Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान ५२
श्रीजिनभदसूरि रचित द्वादशाङ्गी पदप्रमाण-कुलकम्
म. विनयसागर
"अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथन्ति गणहरा" केवलज्ञान प्राप्त करने और त्रिपदी कथन के पश्चात् तीर्थनायकों ने जो प्रवचन/उपदेश दिया, उसमें अर्थरूप में जिनेश्वरदेवों ने कहा और सूत्ररूप में गणधरों ने गुम्फित किया। उसी को द्वादशाङ्गी श्रुत के नाम से जाना जाता है । द्वादशाङ्गी श्रुत का पदप्रमाण कितना है इसके सम्बन्ध में निम्न कुलक हैं ।
इसके कर्ता जिनभद्रसूरि हैं । जिनभद्रसूरि दो हुए हैं - प्रथम तो जिनदत्तसूरि के शिष्य और दूसरे जैसलमेर ज्ञान भण्डार संस्थापक श्री जिनभद्रसूरि हैं । इन दोनों में से अनुमानतः ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे ही जिनभद्रसूरि की यह रचना हो । श्रुतसंरक्षण और श्रुतसंवर्द्धन यह उनके जीवन का ध्येय था इसीलिए उन्हीं की कृति मानना उपयुक्त है ।
आचार्य श्रीजिनभद्रसूरि आचार्य श्री जिनराजसूरिजी के पद पर श्रीसागरचन्द्राचार्य ने जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, किन्तु उन पर देव-प्रकोप हो गया, अतः चौदह वर्ष पर्यन्त गच्छनायक रहने के अनन्तर गच्छोन्नति के हेतु सं० १४७५ में श्री जिनराजसूरि जी के पद पर उन्हीं के शिष्य श्री जिनभद्रसूरि को स्थापित किया गया । जिनभद्रसूरि पट्टाभिषेकरास के अनुसार आपका परिचय इस प्रकार है
___ मेवाड़ देश में देउलपुर नामक नगर है । जहाँ लखपति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड़ गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था । उनकी स्त्री का नाम खेतलदेवी था । इनकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामणकुमार ने जन्म लिया ।
एक बार जिनराजसूरि जी महाराज उस नगर में पधारे । रामणकुमार के हृदय में आचार्यश्री के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्ण रूप से जागृत हो गया। कुमार ने अपने मातुश्री से दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी । शुभमुहूर्त में
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
जिनराजसूरिजी ने रामणकुमार को दीक्षा देकर कीर्तिसागर नाम रखा । सूरि जी ने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए उन्हें वा० शीलचन्द्र गुरु को सौंपा । उनके पास इन्होंने विद्याध्ययन किया । ।
चन्द्रगच्छ-श्रृंगार आचार्य सागरचन्द्रसूरि ने गच्छाधिपति श्री जिनराजसूरि जी के पट्ट पर कीर्तिसागरजी को बैठाना तय किया । सं० १४७५ में शुभमुहूर्त के समय सागरचन्द्र ने कीर्तिसागर मुनि को सूरिपद पर प्रतिष्ठित किया । नाल्हिग शाह ने बड़े समारोह से पट्टाभिषेक उत्सव मनाया ।
उपा० क्षमाकल्याणजी की पट्टावली में आपका जन्म सं० १४४९ चैत्र शुक्ला' षष्ठी को आर्द्रानक्षत्र में लिखते हुए भणशाली गोत्र आदि सात भकार अक्षरों को मिलाकर सं० १४७५ माघ सुदि पूर्णिमा बुधवार को भणशाली नाल्हाशाह कारित नन्दि महोत्सवपूर्वक स्थापित किया । इसमें सवा लाख रुपये व्यय हुए थे । वे सात भकार ये हैं- १. भाणसोल नगर, २. भाणसालिक गोत्र, ३. भादो नाम, ४. भरणी नक्षत्र, ५. भद्राकरण, ६. भट्टारक पद और जिनभद्रसूरि नाम ।
आपने जैसलमेर, देवगिरि, नागोर, पाटण, माण्डवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खम्भात आदि स्थानों पर हजारों प्राचीन और नवीन ग्रन्थ लिखवा कर भण्डारों में सुरक्षित किये, जिनके लिए केवल जैन समाज ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण साहित्य संसार आपका चिर कृतज्ञ है । आपने आबू, गिरनार और जैसलमेर के मन्दिरों में विशाल संख्या में जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी, उनमें से सैंकड़ों अब भी विद्यमान हैं ।
सं० १५१४ मार्गशीर्ष वदि ९ के दिन कुम्भलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ ।
जैसलमेर के सम्भवनाथ जिनालय की प्रशस्ति में आपको सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गई है। इस प्रशस्ति की १०वीं पंक्ति में लिखा है कि आबू पर्वत पर श्री वर्द्धमानसूरि जी के वचनों से विमल मन्त्री ने जिनालय का निर्माण करवाया था। श्री जिनभद्रसूरिजी ने उज्जयन्त, चित्तौड़, माण्डवगढ़, जाउर में उपदेश देकर जिनालय निर्माण कराये व उपर्युक्त नाना स्थानों में ज्ञान भण्डार स्थापित कराये, यह कार्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था । इस मन्दिर
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
अनुसन्धान ५२
के तलघर में ही विश्व विश्रुत श्री जिनभद्रसूरि ज्ञान - भण्डार है, जिसमें प्राचीनतम ताड़पत्रीय ४०० प्रतियाँ हैं । खम्भात का भण्डार धरणाक ने तैयार
कराया था ।
माण्डवगढ़ के सोनिगिरा श्रीमाल मन्त्री मण्डन और धनदराज आपके परमभक्त विद्वान् श्रावक थे । इन्होंने भी एक विशाल सिद्धान्त कोश लिखवाया था जो आज विद्यमान नहीं है, पर पाटण भण्डार की भगवतीसूत्र की प्रशस्ति युक्त प्रति माण्डवगढ़ के भण्डार की है । आपकी 'जिनसत्तरी प्रकरण" नामक २१० गाथाओं की प्राकृत रचना प्राप्त है । सं० १४८४ में जयसागरोपाध्याय ने नगर कोट (कांगडा ) की यात्रा के विवरण स्वरूप " विज्ञप्ति त्रिवेणी " संज्ञक महत्त्वपूर्ण विज्ञप्तिपत्र आपको भेजा था ।
इस स्तोत्र में पद-परिमाण का निर्वचन नहीं किया गया है। निर्वचन के बिना स्पष्टीकरण नहीं होता है कि यहाँ पद का अर्थ क्या है, क्योंकि जो पद प्रमाण दिया गया है वह वर्तमान के आगम अंग से मेल नहीं खाता । इसीलिए श्रुतिपरम्परा को ही आधार मानकर चलना उपयुक्त है । प्रारम्भ में ११ अंगों का पद - परिमाण दिया गया है, वह निम्न है :
आचाराङ्ग सूत्र, पद परिमाण सूत्रकृताङ्ग सूत्र, पद परिमाण स्थानाङ्ग सूत्र, पद परिमाण समवायाङ्ग सूत्र, पद परिमाण भगवती सूत्र, पद परिमाण
७२,०००
१,४४,०००
२,८८,०००
ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र, पद परिमाण
५,७६,०००
उपासक दशाङ्ग सूत्र, पद परिमाण
११,५२,०००
अन्तकृद् दशाङ्ग सूत्र, पद परिमाण
२३,०४,०००
अनुत्तरोपपातिक दशाङ्ग सूत्र, पद परिमाण ४६,०८,०००
प्रश्नव्याकरणाङ्ग सूत्र, पद परिमाण
९२,१६,०००
विपाकाङ्ग सूत्र, पद परिमाण
१८,०००
३६,०००
१,८४,३२,०००
इसके पश्चात् दृष्टिवाद पाँच भेद वर्णित किये गये हैं - परिकर्म, सूत्र,
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्टेम्बर २०१०
पूर्वागत अनुयोग और चूलिका । चौदह पूर्वो की पद परिमाण संख्या इस प्रकार कही गई है। १. उत्पाद पूर्व, पद परिमाण
१,००,००,००० २. अग्रायणीय पूर्व, पद परिमाण
९६,००,००० ३. वीर्यप्रवाद पूर्व, पद परिमाण
७०,००,००० ४. अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व, पद परिमाण ६०,००,००० ५. ज्ञान प्रवाद पूर्व, पद परिमाण ९९,९९,९९९ ६. सत्य प्रवाद पूर्व, पद परिमाण १,००,००,००६ ७. आत्म प्रवाद पूर्व, पद परिमाण २६,००,००,००० ८. कर्म प्रवाद पूर्व, पद परिमाण १,००,८६,००० ९. प्रत्याख्यान पूर्व, पद परिमाण
८४,००,००० १०. विद्यानुप्रवाद पूर्व, पद परिमाण १,१०,००,००० ११. अवन्ध्य पूर्व, पद परिमाण २६,००,००,००० १२. प्राणायु प्रवाद पूर्व, पद परिमाण १,५६,००,००० १३. क्रिया प्रवाद पूर्व, पद परिमाण ९,००,००,००० १४. लोकबिन्दुसार पूर्व, पद परिमाण १२,५०,००,०००
___ इसकी प्रति जैसलमेर ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है। अब यह कुलक स्तोत्र दिया जाता है :
द्वादशाङ्गी पद-प्रमाण कुलक नमिऊण जिणं अंगाण-पय-पमाणं अहं पयंपेमि । तत्थ पयमत्थ-उवलद्धि जत्थ किरं एवमाईयं ॥१॥ अट्ठारस छत्तीसा बावत्तरि सहस तह य अणुकमसो । आयारे सूयगडे ठाणंगे चेव पयसंखा ॥२॥ समवाए पयपमाणं लक्खो एगो सहस्स चोयाला । भगवईए पयसंखा दो लक्खा सहस अडसीई ॥३॥
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
अनुसन्धान ५२
णायाधम्मकहंगे अद्धचउत्थकोडीकहाकलिए । पण लक्खा छावत्तरि सहस उवासगदसा-अंगे ॥४॥ सत्तमि लक्खिक्कारस सहस्स बावन्न अट्ठमे अंगे । अंतगडदसानामे लक्खा तेवीस चउसहसा ॥५॥ तहऽणुत्तरोववाई नवमे अंगम्मि लक्ख बायाला । अडसहसा अह दसमे पण्हावागरणनामम्मि ॥६॥ बाणवईलक्खाइं सोलसहस्सा तह विवागसुए । एक्कारसमे अंगे पयप्पमाणं इमं वुच्छं ॥७॥ एगा कोडी चुलसीई लक्खा बत्तीस सहस इय माणं । इक्कारस अंगाणं भणियमह बारसंगम्मि ॥८॥ तुं पुण दिट्ठीवाओ स पंचहा वण्णिओ य समयम्मि । परिकम्म-सुत्त-पुव्वगयऽणुओग तह चूलियाओ य ॥९॥ तत्थ य पुव्वगयम्मी पढमे उप्पायनामए पुव्वे । कोडी एगा अह बीय अग्गेणीयम्मि पुव्वम्मि ॥१०॥ छन्नवई लक्खाइं तइए वीरियपवायपुव्वम्मि ।। पयलक्खाइं सत्तरि अहऽत्थिनत्थिप्पवायम्मि ॥११॥ तुरिए पुव्वे सट्ठी लक्खा अह पंचमम्मि पुव्वम्मि । णाणप्पवायनामे इगकोडी एगपयहीणा ॥१२॥ छठे सच्चपवाए पुव्वे इग कोडि छहिं पयेहिं अहिया । आयप्पवायपुव्वे सत्तम्मि पयकोडि छव्वीसा ॥१३।। कम्मप्पवायपुव्वे अट्ठम्मि इगकोडि सहस अस्सीई । णवमे पच्चक्खाणप्पवाइ लक्खाण चुलसीई ॥१४॥ विज्जणुपवाय दसमे पुव्वे इगकोडि दसइ लक्खाइं । इक्कारसे अवंज्झे पुव्वे पयकोडि छव्वीसा ॥१५॥ पाणाउनामपुव्वे बारसमे छपण लक्ख इगकोडी । किरियाविसालपुव्वे तेरसमे कोडिनवगं तु ॥१६॥
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________ सप्टेम्बर 2010 57 तह लोगबिंदुसारे चउदसमे पुव्व बार कोडीओ / लक्खा तह पन्नासं इय सव्वग्गे(ग्गं?) पयपमाणं // 17 // एयं पयप्पमाणं दुवालसंगस्स सुयसमुदस्स / णेयमुवंगाईण वि सुयाण समयाणुसारेण // 18 // उप्पन्नविमलकेवलनाणेणं जिणवरेण वीरेण / परमत्थरूवअत्थो निदंसिओ सव्वसुत्ताणं // 19 / / सुत्तं तु गणहरकयं तम्हा सव्वप्पयत्तसंजुत्ता / पणमह जिणंदवीरं भवजलहीपारमिच्छंता // 20 // इय नंदिसुत्त-विवरणमणुसरिऊणंग-पयपमाणमिणं / जिणगणहरोवइटुं लिहियं जिणभद्दसूरीहिं // 21 // // इति श्री द्वादशाङ्गीपदप्रमाणकुलकं समाप्तम् ॥छ।।