Book Title: Guru Parampara ki Gaurav Gatha
Author(s): Prakash Muni
Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-परम्परा की गौरव गाथा श्री प्रकाश मुनि ( मेवाड़ भूषण श्री प्रतापमलजी महाराज के शिष्य ) उन दिनों स्थानकवासी समाज के अन्तर्गत कोटा संप्रदाय की ख्याति भारत के काफी मू-भाग में परिव्याप्त थी । आज भी स्थानकवासी जैन समाज में कोटा सम्प्रदाय का नामोल्लेख गरिमा के साथ लिया जाता है। कारण कि स्था० जैन समाज की प्रगति में इस संप्रदाय का अत्यधिक योगदान रहा है । वस्तुतः अन्य शाखा प्रशाखाओं की तरह इस शाखा का महत्त्व भी प्रभावपूर्ण रहा है । श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री दौलतरामजी म० के पदानुगामी आ० श्री लालचन्दजी म० और आपके पट्टापट्ट आचार्य श्री शिवलाल जी म० हुए। जिनकी विस्तृत जानकारी 'हमारे ज्योतिधर आचार्य' नामक लेख में अंकित को गई है । आपके समोज्ज्वल थर्म शासन में कोटा संप्रदाय का चहुँमुखी विकास हुआ। इस कारण आप (आ० श्री शिवलालजी म०) को कुलाचार्य के नाम से विभूषित किया गया । आ० श्री शिवलालजी म० के अनेक शिष्यरत्न हुए जिनकी नामावली निम्न है आ० श्री उदयसागरजी म० पं० रत्न श्री मगनीरामजी म० पं० रत्न श्री गणेशलालजी म० पं० रत्न श्री धनाजी म० पं० रत्न श्री अनोपचन्दजी म० आ० श्री चौथमलजी म० तपस्वी श्री राजमलजी म० श्री रतनचन्द जी का वैराग्य और दीक्षा वि० सं० १९९४ के दिनों में तपोधनी श्री राजमलजी म० का कंजार्डा (रामपुरा, मध्य प्रदेश) में पदार्पण हुआ । स्थानीय संघ ने शुभागत मुनिमण्डल का भावमीना स्वागत किया । जन मन की सुप्त भावना पुनः आनन्द विभोर हो उठी । वैराग्यपूर्ण व्याख्यानों से जनता लाभान्वित होने लगी । यद्यपि गाँव छोटा था, और घर स्वल्प संख्या में थे। फिर भी धर्माराधना की दृष्टि से पर्व जैसा ठाट रहा । उपदेशामृत का पान कर वहाँ के निवासी श्रीमान् रतनचन्दजी मण्डारी की भावना संसार के प्रति उदासीन हो उठी । तपस्वी महाराज बिल्कुल ठीक फरमाते है- “आयु के अमूल्य क्षण बीतते हुए चले जा रहे हैं । गया यौवन वापिस आता नहीं है। एक दिन शरीर सूखे पत्तों की तरह पीला इसलिए तपस्वी म० के चरणों में मैं दीक्षा ग्रहण कर जीवन कि 'बेलारा वाया मोती निपजे' ऐसा अवसर फिर मुझे कब पढ़कर काल के गाल में समा जाता है। सफल करूँ तो अच्छा है । कहते हैं मिलेगा ?" Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ घर आकर अपनी धर्मपत्नी राजकुंवर से बोले-प्रिये ! मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ। अनुमति के सम्बन्ध में तेरी क्या इच्छा है ? मैं जानना चाहता हूँ। 'आपने बहुत बढ़िया सोचा। मैं भी सोचती हूँ कि ऐसा अवसर मिला नहीं करता है। साध्वी बनकर जीवन बिताऊँ। इस अनित्य-अशाश्वत संसार में कौन अमर रहा है ? परन्तु इन नन्हें-नन्हें बच्चों की ओर देखती हैं तो फिर विचार आता है कि इनका क्या होगा? कौन संभालेगा? मातापिता के बिना यह स्वार्थी संसार इन्हें क्या पालेगा, और क्या पढ़ायेगा ? अतएव मैं आपको इन्कार तो नहीं करती पर जवाहरलाल का विवाह हो जाय, उसके बाद आप और मैं दीक्षित हो जायेंगे।' रात्रि में सभी सो रहे थे। अनायास पड़ोसी के यहां एक नवजात शिशु की मृत्यु हो गई। घरवाले रो रहे थे। रतन चन्दजी की निद्रा टूट गई । अपनी धर्मपत्नी से बोले-'कौन गुजर गया है अचानक ?' 'नाथ ! छह दिन का बालक, आज दुपहर के समय बीमार पड़ा था । वही शायद मर गया है। इलाज भी किया, पर कारी नहीं लगी। काफी वर्षों के पश्चात् घर का आंगन पुत्र से धन्य हुआ था। पर काल ने उसे भी छीन लिया। काल के सामने किस का वश चलता है।' 'अब तू ही बता, दीक्षा के लिए देर करना क्या उचित है ? तू बच्चों को बड़ा करके सभी को रास्ते लगा देना । मुझे जाने दे । भविष्य में तेरे भाग्य में होगा तो देखा जायेगा। इस अवसर पर आपके साले श्री देवीलाल जी बहन-बहनोई से मिलने के लिए आए हए थे। दीक्षा सम्बन्धी बहनोई के विचार सुनकर बोले 'बहनोई साहब ! आप दीक्षा लेना चाहते हैं। बहुत खुशी की बात है। मैं भी आपके साथ होता हैं।' धन्ना-शालिभद्र की तरह श्रीमान रतनचन्दजी और देवीलालजी, साला-बहनोई दोनों वि० सं १९१४ ज्येष्ठ शुक्ला ५ की शुभ वेला में तपस्वी महाराज के चरण कमलों में दीक्षित पांच वर्ष के पश्चात अर्थात १६१९वें वर्ष में अपने शिष्य परिवार के साथ भावी आचार्य प्रवर श्री चौथमलजी म. का कंजार्डी की कठोर धरती पर शभागमन हुआ। उपदेशों की अमत धाराओं से भव्यात्माओं की मानस स्थली प्लावित होने लगी। दर्शनार्थियों के सतत आवागमन से कंजार्डी तीर्थ-भूमि सा प्रतिभासित हो रहा था। असरकार धर्मोपदेश श्रवण कर श्री रतनचन्दजी म० के ज्येष्ठ पुत्र श्री जवाहरलालजी की सुप्त चेतना जाग उठी । अन्तरात्मा में वैराग्य के स्रोत फूट पड़े। दीक्षा लेने की प्रबल इच्छा से प्रेरित होकर अपनी माता राजाकुवर से बोले-'माता ! जिस महान धर्म मार्ग की पिताजी आराधना कर रहे हैं, मैं मी उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहता हूँ। दीक्षा के लिए जल्दी मुझे आज्ञा दीजिए।' __ 'बेटा ! अभी नन्दा छोटा है । एक वर्ष ठहर जा, उसके बाद तू, हीरा, नन्दा और मैं चारों दीक्षित तो जायेंगे । एक साथ दीक्षा लेना अच्छा रहेगा। विनीत पुत्र जवाहरलाल ने माता की बात मान्य की। मुनि मण्डल ने मारवाड़ की ओर बिहार किया। सं १९२० का चौमासा फलौदी (मारवाड़) में हुआ। इस चौमासे में कंजार्डा का श्री संघ आचार्यदेव के सान्निध्य में विनती पत्र लेकर फलोदी पहुँचा--चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात मुनि मण्डल कंजार्डा पधारे। बहाँ अखण्ड सौभाग्यवती राजकुवर बाई अपने तीन पुत्रों के साथ प्रबल वैराग्य से प्रेरित होकर दीक्षा लेने की भावना रखती हैं। यह महान महोत्सव आचार्य प्रवर के हाथों से सम्पन्न हो, ऐसी कंजार्डा श्री संघ की भावना है। इसलिए हमारी विनती मान्य की जाय।' Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ गुरु-परंपरा की गौरव गाथा समयानुसार आचार्य प्रवर श्री शिवलालजी म० त० श्री राजमलजी, भावी आ० श्री चौथमल जी म०, श्री रतनचन्दजी म०, श्री देवीचन्दजी म०, आदि मुनि आठ और महासती श्री रंगूजी, त० श्री नवलाजी महासती एवं श्री वृजूजी महासती आदि का कंजार्डा में शुभागमन हुआ । हजारों दर्शनार्थियों की उपस्थिति में वि० सं० १९२० पौष शुक्ला ६ की पवित्र वेला में श्री राजकुंवर बाई (श्री रतनचन्दजी म. की धर्मपत्नी ) ने संघ हित व आत्म कल्याण को दृष्टि से अपने पंद्रह वर्षीय पुत्र श्री जवाहरलाल को, बारह वर्षीय श्री हीरालाल को और आठ वर्षीय लघुपुत्र नन्दलाल को दीक्षित करने के पश्चात आप स्वयं राजकुंवर बाई महासती नवलाजी की शिष्या बन गई । चराचर सम्पति को ज्यों की त्यों खुली छोड़कर सारा परिवार त्याग - वैराग्य की पवित्र परपरा का पथिक बन जाना, कोई मामूली काम नहीं है। अपितु एक आदर्श त्याग और धीर-वीर इतिहास का आविर्भाव ही माना जायगा । जो सचमुच ही स्वाभिमान का प्रतीक है । श्री रतनचन्दजी म० के नेश्राय में बड़े पुत्र श्री जवाहरलालजी म० को और श्री जवाहर लालजी म० के नेत्राय में श्री हीरालालजी म० को एवं श्री नन्दलालजी म० को घोषित किया गया । उपस्थित विशाल जनसमूह ने उनके महान् त्याग की मुग्ध कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा'आज हमें चौथे आरे का दृश्य देखने को मिला ।' इस प्रकार श्रद्धय श्री रतनचन्दजी म० ३६ वर्ष पर्यंत शुद्ध संयम धर्म की आराधना कर संथारा सहित वि० सं० १९५० के वर्ष में जावरा नगर में सद्गति को प्राप्त हुए । ३६ वर्ष आप संसारावस्था में रहे और ३६ वर्ष संयम में, इस प्रकार आपकी कुल आयु ७२ वर्ष की थी । आप के विषय में पूज्य श्री खूबचन्दजी म० द्वारा निर्मित गीतिका इस प्रकार है श्री रतनचन्दजी महाराज का गुणानुवाद (तर्ज-- ते गुरु चरणा रे नमिये) रतन मुनि गुणीजन रे पूरा हुआ तप संयम में शूरा || || गाँव कंजाडां रे गिरि में, तिहा जन्म लियो शुभ घड़ी में । जीवन की वय जद रे आया, मन वैराग मजीठ का छाया ॥ १ ॥ गुरु राजमलजी के पासे, लियो संजम आप हुलासे । साथै दीवी चंदजी रे साला ते तो निकल्या दोनूँ लारा ||२|| निज घर नारी रे छोड़ी, ममता तीन पुत्र से तोड़ी । छः वर्ष पीछे रे ते पिण, सब निकल गया तज सगपण || ३ || छत्तीस वर्ष संजम रे पाल्यो, जाने नरभव लाभ निकाल्यो । अठारा से अठोतर में जाया, उन्नीसे पचास में स्वर्ग सिधाया || ४ || उगणी से इकातर के माँही, जाँ की जश कीर्ति सुख गाई । कभी तो होगा रे तिरना, मुझे नंदलाल गुरुजी का शरना ||५|| गुरुजी श्री जवाहरलालजी महाराज आपका जन्म वि० सं० १६०३ वसन्त ऋतु के दिनों में और दीक्षा सं० १९२० पौष शुक्ला ६ के दिन हुई । शैशव काल से ही आप शीतल प्रकृति के धनी थे । कोई बालक आपको गाली देता तो भी प्रत्युत्तर में आप शांत रहते । दीक्षित होने के पश्चात् कुछ ही समय में काफी ज्ञान एवं अनेक द्रव्यानुयोग के बोल कंठस्थ किये। धीरे-धीरे काफी आगमिक अनुभव प्राप्त किया। प्रकृति के आप शशिवत् शीतल, शांत, दांत, सरल, स्वाध्यायरत एवं सागर सदृश गम्भीर आदि अनेक गुणों से Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ सुशोभित होते हुए आप एक प्रकार के असली आध्यात्मिक जवाहर के रूप में निखरे । सभी साधु साध्वी आपको गुरुजी के नाम से पुकारते थे। आपका वि० सं० १९७२ का वर्षावास मंदसौर था। शरीर में व्याधि का फैलाव अधिक होने के कारण आपने संथारा स्वीकार किया। उधर मंदसौर निवासी जीतमल जी लोढा को स्वप्न दर्शन हुआ कि- "गुरुजी जवाहरलाल जी म. का कार्तिक शुक्ला ६ के दिन १२ बजकर १५ मिनिट पर स्वर्गवास होगा और तीसरे देवलोक में जायेंगे।" वह दिन आया। प्रातःकाल श्री छोटे मन्नालाल जी म० ने गुरुजी से पूछा---"भगवन् ! कुछ ज्ञान का आभास हुआ है ?" "हाँ मुने ! 'क्षयोपशम परमाणे' अर्थात् कुछ अंश मात्रा में अवधिज्ञान का आभास हुआ है।" तत्पश्चात् उनकी रसना रुक गई। बस, लोढाजी के स्वप्नानुसार उसी समय आपश्री का स्वर्गवास हुआ। वस्तुतः पूर्ण विश्वास किया जाता है कि निश्चयमेव वह भद्र आत्मा तीसरे स्वर्ग में पहुंची है। इस प्रकार कार्तिक शुक्ला में ५१ वर्ष १० मास का संयम पाल कर कुल ६८ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर मंदसोर भूमि में स्वर्गस्थ हुए। आपका शिष्य परिवार (१) कवि श्री हीरालालजी महाराज, (२) पं० श्री नन्दलालजी महाराज, (३) मुनिश्री माणकचन्दजी महाराज । पं० रत्न कवि श्री हीरालालजी महाराज वि० सं० १६०९ आषाढ़ शुक्ला ४ के दिन कंजार्डा ग्राम में आपका जन्म हुआ और ११ वर्ष की लघु वय में अर्थात् संवत् १९२० पौष मास में अपनी जन्म भूमि में आप दीक्षित हुए । स्वभाव की दृष्टि से आप अपने ज्येष्ठ भ्राता गुरुदेव श्री जवाहरलाल जी म० की तरह सरल-शांत समता-संतोष आदि गुणों में सम्पन्न थे। बुद्धि तीक्ष्ण थी। स्वल्प समय में ही पर्याप्त शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ व्याकरण, छन्द, पिंगल आदि विषयों का अच्छा ज्ञान और अनुभव संपादन किया। उस समय आपका व्यक्तित्व सफल वक्ता और सफल कवि के रूप में समाज में उभरा। आपकी रुचि कविता, स्तवन, गीतिका एवं लावणियाँ रचने में व गाने में अधिक थी। वस्तुत: आपने अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों को लेकर भक्ति, वैराग्य एवं उपदेशात्मक, भावभाषा की दृष्टि से सरल, सुबोध, प्रेरणादायक विविध कविताएँ, स्तवन, सवैया और चौपाइयां आदि की सुन्दरतम रचना करके साहित्य भण्डार के विकास में सराहनीय योगदान प्रदान किया है। कंठ माधुर्य का आकर्षण इतना था कि आपके व्याख्यान में श्रोताओं के अतिरिक्त चलतेफिरते राहगीरों की खासी भीड़ स्वर लहरियों को सुनने के लिए खड़ी हो जाया करती थी। अद्यावधि आपकी अनेकों कविताएँ भजन और सवैया जनजिह्वा पर गुनगुनाते सुनाई देते हैं। पर्युषण पर्व के दिनों "एवंता मुनिवर नाव तीराई बहता नीर में" इस लावणी को जब भावुक मन गाते हैं, तब गायक और श्रोतागण भक्ति रस में झूम जाते है। वि० सं० १९७४ का वर्षावास अजमेर था। 'इदं शरीरं व्याधि मंदिरम्' के अनुसार शरीर व्याधिग्रस्त हआ। काफी उपचार के बावजूद भी व्याधि उपशांत नहीं हुई। अन्त में आपने संथारा स्वीकार किया। गुरुदेव श्री नन्दलालजी म० एवं जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म० आदि संतों की उपस्थिति में ६५ वर्ष की आयु में लगभग ५४ वर्ष की संयमाराधना करके अजमेर शहर में आप स्वर्गवासी हुए । प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. आपके ही शिष्यरत्न थे। वर्तमान काल में आपका शिष्य-प्रशिष्य परिवार इस प्रकार है Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-परंपरा की गौरव गाथा ३७७ (१) कवि एवं वाचस्पति श्री केवल मुनि जी म. (२) तपस्वी श्री इन्दर मुनिजी म. (ताल वाले) (३) तपस्वी एवं वक्ता श्री बिमल मुनिजी म० (४) त० श्री मेघराजजी म०, (५) मधुर वक्ता श्री मूलचन्दजी म०, (६) अवधानी श्री अशोक मुनिजी म०, (७) शास्त्री श्री गणेश मुनिजी म०, (5) तपस्वी श्री मोहनलाल जी म०, (९) वक्ता श्री मंगल मुनिजी म०, (१०) तपस्वी श्री पन्नालालजी म०, (११) संस्कृत विशारद श्री भगवती मुनि म० (१२) प्र० श्री उदय मुनिजी म० (सिद्धान्त-आचार्य), (१३) तपस्वी श्री वृद्धिचन्दजी म०, (१४) श्री सुदर्शन मुनिजी म०, (१५) सेवाभावी श्री प्रदीप मुनिजी म०, (१६) सफल वक्ता श्री अजीत मुनिजी म०, (१७) वक्ता श्री चन्दन मुनिजी म०, (१८) वि० श्री वीरेन्द्र मुनिजी म०, (१६) कवि श्री सुभाष मुनिजी म०, (२०) श्री रिषभ मुनिजी म०, (२१) मधुर गायक श्री प्रमोद मुनिजी म०, (२२) सेवाभावी श्री भेरुलालजी म०, (२३) तपस्वी श्री वर्धमानजी म०, (२४) श्री पीयूष मुनिजी म०। । वादीमानमर्दक गुरु श्री नन्दलाल जी महाराज वि० सं० १९१२ भादवा सुदी की शुभ वेला में आपका जन्म कंजार्डा गांव में हुआ। परम्परागत सुसंस्कारों से प्रेरित होकर आठ वर्ष की अति लघुवय में अर्थात् सं० १९२० पौष मास में आप अपने ज्येष्ठ युगल म्राताओं (गुरु श्री जवाहरलालजी १०, श्री हीरालालजी म.) के साथ दीक्षा जैसे महान् मार्ग पर चल पड़े। शैशव काल से आप प्रज्ञावान थे। कुछ ही समय में पांच-सात शास्त्रीय गाया कंठस्थ कर लिया करते थे। विद्याध्ययन की रुचि देखकर एकदा भावी आचार्य प्रवर श्री चौथमलजी म. ने रतनचन्दजी महाराज से कहा कि-'नन्दलाल मुनि को कुछ वर्षों तक पढ़ाई के लिए मेरी सेवा में रहने दो। क्योंकि इस बालक मुनि की बुद्धि बड़ी तेजस्विनी है । सुन्दर ढंग से मैं नन्दलाल मुनि को आगमों की वाचना और धारणा करवाने की भावना रखता हूँ। आशा है यह मुनि भविष्य में आगमों के महान् ज्ञाता के रूप में उभरेगा।" श्री रतनचन्दजी म० ने आचार्यदेव की आज्ञा शिरोधार्य की। सं० १९२२ का वर्षावास आचार्यदेव का जावद शहर में था। उन दिनों तेरापंथी सम्प्रदाय के तीन मुनियों का वर्षावास भी वहीं था। एक दिन मुनियों का पारस्परिक मिलना हुआ तो आचार्यदेव ने सहज में पूछा"आजकल आप व्याख्यान में कौनसा शास्त्र पढ़ते हैं ? "भगवती सूत्र" प्रमुख मुनि ने उत्तर दिया । पुनः आचार्य प्रवर ने पूछा-"तो बताइए, शकेन्द्र और चमरेन्द्र के वज्र को ऊर्ध्व लोक में Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ जाने में कितना समय लगता है और नीचे लोक में आने में कितना समय? यह प्रश्न भगवती सूत्र का ही है।" "इस समय हमारे ध्यान में नहीं है।" प्रमुख तेरापंथी मुनिजी ने कहा। तब आचार्य प्रवर श्री ने लघुमुनि नन्दलालजी म० की तरफ संकेत किया कि-"मेरे प्रश्न का उत्तर देओ।" आचार्य प्रवर की ओर से आज्ञा मिलते ही श्री नन्दलालजी म. उत्तर देने के रूप में सवि. स्तार कहने लगे-"ऊर्ध्व लोक में जाने के लिए शकेन्द्र को जितना समय लगता है, उससे दुगुना उनके वज्र को और तीन गुना चमरेन्द्र को लगता है। इसी प्रकार अधोलोक में जाने के लिए चमरेन्द्र को जितना समय लगता है, उससे दुगुना शक्रेन्द्र को और तीन गुना शक्रेन्द्र के वज्र को लगता है।" ठीक उत्तर श्रवण कर सभी मुनिवृन्द काफी प्रभाबित हुए। तेरापंथी मुनियों को कहना पड़ा कि-आपके ये लघमुनि काफी प्रभावशाली निकलेंगे। अभी तो काफी छोटी उम्र है फिर भी विकास सराहनीय है। भविष्य में मापने जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों का भी अच्छा अध्ययन सम्पन्न किया । शास्त्रार्थ करने में आप काफी कुशल थे। कई बार उस युग में मन्दिरमार्गी आचार्यों के साथ आपको शास्त्रार्थ करना पड़ा था। निम्बाहेड़ा, नीमच, मंदसौर और जावरा शास्त्रार्थ के स्थल प्रसिद्ध हैं, जहां अनेक बार मूर्तिपूजक मुनियों के साथ खुलकर चर्चाएं हुई है। गुरुदेव के शुभाशीर्वाद के प्रताप से सभी स्थानों पर आपने स्थानकवासी जैन समाज की गरिमा में चार चांद लगाये। तब चतुर्विध श्री संघ ने आपको 'वादकोविद वादीमानमर्दक' पदवी से विभूषित कर गौरवानुभव किया था। वृद्धावस्था के कारण कुछ वर्षों से आप नीम चौक जैन स्थानक रतलाम स्थिरवास के रूप में विराज रहे थे । श्रावण कृष्णा ३ सं० १९६३ के मध्याह्न के समय शास्त्र पठन-पाठन कार्य पूरा हुआ। अनायास आपश्री का जी मचलाने लगा। अंतकाल निकट आया जानकर संथारा स्वीकार किया और 'नमोत्थुणं' की स्तुति करते-करते आप स्वर्गवासी हो गये। ७३ वर्ष पयंत संयमाराधना पालकर कुल ८१ वर्ष की आयु में परलोक पधारे । आचार्य प्रवर श्री खूबचन्दजी म०, पं० श्री हजारीमलजी म. (जावरा वाले); श्री लक्ष्मीचन्दजी म० एवं मेवाड़ भूषण श्री प्रतापमलजी म., आदि-आदि गुरुदेव श्री नन्दलालजी म. की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में उल्लेखनीय हैं। जिनकी शिष्य-प्रशिष्य परम्परा इस प्रकार है(१) उपाध्याय श्री कस्तुरचन्दजी म. (१३) आत्मार्थी श्री मन्ना मुनिजी म० (२) मेवाड़भूषण श्री प्रतापमलजी म. (१४) वि. श्री वसन्त मूनिजी म० (उज्जैन) (३) प्रवर्तक श्री हीरालालजी म. (१५) तपस्वी श्री प्रकाश मुनिजी म. (४) त० वक्ता श्री लाभचन्दजी म० (१६) वि० श्री कांति मुनिजी म० (५) तपस्वी श्री दीपचन्दजी म० (१७) श्री सुदर्शन मुनिजी म० (पंजाबी) (६) तपस्वी श्री वसन्त मुनिजी म. (१८) श्री महेन्द्र मुनिजी म० (पंजाबी) (७) शास्त्री श्री राजेन्द्र मुनिजी म० (१६) श्री नवीन मुनिजी म० (८) सुलोवक श्री रमेश मुनिजी म. (२०) श्री अरुण मुनिजी म. (8) शास्त्री श्री सुरेश मुनिजी म. (२१) वि० श्री भास्कर मुनिजी म० (१०) वि० श्री नरेन्द्र मुनिजी म० (२२) श्री सुरेश मुनिजी म० (११) तपस्वी श्री अभय मुनिजी म० (२३) सेवाभावी श्री रतन मुनिजी म. (१२) कवि श्री विजय मुनिजी म० (२४) श्री गौतम मुनिजी म० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु-परम्परा की गौरव गाथा ३७६ पंडितवर्य श्री माकचन्दजी महाराज आपका निवास स्थान केरी है । जाति के आप ओसवाल थे । सं० १९३५ में आपने दीक्षा ग्रहण की। आपके दो पुत्र देवीलालजी और भीमराजजी भी अपने पिताश्री के साथ दीक्षित हुए। आपके जीवन सम्बन्धी विशेष जानकारी त्रिमुनि चरित्र में देखें । पंडितवर्य श्री देवीलालजी महाराज सं० १९३५ बड़ी सादड़ी में दीक्षित हुए। अपने पिताश्री माणकचन्दजी म० के शिष्य हुए। आपका अध्ययन सुचारु रूप से ठोस हुआ । प्रत्येक विषय को आपने मनन कर हृदयंगम किया था | जैनेतर ग्रन्थों का भी आपने अच्छा अवलोकन किया था । व्याख्यान शैली भी आपकी प्रभावपूर्ण थी । प्रश्नोत्तर में आप सदैव विजयी रहते । मालव- मेवाड़ - मारवाड़ - पंजाब आदि प्रान्तों में विहार कर जिन शासन की खूब प्रभावना की । आपका विस्तृत जीवन चरित्र देहली चांदनी चौक श्री संघ की ओर से प्रकाशित हो चुका है । आचार्य प्रवर श्री सहस्रमल जी म० आपके शिष्यरत्न थे। जिनकी परम्परा में स्व० श्री मिश्री मुनिजी म० 'सुधाकर' हुए। आपके शिष्यरत्न मधुर व्याख्यानी श्री ईश्वर मुनिजी म० एवं कवि श्री रंग मुनिजी म० इन दिनों जैन शासन की श्लाघनीय प्रभावना कर रहे हैं । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________