Book Title: Dharmik Tatha Naitik Shiksha
Author(s): Hemlata Talsera
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - डा० (श्रीमती) हेमलता तलेसरा विद्याभवन जी० एस० शिक्षक महाविद्यालय, उदयपुर -0-0-0-0-- वर्तमान समय में जहाँ मानव ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी तथा 12 9 प्रौद्योगिकी की दृष्टि से निरन्तर विकास की ओर अग्रसर होता जा रहा 6 है; नैतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से पतन की ओर बढ़ रहा 0 | है। व्यक्ति के भौतिकवादी बनने के साथ-साथ भ्रष्टाचार, हिंसा, बेई-70 मानी, संकुचितता तथा अनुशासनहीनता ने समाज में अपनी जड़ें | अत्यधिक गहरी बना ली हैं । जीवन की समस्याएँ बढ़ रही हैं। नई पीढी धार्मिक और नैतिक बातों को मिथ्या आडम्बर मात्र समझती है। धर्म के तत्त्वज्ञान, ज्ञानशास्त्र और नीतिशास्त्र के प्रति अज्ञानता । विकसित हो रही है । आज नैतिकता मात्र चर्चा का विषय बन गयी TD है । आचरण इस पर सबसे कम किया जा रहा है। एक प्रसिद्ध दार्शनिक के अनुसार आज मनुष्य समुद्र में मछली HC । की तरह तैर सकता है, आकाश में पक्षियों की तरह उड़ सकता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि पृथ्वी पर मनुष्य की तरह किस प्रकार चले ? आज वह मनुष्य का मूल गुण भूल गया है। इसके पीछे | मानसिक तनाव तथा अशान्ति का हाथ है। आज व्यक्ति को सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों से जोड़ने हेतु धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आवश्यकता निरन्तर बढ़ रही है। धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा क्या है ? धर्म एक प्रकार के कर्तव्य के द्वारा कुछ उपयोगी तथा आत्मउपयोगी गुणों को धारण करना है। मानव धर्म के अंग के रूप में 20 व्यक्ति का कर्तव्य आत्मा, परमात्मा और संसार के प्रति होता है। । प्रसिद्ध दार्शनिक सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार धर्म एक प्रकार की भावनात्मक तथा ऐच्छिक प्रतिक्रिया है। पश्चिमी शिक्षाशास्त्री रॉस के अनुसार धर्म व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में सत्यं शिवं सन्दरम् की प्राप्ति में सहायक एक शक्ति है। बाइबिल में दीन दुखियों की सेवा को ही धर्म बताया गया है। नैतिकता आचरण में लक्षित होती है। सद्-असद् विवेक इसके । अन्तर्गत आता है । नैतिक जागृति से व्यक्ति का समुचित विकास P होकर समाज में शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की स्थापना होती है । नैतिक बल, भावनाएँ एवं तर्क-संगति के परिणामस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण | होता है और उसी के अनुपात में व्यक्ति का समाज में प्रभाव होता ० है । उसी के साथ-साथ नैतिक बल का निर्माण भी होता चला । जाता है। --0-0-0-0-- धर्म नैतिकता को पूर्व आवश्यकता है। यदि धर्म कारण है तो ३३८ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा : चारित्रिक संकट से मुक्ति -0-0-0-0-0-0-0-2--0-0-0-0-0 0-0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ । www.jainelibhary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिकता परिणाम । यदि विश्व के धर्मों की तुलना नैतिक विकास करने वाली शिक्षा पर अधिक बल करें तो पता चलेगा कि उनमें तत्वज्ञान, ज्ञानशास्त्र दिया था। और कर्मकाण्ड में भिन्नता हो सकती है पर नीति ऐतिहासिक शास्त्र सभी में लगभग एक जैसा है । नैतिक आच५ रण के पीछे धर्म की स्वीकृति की आस्था उठ जाने भारतवर्ष में अति प्राचीनकाल से ही धार्मिक से समाज लड़खड़ा जायेगा--न कहीं सत्य होगा, तथा नैतिक शिक्षा को महत्त्व दिया जाता रहा है। न सदाचार, न ईमानदारी और न अहिंसा ही। वैदिककाल में ईश्वर-भक्ति तथा धार्मिकता की धार्मिक तथा नैतिक सम्प्रत्यय के आधार पर भावना भरना व पवित्र चरित्र-निर्माण शिक्षा के धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा का अभिप्राय ऐसी मुख्य लक्ष्य माने जाते थे। जीवन का उद्देश्य धर्म, शिक्षा से है, जिसमें विद्यार्थियों को सद् तथा असद् अथ, काम व मोक्ष का अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति था, जिसमें धर्म को में अन्तर करके विवेकसम्मत निर्णय लेने और सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया। प्राचीन विद्यालयों सदाचार का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। राष्ट्रीय का वातावरण धार्मिक कार्यों जैसे यज्ञ, संध्या, शिक्षा नीति (१९८६) के अनुसार बच्चों का नैतिक प्रार्थना, संस्कार व धार्मिक उत्सवों से परिपूर्ण एवं चारित्रिक विकास नैतिक शिक्षा का मख्य लक्ष्य रहता था। उस समय के समाज का लक्ष्य उच्च पा है। शिक्षा द्वारा विद्यार्थियों को ज्ञान एवं कुशलता नैतिक जीवन व्यतीत करना था, यही शिक्षा का प्रदान करने के साथ-साथ उनमें ऐसे मानवीय ध्येय भी था। मध्यकाल में शिक्षा के लिए मन्दिर, गणों जैसे--प्रेम, सेवा, सहानुभूति, सत्य, सहयोग. मस्जिद तथा धार्मिक स्थानों का प्रयोग किया जाता संयम, सहिष्णता, कर्तव्यपरायणता, अहिंसा, देश- था। यूरोपीय ईसाई मिशनरी ने धर्म प्रचार हेतु भक्ति आदि का विकास करना है, जिससे वे एक विद्यालयों में धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की आदर्श सदाचारी नागरिक बन सकें । नैतिक शिक्षा व्यवस्था की । १८५४ के वुड घोषणा-पत्र में शिक्षा के अन्तर्गत शारीरिक शिक्षा, मानसिक स्वस्थ में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा नैतिक विचारधारा की चरित्र, आचरण, उचित व्यवहार, शिष्टाचार, पुष्टि की गई। १८८२ के भारतीय शिक्षा आयोग सामाजिक अधिकार, कर्तव्य तथा धर्म आदि सम्मि- (हन्टर कमीशन) ने पाठ्यक्रम में धार्मिक एवं लित होते हैं। यह वास्तव में उचित मनोभावों. नैतिक शिक्षा का कोई स्थान नहीं रखा । १९१७भावनाओं एवं संवेगों को विकसित करने की १८ के कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग ने शिक्षा पद्धति है। के धार्मिक एवं नैतिकरूप को झगड़े की वस्तु मानसमाज में शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने कर कोई विचार नहीं किया। १९३७-३८ की गाँधी के लिए नैतिक मूल्यों का विकास किया गया है। जी की बेसिक शिक्षा योजना में 'सत्य' को धार्मिक वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, बाईबिल, शिक्षा का अग बनाया गया। १९४४-४६ में बिशप जी. डी. बार्न समिति ने धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा कुरान आदि महान ग्रन्थों में धर्म और दर्शन की आवश्यकता तो अनुभव की किन्तु इसका S के साथ-साथ श्रेष्ठ नैतिक मूल्यों का संग्रह है। महावीर, गौतम बुद्ध, ईसामसीह, मुहम्मद, जर दायित्व घर तथा समुदाय तक ही रखा। थुस्त, बाल्मीकि, व्यास, तुलसीदास, कबीर, इकबाल, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद बने पहले शिक्षा टैगोर, अशोक, हर्षवर्धन, अकबर, दयानन्द सर- आयोग (१९४८-४६) ने विद्यालयों में धार्मिक तथा स्वती, विवेकानन्द, बालगंगाधर तिलक, अरविंद नैतिक शिक्षा को विभिन्न कार्यक्रमों में सम्मिलित घोष और गाँधी आदि ने बालक के जीवन में किये जाने पर बल दिया। १९५२-५३ के माध्यमिक : जैन संस्कृति के विविध आयाम ३३६ COME -e . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Yucation International NS Private & Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा आयोग ने चरित्र की शिक्षा पर बल दिया श्यकता है, जो नैतिकोन्मुखी हो। यही कारण है तथा घर, विद्यालय एवं समाज की नैतिकता आच- कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत नैतिक रण के प्रति आस्था को चरित्र-निर्माण के लिए मूल्यों के शिक्षण तथा प्रशिक्षण की व्यवस्था पर महत्वपूर्ण बताते हुए शिक्षक एवं विद्यालयीन जीवन बल दिया गया है। जिससे राष्ट्रीय समस्याओं को को समृद्ध किए जाने की सिफारिश की। १६५८- हल करने हेतु एक नया प्रकाश प्राप्त हो सके। ५६ में नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता एवं सम्भावनाओं पर विचार हेतु श्रीप्रकाश । राष्ट्रीय समस्याओं के हल हेतु महत्वपूर्ण 5 समिति का गठन किया गया। इस समिति ने नात नैतिक मूल्यों का शिक्षा में समावेश होविद्यालयों में नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का देशवासियों में एकता की भावना विकसित शिक्षण वांछनीय माना तथा विद्यालयों का कार्य करने हे करने हेत शिक्षा में सार्वजनीन तथा शाश्वत मल्यों क्रम मौन प्रार्थना से शुरू करने का सुझाव दिया। का विकास करना होगा जिनसे धार्मिक १९६२ की भावात्मक एकता समिति ने भी राष्ट्रीय विश्वास, कट्टरता, असहिष्णुता, हिंसा तथा भाग्यएकता के सन्दर्भ में चरित्र-निर्माण को महत्वपूर्ण वाद का अन्त किया जा सके और विद्यार्थियों में बताते हुए धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की आवश्य- राष्ट्रीय एकता का दृष्टिकोण विकसित किया जा कता पर बल दिया। १९६४-६६ के कोठारी शिक्षा सके। छात्रों को एक-एक क्षण का सदुपयोग करना आयोग ने नई पीढ़ी में मूल्यहीनता पर चिन्ता सिखाने के लिए विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रम व्यक्त की तथा शिक्षा में नैतिक, आध्यात्मिक एवं सहगामी क्रियाओं जैसे स्काउटिंग, एन० एस० एस०, ON सौन्दर्यात्मक मूल्यों के विकास को अत्यधिक महत्व- एन० सी० सी०, खेलकूद आदि का आयोजन रखा पूर्ण माना । विभिन्न आयोगों के अतिरिक्त शिक्षा जाये । विद्यालयों में साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं की राष्ट्रीय, राज्य तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बनी आने देने के लिए साम्प्रदायिकता की शिक्षा न समितियों ने एकमत से मूल्य संकट तथा चारि- देकर आध्यात्मिक व धार्मिक त्रिक संकट से देश को बचाने हेतु नैतिक तथा बल दिया जाना चाहिए । छात्रों को सामाजिक एवं धामिक शिक्षा को किसी न किसी रूप में विद्यालयीन आथिक परिस्थितियों से परिचित कराकर उन्हें कार्यक्रम के साथ जोड़ना अत्यधिक आवश्यक इस योग्य बनाया जाय कि वे अपने विचार तथा लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा जगत में किये व्यवहार में उदार बन सकें, भाषा, सम्प्रदाय, जाति. जाने वाले अब तक के अनेक प्रयास तथा योजनाएँ लिंग पर आधारित पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर हमारी राष्ट्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने में राष्ट्रीय हितों की बात सोच सकें। इसके लिए सफल नहीं हो पायी हैं। शिक्षा की इस गम्भीर आवश्यक है कि विद्यालय ही नहीं बल्कि घर का स्थिति को ध्यान में रखते हुए ही देश में एक नई वातावरण ऐसा सरस व सुन्दर बनाया जाए कि शिक्षा नीति १९८६ में लाग की गयी है, जो राष्टीय नैतिक मूल्यों का विकास हर सदस्य अपना सामूएकता तथा अखण्डता को बनाए रखकर राष्ट्रीय हिक उत्तरदायित्व समझे । विद्यालयी शैक्षिक तथा आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके और भारतीय सहशैक्षिक कार्यक्रमों में सभी धर्मों के त्यौहारों को संविधान के संकल्पों के अनुसार नई पीढ़ी को प्रति- समान रूप से मनाना, महापुरुषों के जीवन से योगिता के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर आत्मविश्वास के प्रेरणा देने हेतु विचार गोष्ठी रखना, वादविवाद साथ खड़ी करने में समर्थ कर सके । इसके लिए आयोजित करवाना तथा सामाजिक सेवा कार्यक्रमों का अपने कर्तव्यों के प्रति उन्मुख नागरिकों की आव- को आवश्यक रूप से जोड़ा जाना चाहिए। ३४० चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) Jain A nton International SONSrivate & Personal Use Only www.iainer Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Home शिक्षा द्वारा छात्रों में आत्म-सम्मान की भावना सकें कि उन्हें उपदेश देने का प्रयास किया जा की का विकास कर उन्हें आध्यात्मिक/धार्मिक दिशा रहा है। हेतु प्रेरित किया जाना चाहिए। सभी धर्मों के प्रति भगवान महावीर ने नैतिक जागरण के लिए सहिष्णता तथा समान आदर भाव रखने हेतु छात्रों बौद्धिक, आर्थिक और राजनैतिक जीवन परिमार्जित को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। छात्रों के करने पर बल दिया था जिससे अहिंसा, अपरिग्रह सामने ऐसी समस्याएँ प्रस्तुत की जाएं, जिनसे वे और अनेकान्त के माध्यम से युद्ध, शोषण तथा सद्-असद् में अन्तर करना सीख सकें। चूंकि अनु- तनाव को समाप्त किया जा सके, शान्ति, समानता करण का बालकों पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है, और सह-अस्तित्व के वातावरण से मानव-कल्याण इसलिए अध्यापकों तथा माता-पिता को स्वयं नैतिक का मार्ग प्रशस्त हो सके। महाकवि रवीन्द्रनाथ नियन्त्रण के अन्तर्गत ही रहने का प्रयास करना ठाकूर ने विद्यार्थियों के लिए एक आचार संहिता चाहिए । यदि अध्यापक तथा पिता खुलेआम धूम्र- को अनिवार्य माना है। पान करता है तो छात्रों को उस कार्य से कैसे रोक सकेगा? और ऐसा करने से छात्रों पर नकारात्मक भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था विकसित की जाए प्रभाव ही पड़ेगा 'Action speaks louder than यदि हम अपने अतीत की ओर मुड़कर देखें तो tongue.' यह बात निर्विवाद सत्य है। पायेंगे कि जिस भारतीय संस्कृति के गरिमामय रूप पर हम आज भी गौरवान्वित अनुभव करते हैं विद्यालय में तथा माता-पिता की ओर से वह क्या था? और आज इससे हटकर हिंसा, तोड़- 728 बालकों में नई शिक्षा नीति द्वारा दिये गये 'राष्ट्रीय फोड, आन्दोलन, घेराव, भ्रष्टाचार, स्वार्थपरता, पंचशील' के सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिया अनैतिकता, मल्यहीनता तथा दिशाहीनता की जाना अत्यधिक आवश्यक है। इन सिद्धान्तों से स्थिति में हम क्यों फँसे जा रहे हैं? प्राचीन भारसम्बन्धित मूल्य स्वच्छता, सत्यता, परिश्रम, समा- तीय संस्कृति सदैव धार्मिक-नैतिक चेतना से | नता और सहयोग है। अनुप्राणित रही है । मनुष्य में सात्त्विक वृत्तियों को 2 __ महाभारत में नैतिक शिक्षा के स्वरूप का संकेत परत जाग्रत करके रजस-प्रभुत्व द्वारा कामनाओं तथा ) स्पष्ट है-'महाजनो येन गतः स पन्था' । बालकों तृष्णाओं को नियन्त्रित कर तमस-अज्ञानांधकार को महापुरुषों के चारित्र्य का अनुसरण करना का उन्मूलन कर उसे ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ सिखाया जाए, न कि चरित्र का । आज तक शिक्षा बना बनाती थी, समन्वय की ओर अग्रसर करती थी, में विभिन्न पाठ्यक्रमों द्वारा मात्र चरित्र का ही विजातीय संस्कृतियों को आत्मसात करना सिखाती अनुसरण करने का मन्तव्य स्पष्ट होता है, जबकि महापुरुषों के जीवन से मरने तक का इतिहास इतना सैद्धान्तिक दृष्टि से अपनी महान् सांस्कृतिक महत्वपूर्ण नहीं है जितना उनके जीवन के प्रेरणास्पद, परम्पराओं को लेकर चलने पर भी हम संस्कृति से चरित्र-निर्माणकारी और लक्ष्यबोधक पावन प्रसंगों निरन्तर पिछड़ते गये और न तो सांस्कृतिक विराका समावेश । नैतिक शिक्षण में यदि यह कहा जाए सत का विकास ही कर पाए तथा न ही नवीन 'सत्य बोलो, मिलकर रहो' तो कभी भी सही प्रभाव जीवन मूल्य आयाम समाज को दे पाये। इसी ) नहीं दिखाई देगा अतः आवश्यक है। भी कारण जीवन में भटकाव, बिखराव, स्खलन ही कहा जाये साहित्यिक मन्तव्य “कान्तासम्मित उप- अधिक हुआ है। आज हम आदर्शप्रधान संस्कृति देश युजे" अवश्य हो किन्तु श्रोता अनुभव न कर को भूलकर अर्थप्रधान संस्कृति को अपना चुके हैं। चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 300 ucation Internation Cor Private & Personal Use Only www.janwaerary.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी कारण भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों, परम्पराओं पाठ्यक्रम, पाठ्य-चर्चा, पाठय-विषयों एवं पाठ्यका विघटन ही हुआ है। अनुकरण के नाम पर क्रमोत्तर क्रियाओं द्वारा विद्यालय के वातावरण को गुणों, आदर्शों, मूल्यों के नाम पर कुत्सित, अनैतिक सहज सौहार्दपूर्ण बनायें। मात्र परीक्षा उत्तीर्ण जैसी चीज को अपना रहे हैं / यही कारण है कि करना ही अपना उद्देश्य नहीं बनाएँ वरन् छात्रों मानवीय गुणों के विपरीत आज अपराधों में वृद्धि को मानव तथा निष्ठावान नागरिक बनाने में मदद हुई है / मूल्यों, व्यवहारों आदि को बदलते रहने करें। उन्हें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजके कारण व्यक्ति का 'स्तत्व' 'अपनापन' खो गया नैतिक व्यवस्था का व्यावहारिक ज्ञान देकर समाज है / वह तय नहीं कर पाता है कि पिता का सेल्स- के अनुरूप तैयार करें। टेक्स, इन्कम टेक्स बचाने वाला, मिलावट का धन विद्यालयों के अतिरिक्त समाज के अन्य अभिकमाने वाला रूप सही है या घर-समाज में ईमान __ करण, सभी वर्ग भी पूर्ण ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता दारी तथा कर्तव्यपरायणता की डुगडुगी पीटने का उदाहरण प्रस्तुत करें। समाज में अपनी-अपनी वाला रूप ? भूमिका सही रूप में निभाएं तभी समाज में नैतिक युवा-शक्ति एवं मूल्य संक्रमण की समस्या आज आध्यात्मिक एवं मानवीय गुणों की महक सुवासित हमारे समक्ष एक चुनौती बनकर खड़ी है / आव- होगी / ऐसा वातावरण निर्मित किए जाने पर बल दि श्यकता इस बात की है कि शिक्षक, शिक्षार्थी, दिया जाए जिससे मूल्यहीनता, दिशाहीनता, कूपअभिभावक, नेता, समाज-सुधारक, अधिकारी आदि मण्डूकता से बाहर निकला जा सके। नैतिक एवं सभी लोग अपने दायित्व को समझें, आदर्श प्रस्तुत सांस्कृतिक मूल्यों के विकास हेतु हर वर्ग यदि सहकरें, सुदृढ़ चरित्र रखें, ज्ञान कर्म तथा भावना से योग करेगा तभी आतंकित एवं त्रस्त मानवता को नैतिक आचरण करें। शिक्षा संस्थाएँ शिक्षा के मुक्ति मिल सकेगी। र पियंकरे पियवाई से सिक्खं लडु गरिहइ / -उत्तरा. 11/14 वही शिष्य अथवा शिक्षा प्राप्ति के लिए समुत्मक, उद्योगी अपनी अभीष्ट शिक्षा (विद्या अथवा कला) को सीख सकता है, जो प्रिय वचन बोलता है और अन्य लोगों (विशेष रूप से शिक्षक, सहपाठी, मित्र जन, माता-पिता, बन्धु बान्धवों) को प्रिय लगने वाले कार्य करता है। 342 चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6. 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