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एलोरा की जैन सम्पदा
डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव राजनीतिक स्थितियाँ सदा से ही कला एवं स्थापत्य के विकास की नियामक रही हैं। शासकों की धार्मिक आस्था एवं उनकी आर्थिक स्थिति के अनुरूप ही मन्दिरों, गुफाओं एवं देवमूर्तियों का निर्माण व विकास होता रहा। एलोरा ( महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले में स्थित ) में तीनों प्रमुख भारतीय धर्मों ( ब्राह्मण, बौद्ध, जैन ) के आराध्य देवों की मूर्तियों की प्राप्ति शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की स्पष्ट साक्षी है।' बौद्ध धर्म की गुफाओं के साथ सटी ब्राह्मण धर्म की गुफाएँ हैं और उसके बाद जैन धर्म की कलाकृतियों की; यह कला-त्रिवेणी बहुत अनोखी उतरी है। इस तरह एक साथ होने के कारण तुलनात्मक विवेचन से दर्शकों, शोधप्रज्ञों को तीनों पद्धतियों की खूबियों और खामियों का परिचय मिल जाता है ।
जैन गफाओं ( गफा क्रम संख्या ३० से ३४ ) का निर्माण एवं चित्रांकन दिगम्बर मतावलम्बियों के निरीक्षण से नवीं एवं तेरहवीं शती ई० के मध्य हुआ है। वास्तुकला के दृष्टिकोण से तलविन्यास के आधार पर ही इनमें अन्तर है, जो यहाँ स्थित अन्य धर्मों की गुफाओं से इनमें अन्तर स्पष्ट करता है। इन्द्रसभा के ऊपरी तल में इन्द्र तथा अम्बिका की भव्य प्रतिमा बरबस आकृष्ट करती है। इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ, बाहुबली गोम्मटेश्वर, महावीर आदि जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ उत्कृष्ट हैं। यहाँ के जैन भित्तिचित्र, भित्तिचित्रकला के इतिहास में एक अनमोल कड़ी है।
__एलोरा के जैनमंदिर की इन्द्रसभा में नवीं और दसवीं शती ई० में तीर्थंकर मूर्तियों को बनवाने वाले सोहिल ब्रह्मचारी और नागवर्मा का नाम अंकित है।
गुफा संख्या ३० से ३४ तक जैन गुफाओं में गुफा संख्या ३० का स्थानीय नाम छोटा कैलासमंदिर, गुफा संख्या ३२ का इन्द्रसभा एवं गुफा संख्या ३३ का जगन्नाथ सभा है। एलोरा के जैनलक्षण, लक्षणशिल्प के अंतिमकाल के हैं। तत्त्वग्रहण के आधार पर जैन गुफाएं, बौद्ध तथा ब्राह्मण गुफाओं से भिन्न हैं। प्रतिमा तथा प्रतिमा विज्ञान के आधार पर भी इनमें अंतर देखा जा सकता है। इन्द्रसभा तथा जगन्नाथसभा दो मंजिले हैं। एलोरा की इन गुफाओं में जैनों के सर्वोच्चदेव तीर्थंकरों (या जिनों) का अंकन हुआ है। २४ जिनों में से आदिनाथ (प्रथम) शांतिनाथ (१६वें), पार्श्वनाथ (२३वें) एवं महावीर (२४वें) की सर्वाधिक मूर्तियां है। साथ ही ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली गोम्मटेश्वर की भी कई मूर्तियाँ हैं । यहाँ उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में गोम्मटेश्वर की मूर्तियाँ विशेष लोकप्रिय थीं और एलोरा में उनकी सर्वाधिक मूर्तियाँ १. डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की शैव प्रतिमाएँ, अप्रकाशित शोध-प्रबंध, का० हि०
वि० वि०, वाराणसी, १९८०८१, पृ० १. २. हरिनन्दन ठाकुर, 'चित्रों का भंडार अभी अलभ्य' आज (साप्ताहिक विशेषांक) ४ सितम्बर १९६०,
पृ० १३-१४. ३. एलोरा गुफाओं के परिचय सूचना पट्ट से उद्धृत ४. वही। ५. के० आर० श्रीनिवासन, टेम्पल्स आफ साउथ इण्डिया, नई दिल्ली, पृ० ७४.
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________________ 252 0 आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव बनी। 24 तीर्थंकरों का सामूहिक अंकन भी उत्कीर्ण है। जिनों में सात सर्प- फणों के छत्र वाले पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ सर्वाधिक लोकप्रिय थीं। एलोरा की जैन मूर्तियों में छत्र, सिंहासन, प्रभामण्डल जैसे प्रातिहार्यों, लांछनों, उपासकों एवं शासन देवताओं का अंकन हुआ है। इन्द्रसभा व जगन्नाथसभा सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं / इन मंदिरों के सहायक अंग आपस में निकटस्थ अनावश्यक आलंकारिक विवरणों से लदे हैं। इनकी संकलित जटिलता के प्रदर्शन से दर्शक के नेत्र थक जाते हैं, उदाहरणार्थ इन्द्रसभा के आंगन में ध्वजस्तंभ मंदिर के द्वार और केन्द्रीय मण्डप के इतने पास स्थित हैं कि संपूर्ण अंश जबरदस्ती ठूसा हुआ एवं जटिल. दृष्टिगोचर होता है / आंगन के छोटे मापों एवं उसकी ओर उन्मुख कुछ कक्षों के स्तंभों के छोटे. आकार से उपर्यक्त प्रभाव और भी बढ़ जाता है। ये विलक्षणताएं मंदिर के संयोजन में सामं-- जस्य के अनुपात का अभाव प्रकट करती हैं, पर इनके स्थापत्यात्मक विवरण से पर्याप्त उद्यम एवं दक्षता का परिचय मिल जाता है। ऐसे उदाहरणों में कला मात्र कारीगरी रह जाती है, क्योंकि सृजनात्मक प्रयास का स्थान प्रभावोत्पादन की भाव-शून्य निष्प्राण चेष्टा ले लेती है। इन जैन गुफाओं में चार लक्षण उल्लेखनीय हैं, एक तो इनमें कुछ मंदिरों की योजना मंदिर, समूह के रूप में है। दूसरी विशेषता स्तंभों में अधिकतर घटपल्लव एवं पर्यकशैलियाँ आदि का प्रयोग करके समन्वय का सराहनीय प्रयास किया गया है। तीसरी विशेषता इनमें पूर्ववती बौद्ध एवं ब्राह्मण गफाओं जैसी विकास की कड़ी नहीं दिखाई देती। जैनों के एलोरा आगमन के पूर्व समूची बौद्ध एवं ब्राह्मण गुफाएं बन चुकी थीं। अतः साधन, सुविधा एवं समय के अनु-न सार इन्होंने कभी बौद्ध एवं कभी ब्राह्मण गुफाओं से प्रेरणा ली। चौथी विशेषता यह है कि इन जैन गुफाओं में भिक्षुओं की व्यवस्था नहीं है। इस दृष्टि से ये लक्षण ब्राह्मण मंदिर के निकट हैं। एलोरा की जैन गुफाओं का निर्माण अधिकतर राष्ट्रकूट नृपतियों के राज्यकाल में हुआ है। एलोरा की जैन मूर्तियाँ अधिकतर उन्नत रूप में उकेरी हैं। यहाँ तीर्थक गोम्मटेश्वर-बाहुबली एवं यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां बनीं। एलोरा की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों 'श्रीवत्स' के अंकन की परिपाटी उत्तरभारत के समान प्रचलित नहीं थी। समकालीन पूर्वी चालुक्यों की जैन मूर्तियों में भी यह चिह्न नहीं मिलता। साथ ही अष्ट महाप्रातिहार्यों में से सभी का अंकन भी यहाँ नहीं हुआ है। केवल त्रिछत्र, अशोकवृक्षा सिंहासन, प्रभामण्डल, चाँवरधर सेवक एवं मालाधरों का ही नियमित अंकन हुआ है / शासन देवताओं में कुबेर या सर्वानुभूति यक्ष तथा चक्रेश्वरी, अंबिका एवं सिद्धायिका यक्षिया सर्वाधिक लोकप्रिय थीं। जिनों के साथ यक्ष-यक्षियों का सिंहासनछोरों पर नियमित अंक | तेरहवीं शती ई०) विशद अध्ययन अभी भी अपेक्षित है। 6. डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्त, पूर्वनिर्दिष्ट पृ० 10-11 7. जी० याजदानी, दकन का प्राचीन इतिहास, दिल्ली, 1977, पृ० 703 8. डा० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की ब्राह्मणदेव प्रतिमाएँ पीएच० डी० शोध प्रक का०हि०वि०वि०, वाराणसी, 1985 पृ० 11 / 9 प्रोफेसर कृष्णदत्त वाजपेयी का सुझाव /