Book Title: Dhundhad ka Namkaran Author(s): Raghvendra Muni Publisher: Z_Bhanvarlal_Nahta_Abhinandan_Granth_012041.pdf Catalog link: https://jainqq.org/explore/211080/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय ही हैं क्योंकि वह स्त्रीलम्पट और दुराचारी था। वंश भास्कर के अनुसार उस ढूंढ राक्षस के नाम पर ही उसके विचरण क्षेत्र का नाम दूंढाड़ विख्यात हुआ : आमैर सों दिस वारुनी, अजमेर सों सिव ओर में । ढुंढार नामहि देस भी, यह ढुंढ ढुंढन दौर में ॥ बीसलदेव विषयक इस जनश्रुति का यही आशय लगता है कि वह अपनी दुष्टता एवं दुराचरण के कारण निरीह प्रजाजनों पर अत्याचार करने लगा होगा जिससे यह प्रदेश उजाड़ हो गया तथा लोक में वह राक्षस संज्ञा से अभिहित हो गया। ढूंढाड़ का नामकरण रावल नरेन्द्र सिंह ने ब्रीफ हिस्ट्री आफ जयपुर -राघवेन्द्र मनोहर नामक ग्रन्थ में लिखा है कि जीबनेर पर्वत का नाम ढूंढ है जहाँ अजमेर के चौहान नरेश बीसल देव ने अपने विरोधियों राजस्थान विश्व विद्यालय, जयपुर ( प्रमुखतः मेवासी मीणों) को दंढ-दंढ कर समाप्त करने जयपुर के आसपास का क्षेत्र ढंढाड़ के नाम से के लिए मुकाम किया था। विख्यात रहा है। इस इलाके का यह नाम कब और इस प्रकार जहाँ रावल साहब का मत है कि जीबनेर क्यों पड़ा इस बारे में कोई सुनिश्चित जानकारी नहीं पर्वत का नाम ढूंढ था वहीं दूसरी ओर वंश भास्कर के मिलती। ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में इसके नामकरण अनुसार राक्षस का नाम दूंढ था ( व्यक्तियों को ढूंढके सम्बन्ध में विभिन्न संभावनाओं पर विचार करना ढूंढ कर खाने के कारण)। इस सम्बन्ध में वंश भास्कर में 'समीचीन होगा। स्पष्ट उल्लेख है : सर्वप्रथम वंश भास्कर ने एक जनश्रुति का उल्लेख सब जन खाये ढुंढि सठ, इहि कारण अभिधान । किया है कि चौहान नरेश बीसलदेव अपने दुराचरण के रक्खस को ढुंढहि रहयो, बस्यो उतहि बलवान || कारण शापित हो ढंढ नामक राक्षस बन गया तथा तथा, प्रजाजनों का भक्षण करने लगा। वह अजमेर को उजाड़ जुब्बनगर दै दाहिने, अवनि उद्धरन आस । कर ईशानकोण में स्थित जीबनेर कस्बे की ओर उन्मुख अन्नल नृप अजमेर बन, पत्तो रक्खस पास ॥ हुआ तथा वहाँ पर्वत शृग पर उकड़ बैठकर नर-भक्षण जुब्बनेर अजमेर बिच, देस विरचि उद्यान । करने लगा। दुढ तहां ढंढत रहै, प्राणिन पालन प्राण !! खाय मनुज उतके सुखल, ईस कोन दिस ओर । हनुमान शर्मा ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ नाथावतों के जुब्बनेर पुर लों जबहि, रहयो मचावत शोर ॥ इतिहास में आमेर के ढुंढाकृति पहाड़ के नाम से ढूंढाड़ उतके जन रवावत अटल, कबहु श्रांत अतिकाय । नाम पड़ने की बात कही है पर इसका कोई पुष्ट प्रमाण जुब्बनेर गिरि शृग जो उकर बैठत आय ॥ नहीं मिलता। अजमेर में बीसलदेव (विग्रहराज) नाम के चार एक पौराणिक मान्यता के अनुसार ढुंढा नामक एक राजा हो गये हैं। संभवतः उक्त बीसलदेव विग्रहराज राक्षसी (हिरणकश्यप की बहिन) थी जो इस क्षेत्र में १ वंश भास्कर, पृ० १३०३-४ । ६८ ] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहती थी। उसका विचरण क्षेत्र होने से संभवतः यह ढूंढाड़ नाम से यह क्षेत्र लगभग तीन-चार सौ वर्षों से इलाका ढूंढाड़ कहलाया हो। नवजात शिशुओं की मंगल लोक में ज्ञात है। लिखित प्रमाण भी इससे पहले नहीं कामना के लिए ढूंढ पूजने की रीति आज भी इस क्षेत्र में ले जाते। लेकिन इसके नामकरण के बारे में फिर भी प्रचलित है। लेकिन इस मान्यता का कोई ऐतिहासिक यह निरचयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि यह नाम कब आधार नहीं मिलता। और क्यों पड़ा। भाषा विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पाते हैं कि ढूंढाड़ दाङ क्षेत्र के नामकरण के पीछे सबसे अधिक युक्तिशब्द राजस्थानी की विभिन्न बोलियों में निर्जन और उजाड़ प्रदेश के अर्थ में अनेकशः आया है। संभवतः संगत और विश्वसनीय बात यह लगती है कि अचरोल के निकटवतीं पहाड़ों से निकलने वाली इस क्षेत्र की प्रमुख वीरान इलाका होने के कारण यहाँ जीवन-यापन करना नदी का नाम ढूंद है। यह नदी इस इलाके के व्यापक दुष्कर रहा हो इसीलिए इसे विविध राक्षसों के विचरण का प्रदेश मानकर अनेक असंगत व निराधार मान्यतायें बना और विस्तृत भू-भाग में बहती है। वह काफी ली गई। पुरानी है और इसका पाट बहुत चौड़ा है। अभी कुछ वर्ष पूर्व 1981 में ढूंढ नदी में आयी भीषण बाढ़ ने प्रलय गाजर मेवो कांस खड़, मरद ज पून उघाड़ / का केसा ताण्डव किया था। उसकी विनाश लीला ने धै ओझर अस्तरी, अहो घर ढूंढाड़ // इस इलाके के कई सौ गाँवों अर्थात एक बहुत बड़े क्षेत्र को ढूंढाड़ देस राक्षस धरा, दई वास नह दीजिए। प्रभावित किया। बहुत सम्भव है ढूंढ नदी के प्रवाह इस मान्यता में भी ज्यादा दम नहीं है क्योंकि क्षेत्र का बोध कराने की दृष्टि से इस भू-भाग का नाम भौगोलिक दृष्टि से यह इलाका इतना निर्जन और वीरान ढूंढाड़ पड़ गया हो। पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में ढूंढाड़ के .. कभी नहीं रहा। नामकरण का यही सबसे विश्वसनीय कारण लगता है। [ 66