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एक राजस्थानी लोककथा का विश्लेषणात्मक अध्ययन
राजस्थान लोक साहित्य का रत्नाकर है। यहाँ लोक-काव्य, लघु काव्य, लोकगीत, लोककथा, प्रवाद और कहावत आदि के रूपों में अत्यधिक सामग्री जनमुख पर अवस्थित है। इस साहित्य-सामग्री का कई दृष्टियों से महत्व है। यह प्रकट करती है कि राजस्थान ऊपर से सूखा और फीका-सा दिखलाई देने पर भी भीतर से बड़ा सरस है । असल में देखा जाय तो उसी साहित्य-सामग्री का विशेष महत्व होता है, जो जनप्रचलित होकर लोकजीवन का अंग बन जाती है। लोकजीवन को समझने के लिए इस सामग्री का अध्ययन परम आवश्यक होता है क्योंकि इस में जनता का सुख-दुख, आशा-अभिलाषा, चाव-उमंग आदि सभी स्वाभाविक रूप में समाए रहते हैं ।
हर्ष का विषय है पिछले कुछ समय से विद्वानों का ध्यान राजस्थानी लोक साहित्य की ओर गया है और इस सामग्री को लिपिबद्ध किए जाने की दिशा में कुछ कार्य हुआ है । परन्तु इतना काम ही काफी नहीं है । लोक साहित्य के संग्रह के साथ ही उसका मार्मिक अध्ययन किए जाने की भी नितान्त आवश्यकता है । इस अध्ययन से अनेक महत्वपूर्ण तत्व सामने आते हैं और वे समाज को आगे बढ़ाने में विशेष सहायक सिद्ध होते हैं। पश्चिमी विद्वानों ने इस विषय में बड़ा परिश्रम किया है और उनकी साधना से समाज लाभान्वित हुआ है। विषय अति-विस्तृत है, अतः यहाँ एक राजस्थानी लोक कथा का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है। सर्व प्रथम विवेच्य लोककथा का संक्षिप्त रूप अध्ययन दृष्टव्य है :
किसी गांव के ठाकुर ने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया और सेवा के लिए अपने खवास (नाई) को साथ चलने के लिए कहा । खवास ने शर्त रखी कि वह मार्ग में जिस किसी वस्तु के सम्बन्ध में शंका उपस्थित करेगा, उसका समाधान ठाकूर को करना होगा और यदि वह ऐसा नहीं कर पाएगा तो खवास बीच से ही वापिस लौट आएगा। ठाकुर ने शर्त मान ली और वे तीर्थ-यात्रा के लिए चल पड़े।
पहले दिन साँझ होते ही एक नगर के बाहरी भाग में उन्होंने विश्राम लिया । ठाकुर ठहर गया और खवास भोजन-सामग्री लाने के लिए नगर में गया । जब खवास लौट कर आया तो उसने ठाकुर के सामने अपनी विचित्र शंका प्रकट करते हुए कहा-"यहाँ नगर के बाजार में परम सुन्दर स्त्री वस्त्राभूषणों से अलंकृत मरी हुई पड़ी है परन्तु कोई उसकी ओर ध्यान तक नहीं देता । इस रहस्य का स्पष्टीकरण होने पर ही मैं आगे जा सकता हूँ अन्यथा नहीं ।” ठाकुर ने भोजनादि करके उस मरी हुई स्त्री का रहस्य प्रकट किया, जो इस प्रकार है :
किसी राजा ने एक बड़ा भारी तालाब बनवाया परन्तु वह वर्षा न होने के कारण पानी से भरा नहीं । इस पर राजा को बड़ी चिंता हुई और उसने पण्डितों से इसका कारण पूछा । पण्डितों ने प्रकट किया कि राज परिवार के किसी व्यक्ति की बलि देने से ही वह तालाब भर सकता है । राजा ने सोचा कि
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एक राजस्थानी लोक कथा का विश्लेषणात्मक अध्ययन
बलि किस की दी जाय ? स्वयं की बलि से राजभंग होता था, रानी की बलि से लक्ष्मीनाश होता था और राजकुमार की बलि से संतान-परम्परा छिन्न होती थी। अतः उसने निश्चय किया कि पुत्रवधू की बलि दे दी जाय और पुत्र का विवाह फिर कर लिया जाय ।
राजकुमार अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करता था। जब उसने सूना कि अगले दिन उसकी बलि दी जाएगी तो वह रात को ही चुपचाप उसे घोड़े पर साथ लेकर महल से निकल भागा । वे दिन भर आगे बढ़ते गए और संध्या के समय जंगल में एक कुए पर विश्राम के लिए ठहरे। वहां फल आदि खाकर रात को सो गए । जब दिन निकला तो राजकुमार ने देखा कि उसकी पत्नी सर्पदंश के कारण मरी हुई पड़ी है । इस पर उसने बड़ा विलाप किया और चिता तैयार करके उसके साथ ही वह जलने को उद्यत हुआ ।
संयोग से उधर शिव-पार्वती प्रा निकले । पार्वती को आश्चर्य हुअा कि पुरुष अपनी मृत पत्नी के साथ जल रहा है ! भेद मालूम करके उसने शिव से आग्रह किया कि किसी तरह उसकी पत्नी को पुनर्जीवित किया जाए। पार्वती के हठ को देखकर शिव ने प्रकट किया कि राजकुमार की पत्नी प्रायु समाप्त होने के कारण मरी है, अत: राजकूमार उसे अपनी आय का भाग देकर ही जीवित कर सकता है। राजकुमार ने ऐसा ही किया। उसने 'सत्यक्रिया' के सहारे अपनी आयु का अर्द्ध भाग अपनी पत्नी को प्रदान किया और वह फिर से जीवित हो गई। शिव-पार्वती चले गए और राजकुमार ने कोई बात अपनी पत्नी के सामने प्रकट नहीं की। वे भी वहां से आगे बढ़ गए ।
संध्या के समय राजकूमार एक नगर के बाहरी भाग में पहुँचा। वहाँ उसने एक कुएं के पास अपनी पत्नी को छोड़ा और स्वयं भोजनादि लाने के लिए नगर में गया। जब वह लौट कर आया तो उसकी पत्नी वहाँ नहीं मिली। पास ही कुछ नट ठहरे हुए थे। वह कामातुर होकर एक नट के पास चली गई और उससे प्रेम-प्रस्ताव किया । नट ने उसे अपने यहाँ रख लिया। जब राजकुमार तलाश करता हुआ नट के पास पहुँचा तो उसने दूसरी ही दुनिया देखी। उसकी पत्नी ने अपने पति के रूप में नट को बतलाया। कुछ झगड़ा हया और यह मामला राजा के पास पहुँचा। बाजार के बीच में न्याय सभा बैठी। राजकुमार से प्रमाण मांगा गया तो उसने 'सत्यक्रिया' से अपनी दी हुई आधी आयु वापिस ले ली और वह स्त्री तत्काल मर कर गिर पड़ी। इस पर लोगों को भारी आश्चर्य हया। राजकुमार ने पीछे का संपूर्ण वृत्तान्त सब को कह सुनाया । राजा ने नट को दण्ड दिया और राजकुमार को सम्मान मिला। फिर वह अपने नगर को लौट गया और भारी वर्षा हई जिस से राजा का तालाब पूरा भर गया ।
इतनी कहानी कह कर ठाकूर ने खवास को समझाया कि नगर के बाजार में जिस स्त्री को उसने मृतक अवस्था में देखा है, वही राजकुमार की पत्नी है । ऐसी स्त्री की ओर घणा से कोई ध्यान नहीं दे रहा है। इस पर खवास की शंका शांत हो गई और वह यात्रा पर आगे बढ़ने के लिए राजी हो गया।
ऊपर राजस्थानी लोककथा का सारमात्र दिया गया है । इसका विश्लेषण करने से निम्न चीजें सामने आती हैं :- १. सर्व प्रथम कथा का 'उपोद्घात' ध्यान देने योग्य है । ठाकुर और खवास की तीर्थयात्रा के प्रसंग में अनेक कथाए कही जाती हैं क्योंकि खवास प्रत्येक विश्राम पर एक नई शंका सामने रखता है। इस विषय में भिन्न-भिन्न प्रकार की कहानियां हैं । परन्तु उनमें से प्रत्येक के अन्त में रहस्यात्मक स्थिति उप
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स्थित की गई है । कहानी के प्रति कौतूहल पैदा करने की यह एक सुन्दर शैली है। एक प्रकार से इस तीर्थ - यात्रा से सम्बन्धित यह एक राजस्थानी कथाग्रन्थ है, जो विभिन्न रूपों में जनमुख पर अवस्थित है । संस्कृत में भी इस प्रकार अनेक कथाओं का संकलन हुआ है । इस उपोद्घात को देखते हुए सहज हो ' वेताल पंचविंशतिका' का स्मरण हो आता है, जिसकी प्रत्येक कथा के अन्त में एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है । राजस्थानी लोककथा के प्रारम्भ किए जाने से पूर्व ही यह प्रश्नात्मक स्थिति सामने आ जाती है, जो रोचकता पैदा करने के विचार से विशेष महत्वपूर्ण है ।
२. ध्यान रखना चाहिए कि यही लोककथा बिना उपोद्घात के स्वतन्त्र रूप में भी कही जाती है । कहीं इसका कथानायक राजा का पुत्र न होकर सेठ का बेटा है। असल में यह लोककथा 'त्रियाचरित्र' वर्ग की है । इस वर्ग की कथाओं में नारी के चरित्र की दुर्बलता प्रकट की जाती है । यह परम्परा पुरानी है । 'शुकसप्तति' कथाग्रन्थ में ऐसी कथाए ही संकलित की गई हैं। कई कथाओं में नारी के साथ ही पुरुष - चरित्र की कमजोरी भी प्रकट की जाती है। राजस्थानी कथाग्रन्थ 'दम्पति -विनोद' में दोनों प्रकार की कथाएँ दी गई हैं ।
३. प्रस्तुत लोक कथा में 'सत्यक्रिया' श्रभिप्राय: ( Motif) का दो बार प्रयोग हुआ है । भारतीय कथा साहित्य में इस 'अभिप्राय' के उदाहरण भरे पड़े हैं । कहीं इसे केवल 'किरिया' नाम दिया गया है। राजस्थानी बातों में इसके लिए 'धीज' शब्द अनेकशः देखा जाता है। इसमें कथा - पात्र अपने सत्य के प्रभाव से आश्चर्यजनक कार्य कर दिखलाता है । वह अग्नि में जलता नहीं, समुद्र या नदी में डूबता नहीं और मरे हुए व्यक्ति को पुनर्जीवित तक कर देता है । इसके अन्य भी अनेक रूप हैं । प्रस्तुत कथा में नायक पहिले अपनी पत्नी को अपनी आयु का श्रद्ध भाग प्रदान कर के जीवित कर देता है और फिर विपरीत स्थिति सामने आने पर अपनी आयु का अंश ग्रहण कर लेता है ।
४. प्रस्तुत कथा में एक अन्य 'कथानक रूढ़ि' का भी प्रयोग हुआ है । वह है, 'शिव-पार्वती' । यह देव-दम्पति अनेक राजस्थानी लोककथानों में संकट के समय प्रकट होकर स्थिति को सुधार देते हैं और फिर कथा नया मोड़ लेकर आगे बढ़ती है। 'मारू ढोलो' की बात में ऐसा ही हुआ है । दुःखान्त कथा को सुखान्त बनाने के लिए भी इस 'रूढ़ि' का प्रयोग होता है । 'जलाल बूबना' की बात में ऐसा ही हुआ है । इसमें शिवपार्वती को विश्वनियामक के रूप में दिखलाया जाता है, जो शिव भक्ति की महिमा का प्रकाशमान उदाहरण है ।
५. राजस्थानी लोककथा का प्रारम्भिक भाग विचारणीय है । इस में तालाब के जलपूर्ण होने का उपाय बलि देना बतलाया गया है । राजस्थान में जल संकट से बचने का साधन सरोवर का निर्माण करवाना सर्वविदित है । उसमें पानी का संचित न होना खेद जनक है । कथा में स्थानीय वातावरण की रंगत अतिरिक्त एक अन्य तत्व भी छिपा हुआ है । असल में यह बलि तालाब अथवा उस क्षेत्र के 'आरक्ष देव' संतुष्टि निमित्त दी जाती है । यह विधि प्राचीन यक्षतत्व का कथाओं में बचा हुआ अंश है । इतना ही नहीं, राजस्थानी लोकविश्वास में यह तत्व आज भी अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है। गांवों में प्रथा है fक जब वर्षा नहीं होती तो सीमा पर देवता की प्रसन्नता के लिए 'बलि- बाकला' का विधान किया जाता
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है । 'बाकला' उबाले हुए मोठ का नाम है । 'बछवारस' (वत्सद्वादशी) व्रत की लौकिक कहानी में इसी प्रकार एक सेठ का बनवाया हया तालाब नहीं भरता है और वह अपने पोते की बलि देता है। फिर देवकृपा से तालाब भर जाता है और सेठ का पोता भी पुनर्जीवित हो जाता है । प्रस्तुत लोककथा में इससे कुछ परिवर्तन जरूर है ।
६. लोककथा की नायिका एक नट पर मुग्ध होकर उसके पीछे हो लेती है। राजस्थान में नट लोगों का तमाशा देखने के लिए बड़ी जनरुचि है। वे नाना प्रकार के खेल दिखलाते हैं और शारीरिक प्रदर्शन करते हैं। कई नटों का शरीर बड़ा सुडोल होता है । प्रसिद्ध 'नटड़ो' लोकगीत की नायिका भी उसके रूप पर आसक्त होकर उसके पीछे हो लेती है । वह सरोवर पर अपनी ननद के साथ पानी लाने के लिए जाती है और नट को देख कर कहती है-"देखो बाईजी इण नटई को रूप प्रो, कोइ थारैजी बीरै मैं दोय तिल आगलो।"राजस्थानी लोकगीत में रूपासक्ति को प्रधानता दी गई है। यही तत्व लोककथा में समाविष्ट है, भले ही इसके रूपान्तरों में ऐसा न हो।
लोककथा देश और समय के बंधन को स्वीकार नहीं करती । आज जो लोककथा सुनी जाती है, वह काफ़ी प्राचीन हो सकती है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलकर अविनाशी रूप धारण करती है। समया
सार देश विशेष में वह साधारण रूप-परिवर्तन जरूर करती है। जो लोककथा एक देश में प्रचलित है, वही अन्य सुदूर देशों में भी स्थानीय वातावरण धारण किए हुए मिल सकती है। विमाता के कष्टों से पीड़ित भारतीय 'सोनलबाई' इङ्गलैंड में 'सिन्डरेला' (कोयलेवाली लड़की) के रूप में सहज ही पहिचानी जा सकती है।
प्रस्तुत राजस्थानी लोककथा भी काफी पुरानी है। इसका मूल भारतीय लोककथा-कोश में अनुसंधेय है। इस विषय में आगे प्रकाश डाला जाता है :
१. 'चुल्ल पदुम' जातक की कथा का सार रूप इस प्रकार है
राजकुमार पदुमकुमार के छः छोटे भाई थे। वे बड़े हुए और उनका विवाह हुआ। राजा को उनसे यह भय पैदा हुआ कि कहीं वे उसकी जीवित अवस्था में ही उससे राज्य न छीन लेवें। अतः उन सब को वन में जाने की आज्ञा दे दी गई। सातों भाई अपनी स्त्रियों सहित भयंकर कान्तार में जा पहुँचे। वहां खाने-पोने का सर्वथा अभाव था। ऐसी स्थिति में वे प्रतिदिन एक भाई की पत्नी को मार कर खाने लगे। पदुमकूमार अपना भाग बचाकर अलग छोड़ देता था। अंत में उसकी पत्नी की बारी आई तो उसने बचाया हा भाग सब भाइयों को सौंप दिया और जब वे सब सो गए तो उसे साथ लेकर भाग चला। मार्ग में पत्नी को प्यास लगी। इस पर पदुमकुमार ने उसे अपनी जंघा चीर कर खून पिलाया। फिर वे गंगातट पर पाश्रम बनाकर रहने लगे।
एक दिन नदी में एक राज्यापराधी चोर बहता हुआ आया, जिसको हाथ, पैर और नाक आदि काट कर एक बोरे में बंद करके पानी में डाल दिया गया था । पदुमकूमार ने उसकी चीख-पुकार सुनकर रमे निकाला और सेवा द्वारा स्वस्थ किया। परन्तु उसकी स्त्री उस चोर पर आसक्त होकर उसके साथ
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अनाचार में लिप्त हो गई। एक दिन वह मनौती के बहाने से पदुमकुमार को एक पर्वत की चोटी पर ले गई और उसे धोखे से धक्का देकर गिरा दिया। परन्तु एक पेड़ में उलझ कर वह बच गया ।
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पदमकुमार पेड से किसी प्रकार निकल कर अपने राज्य में पाया और पिता की मृत्यू हो चुकने के कारण राजा बन गया। उसने दानशालाएं प्रारंभ की, जहां लोगों को भोजन मिलता था । एक दिन उसकी स्त्री भी उस लुज को सिर पर उठाए हुए आदर्श पतिव्रता के रूप में दानशाला में आई। वहां पदुमकुमार ने उसे पहिचान कर सारा भेद खोला और इस प्रकार कहा
अयमेव सा अहमपि सो अनो , अयमेव सो हत्थच्छिन्नो अनो । यमाह कोमारपती ममन्ति, वज्झिधियो नत्थि इत्थीस सच्चं ।। इमञ्च जम्मं मुसलेन हन्त्वा, लुछ छवं परदारूपसेविं । इमिस्सा च नं पापपतिब्यताय, जीवन्तिया छिन्दथ कण्णनासं ।।
२. इसी क्रम में पंचतंत्र के 'लब्धप्रणाश' नामक तंत्र की एक कथा का सारांश-दृष्टव्य है
एक ब्राह्मण कुटुम्बवालों के झगड़े से तंग आकर अपनी प्रिय पत्नी सहित जंगल में चला गया। वहाँ ब्राह्मणी को प्यास लगी तो वह जल की खोज में निकला। जब वह जल लेकर लौटा तो किसी कारण से उसकी पत्नी मर चुकी थी। ब्राह्मण ने आकाशवाणी सुनकर 'सत्यक्रिया' से उसे अपनी प्राधी आयु देकर जीवित कर लिया। फिर वे एक वाटिका में पहुँचे। पत्नी को वहां छोड़कर ब्राह्मण भोजन लाने के लिए गया। पीछे से उसकी स्त्री ने कामातुर होकर एक पंगु से सम्बन्ध कर लिया। ब्राह्मण के आने पर उन्होंने भोजन किया और पंगु को दयावश एक गठरी में बांध कर वे उठा ले चले।
आगे ब्राह्मणी ने अपने पति को बाधा समझ कर धोखे से एक ए में धकेल दिया और वह पंगु वाली गठरी लेकर एक नगर में गई। वहां गठरी को चोरी का माल समझ कर राज पुरुष उसे राजा के सम्मुख ले गए। जब गठरी खोली गई तो उसमें से पंग निकला। ब्राह्मणी ने अपने को पतिव्रता प्रकट किया। इससे राजा बड़ा प्रभावित हुआ और उसने उसे सुख से रहने के लिए दो गाँव प्रदान किए ।
। कुछ दिनों बाद ब्राह्मण किसी तरह कुएं से निकल कर उसी नगर में आया और उसने अपनी पत्नी की लीला देखी। ब्राह्मणी ने उसे अपने पंगु पति का शत्र बतला कर राजा से उसके वध की आज्ञा प्राप्त करली। परन्तु जब ब्राह्मण ने 'सत्यक्रिया' से अपनी दी हई आय वापिस ले ली तो राजा हुआ । उसे सम्पूर्ण पूर्व वृत्तान्त सुना कर ब्राह्मण ने कहा--
यदर्थे स्वकुलं त्यक्त जीविताञ्च हारितम् । सा मा त्यजति निस्नेहा क: स्त्रीणां विश्वेन्नरः ।।
३. अब दशकुमार चरित की मित्रगुप्त-कथा में दी गई एक अन्तर्कथा का संक्षिप्त रूप देखिए
त्रिगर्त जनपद में किसी समय धनक, धान्यक और धन्यक नाम वाले तीन सगे भाई रहते थे। वहाँ घोर दुर्भिक्ष पड़ा और लोग सब कुछ समाप्त होने पर अपने बच्चों तथा पत्नी तक को खाने लगे। इन
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के परिवार का भी यही हाल हुआ। जब सब से छोटे भाई धन्यक की स्त्री घुमिनी के खाए जाने की बारी आई तो वह उसे कंधे पर बिठा कर चुपचाप भाग गया। मार्ग में उन्हें एक घायल और लंगड़ा आदमी मिला। उसे भी उन्होंने साथ ले लिया और जंगल में एक कुटिया बना कर वे रहने लगे। धन्यक ने दया करके लंगड़े की सेवा को और वह स्वस्थ हो गया ।
एक दिन धन्यक शिकार के लिए गया हुआ था। पीछे से घूमिनी ने कामातुर होकर उस लँगड़े से प्रेम प्रस्ताव किया। उसे अनिच्छापूर्वक धूमिनी की बात माननी पड़ी जब धन्यक लौट कर प्राया तो । उसे पानी लाने के लिए कुए पर भेजा गया। वहां दंगे से धूमिनी ने उसे कुएं में डाल दिया और वह लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा कर एक नगर में आ पहुँची । वहाँ वह आदर्श पतिव्रता के रूप में प्रसिद्ध हो कर धनवाली बन बैठी ।
पीछे से धन्यक किसी प्रकार कुएं से निकला और हताश होकर भीख माँगता हुधा उसी नगर में आ पहुँचा, जहाँ उसकी पतिव्रता पत्नी रहती थी । धूमिनी ने उसे पहिचान लिया और राजा से शिकायत करके उसके वध की आज्ञा दिलवा दी । वधस्थान पर धन्यक ने उस लँगड़े को बुलवाया । उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त सच-सच कह सुनाया। फलस्वरूप धूमिनी के नाक-कान काटे गए और धन्यक पर राजा की कृपा हुई ।
उपर्युक्त कथारूपों से प्रकट होता है कि आाज जो कहानी राजस्थान के देहातों तक में प्रचलित है, वह बौद्धकाल में भी भारत में इसी प्रकार जनप्रिय थी । यह स्पष्ट है कि तत्कालीन लोक कथाओं को ही बुद्धदेव के पूर्वजन्मों के साथ जोड़ कर जातक कथाएं उपस्थित की गई हैं। इसी प्रकार नीतितत्व हेतु यह लोककथा पंचतन्त्र में ग्रहण की गई है । दशकुमारचरित में यह कथा इस प्रश्न के उत्तर में है कि क्रूर कौन है ? परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि पंचतंत्र की कथा में श्रौर राजस्थानी लोककथा में 'सत्यक्रिया' का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है, जबकि अन्य दोनों रूपों में वह नहीं है। कथा में इस तत्व के प्रवेश का सूत्र अन्यत्र अनुसंधेय है। इस सम्बन्ध में श्रीमद् देवी भागवत् में वर्णित रुरु प्रमद्वरा' का उपाख्यान विचारणीय है, जिस का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है :
मेनका अप्सरा की पुत्री का स्थूलकेश मुनि ने अपने आश्रम में पालन-पोषण किया और उसका नाम प्रमद्वरा रखा। जब प्रमद्वरा युवावस्था को प्राप्त हुई तो मुनिकुमार रुरु उसके रूप लावण्य पर मुग्ध हो गया और स्थूलकेश ने यह सम्बन्ध स्वीकार कर लिया। परन्तु विवाह के पूर्व ही निद्रित अवस्था में प्रमद्वरा को एक सांप ने काट लिया और वह मृतक अवस्था को प्राप्त हुई इस पर रुरु ने बड़ा विलाप किया अनुसार 'सत्यक्रिया' द्वारा अपनी आयु का धद्ध भाग उसने प्रमद्वरा को प्रदान फिर उन दोनों का विवाह हो गया।
और एक देवदूत के सुझाव के करके पुनर्जीवित कर लिया
यह प्रेमोपाख्यान भी भारत में बड़ा जनप्रिय रहा है। कथासरित्सागर में इसे उदयन और वासवदत्ता की कहानी में विदूषक के मुख से कहलवाया गया है। स्पष्ट ही पंचतन्त्र में संकलित लोककथा का रूप इस उपाख्यान से किसी अंश में मेल खाता है। यही स्थिति राजस्थानी लोककथा की है। उपाख्यान में पत्नी के प्रति पुरुष के प्रेम की पराकाष्ठा प्रकट की गई है, जो लोककथा में भी ज्यों की त्यों वर्तमान है।
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________________ 8 डॉ० मनोहर शर्मा परन्तु उसका मूल उद्देश्य कुछ दूसरा ही है, अतः उसमें 'सत्यक्रिया' का प्रयोग दो बार हुआ है / वहाँ एक बार आयु का अर्द्ध भाग दिया गया है तो दूसरी बार परिस्थितिवश वापिस भी लिया गया है। लोककथा में नारी-जाति के प्रति घोर घृणा का वातावरण है / पौराणिक उपाख्यान में ऐसा नहीं है / वहाँ नारी-सम्मान का प्रकाशन हुआ है / लोककथा में वह पूर्ण रूप से कृतघ्न एवं अविश्वसनीय है / यही कारण है कि कथा के अंत में उसकी दुर्गति करवा कर 'काव्यगत न्याय' (Poetic Justice) का पालन किया गया है। उसका बुरा हाल होता है परन्तु फिर भी वह श्रोताओं अथवा पाठकों की सहानुभूति नहीं प्राप्त कर सकती। इस रूप में यह एक नीति-कथा बन गई है। .. इस प्रकार हम देखते हैं कि एक लोककथा में कितने विभिन्न तत्व छिपे हुए रहते हैं / साथ ही आज की लोककथा अति प्राचीन काल में भी मिल सकती है। समयानुसार उस में विभिन्न प्रभाव प्रवेश पाकर उसे नया रूप प्रदान करते हैं। राजस्थानी लोककथा में ऐसा ही हुआ है। उसमें अनेक तत्वों का समन्वय है और यही भारतीय संस्कृति का प्रधान उपलक्षण है, जो यहाँ की ल ककथाओं तक में दृष्टव्य है। इसी प्रकार अन्य लोककथानों के विश्लेषणात्मक विवेचन की भी आवश्यकता है। इससे साहित्य-जगत् को बड़ा लाभ मिलेगा।