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10 जनवरी 2011 जिनवाणी
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दिशाहीन युवा और आध्यात्मिक गुरु
श्री पदमचन्द गांधी ( थांवला वाले)
युवा पीढ़ी सद्गुरु के अभाव में दिग्भ्रान्त है। उसे सद्गुरु की पहचान भी नहीं है । उसकी अन्धी दौड़ में प्रकाश की नितान्त आवश्यकता है। वह प्रकाश आध्यात्मिक सन्तस्वरूप गुरुओं से ही प्राप्त हो सकता है। ऐसे गुरु के प्रति श्रद्धा समर्पित होकर युवा अपने जीवन को एक सार्थक दिशा प्रदान कर सकता है। -सम्पादक
दिशाहीनता आज के युवाओं का आम सच है। देश के बहुसंख्यक युवा इस समस्या से घिरे हुए हैं। जीवन की राहों पर उनके पांव बहक रहे हैं, भटक रहे हैं तथा फिसलने लगे हैं। वे जो कर रहे हैं, उसके अंजाम या मंजिल का उन्हें न तो पता है और न ही इसके बारे में उन्हें सोचने की फुर्सत है। बस जिज्ञासा, कुतुहल, ख्वाहिश, शौक या फैशन के नाम पर उन्होंने टेढ़ी-मेढी राहों को चुना है, या फिर तनाव, हताशा, निराशा और कुण्ठा ने जबरन उन्हें इन रास्तों पर धकेल दिया है। मीडिया, टी.वी., फिल्में और आसपास का माहौल उन्हें इसके लिए प्रेरित कर रहा है। सामाजिक वातावरण भी दिशाविहीनता के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है।
आज युवाओं में जिस नशे का जोर है उसमें शराब, सिगरेट, चरस, गांजा, अफीम, तम्बाकू आदि को कोई स्थान नहीं है। ये सब तो गुजरे जमाने की ओल्ड फैशन की चीजें हैं। सिगरेट, शराब तो आज सॉफ्ट आइटम कहे जाते हैं । आज का नया शगल जिसे युवा अपने तनाव को दूर करने का साधन बना रहे हैं वे हैं - पब , नाइट क्लब, कॉफी रेस्तरॉ, जहाँ उन्हें मिलता है, चिल्ड वॉटर, एनर्जी ड्रिंक्स, बेसिरपैर वाले हंसी मजाक, अपने में डूबो देने वाला नया संगीत, डांस और शर्ट्स् । शस् अर्थात् नसों के जरिये ली जाने वाली हेराइन या कोकीन ।
साइबर कैफे, संचार माध्यम एवं इन्टरनेट साधनों का बहुत सदुपयोग हो रहा है, लेकिन जिन्दगी से भटके युवक-युवतियाँ इसका दुरुपयोग कम नहीं कर रहे हैं। साइबर कैफे उनके जीवन में ज़हर घोलने की बड़ी भूमिका निभाते हैं। वर्ष 2006 में छतीसगढ़ - रायपुर का एक प्रकरण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ, जहाँ 150 साइबर कैफे पंजीकृत पाये गये, जहाँ पर समाचार संवाददाताओं और जानकारों की राय में अधिकतर साइबर कैफे पहुँचने वाले युवक-युवतियाँ चेंटिग के बहाने पोर्न साइटों को जरूर खंगालते हैं। आज का आंकड़ा कितना होगा जहां पर 24 घंटे ऐसी साइटें चलती हैं। एक प्रश्न चिह्न है ।
ऐसी दिशाहीनता के लिए दोषी कौन? क्या केवल ये युवक-युवतियां अथवा परिवार या समाज,
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________________ | 10 जनवरी 2011 | | जिनवाणी | 145 जहाँ ये पल रहे हैं या बड़े हो रहे हैं? क्या केवल युवा पीढ़ी को दोष देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेनी चाहिए या फिर समाज को, परिवार को अपने दायित्व निभाने के लिए कमर कसनी चाहिए / जहाँ तक बात अपनी है तो स्पष्ट है कि हम विचारशील कहे जाने वाले सामाजिक माहौल को प्रेरणादायक बनाने में नाकाम रहे हैं अथवा इस सम्बन्ध में कुछ किया भी है तो बहुत थोड़ा है। आज आवश्यकता है ऐसे आध्यात्मिक गुरुओं की जिनका प्रेरक एवं सम्यक् व्यक्तित्व युवाओं को सन्मार्ग एवं सद्उद्देश्य हेतु चल पड़ने हेतु प्रेरित कर सके। गुरु ही एक दिशा सूचक यंत्र है जो जीवन नैया को गंतव्य स्थान तक पहुँचाता है / सद्गुरु ही हमारी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं जिन्होंने डूबते को बचाया है, गिरते हुए को उठाया है, युवाओं का जीवन संवारा है। इतिहास साक्षी है कि बूंखार डाकू एवं क्रिमिनल इनकी शरण में आकर अपने जीवन को धन्य कर गए। ऐसे उदाहरण मौजूद हैं- महावीर ने अर्जुनमाली को संवारा, अभिमानी इन्द्रभूति को परम विनयी एवं गणधर बनाया। वीर लोंकाशाह, महात्मा गांधी, आचार्य भगवन्त पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. आदि अनेक महान सन्त मुनियों ने युवकों को प्रेरणा देकर उनके जीवन को सन्मार्ग पर लगाया। वाल्मीकि एक डाकू था, लेकिन नारद ऋषि ने उन्हें रामायण का रचयिता बनाया / कुख्यात डाकू नरवीर को आचार्य यशोभद्र सूरिजी ने शान्ति का पाठ पढ़ाया, जिससे उसका हृदय परिवर्तन हुआ। बुद्ध की शरण में सम्राट अशोक ने कंलिग युद्ध के बाद स्वयं अहिंसक बनकर सम्पूर्ण परिवार को धर्ममय बना दिया / राजा प्रदेशी का जीवन कितना असंस्कारी, अनगढ़ और हिंसामय था। एक बार केशीस्वामी का समागम हुआ तो उनका पापमय जीवन पवित्र बन गया। ऐसा होता है आध्यात्मिक गुरुओं का असर। ___आज के इस पंचम आरे में तीर्थंकर, केवली भगवन्त एवं मनःपर्याय ज्ञानी कोई नहीं है / आज अगर कोई आधार है तो जिनवाणी या आगमवाणी का मंथन कर समझाने वाले गुरु भगवन्त हैं। आज आध्यात्मिक संत ही हमारे जीते जागते तीर्थंकर हैं। हमारा जीवन एक नौका के समान है जो क्रोध, मान, माया, लोभ, व्यसन, कुसंगत, दुराचरण आदि चट्टानों से टकराती रहती है। गुरु भगवन्त आकाशदीप बनकर हमें सूचित करते हैं तथा आगाह करते हैं “हे आत्माओं! आप इस राह पर न जाना! यदि कषायों की चट्टानों से टकरा गए तो भव-भव बिगाड़ लोगे।" ऐसे गुरुदेव हमें सावधान करते हुए रक्षक एवं प्रहरी का कार्य करते हैं। प्रश्न उठता है कि हमारे आध्यात्मिक गुरु कैसे हों? किस तरह उन्हें पहचाना जाय? युवा पीढ़ी का एक सूत्र है-“परखो, स्वीकार करो एवं अपनाओ।" आज का युवा भटका हुआ अवश्य है, लेकिन बुरा नहीं है, उसे मोड़ा जा सकता है उसे प्यार, सहानुभूति, प्रेरणा तथा तार्किक समझाइश की जरूरत है। उसे सन्तों के पास लाने की जरूरत है। क्योंकि गुरु तो वह है जो जीने की कला सिखाए, समस्याओं का धैर्य से समाधान निकालने की विद्या में पारंगत बनाए / सार्थक यौवन को महकाने के लिए ऐसे गुरु आवश्यक हैं जो पाँचसमिति, तीन गुप्ति का पालन करें। पंच महाव्रती, छः काया के प्रतिपाल तथा 27 गुणों के धारी राग-द्वेष को जीतने वाले तथा जिनाज्ञा में विचरण करने वाले हों। ऐसे गुरुओं का गंडे, ताबीज, अंगूठी, लॉकेट या रक्षा पोटली से कोई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
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________________ 146 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 सम्बन्ध नहीं होता, मंदिर-मस्जिद के झगड़ों से इनका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे गुरु स्वयं अपना परिशोधन कर स्वयं की अंतश्चेतना जगाते हुए दूसरों को कुंठाओं एवं कुचक्रों में फंसने नहीं देते। उनकी नकारात्मक सोच सकारात्मक कर देते हैं। आज युवा गुरु को पहचान नहीं पा रहे हैं / वे सही जानकारी के अभाव में इधर-उधर भटक रहे हैं। युवा को चाहिए कि वह सच्चे गुरु की पहचान समझें, स्वीकार करने से पूर्व उन्हें टटोले, निश्चित रूप से वे गुरु आपके अपने सिद्ध होंगे। विवेकानन्द ने परमहंस को ढूंढा ।आचार्य पूज्य धर्मदासजी महाराज साहब को गुरु की खोज के लिए जंगलों एवं पर्वतों में प्रयास करना पड़ा / हमारे गुरु की साधना एवं समाचारी उच्च कोटि की है। आध्यात्मिक गुरु आज की आवश्यकता है। युवा पीढ़ी को सन्मार्ग पर सद्गुरु ही ला सकते हैं, क्योंकि इनके 'गुरुत्व' का आभामण्डल प्रभावशाली होता है। उनकी कथनी एवं करनी में अन्तर नहीं होता, ऐसी ही प्रतिभा के धनी आचार्यप्रवर पूज्य की हीराचन्द्र जी महाराज हैं जिनके आह्वान पर युवा पीढ़ी व्यसनमुक्ति के लिए प्रत्याख्यान हेतु उमड़ पड़ती है, जिनके पावन चरणों में नियमव्रतों का अम्बार लगा दिया जाता है। ये ऐसे गुरु हैं जो सत्कर्म करने का सार्वभौम संदेश देते हैं। आध्यात्मिक गुरु संदेश देते हैं-“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" अर्थात् उठो, जागो और रुको नहीं, जब तक कि जीवन के लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाओ। ऐसे गुरु युवाओं के आदर्श होते हैं जिनमें जीवन के आदर्शों की चरम गुणवत्ता झलकती है। * आज के अधिकांश युवा कागज की नाव के सहारे महासागर को पार करना चाहते हैं, दिखावें में विश्वास करते हैं, नजर नींव की तरफ न जाकर कंगूरे पर जाती है। वे ऐसे गुरु को ढूंढने का प्रयास करते हैं जो उनके स्वार्थों की पूर्ति कर सके। सब कुछ तैयार करके 'गुणवत्ता' की छूट पिला दें, जिससे सभी कार्य सिद्ध हो जायें। ऐसी मानसिकता के व्यक्ति धर्म के मर्म को नहीं जानते / गुरु की सच्ची महिमा को नहीं पहचानते। लेकिन गुरु तो एक सांचा है जिसमें युवा स्वयं ढल सके एवं संवर सके। . आज युवाओं में श्रद्धा, समर्पण एवं आस्था की कमी है, उन्हें आज ही परिणाम चाहिए, कल का धीरज उनमें नहीं है। ऐसे में वे गुरु के पास आना ही नहीं चाहते, यदि आते हैं तो नहीं के बराबर / लेकिन गुरु में तो 'गुरुत्वाकर्षण बल होता है। अपने प्रभाव से प्रभावित कर लेते हैं तथा आध्यात्मिकता जागृत कर देते हैं। आध्यात्मिकता वह है जिसमें व्यक्ति की भावनाओं का स्तर ऊँचा उठे अर्थात् उसका अन्तरंग और उसकी मनोभावना विकसित हो। यदि भावनाएँ ऊँची हैं तो व्यक्तित्व उच्च होगा। आध्यात्मिक गुरु गुलाब की तरह खिलना एवं महकना सिखाते हैं, चन्दन की तरह शीतलता हमारे जीवन में भरते हैं। हमारे भीतर दीपक की तरह आलोकित भावनाओं की ज्योति जगाते हैं तथा जीवात्मा को विकसित करते हैं। गुरु कुशल कारीगर तथा कुम्भकार की तरह होते हैं जो कुम्भ' का निर्माण करते हैं। मिट्टी से बना वही कुम्भ लोगों को शीतल जल प्रदान करता है। सच्चा गुरु वही होता है, जो स्वयं वीतरागता को अपनाता है तथा दूसरों को सुगमता की राह दिखाता है जिससे अन्य लोग भी अपना जीवन धन्य कर सकें / अतः युवा पीढ़ी स्वयं चयन करे कि उसे किस तरह के गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only
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________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी | की शरण में रहना चाहिए। __एक छोटा सा विद्यार्थी जिसके न माँ थी, न पिता, जिसके पास न मकान था न जायदाद, लेकिन उसके भीतर गुरु की आध्यात्मिकता थी, दृढ़ मनोबल एवं विश्वास था। उसने गरीबों की सेवा में प्यार देखा, सेवा के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया एवं वह 'कागासा' जापान का गांधी बन गया / चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को गढ़ा, गुरु रामदास ने शिवाजी को गढ़ा / द्रोणाचार्य के मना करने पर भी अगाध श्रद्धा एवं समर्पण द्वारा एकलव्य अच्छा एवं निपुण धनुर्धर बन गया। यह श्रद्धा एवं समर्पण से ही संभव हुआ। आध्यात्मिकता की कुंजी श्रद्धा है, सफलता की जननी श्रद्धा है। श्रद्धा गुरु के प्रति होनी चाहिए, यह कहाँ से कहाँ ले जाती है इसकी महिमा अपरम्पार है। ऐसे ही गुरुभगवन्त आचार्य हस्ती हुए हैं जिनके नाम से ही कार्य सिद्ध हो जाते हैं। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं- श्रद्धावान् मनुष्य को ज्ञान प्राप्त होता है तथा विवेकहीन संशययुक्त मनुष्य परमार्थ पथ से भ्रष्ट होकर भटकता रहता है। न इसके लिए लोक रहता है न परलोक (भगवद्गीता 4/39-40) / लेकिन आज हमारी श्रद्धा लूली-लंगड़ी हो गयी है / गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण भावना में कमी हो रही है / गीता में कहा गया है कि गुरु वाक्य को ब्रह्म वाक्य' मानकर उसके प्रति दृढ़ श्रद्धा, उसके निर्देशों के अनुसार जीवन की हर क्रिया-पद्धति का निर्धारण हमें करना चाहिए। जब एक बार श्रद्धा आरोपित कर गुरु मान लिया तो किन्तु-परन्तु नहीं होना चाहिए। जो व्यक्ति समस्त कर्मों का परमात्मा में श्रद्धा के साथ अर्पण तथा विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर लेता है वह उन्मुक्त पुरुष कभी कर्म-बन्धन में नहीं बन्धता / वह सदैव सुखी तथा प्रसन्न मन वाला रहता है। श्रद्धा का आरोपण प्रगाढ़ हो जैसे पूर्णिया श्रावक का सामायिक के प्रति, परदेशी राजा का गुरु के प्रति, मीरा का कृष्ण के प्रति, हनुमान का राम के प्रति / यदि युवा पीढ़ी के भटकाव को रोकना है, यदि वह अपना जीवन संवारना चाहती है, आध्यात्मिकता की राह पर चल कर अपने जीवन का कल्याण कर आत्मशांति को प्राप्त करना चाहती है तो उसे सद्गुरु की शरण में आना ही पड़ेगा, क्योंकि गुरु के पास ही ऐसी शक्ति है जो उनके सोये हुए चैतन्य को जागृत कर सकती है। अतः युवाओं को ऐसे गुरु के समीप जाना चाहिए, उनसे साक्षात्कार करना चाहिए, क्योंकि उनके पास हर मर्ज की दवा है / बिगड़े हुए जीवन को या भटके हुए जीवन को गुरु की शरण ही सुधार सकती है। - 25, बैंक कॉलोनी, महेश नगर, विस्तार 'बी' गोपालपुरा बाईपास, जयपुर-302001 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only