा किवास, चौथा मांको, पांचवा गजड़ बंध, छट्ठा डोढिया, सातवां स्तरभरणी, आठवां सरावट, नववां मालागिर, दसवां स्तर छाज्जा, ग्यारहवां छेयार और उसके ऊपर कुभिविस्तार किया गया। पहला दूसरा जामिस्तर करके उस पर शिला-शग बनाये। महेन्द्र नाम चौमुख शिखरके ६०९ शृग और ५२ जिनालयका निर्माण हुआ। ३२ पुत्तलियाँ नाट्यारंभ करती हुई १ नेमिनाथ चौरी, २६ कुभी, ९६ स्तंभ चौमुख के नीचे तथा ७२ स्तंभ उपरिवर्ती थे। इस तरह नागपद्म मंडपवाले लक्ष्मीतिलक प्रासादमें श्रीशांतिनाथ मूलनायक स्थापित किये। द्वारके उभय पक्षमें हाथी सुशोभित किये। आबूके विमलशाहकी तरह नौतनपुरमें राजड साहने यशोपार्जन किया। इस लक्ष्मीतिलक प्रासादमें तीन मंडप और पांच चौमुख हुए। वामपार्श्वमें सहसफणा पार्श्वनाथ, दाहिनी ओर संभवनाथ (२ प्रतिमा, अन्य युक्त) उत्तरदिशिकी मध्य देहरीमें शांतिनाथ, दक्षिणदिशिके भूयरेमें अनेक जिनबिंव तथा पश्चिमदिशिके चौमुखमें अनेक प्रतिमाएँ तथा पूर्वकी अोर एक चौमुख तथा प्रागे विस्तृत नलिनी एवं शत्रुजय की तरह प्रतलियां स्थापित की। तीन तिलखा तोरणवाला यह जिनालय तो नागनगर-नोतनपुरमें बनवाया। तथा अन्य जो मंदिर बने उनका विवरण बताया जाता है।
भलशाररिण गांवमें फूलझरी नदीके पास जिनालय व अंचलगच्छकी पौषधशाला बनाई। सोरठके राजकोटमें भी राजड़ने यश स्थापित किया। वासुदेवकृष्णका प्रासाद मेरुशिखरसे स्पर्धावाला था। यादववंशी राजकुमार वीभोजीकुमार (भार्या कनकावती व पुत्र जीवणजी-महिरामण) सहितके भावसे ये कार्य हुए। कांडाबाण पाषाणका शिखर तथा पासमें उपाश्रय बनवाया। कालवड़ेमें यतिमाश्रम-उपाश्रय बनवाया, मांढिमें
CD માં શ્રી આર્ય કરયાણાગતમ સ્મૃતિગ્રંથો
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शिखर किया और पंचधार भोजन से भूपेंद्रको जिमाया। दो सौ गोठी जो मूढ थे वे सुज्ञानी श्रावक हुए । कांडाबाण पाषाणसे एक पौषधशाला बनवाई। कच्छ देशमें प्रोसवालोंके माढा स्थानमें एक राजड़ चैत्य है और बड़ी प्रसिद्ध महिमा है।
नागनगरके उत्तरदिशामें अन्न-पाणी की परब खोली। कच्छके मार्गमें बिडी तटस्थानमें पथिकोंके लिए विश्रामगृह करवाया और पासहीमें हनुमंत देहरी बनवाई। नामनदीके पूर्वकी ओर बहुत से स्तंभोंवाला एक चौग बनवाया जिसकी शीतल छायामें शीत व तापसे व्याकुल मानव आकर बैठते हैं। नवानगरमें राजड़ने विधिपक्षका उपाश्रय बनवाया सौद्वारवाली वस्तुपालकी पोसालके सदृश राजड़की अंचलगच्छ परशाल थी। धारागिरके पास तथा अन्यत्र इन्होंने वखारें की। काठावाणी पाषाणका सप्तभूमि मंदिर सुशोभित था। जिसकी सं. १६७५ में राजड़ने बिबप्रतिष्ठा करवाई। जामसाहबने इनका बड़ा आदर किया। सं. १६८७ में गरीबोंको रोटी तथा १॥ कलसी अन्न प्रतिदिन बांटते रहे। वणिक वर्ग जो भी आता उसे स्वजनकी तरह सादर भोजन कराया जाता था । इस दुष्कालमें जगडूसाहकी तरह राजड़ने भी अन्नसत्र खोले और पुण्यकार्य किये।
अब राजड़ के मनमें शत्रुजय यात्रा की भावना हुई और संघ निकाला । शत्रुजय पाकर प्रचुर द्रव्यव्यय किया। भोजन और साकर के पानी की व्यवस्था की। आदिनाथ प्रभु और बावन जिनालय की पूजा कर ललित सरोवर देखा । पहाड़ पर जगह जगह जिनवंदन करते हुए नेमिनाथ, मरुदेवी माता, रायण पगली, शान्तिनाथ प्रासाद,
द आदिनाथ, विध्न विनाशन यक्षस्थान में फल नारियल भेट किये। मुनिवर कारीकुण्ड (?) मोल्हाव सही. चविशतिजिनालय, अनुपमदेसर, वस्तगप्रासाद आदि स्थानों में चैत्यवंदना की। खरतर देहरा, चौकी, सिंहद्वार आदि स्थानों को देखते हुए वस्तुपाल देहरी नंदीश्वर जिनालय, होकर तिलखा तोरण-भरतेश्वर कारित आदि जिनालय के द्वार वगैरह देखते दाहिनी ओर साचोरा महावीर, विहरमान पांच पांडव, अष्टापद, ७२ जिनालय, मुनिसुव्रत और पुडरिकस्वामी को वंदना कर मूलनायक आदीश्वर भगवान की न्हवण विलेपनादि से विधिवत् पूजा की। फिर नवानगर से आकर सात क्षेत्रों में द्रव्यव्यय किया।
रामूने गौड़ी पार्श्वनाथ की यात्रा के निमित्त भूमिशयनका नियम ले रखा था, अतः संघ निकालने का निश्चय किया गया । वागड़, कच्छ, पचाल, हालार आदि स्थानों के निमंत्रण पाकर एकत्र हुए। पांच सौ सेजवाला लेकर संघ चला, रथों के खेहसे सूर्य भी मंद दिखाई देता था। प्रथम प्रयाण धूप्रावि, दूसरा भाद्र, तीसरी केसी और चौथा बालामेय किया। वहां से रणमें रथ घोड़ों से खेड़कर पार किया और कीकांण आये, एक रात रहकर अंजार पहुंचे। यहां यादव खंगार के पास अगणित योद्धा थे। कुछ दिन अंजार में रहकर संघ धमडाक पहुंचा। वहां से चुखारि वाव, लोद्राणी, रणनी घेडि, खारड़ी रणासर होते हुए पारकर पहुंचे। राणाको भेट देकर सम्मानित हुए फिर गौड़ी जी तरफ चले । चौदह कोस थल में चलने पर श्री गौड़ीजी पहुंचे। नवानगर से चलने पर मार्ग में जो भी गाम-नगर आये, दो सेर खांड और रौप्यमुद्रा लाहण की। संघ इतर लोगों को अन्न व मिष्टान्न भोजन द्वारा भक्ति कर संतुष्ट किया।
अब श्रीगौडीजीसे वापिस लौटे और नदी गांव और विषम मार्ग को पार करते हुए सकुशल नवानगर पहुंचे । राजड़ साहकी बड़ी कीति फैली। जैन अंचलगच्छके स्वधर्मी बंधुओं में राजड़ साहने जो लाहण वितरित की वह समस्त भारतवर्ती ग्राम-नगर में निवास करने वाले श्रावकों से संबंधित थी। रासमें आये हुए स्थानों की नामा
એમ શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ
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वली यहां दी जाती है जिससे उस समय अंचलगच्छ का देशव्यापी प्रचार विदित होता है १. नौतनपुर २. ग्रावि ३. वरणथली ४. पडधरी ५. राजकोट लइया, लुधु, मोरबी, हलवद, कटारिश्र, विहंद, धमडकु, चकासर, अंजार, भद्रेस, भूहड, वारड़ी, वाराही, भुजपुर, कोठारे, सारुरु, भुजनगर, सिंध-सामही, बदीना, सारण, अमरपुर, नसरपुर, फतेबाग, सेवगरा, उतमुलतान, देराउर, सरवर, रोहली, गौरवड़, हाजीखानदेश, रांढला, भिहरुक, सलाबुर, लाहोर, नगरकोट, बिकानेर, सरसा, भटनेर, हांसी, हसार, (?) उदिपुर, खीमसर, चितुड़, अजमेरि, रणथंभर, आगरा, असराणा, बडोद्रे, तजारे, लोद्राणी, खारड़ी, समोसण, महीप्राणी, मोद्र, वरड़ी, पारकर, बिहिराण, सातलपुर, यंहुइवारु, अहिबाली, वाराही, राधनपुर, सोही, वाव, थिराद्र, सुराचन्द, राडद्रह, साचोर, जालोर, बाहडमेर, भाद्रस, कोटडे, विशाले, शिववाड़ी, ससियाणे, जसुल, महेवा, पाशगकोट, जेसलमेर, पूहकरण, जोधपुर, नागोर, मेडता, ब्रह्माबाद, सकंद्राबाद, फतेपुर, मेवात, भालपुरा, सांगानेर, नडुलाई, नाडोल, देसुरी, कुभलमेर, सादडी, भीमावाव कुभलमेर, सादड़ी राणपुर, सिखे गुदवच, पावे, सोझित, पाली, पाडवा, गोटे, राहीठ, जितारण, पदमपुर, उसीया, भिनमाल, भमराणी, खांडय, धरणसा, वाघोड़े, मोरसी, ममते, फूकती, नरता, नरसाणु, मड़ी, गाहड़, प्रांबलिपाल, सारूली, सीरोही, रामसण, मंडाहड़, पाबू, विहराणे, इडरगढ़, वीसल नगर, अणहलपुरपाटण, स्मूहंदि, लालपुर, सीधपुर, महिसाणा, गोटाणे, वीरमगाम, संखीसर, मांडल, अधार, पाटड़ी, वजाणे, लोलाडे, धोलका, धंधूका, वीरपुर, अमदावाद, तारापुर, मातर, वडोदरा, बांमरि (?) हांसूट, सुरति, वरान, जालण, कंतडी, वीजापुर, खड़की, मांडवगढ़, दीवनगर, घोघा, सखा, पालीतारणा, जुनागढ, देवका पाटण, ऊना, देलवाड़ा, मांगलूर, कूतियाणे, राणावाव, पुर, मीप्राणी, भाणवड़, राणपर, मणगुरे, खंभाधीए, वीसोतरी तथा भांढिके गोठी महाजन व झांखरिके नागड़ावंशी जो राजड़ के निकट कुटुबी हैं तथा छीकारी में भी लाहण बांटी। महिमाणे कच्छी प्रोसवालों में हालीहर, उसवरि, लसूए, गढ़कानो, तीकावाहे, कालायड़े मलूग्रा, हीणमती, भणसारणि इत्यादि कच्छ के गामनगरों में अंचलगच्छीय महाजनों के घर लाहरण वितीर्ण की।
राजड़ के भ्राता नैणसी तथा उसके पुत्र सोमा ने भी बहुत से पुण्य कार्य किये। राजड़ के पुत्र कर्मसी भी शालीभद्र की तरह सुदंर और राजमान्य थे। उन्होंने विक्रमवंश-परमारवंश की शोभा बढाई । शत्रजय पर इन्होंने शिखरबद्ध जिनालय बनवाया।
वीरवंश वाणे सालवीउड़क गोत्र के पांच सौ घर अहिलपुर में तथा जलालपुर, अहिमदपुर, पंचासर, कनडी, बीजापूर आदि स्थानों में भी रहते थे। गजसागर, भरतऋषि, तथा श्री कल्याणसागर सरि ने उपदेश देकर प्रतिबोध किया। प्रथम यशोधन शाखा हुई। नानिग पिता और नामल दे माता के पुत्र श्री कल्याणसागर ने संयमश्री से विवाह किया वे धन्य हैं। इन गुरु के उपदेश से लाहण भी बांटी गयी तथा दूसरे भी अनेक पुण्य प्राप्त हुए।
अब राजड़साह ने द्वितीय प्रतिष्ठा के लिए निमित्त गुरुश्री को बुलाया। सं. १६९६ मिति फाल्गुन शुक्ला ३ शुक्रवार को प्रतिष्ठा संपन्न हुई। उत्तर दिशि के द्वार के पास विशाल मंडप बनाया। चौमुख छत्री व देहरी तथा पगथियां बनाये। यहां से पोलि प्रवेश कर चैत्यप्रवेश होता है। दोनों और ऐरावण गजों पर इंद्र विराजमान किये । साह राजड़ ने पौत्रापिकयुक्त प्रचुर द्रव्यव्यय किया ।
કરી
શ્રી આર્ય કયાહાગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ ન
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MARATHARAM
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प्रतिष्ठा के प्रसंग से साह राजसी ने नगर के समस्त अधिवासी को भोजन कराया। प्रथम ब्राह्मणों को दस हजार का दान दिया व भोजन कराया। नाना प्रकार की भोजन सामग्री तैयार की गई थी। इन्होंने चतुर्थ व्रत ग्रहण करने के प्रसंग पर भी समस्त महाजनों को जिमाया। पर्युषण पारणे का भोजन तथा साधु-साध्वियों को, चौराशी गच्छ के महात्मा महासतियों को दान दिया। छत्तीस राजकुली लोगों को जिमाया। फिर सूत्रधार, शिलाव, सुथार, क्षत्री, ब्रह्मक्षत्री, भावसार राजगरोस, नारोह भाटीया, लोहाणा, खोजा, कंसारा, भाट, भोजक, गंधर्व, व्यास, चारण तथा अन्य जाति के याचकों को एवं लाडिक, नाडक, सहिता धूइया, तीन प्रकार के कणबी, सतूपारा, मणलाभी, तंबोली, माली, मणियार, भड़भूजे, प्रारुपा, लोहार, सोनी, कंदोई, कमारण गिर, धूध, सोनार, पटोली, गाजी को पक्वान्न भोजन द्वारा संतुष्ट किया।
अब कवि हर्षसागर राजड़ शाह की कीति से प्रभावित देशों के नाम बताते हैं। जिस देश में लोग, अश्वमुखा, एकलपगा, श्वानमुखा, वानरमुखा, गर्दभरणगा, तथा हाथीरूप सुअरमुखा तथा स्त्रीराज के देश में, पंचभर्तारी नारी वाले देश में, राजड़ साह के यश को जानते हैं। सिर पर सगड़ी, पैरों में पावड़ी तथा हाथ से अग्नि घड़भर भी नहीं छोड़ते ऐसे देशों में चीन, महाचीन, तिलंग, कलिंग, वरेश, अंग, बंग, चित्तौड़, जैसलमेर, मालवा, शवकोट, जालोर, अमरकोट, हरज़म, हिंगलाज, सिंध, ठठा, नसरपुर, हरमज, बदीना, आदन, वसुस, रेड़
जापुर, खंभात, अहमदाबाद, दीव, सोरठ, पाटण, कच्छ, पंचाल, वागड़, हालाहर, हरमति इत्यादि देशों में विस्तृत कीर्तिवाला राजड़ साह परिवार आनंदित रहे ।
सं. १६९८ में विधिपक्ष के श्री मेरुतुगसूरि-बुधमेरु-कमल में, पंडित भीमा की परंपरा में उदयसागर के शिष्य हर्षसागर ने इस रास प्रबंध की वैशाख सुदी ७ सोमवार के दिन रचना की। सरियादे के रासका सार
साह राड़क के संघ के बाद किसी ने संघ नहीं निकाला । अब सरियादे ने साह राजड़ के पुण्य से गिरनार तीर्थ का संघ निकाला और पांच हजार द्रव्य व्यय कर सं. १६९२ में अक्षय तृतीया के दिन यात्रा कर पंचधार भोजन से संघ की भक्ति की। रा. मोहन से नागड़ा चतुर्विध की उत्पत्ति को ही पूर्वाम्नायके अनुसार पुत्री असुखी तथा जहां रहेंगे खूब द्रव्य खरच के पुण्यकार्य करेंगे । व तीनों को (माता, पिता और श्वसुर के कुलों को) तारेंगे।
___सरियादे ने (राजड़ की प्रथम पत्नी ने) सं. १६९२ में यात्रा करके मातृ, पितृ और श्वसुर पक्ष को उज्जवल किया। उसने मास पक्ष क्षमणपूर्वक याने तपों को संपूर्ण करके, छरि पालते हुए पाबु और शत्रुजय की भी यात्रा प्रारंभ की। ३०० सिजवाला तथा ३००० नरनारियों के साथ जुनागढ़ गिरनार चढ़ी । भाट, भोजक, चारण, आदि का पोषण किया फिर नगर लौटी।
इनके पूर्वज परमारवंशी रा. मोहन अमरकोट के राजा थे। जिन्हें सद्गुरु श्री जयसिंह सूरि ने प्रतिबोध देकर जैन बनाया था। कर्म संयोग से इनके पुत्रपुत्री नहीं थे, प्राचार्य श्री ने इन्हें मद्य, मांस और हिंसा का त्याग करवा के जैन बनाया। गुरु ने इन्हें पाशिष दी जिससे इनके पाठ पुत्र हुए। पाँचवाँ पुत्र नाग हुअा। बाल्यकाल में व्यंतरोपद्रव से बाल कड़ाने लगा। बहुत से उतारणादि किये। बाद में एक पुरुष ने प्रकट होकर नाग से नागड़ा गोत्र स्थापित करने को कहा । और सब कार्यों की सिद्धि हुई।
અમ શ્રી આર્ય ક યાણગૌતમસ્મૃતિ ગ્રંથ કાપી
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________________ राणादे के रासका सार राजड़ साह ने स्वर्ग से आकर मानवभव में सर्व सामग्री संपन्न हो बड़े बड़े पुण्यकार्य किये। अपनी अर्धांगिनी राणादे के साथ जो सुकृत किये वे अपार हैं; उसने सामिक वात्सल्य करके 84 ज्ञाति वालों को जिमाया। इसमें सतरह प्रकार की मिठाई-जलेबी, पैड़ा, बरफी, पतासा, घेवर, दूधपाक, साकरिया चना, . इलायचीपाक, मरली, अमृति, मोतीचूर, साधूनी इत्यादि तैयार की गई थीं। प्रोसवाल, श्री माली आदि महाजनों की स्त्रियां भी जिमनवार में बुलाई गई थीं। इन सबको भोजनोपरांत पान, लवंग, सुपारी, इलायची आदि की मनुहार की, केसर, चंदन, गुलाब के छांटणे देकर श्रीफल से सत्कृत किया गया था। भाट, भोजक, चारण आदि याचकजनों को भी जिमाया तथा दीनहीन व्यक्तियों को प्रचुर दान दिया। राणादे ने लक्ष्मी को कार्यों में धूम व्यय करके तीनों पक्ष उज्ज्वल किये / सुठुवि मग्गिज्जंतो, कत्य वि केलीइ नत्थि जह सारो। इंदिअविसएसु तहा, नथि सुहं सुठु वि गविट्ठ। खूब खोजने के बाद भी केले के वृक्ष में कोई उपयोगी वस्तु दिखाई नहीं देती, ठीक उसी प्रकार जह कच्छुल्लो कच्छु, कंडयमाणो दुहं मुणई सुक्खं / मोहाउरा मणुस्सा, तह कामदुहं सुहं विति // खुजली का मरीज़ जब खुजलाता है, तब वह दुःख में भी सुख का अनुभव करता हैं, ठीक उसी प्रकार मोहातुर मनुष्य कामजनित दुःख को सुख मानता है। जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य। अहो दुक्खो है संसारो, जत्थ कोसन्ति जंतवो // जन्म दुःख है, धड़दण दुःख है; रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है / अहो, संसार ही दुःखमय है / इसमें प्राणी को दुःख प्राप्त होता रहता है। DEaa શ્રી આર્ય કયાણાગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ .