Book Title: Dwashraya Kavya na Ek Padyani Shankaspad Vrutti Paratve Vicharna Author(s): Shilchandrasuri Publisher: ZZ_Anusandhan Catalog link: https://jainqq.org/explore/229542/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'याश्रय' काव्यना एक पद्यनी शंकास्पद वृत्ति परत्वे विचारणा - शीलचन्द्रविजय गणि १. श्री हेमचंद्राचार्य गजरातना चावडा - सोलंकी - राजाओना चारित्रवर्णन सार्थ स्वरचित 'सिद्धहेमचन्दशब्दानुसासन द्वारा सिद्ध थता शब्दप्रयोगाने गूंथी लेता 'याश्रय महाकाव्य उपर श्रीअभयतिलकगणिए वृत्ति रचेली छे । आ वृत्ति काव्यना अर्थाने तेम ज व्याकरणना प्रयोगोने पण खोली आपे तेवी सुगम छ । जो के आ वृत्तिने सर्वग्राही वृत्ति कहेवान साहस न करी शकाय । केम के हजी काव्यतत्त्व तथा अलंकार-वर्गोनी दृष्टिए 'याश्रय उपर विवेचन थवानं बाकी ज रहे छे । आम छतां, आजे तो 'द्याश्रय ना अर्थोद्घाटन माटेनं एकमात्र सरस साधन आ वृत्ति ज छे ।। 'व्याश्रय ना प्रथम सर्गमा अणहिल्लपुरपत्तनतुं नगरवर्णन थयुं छे. चोथा पाथी आरंभीने कल १३० पद्योमा पथरायेलं ए नगरवर्णन अत्यन्त रोचक अने कल्पनोत्तेजक छ । वृत्तिकारे ए रोचकताने झीलवानो पोतानी क्षमता अनसारे सारो प्रयत्न कर्यो छे । परंत आ वर्णनमा ५८ मा पद्यनी वृत्ति, मूल पद्यना रहस्यथी विपरीत जती होय तेवं जणाय छे । ए पद्या तथा तेनी वृत्ति आ प्रमाणे छ : न यथा कोऽपि संस्कर्ता संचस्कार यथा न च । __ अरोचकी गुणेष्वा संस्कर्तुं यत ते तथा ।। ५८ ।। वृत्ति : - अत्र पुरे न रोचते धान्यं क्षुधोऽभावादस्मिन् “नाम्नि पुंसि च” (पू. ३.१ २२ ) इति णके अरोचको बुभुक्षाया अभावः सोऽस्त्यस्य" प्राणोस्थाद०" (७.२.६०) इत्यादिना रुग्वाचित्वादिनि अरोचको नरो गणेष व्यञ्जनेषु विषये संस्कर्त हिङ्गकर्पूरादिशेपेण तथा तेन प्रकारेण यतते प्रवर्तते यथा कोऽपि पमान न संस्कर्ता न संस्करिष्यति यथा कोऽपि न च संचस्कार संस्कृतवान् । वृत्तिनो सार ए समजाय छे के "आ नगरना लोकोने 'अरोचक नामनो रोग होवाथी, अथवा अहींना लोकोने बहु भूख न लागती होवाथी, भूख लागे ते खातर, तेओ गुणो एटले शाक-दाळ प्रकारना व्यंजनोमां हिंग अने कपूर आदि संस्कार (वधार व.) करता हता, के जेवो कोईए क्यारेय कर्यो न होय के करशे पण नहि ।" । अत्यंत ग्राम्य, बेहूदो अने नगरनी प्रशस्तिने बदले अपकीर्ति गणाय तेवों - आवो अर्थ वृत्तिकारे आ पद्यनो केवी रीते अने केम तारव्यो हशे? ते समजमां आवे तेम नथी । __ वास्तवमा आ पद्य एक उच्च कक्षानं ध्वनिकाव्य गणी शकाय तेवं पा छ । आ पद्यमां आवला 'गण शब्दनो 'गण अर्थ ज करवाथी, अने 'अरोचकों नो अर्थ आयर्वेदमा वर्णवेल 'अरोचक नामना रोगथी पीडातो 'एवो न करता गणो प्रत्ये ज जेने अरुचि छे ते गणोनो अरोचकी' एवो करीए तो आ पद्यामांथी एवो ध्वनि नोकळे छे के : [५०] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | "आ नगरना लोको एवा तो गुणवंत हता, के जेमने देखीने गुणोनो अरोचकी- अवगुणी दर्जन जण पण, पोतानामा आवा गणो प्रगटाववा माटे एवो प्रचंड उद्यम करतो के जेवो म पूर्वे कोईए को न होय तेम भविष्यमां कोई करशे पण नहि "! आ अर्थने जो यथार्थ स्वीकारीए तो आ पद्यनी व्याख्या आ प्रमाणे करवी घटे : वृत्ति : अत्र - पर, गणेष - गणानां - सद्गुणानां प्राप्तिविषये, अरोचकी-- सदणान् प्रति रुचिमान् - दुर्जनो निर्गुणो वा जन इत्यर्थ, 'अपिः अध्याहार्य : अतो निर्गुणोऽपि जनः; कत 'निज इति शेषः, निजात्मनि गणानां संस्कारमाधातमित्यर्थ; तथा - तेन प्रकारेण त्वरया तत्येन तीव्रभावादिना वा - यतते - यत्नं कुरुते, यथा - येन प्रकारेण कोऽपि - कश्चिदपि न्यो जनः न संचस्कार- निजात्मानं न संस्कृतवान् ‘पूर्व 'गणैरिति च शेषः / न च - ना 'कोऽपि इति अत्राप्यपादेयं; अतो न कश्चिदपि जन: संस्कर्ता च -भविष्यकाले निजात्मानं स्करिष्यत्यपि / अयं भावः -एतादृशोऽत्रत्यो जनो गणवान्, यं दष्ट्वा अन्यो निर्गणो जनो इजनिर्गुणत्वेन लज्जित्वा निजात्मानं गुणसंस्कृतं निर्मातुं तथा सयत्नो भवत्यत्र, यथा भूतकाले नापि जनेन नोद्यातं, न वा भविष्यत्कालेऽपि कोऽपि तादृक् प्रयत्नशोलो भावी // [51]