Book Title: Dhurthakhyan Paryantik Vyangya Kavya Katha
Author(s): Ranjan Suridev
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्ताख्यान: पार्यन्तिक व्यंग्य काव्यकथा D प्रो० डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव, सम्पादक, परिषद्-पत्रिका बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना-४ 7 -+-+-+ व्यंग्य-काव्यकथा ग्रन्थों में 'धूर्त्ताख्यान' का उल्लेखनीय महत्व है। इसके रचयिता श्रमण परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान् कथाकार आचार्य हरिभद्रसूरि ( आठवी-नवीं शती) हैं। उन्होंने अपनी इस व्यंग्यप्रधान कथा - रचना में पाँच धूर्तों के आख्यानों द्वारा पुराणों में वर्णित असम्भव और अविश्वसनीय बातों या कथाओं का प्रति-आख्यान उपन्यस्त किया है। साणिक कथासी की दृष्टि से यह ग्रन्थ भारतीय कथा-साहित्य में कूटस्थ है। व्यंग्य और उपहास के उपस्थापन की पुष्टि पद्धति की दृष्टि से तो इस कथा - ग्रन्थ को द्वितीयता नहीं है। कहना न होगा कि आचार्य हरिभद्र का व्यंग्य प्रहार ध्वंस के लिए नहीं, अपितु निर्माण के लिए हुआ है। " धूर्त्ताख्यान " ( प्रा० धुत्तक्खाण) में व्यंग्य के यथार्थ रूप का दर्शन होता है। विकृति के माध्यम से सुकृति को संकेतित या सन्देशित करना ही व्यंग्य का मूल लक्ष्य है। इसीलिए, प्रबुद्ध व्यंग्यकार प्रायः सार्वजनीन जड़ता, अज्ञानता या दुष्कृतियों के उपहास तथा भर्त्सनापूर्वक विरोध के लिए ही व्यंग्य का प्रयोग करते हैं । 'ए न्यू इंगलिश डिक्शनरी आयु हिस्टोरिक्त प्रिंसिपुल्स (भाग ८ पृ० ११६) में कहा गया है कि पाप, जड़ता, अशिष्टता और कुरीति को प्रकाश में लाकर उनकी निन्दा और उपहास के लिए कवियों द्वारा व्यंग्य का प्रयोग किया जाता है। कुरीति और अनाचार के निर्मूलन के लिए व्यंग्य अमोघ अस्त्र सिद्ध होता है । शिप्ले ने अपने शब्दकोश 'डिक्सरी आवृ वर्ल्ड लिटरेरी टम्स' (२०४०२) में लिखा है कि मानवीय दुर्बलताओं की निन्दापूर्ण कटु आलोचना ही व्यंग्य है। इसीलिए, आचार और सौन्दर्य के भावों को उद्भावित कर सामाजिक दुर्बलता में सुधार लाना ही व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य है। यों, अन्य उपायों से भी सामाजिक दोषों का निराकरण किया जा सकता है, किन्तु व्यंग्य में निराकरण की ध्वनि और प्रविधि, रोचकता और तीक्ष्णता की दृष्टि से, कुछ भिन्न या विशिष्ट होती है। 'चेम्बर्स इन्साइक्लोपीडिया' (नवीन संस्करण, जि०१२ ) के अनुसार, सार्वजनीन भर्त्सना के भावों में कल्पना और बुद्धिविलास के साथ ही झिड़की के भाव जब मिल जाते हैं, तभी व्यंग्य की सृष्टि होती है । सुधार की दृष्टि से किसी भी प्रकार का सामाजिक जीवन व्यंग्य के लिए उपयुक्त क्षेत्र बन सकता है। सच पूछिए, तो स्वाभाविकता जब अस्वाभाविकता का परिहास करती है, तभी व्यंग्य की स्थिति उत्पन्न होती है। व्यंग्य दोषों का परिमार्जन ही नहीं करता, उनका शोधन और सुधार भी करता है। व्यंग्य से पारस्परिक कटुता या तिक्तता नहीं बढ़ती, अपितु समाज या व्यक्ति के स्वभावों का परिष्कार और संस्कार होता है। व्यंग्य गत्यात्मक और उपदेशात्मक, दोनों प्रकार का हो सकता है। 'खान' के उपन्यासक आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में आक्षेप या निन्दा की अपेक्षा व्यंग्य ही एक ऐसा उत्तम साधन है, जो बिना किसी हानि के मानव की दुर्नीतियों का परिशोधन करता है। कारण है कि मनुष्य अपना उपहास नहीं सह सकता है, अतः जिन दोषों के कारण उस पर दूसरे लोग हँसते हैं, उन दोषों से वह अपने आप को मुक्त कर लेना चाहता है, परिमार्जन की इच्छा करता है । व्यंग्य उन दोषों का परिमार्जन करना चाहता है और तभी व्यंग्य कला का रूप धारण करता है। पुनः व्यंग्य जब कला के रूप में प्रतिष्ठित होता है, तब वह सौन्दर्य - भावना के . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्ताख्यान : पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा .................................................................... ...... माध्यम से उपहास के निमित्त सामयिक कुरुचियों या कुरीतियों की कल्पनात्मक विवेचना के नियमानुकूल एक आकार प्रदान करता है। इसलिए, व्यंग्य का सर्वाधिक वैभव साहित्य के माध्यम से ही उपलब्ध हो सकता है। व्यंग्य मुख्यतः दो प्रकार का होता है : सरल और वक्र। सरल या सीधे ढंग से व्यंग्य का प्रयोग करने वाला लेखक प्राय: उपदेशक या उससे थोड़ा ही विशिष्ट होता है। ऐसे व्यंग्यकारों में कबीर, रविदास आदि की सीधी चोट करने वाली व्यंग्य-कविताएँ उदाहरणीय हैं । किन्तु, वक्र व्यग्य का प्रयोक्ता जिन पात्रों या वस्तुओं को अपने आक्रमण या प्रहार का विषय बनाता है, उनका वर्णन सीधे व्यंग्य से न करके उसे प्राय: अप्रस्तुत-प्रशंसा, अन्योक्ति या अन्योपदेश, वक्रोक्ति, अथवा व्याजोक्ति-शैली में उपस्थापित करता है। कहना न होगा कि व्यग्य-काव्य में वाच्य से इतर ध्वन्यात्मकता और सामान्य से परे विशिष्ट रसात्मक वाक्यावली के समायोजन से अद्भुत चमत्कार आ जाता है। तभी तो व्यंग्य का कठोर कशाघात मृदुल मालाघात की तरह प्रतीत होता है। व्यंग्य का अभिव्यक्तीकरण कला के विभिन्न माध्यमों-चित्र, मूर्ति, स्थापत्य, कथा, काव्य और नाटकों द्वारा सम्भव है। इसलिए, कलात्मक व्यंग्य को समझने के लिए सहृदय की अधिकाधिक प्रबुद्धता या पर्याप्त बौद्धिक जागरूकता अपेक्षित होती है। इस सन्दर्भ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के 'अन्धेर नगरी चौपट राजा', 'वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति' आदि दृश्यकाव्यों-नाटकों की कथावस्तुओं के वर्णन-वैविध्य को निर्देशित किया जा सकता है। इस प्रकार के व्यंग्य से न केवल व्यक्तिगत चरित्रों में सुधार सम्भव होता है, वरन् वह सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र को उद्भाषित कर उसे आत्मसंशोधन के लिए प्रेरित करता है, कभी-कभी तो आत्म-चरित्र में आमूल-परिवर्तन लाने को विवश कर देता है । फलत: व्यंग्य अनिर्मित का निर्माण और निमित का पुननिर्माण भी करता है। __आचार्य हरिभद्र ने पाँच आख्यानों में विभक्त तथा प्राकृत के सर्व सर्वप्रिय छन्द 'गाथा' में निबद्ध 'धूख्यिान' में वक्र व्यंग्य की विच्छित्तिपूर्ण योजना की है। पुराणों की असम्भव और अंबुद्धिगम्य बातों के निराकरण के निमित्त व्यंग्य-कथालेखक हरिभद्र ने धूर्तगोष्ठी की आयोजना की है। कथा है कि उज्जयिनी के एक सुरम्य उद्यान में ठग विद्या के पारंगत सैकड़ों धूतों के साथ मूलदेव, कण्डरीक, एलाषाढ़, शश और खण्डपाना ये पाँच धूर्त्तनेता पहुँचे। इनमें प्रथम प्रथम चार पुरुष थे और खण्डपाना स्त्री थी । प्रत्येक पुरुष धूर्तराज के पांच-पांच सौ पुरुष-अनुचर थे और खण्ड पाना की पांच सौ स्त्री-अनुचर थीं। जिस समय ये धूर्त नेता उद्यान में पहुँचे थे, उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी। सभी धूर्त वर्षा की ठण्ड से ठिठुरते और भूख से कुड़बुड़ाते हुए, व्यवसाय का कोई साधन न देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बारी-बारी से पांचों धूर्त्तनेता अपने-अपने जीवन के अनुभव सुनायें और जो धूर्त्तनेता शेष चारों के अनुभव की कथाओं को असत्य और अविश्वसनीय सिद्ध कर देगा, वही सारी मण्डली को एक दिन का भोजन करायेगा। इसके अतिरिक्त, जो धूर्त्तनेता स्वयं महाभारत, रामायण, पुराण आदि के कथानकों से अपनी अनुभवकथा का समर्थन करते हुए उसकी सत्यता के प्रति विश्वास दिला देगा, वह सभी धर्मों का राजा बना दिया जायगा । इस प्रस्ताव से सभी सहमत हो गये और सभी ने रामायण, महाभारत तथा पुराणों की असम्भव कथाओं का भण्डाफोड़ करने के निमित्त आख्यान सुनाये । किन्तु, खण्डपाना ने न केवल अपनी कल्पित अनुभव-कथाएँ सुनाई, वरन् उनका पुराण-कथाओं से समर्थन भी कर दिया और शर्तबन्दी के अनुसार यह सभी धूर्त्तनेताओं में अग्रणी मान ली गई। इसके अतिरिक्त उसने अपनी चतुराई से एक सेठ को ठगकर रत्नजटित अंगूठी प्राप्त की, जिसको बेचकर बाजार से खाद्य-सामग्री खरीदी गई और पूरी धूर्तमण्डली को भोजन कराया गया। ज्ञातव्य है कि 'धूर्ताख्यान' में व्यंग्य-कथाओं के माध्यम से विभिन्न पौराणिक मान्यताओं का निराकरण किया गया है। जैसे : सृष्टि-उत्पत्तिवाद, सृष्टि-प्रलयवाद, त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश के स्वरूप की मिथ्या मान्यताएं, अन्धविश्वास, अग्नि का वीर्यपान, देवों के तिल-तिल अंश से तिलोत्तमा की उत्पत्ति आदि अस्वाभाविक मान्यताएँ, जातिवाद, वर्णवाद आदि की मनगढन्त अवधारणाएँ, ऋषियों में असंगत और असम्भव कल्पनाएँ, अमानवीय तत्व आदि। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड DOD D O -. -. -. -.-.-.-.-.-... ...... ........................ .... .......... ... प्रथम आख्यान में कथा के द्वारा सृष्टि को उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित मिथ्या और असम्भव कल्पनाओं के प्रति-आख्यान के क्रम में कहा गया है कि धूर्त्तनेता मूलदेव ने जब अपनी कल्पित अनुभव-कथा सुनाई, तब दूसरे धूर्तनेता कण्डरीक ने उससे कहा : "तुम्हारे और हाथी के कमण्डलु में समा जाने की बात बिल्कुल सत्य और विश्वसनीय है; क्योंकि पुराणों में भी बताया गया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा के वैश्य और पैरों से शूद्र का जन्म हुआ। अत:, जिस प्रकार ब्रह्मा के शरीर में चारों वर्ण समा सकते हैं, उसी प्रकार कमण्डलु में तुम दोनों समा सकते हो। द्वितीय आख्यान में अण्डे से सृष्टि के उत्पन्न होने की कथा की असारता दिखाई गयी है। कण्डरीक ने अपने अनुभव का वर्णन करते हुए कहा है कि एक गांव के उत्सव में सम्मिलित सभी लोग डाकुओं के डर से कद में समाविष्ट हो गये। उस कद्रू को एक बकरी निगल गई और उस बकरी को एक अजगर निगल गया और फिर उस अजगर को एक ढेंक (सारस-विशेष) पक्षी ने निगल लिया। जब वह सारस उड़कर वटवृक्ष पर आ बैठा था, तभी किसी राजा की सेना उस वृक्ष के नीचे आई। एक महावत ने सारस की टाँग को बरगद की डाल समझकर उससे हाथी को बाँध दिया । जब सारस उड़ा, तब हाथी भी उसकी टांग में लटकता चला। महावत के शोर मचाने पर शब्दवेधी बाण द्वारा सारस को मार गिराया गया और क्रमशः सारस, अजगर, बकरी और कद्द, को फाड़ने पर उक्त गाँव का जनसमूह बाहर निकल आया। कण्डरीक के इस अनुभव का समर्थन विष्णुपुराण के आधार पर करते हुए एलाषाढ बोला : “सृष्टि के आदिमें जल ही जल था । उसकी उत्ताल तरंगों पर एक अण्डा चिरकाल से तैर रहा था। एक दिन वह अण्डा दो समान हिस्सों में फूट गया और उसी के आधे हिस्से से यह पृथ्वी बनी। इसलिए, जब अण्डे के एक ही अर्धांश में सारी पृथ्वी समा सकती है, तब कद्दू में एक छोटे-से गाँव के निवासियों का समा जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।" ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानी त्रिदेव के स्वरूप की मान्यता के सम्बन्ध में अनेक मिथ्या धारणाएँ प्रचलित हैं, जिनका बुद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं है। 'धूर्ताख्यान' के प्रथम आख्यान में ही व्यंग्यकथाकार ने लिखा है कि ब्रह्मा ने एक हजार दिव्य वर्ष तक तप किया। देवताओं ने उनकी तपस्या में विघ्न उत्पन्न करने के लिए तिलोत्तमा नाम की अप्सरा को भेजा । तिलोत्तमा ने उनके दक्षिण पार्श्व की ओर नाचना शुरू किया। रागपूर्वक अप्सरा का नृत्य देखने और उसका एक दिशा से दूसरी दिशा में घूम जाने के कारण ब्रह्मा ने चारों दिशाओं में चार अतिरिक्त मुख विकसित कर लिये । तिलोत्तमा जब ऊर्ध्वदिशा, यानी ऊपर आकाश में नृत्य करने लगी, तब ब्रह्मा ने अपने माथे के ऊपर पाँचवाँ मुख विकसित कर लिया । ब्रह्मा को इस प्रकार काम-विचलित देखकर रुद्र ने उनका पाँचवाँ मुख उखाड़ फेंका ब्रह्मा बड़े ऋद्ध हए और उनके ललाट से पसीने की बूदें गिरने लगीं, जिनसे श्वेतकुण्डली नाम का पुरुष उत्पन्न हुआ और उस ने ब्रह्मा, की आज्ञा से शंकर का पीछा किया। रक्षा पाने के लिए शंकर .बदरिकाश्रम में तपस्यारत विष्ण के पास पहुँचे। विष्णु ने अपने ललाट की रुधिर-शिरा खोल दी। उससे रक्तकुण्डली नाम का पुरुष निकला, जो शंकर की आज्ञा से श्वेतकुण्डली से युद्ध करने लगा। दोनों को युद्ध करते हुए हजार दिव्य वर्ष बीत गये, पर कोई किसी को नहीं हरा सका। तब, देवों ने यह कहकर उनका युद्ध बन्द करा दिया कि जब महाभारत-युद्ध होगा, तब उसमें उन्हें सड़ने को भेज दिया जायगा। कहना न होगा कि उक्त कथा की सारी अवधारणाएँ कल्पित प्रतीत होती हैं। ___ इसी प्रकार, आचार्य हरिभद्र ने अपनी व्यंग्यकथाओं द्वारा अन्धविश्वासों का भी निराकरण किया है। तपस्या भ्रष्ट करने के लिए अप्सरा की नियुक्ति (प्रथम आख्यान); हाथियों के मद से नदी प्रवाहित होना, पवन से हनुमान की उत्पत्ति, विभिन्न अंगों के संयोग से कार्तिकेय का जन्म (तृतीय आख्यान); अगस्त्य का सागर-पान, अण्डे बिच्छू, मनुष्य और गरुड़ की उत्पत्ति (चतुर्थ आख्यान) आदि धारणाएँ अन्धविश्वास के द्योतक हैं । पुराणों में अग्नि का वीर्यपान, शिव का अनैसर्गिक अंग से बीर्यपात, कुम्भकर्ण का छह महीने तक शयन, सूर्य का कुन्ती से सम्भोग कान से कर्ण की उत्पत्ति प्रभृति बातों की 'धूर्ताख्यान' में पर्याप्त हँसी उड़ाई गयी है। 'धूख्यिान' के पांचों आख्यानों में कुल मिलाकर मुख्यत: निम्नांकित कथा-प्रसंगों पर व्यंग्य किया गया है : Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्ताख्यान : पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा प्रथम आख्यान: ब्रह्मा के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति / अप्राकृतिक दृष्टि से कल्पित विभिन्न जन्म-कथाएँ। शिव की जटा में गंगा का समाना। ऋषियों और देवताओं के असम्भव और विकृत रूप की मान्यता / द्वितीय आख्यान : अण्डे से सृष्टि की मान्यता। अखिल विश्व का देवों के मुख में निवास / द्रौपदी के स्वयंवर में, एक ही धनुष में पर्वत, सर्प, अग्नि आदि का आरोप / जटायु, हनुमान आदि की जन्म-सम्बन्धी असम्भव कल्पनाएँ। तृतीय आख्यान : जमदग्नि और परशुराम-सम्बन्धी अविश्वसनीय मान्यताएँ। जरासन्ध के स्वरूप की मिथक-कल्पना / हनुमान् द्वारा सूर्य का भक्षण / स्कन्ध की उत्पत्ति-सम्बन्धी असम्भव कल्पना / राहु द्वारा चन्द्रग्रहण की विकृत कल्पना / वामनावतार और वराहावतार की विकृत मान्यताएँ। चतुर्थ आख्यान : रावण और कुम्भकर्ण-सम्बन्धी मिथ्या मान्यताएँ। अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र के पान की कल्पना / कद्र और विनता के अस्वाभाविक उपाख्यान / समुद्र पर वानरों द्वारा पर्वतखण्डों से सेतु-रचना / पंचम आख्यान: व्यास ऋषि के जन्म की अद्भुत कल्पना / पाण्डवों की अप्राकृतिक अद्भुत कल्पना / शिवलिंग की अनन्तता की अवधारणा। हनुमान की पूंछ की असाधारण लम्बाई की मान्यता। गन्धारिकावर राजा का मनुष्य-शरीर छोड़कर वन में कुरबक वृक्ष के रूप में परिणत होने की कल्पना। इस प्रकार, पुराणों की विभिन्न कथा-कल्पनाओं को मिथ्याभ्रान्ति मानकर उनका व्यंग्यात्मक शैली में निराकरण करने में आचार्य हरिभद्र ने अपने अक्खड़ पाण्डित्य और प्रकाण्ड आचार्यत्व का परिचय दिया है / कहना न होगा कि इस अद्भुत व्यंग्यकार ने अपनी हास्य-रुचिर कथाओं के माध्यम से अन्यापेक्षित शैली में असम्भव, मिथ्या, अकल्पनीय और निन्द्य-आचरण की ओर ले जाने वाली बातों का निराकरण कर स्वस्थ, शिष्ट, सदाचार-सम्पन्न और सम्भव आख्यानों का निरूपण किया है। ____ 'धूर्ताख्यान' में सृजनात्मक व्यंग्य-प्रक्रिया अपनाई गई है एवं सप्राण शैली में वैषम्यपूर्ण तथा परस्पर असम्बन्ध तथ्यों का तिरस्कार समाज-निर्माण की दृष्टि से किया गया है। कथा के शिल्प-विधान का चमत्कार तथा दुरूह उलझनभरी सामाजिक विकृतियों का आख्यान-शैली में प्रति-आख्यान इस कथाग्रन्थ के आलोचकों को भी मुग्ध कर देने वाला है / निस्सन्देह, विश्वजनीन कथा-वाङमय का विकासात्मक अध्ययन 'धूख्यिान' जैसी पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा के अध्ययन के बिना अधूरा ही माना जायगा। .