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धर्मायतन, आवास तथा कारोबार : एक सुख समृद्धि कारक तन्त्र
डॉ. सोहनलाल देवोत
संसार का प्रत्येक जड़ व चेतन प्राणी अपनी क्षमता व प्रकृति अनुसार चेतन व अचेतन पदार्थों का आकर्षण व विकर्षण करता है । इस तथ्यानुसार भारतीय ऋषि मुनियों ने मानव कल्याण हेतु शब्द को बहुत ही महत्व देते हुए इन्हें अजर-अमर बताया है । यह रहस्य प्रत्येक स्वर व्यंजन रूप वर्ण की संरचना, प्रकृति, गुण और प्रभाव का सूक्ष्म अध्ययन करने पर ज्ञात होता है । किसी वर्ण विशेष को किसी वर्ण विशेष के साथ जोड़ देने पर उसके उच्चारण व जप से अपेक्षित व्यक्ति व वस्तु में रसायनिक परिवर्तन एवं रूपान्तरण के जो गुण आते हैं, वह भी इसी विशद् अध्ययन से ज्ञात होता है । शब्दों के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों की दृष्टि अधिक सचेत व संवेदनशील रही है । प्रत्येक कार्यों और स्थितियों का पृथक-पृथक वर्गीकरण उनकी सूक्ष्म दृष्टि का द्योतक है । अर्थात् प्रत्येक अक्षर व वर्ण सार्थक ही नहीं अपितु लक्ष्य विशेष का सूचक व साधक भी है। हमारे द्वारा किसी विशिष्ट ध्वनि व वर्ण का जप करना प्रारम्भ किया जाता है तब वर्णों की ध्वनि हमारे सारे तन्त्र को एक विशेष व अपेक्षित दिशा और स्थिति की ओर प्रवृत कर अपेक्षित वस्तु व प्राणी का आकर्षण व विकर्षण करती है। कहने का आशय शब्द का जप हमारी शक्तियों को ही जागृत नहीं करता वरन वह इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त अन्य सम्बन्धित शक्तियों को भी जागृत करता है ।
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पूर्वाचार्यों द्वारा बीज मन्त्रों के रूप में जिन ध्वनियों तथा तन्त्रों' का निर्माण व वर्गीकरण
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किया गया है, वह लोक प्रकृति में प्रवेश करने की विधियां और राजमार्ग हैं । अर्थात् मैं जहां तक समझा हूं पूर्वाचार्यों ने मानव मन की प्रकृत इच्छाओं की पूर्ति को अष्ट विधाओं व अष्ट राजमार्गों के रूप में वर्गीकृत किया है। यहां समस्त-विधाओं के विवेचन पर न जाकर शान्तिक-पौष्टिक-उभय पक्षी विधा व अभिकर्म के अन्तर्गत अपेक्षित परिशोधित व परीक्षित “धर्मायतन, आवास तथा कारोबार : एक सुख समृद्धि कारक तन्त्र” को ही प्रस्तुत करना अधिक उपादेय होगा।
शान्तिक व पौष्टिक अभिकर्म जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण व अपेक्षित समय में अपेक्षित वस्तु व पदार्थ के अनुपातिक संयोजन के रसायनिक प्रक्रिया द्वारा रोग निवारण, भूत-प्रेत, ग्रह पीड़ा मानसिक तनाव से मुक्ति तथा धन-धान्य, सौभाग्य, यश-कीर्ति तथा सन्तान आदि की प्राप्ति हो उन ध्वनियों के सन्निवेश को तथा वस्तुओं के संयोजन के तन्त्रों को शान्तिक पौष्टिक मन्त्रयन्त्र-तन्त्र किंवा शान्तिक पौष्टिक अभिकर्म कहते हैं।
उपर्युक्त शान्तिक पौष्टिक अभिकर्म सम्बन्धी साहित्य जैन मन्त्र शास्त्रों में प्रचूर मात्रा में उपलब्ध होता है। उनमें से धर्मायतन, आवास व कारोबार अर्थात् मन्दिर, पाठशाला धर्मशाला, गुरूकुल, छात्रावास, ब्रह्मचर्याश्रम, वसतिका, गृहस्थ के रहने का मकान, दुकान, गोदाम तथा कारखाना आदि के निर्माण के प्रारम्भ व पूर्णता के अन्त में अथवा किसी भी प्रकार की अशान्ति का अनुभव होने पर एक पक्षीय करने योग्य क्रिया किंवा तन्त्र के सम्बन्ध में जो खण्ड रूप सामग्री यत्र-तत्र उपलब्ध होती है वह लाभ की अपेक्षा तथा तान्त्रिक दृष्टि से अपूर्ण ही कही जा सकती है । इस तन्त्र सम्बन्धी सामग्री को अलग-अलग हस्तलिखित पुस्तकों, गुटकों तथा पतड़ों से प्राप्त कर एक क्रम से एक स्थान पर इकट्ठी करने पर जिस इकाई का निर्माण होता है उस पर शोधकर्ता द्वारा विगत दो दशकों से भी अधिक समय से प्रायोगिक कार्य चलता रहा तथा उस मूल इकाई में
१. समय विशेष में विधिपूर्वक-वस्तु विशेष व पदार्थ विशेष का संग्रह किंवा मिश्रण के रसायनिक प्रक्रिया द्वारा अपेक्षित प्राणी व पदार्थ को प्रभावित किया जाता है उसे मन्त्र शास्त्र में तन्त्र के नाम से जाना जाता है। २. अष्टविधाएं- १. शान्ति २. पुष्टि ३. मोहन - आकर्षण ४. वशीकरण ५. स्तम्भन ६. विद्वेषण ७. उच्चाटन ८. निषेध अभिकर्म
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तान्त्रिक रूप से जिस वस्तु यन्त्र-मन्त्र व क्रिया की न्यूनता किंवा भण्डार रही है, उसे निरन्तर प्रयोगों एवं उसके परिणामों के आधार पर परिवर्तन/परिवर्धन कर एक पूर्ण इकाई तन्त्र बनाने का प्रयास किया गया है। यही नहीं इसके परिणाम पूर्व के प्रयोगों की अपेक्षा उत्तरोत्तर सन्तोषजनक रहे हैं।
मेरे मन्त्र शास्त्र के विद्या एवं दीक्षा गुरू सन्मार्ग दिवाकर निमित्त ज्ञान शिरोमणि १०८ आचार्य श्री विमलसागरजी की सन् १९९० के वर्ष हीरक जयन्ती की स्मृति को बनाये रखने अपने उन्हीं गुरू से प्राप्त विद्याओं एवं स्वशोधित व परीक्षित विद्याओं में से उन्हीं गुरूदेव के प्रति भक्ति सुमन के रूप में “धर्मायतन, आवास कारोबार : एक सुख समृद्धि कारक तन्त्र” जन सामान्य के उपयोगार्थ यह प्रयोगत : छोटा सा प्रयास प्रस्तुत कर रहा हूं । मेरी अल्पज्ञता से त्रुटि रह जाना संभव है अत: विज्ञ बन्धु उसे सुधार कर मुझे सूचित करने का कष्ट अवश्य करेंगे ऐसी विनम्र प्रार्थना है। इसी के साथ मेरे उन बन्धुओं से भी निवेदन है कि इस प्रयोग के सम्बन्ध में जिन्हें शंका समाधान की अपेक्षा है वे नि:संकोच पत्र-व्यवहार कर सकते हैं। __शान्ति व अशान्ति के शमन हेतु जिस स्थान पर इस प्रयोग को करना है । उसे निम्न प्रकार श्री सम्पन्न करना है
कुण्ड निर्माण :-जिस स्थान पर इस क्रिया को करना हो उस स्थान के मुख्य द्वार के दायीं ओर एक पक्का १ १/४'४१ १/४'x२' का कुण्ड तैयार करवाना होगा।
ढक्कन सहित ताम्र कलश क्रय :-किसी भी शुभ तान्त्रिक मुहूर्त में एक बडा ताम्बे का ढक्कन सहित कलश खरीद कर तैयार रखना है।।
धातुगत मन्त्रों एवं अन्य सामग्री का निर्माण :-किसी भी शुभ तान्त्रिक मुहूर्त में निम्न मन्त्र एवं सामग्री तैयार करवानी है :
१. चांदी का कूर्मचक २. ताम्बे का अनुस्वार युक्त विघ्न विनाशक मातृका यन्त्र ३. चांदी का स्वस्तिक बीसा यन्त्र ४. चांदी का नाग-नागिनी (धरणेन्द्र-पद्मावती) ५. ताम्बे का विघ्न विनाशक श्री पार्श्वनाथ यन्त्र (स्टेण्ड वाला) ६. चांदी की एक जोड़ चरण पादुका
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७. ताम्बे का एक त्रिशूल ८. ताम्बे के छेद युक्त ५ सिक्के ९. पंचरत्न क्रय करने हैं (पंचरत्न की अंगूठी)
पूजन सामग्री:अष्ट द्रव्य, दुर्वा, नागकेसर, मिढलफल, कुंकुम, सुगन्धित पुष्प, चावल २ किलो, बादाम २५ नग, पान १५ नग, नारियल ५ नग, लाल सिल्क कपड़ा सवा मीटर, कांच नग १, पकवान, पूजा की सुपारी नग ५, पूरी हल्दी की गांठे नग ७, आदि
प्रक्रिया:रवि- पुष्य के शुभ योग में किसी अच्छे जानकार विद्वान द्वारा प्रथम कुण्ड का भूमि पूजन, दशदिग्गपाल पूजन, नवग्रह पूजन, धरणेन्द्र पद्मावती पूजन, पार्श्वनाथ पूजन के अनन्तर कूर्मचक्र, विघ्न विनाशक मातृका यन्त्र, स्वस्तिक बीसा यन्त्र, नाग नागिन (धरणेन्द्र-पद्मावती), पार्श्वनाथ यन्त्र, पार्श्वनाथ चरण पादुका आदि की प्राण प्रतिष्ठा की क्रिया को करवाकर निम्न क्रम से कलश को तैयार करना है :
प्रथम स्वच्छ किये हुए ताम्र कलश में केशर से स्वस्तिक अंकित कर उस पर कूर्मचक्र की स्थापना कर तदोपरी विघ्न विनाशन मातृकाक्षर यन्त्र की स्थापना करनी है। उस पर स्वस्तिक बीसा यन्त्र की स्थापना कर उसके दायीं तरफ नाग (धरणेन्द्र) तथा बायीं तरफ नागिन (पद्मावती) स्थापना करनी है। नाग-नागिन के बीच स्टेण्ड वाला विघ्न विनाशक शान्तिदाता पार्श्वनाथ यन्त्र को खड़ा स्थापित करना है। तदनन्तर यन्त्र के सम्मुख पार्श्वनाथ चरण पादुका, त्रिशूल, ५ सुपारी, ७ हल्दी की गांठे, पंचरत्न, छेदवाले पांच सिक्के आदि रखकर २१ बार णमोकार मन्त्र बोल श्वास स्थिर कर कुएं के शुद्ध जल से कलश को भर देना है। भरे हुए कलश के ऊपर पान रख ढक्कन लगाकर उस पर नारियल रखकर, लाल सिल्क के कपड़े से कलश बांध देना है। कलश के गले में मिढल फल, नागकेसर कांच को बांधना है। कलश को सुगन्धित पुष्पों की माला पहनाकर एक पाट पर स्थापित कर पुन: प्रगटप्रभावी पार्श्वनाथ, धरणेन्द्र पद्मावती की विधिपूर्वक पूजन कर कुण्ड में एक किलो चावल का स्वस्तिक बनाकर २१ बार णमोकार मन्त्र के मनोयोग पूर्वक गिन श्वास स्थिर कर उस मन्त्रपूत कलश को कुण्ड में स्थापित कर देना है। कलश स्थापित हो जाने के पश्चात् कुण्ड के नाप की शिला से उसे ढक देना है। यह सुख समृद्धि कारक तन्त्र मन में
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________________ प्रसन्नता, खराब दृष्टि का नाश उपद्रव व भयों से रक्षा, कुटुम्ब का सुख व आरोग्य, सुखमय जीवन, भूत-प्रेत, शाकिनी, डाकिनी-व्यन्तर तथा इसी प्रकार के हल्के जाति के दूसरे देवों से रक्षा कर सुख समृद्धि कारक अवसरों में सहायक होता है। इस प्रकार प्रगतिगत नियमों पर आधारित इस गूढ़ विज्ञान को पूर्वाचार्यों ने जनसामान्य के कल्याणार्थ प्रस्तुत किया है। आज आवश्यकता इस बात की है कि उन लुप्त प्राय: विधि विधानों की खोज एवं परीक्षण किये जाय, जिससे स्वयं का ही नहीं वरन् मानव मात्र का कल्याण होगा। 206 श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ