Book Title: Ek ka Jano
Author(s): Amarnath Pandey
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210312/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक को जानो - डा० अमरनाथ पाण्डेय प्रोफेसर एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग काशी विद्यापीठ, वाराणसो तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन हमारी दार्शनिक परम्पराओं में अनेक समान विचार विद्यमान हैं । उनको प्रस्तुत करने के विभिन्न प्रकार हैं । कभी-कभी ऐसा भी देखा जाता है कि किसी तत्व का प्रतिपादन निगूढ़ रूप में किया जाता है है, जिसका अभिप्राय गहराई से परीक्षण करने पर ही प्रकट होता है । आचार्य किसी एक सूत्र को पकड़ लेते हैं, जिसके आधार पर अनेक विचार प्रकट किये जाते हैं । उन सभी विचारों तथा सूत्रों का परीक्षण सूक्ष्म दृष्टि से करना चाहिए तथा अन्य सन्दर्भों के साथ करना चाहिए | यदि किसी वस्तु का परीक्षण उसके स्वरूप को ही ध्यान में रखकर किया जायगा, तो उसका स्वरूप पूर्णतः प्रकाशित नहीं हो सकता । भारतीय दर्शनों की एक सुदीर्घं परम्परा है । विभिन्न दर्शनों के आलोचन - प्रत्यालोचन से विभिन्न दर्शनों में प्राप्त तत्वों में संवाद दृष्टिगत होता है । यहाँ हम जैन दर्शन में स्वीकृत वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं और देखने का प्रयास कर रहे हैं कि इस प्रकार की मान्यता उपनिषदों में भी मिलती है । प्रत्येक वस्तु के दो प्रकार के धर्म हैं - ( १ ) भावात्मक धर्म, जिन्हें स्वपर्याय कहा जाता है, और (२) अभावात्मक धर्म, जिन्हें परपर्याय कहा जाता है । भावात्मक धर्म में किसी मनुष्य के सम्बन्ध में उसके आकार, रूप, जाति, कुल, जन्मस्थान, आयु, पद आदि के सम्बन्ध में | जानकारी दी जाती है, किन्तु इतने से ही उसका सारा स्वरूप प्रकाशित नहीं हो पाता । वह एक समुदाय में रहता है, अनेक व्यक्तियों से उसके अनेक प्रकार के सम्बन्ध हैं । जब तक उन सम्बन्धों का निरूपण | न हो जाय, यह पता न लग जाय कि वह व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से किन दृष्टियों से भिन्न है, तब तक उस व्यक्ति का पूरा विवेचन नहीं माना जा सकता । उसमें रहने वाले धर्मों को भी जानना है और न रहने वाले धर्मों को भी । किसी भी व्यक्ति के स्वरूप का सर्वाङ्गीण विवेचन उसके भावात्मक तथा अभावात्मक धर्मों को प्रस्तुत करने से ही सम्भव होता है । स्वपर्याय थोड़े होते हैं, जबकि परपर्याय अनन्त" स्तोका: स्वपर्यायाः परपर्यायास्तु व्यावृत्तिरूपा अनन्ता: । " - षड्दर्शन समुच्चय, गुणरत्न की टीका । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ १८१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में कहा गया है कि वस्त अनन्त धर्मों है कि हम उसे पूर्णतः जानते हैं, उसे हम पूर्णतः | न वाली होती है-अनन्तधर्मकं वस्तु । यह एक सूत्र है, नहीं जानते । आज किसी के साथ मैत्री है, तो जिससे वस्तु के स्वरूप को सरलता से समझा जा कल शत्रुता । आज उसके सम्बन्ध से हमारा लाभ सकता है । जब हम किसी वस्तु के भावात्मक होता है, तो कल हानि। हम किसी से वञ्चित धर्मों के सम्बन्ध में विचार करते हैं, तब हम देखते होते हैं, किन्तु वञ्चना के बाद भी हम पुनः उसके हैं कि उस वस्तु के भावात्मक धर्मों की संख्या कम सम्पर्क में आते हैं और धोखा खाते हैं । यह क्यों - है और जब अभावात्मक धर्मों के सम्बन्ध में होता है ? क्या हम इसके कारणों पर विचार विचार करते हैं, तब यह स्पष्ट होता है कि अभा- करते हैं ? व्यक्ति तो सामान्य रूप से यही सम- VS वात्मक धर्म संख्या में बहुत अधिक हैं । इस प्रकार झता है कि किसी व्यक्ति का इतना काम किया, एक ही वस्तु के अनन्त धर्म हो जाते हैं। समय के फिर भी वह धोखा देता है । इसके पीछे रहस्य यह अनुसार धर्मों में परिवर्तन भी होता रहता है, है कि हम उस व्यक्ति को नहीं समझते, फलतः नवीन धर्मों की उत्पत्ति भी होती रहती है । एक हम दुःखित होते हैं । मूल बात तो यह है कि वस्तु ही मनुष्य की अवस्था आदि के क्रम से अनेक के स्वरूप को ठीक से जाना जाय । जब हम किसी विशेषताएँ होती हैं और इन विशेषताओं में समय- महापुरुष के जीवन के सम्बन्ध में विचार करते हैं, समय पर परिवर्तन भी होता रहता है। किसी तो देखते हैं कि वे व्यवहारों में इस प्रकार दुःखित व्यक्ति की किसी स्थिति में प्रशंसा होती है और नहीं होते, जिस प्रकार हम होते हैं । इसका कारण किसी स्थिति में निन्दा । यह धर्मों में परिवर्तन के यह है कि वे वस्तु अथवा व्यक्ति के स्वरूप को कारण होता है। ठीक-ठीक जानते हैं, अतः व्यवहार में किसी भी __ हमारे सामने प्रश्न है कि किसी वस्तु को ठीक प्रकार सन्देह नहीं रहता और न तो आसक्ति ठीक जाना जाय । हम यह भी जानते हैं कि वस्तु । रहती है, अतः व्यवहार से किसी भी प्रकार दुःखित के अनन्त धर्म हैं, जो भावात्मक तथा अभावात्मक होने की बात नहीं उठती। सामान्य व्यक्ति वस्तु के स्वरूप को नहीं जानता, अतः दुःखित होता है। दोनों हैं । जब हम वस्तु को जानेंगे, तो अनन्त धर्मों को जानेंगे, उसके सारे सम्बन्धों को जानेंगे। वस्तु स्वरूप से सत् है, किन्तु पर रूप से असत्, पूरे जगत् के सन्दर्भ में उसे रखकर उस पर विचार अतः वस्तु सद्सदात्मक हैकरेंगे । वह वस्तु अकेली नहीं होगी, वह जगत् की सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च ।। अगणित वस्तुओं के सन्दर्भ में होगी। जब उसका अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ।। मूल्याङ्कन होगा, तो अन्य वस्तुओं के स्वरूप का जब किसी घट के सम्बन्ध में विचार उठता है, भी मूल्याङ्कन होगा । 'अनन्तधर्मकं वस्तु' का यही । यही कहा जायगा कि उस घट में घटव्यतिरिक्त रहस्य है। इसके पीछे बहुत बड़ा भाव छिपा पदार्थो का अभाव है। घट के ज्ञान के लिए घट के हुआ है। स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है और साथ ही घटव्यतिजब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को पूर्णतः जान रिक्त पदार्थों का भी ज्ञान आवश्यक है, अतः घट लेता है, तब यह कहा जा सकता है कि सभी को जान लेने पर अन्य पदार्थों का भी ज्ञान हो वस्तुओं को जान लेता है। कोई सामान्य व्यक्ति जाता है। आगम में कहा गया है कि जो एक को इस स्थिति में नहीं पहुँच सकता। हम प्रतिदिन जान लेता है, वह सभी को जान लेता है और जो देखते हैं कि जिसके सम्बन्ध में हमारा यह विचार सभी को जान लेता है, वह एक को जान लेता है तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ On RowateDersonal lice Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । से मुक्ति होती है। ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कोई || जो सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥ सत्ता नहीं है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह ब्रह्म 'य एक जानाति स सर्व जानाति । ही है, अतः यह कथन समीचीन है कि एक को यः सर्व जानाति स एकं जानाति ॥ जान लेने से सब-कुछ जान लिया जाता है। जैन आचार्यों ने उपनिषद् के इस रहस्य को समझा था, इसी बात को इस प्रकार से भी प्रकट किया अतः उन्होंने एक भाव के दर्शन से सभी भावों के गया है दर्शन की बात कही है। एको भावः सर्वथा येन दृष्टः । सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ।। __ "यथा सोय केन मृत्पिण्डेन, सर्व मृत्मयं विज्ञातं सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः । स्याद् [वाचारम्म्भणं, विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव । सत्यम् ।" एको भावः सर्वथा तेन दृष्टाः ।। –छान्दोग्योपनिषद् ६/१/११ जिसने एक भाव को सब प्रकार से देख लिया घट, शराब आदि उसके विकार है, उसने सभी भावों को सब प्रकार से देख लिया और मत्तिकापिण्ड के ज्ञान से मिट्टी के सभी है और जिसने सभी भावों को सब प्रकार से देख विकारों का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि विकार तो Ke लिया है, उसने एक भाव को सब प्रकार से देख वाणी के आश्रयभत नाम ही हैं, सत्य तो केवल 5 लिया है। मिट्टी है, उसी प्रकार यह समझना चाहिए कि ब्रह्म जैन-आचार्यों का यह विवेचन-एक के ज्ञान से ही सत्य है। सबका ज्ञान-नितांत महत्वपूर्ण है। इससे यह प्रकट अन्य सभी वस्तुएँ नाममात्र हैं। होता है कि जैन-आचार्यों की दृष्टि में एक सत्ता के सभी विलास हैं। जो तत्त्व एक में विद्यमान है वही , उपनिषदें कहती हैं कि ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ अन्य पदार्थों में भी विद्यमान है । इस प्रकार एक के ज्ञान से सभी का ज्ञान सम्भव होता है। वेदान्त 'इदं सर्वं यदयमात्मा'-(बृहदारण्यक २/४/६), दर्शन में भी यह तत्त्व प्रकाशित किया गया है। _ 'ब्रह्म वेदं सर्वम्' (मु० २/२/१२), वेदान्त मानता है कि एक के अतिरिक्त दूसरा नहीं 'आत्मवेदं सर्वम्' (छा० ७/२५/२) इत्यादि। है। जो कुछ दिखाई पड़ रहा है, वह उस परम सत्ता अद्वतदर्शन में जिस प्रकार एक तत्व के ज्ञान से का ही विलास है। सभी वस्तुओं के ज्ञान की बात कही गई है, उसी || उपनिषद् कहती है कि एक के ज्ञान से सबका प्रकार जैन-दर्शन में भी एक भाव के ज्ञान से सभी 9 ज्ञान हो जाता है, अतः मुख्य बात यह है कि एक भावों के ज्ञान की बात कही गई है। यह महत्वपूर्ण का ज्ञान प्राप्त किया जाय । जिस एक को जान लेने बात है कि किस प्रकार आचार्य अपने दर्शनों के से सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है, उसी को आधार पर चिंतन करते हुए परम तत्त्व का साक्षाजानना चाहिए और वह तत्त्व है-ब्रह्म । ब्रह्म-ज्ञान त्कार करते हैं। १. 'एकेन मृत्पिण्डे न परमार्थतो भेदात्मना विज्ञातेन सर्वं मन्मयं घटशरोवोदञ्चनादिकं मृदात्मकत्वाविशेषाद् विज्ञातं भवति । यतो वाचारम्भणं विकारो नामधेयंवाचैव केवलमस्तीत्यारभ्यते-विकारो घट: शराव उदञ्चनञ्चेति ।' -ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य -२/१/१४ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 660 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHEXECE विभिन्न दर्शनों में अनेक बातें भिन्न-भिन्न संदर्भो भी यही दिखाई पड़ रहा है। इस प्रकार जैन-दर्शन में प्राप्त होती हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं, का अन्तस्थल और बाह्यरूप पूर्णतः निर्मल और किन्तु यदि उनका संयोजन किया जाय, तो यह निष्कपट हो जाता है / यह तभी सम्भव होता है, पूर्णतः भासित होगा कि उन भिन्न-भिन्न सन्दर्भो के जब यह जान लिया जाता है कि एक भाव है, एक द्वारा एक अभेद का उपस्थापन होता है / यह अभेद सत्ता है, एक तत्त्व है, और उसी के सभी विलास ही हमारा लक्ष्य है, क्योंकि उसी से ज्ञान का वास्त- हैं। वर्तमान परिस्थितियों में यह परम आवश्यक विक स्वरूप प्रकट होता है। जो भेद है, वह दृष्टि हो गया है कि एक को जानो, भेद को नष्ट करो। में भेद उत्पन्न करता है और वस्तु के स्वरूप पर जिससे हमारा देश अखण्डित रहेगा, वह अभेद की आवरण डाल देता है / इसी आवरण को हटाना है दृष्टि है / (9, यह अभेददृष्टि से दूर होता है। इसका उन्मीलन अद्वत-वेदान्त और जैन-दर्शन में किया गया है। जब-जब समाज में अनेक वादों का प्रचार हुआ या विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि जैनदर्शन है, तब-तब विषमताएँ उत्पन्न हुई हैं और मनुष्य का एक परम तत्त्व की खोज में लगा हुआ है। प्रक्रि- माग धुधला हो गया है। उस परिस्थिति में कोई दायाओं के भेद के कारण भेद दिखाई पड़ रहा है। ऐसा आचार्य उत्पन्न होता है, जो अभेद-दृष्टि का यह भेद साधनागत भेद है, लक्ष्य का भेद नहीं। उपस्थापन करता है। इससे मानव अपने निश्चित उस लक्ष्य की खोज करनी है, जो एक है। अनेक लक्ष्य को देख पाता है और उचित मार्ग पर चल (3) की दृष्टि भ्रान्ति दृष्टि है। असत का अपलाप पड़ता है। शंकराचार्य के पहले अनेक वाद प्रचलित थे करना है, क्योंकि उसका कोई भाव नहीं है। का और मनुष्य निश्चित नहीं कर पाता था कि उसका जानना है उस सत् को, जिसका अभाव नहीं है। / मार्ग क्या है। शंकराचार्य ने स्थिति की गम्भीरता को पहचाना और अद्वैत का उपदेश दिया। इससे का जैनदर्शन एक को जानने के लिए जिस पद्धति देश का कल्याण हआ, अखण्ड भारत का स्वरूप (O) का निर्देश करता है, वह भी विविक्त मार्ग है। सामने आया तथा सांस्कृतिक परम्परा की व्याख्या केवल वही मार्ग है, ऐसी बात नहीं है / जैनदर्शन में का मार्ग प्रशस्त हआ। आज शंकराचार्य के समय विचार की यह उदात्तता है कि वह दूसरे मार्गों के की परिस्थिति विद्यमान है। समाज में अनेक वाद मा भी महत्व को स्वीकार करता है और यह केवल प्रचलित हो रहे हैं और मनुष्य भटक रहा है। इस स्थूल विचार के धरातल पर नहीं है / इसके मूल में समय समाज को आवश्यकता है अभेद की दृष्टि चित्त के धरातल पर विद्यमान अहिंसा है। यहीं से की। जैनदर्शन में जिस अभेद-दृष्टि की प्रतिष्ठा निकलती है विचार की उदात्तता और सिद्धान्तों के मिलती है, उसकी निभ्रान्त अवतारणा होनी गर्भ में पलती है प्रेम की भावना / न केवल विचार चाहिए। इससे देश का कल्याण हो सकेगा और मके क्षेत्र में यह औदार्य है, अपितु व्यवहार के क्षेत्र में विश्व की मानवता को उचित प्रकाश मिल सकेगा। 2G -- - यतनाशील (जागरूक) साधक का अल्प, कर्मबन्ध अल्पतर होता जाता है और निर्जरा तीव्र, तीव्रतर / अतः वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। --निशीथ भाष्य 3335 184 0 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ CA Por private Personalise Only